सोमवार, अप्रैल 30, 2012

मैं हवा हूँ कहाँ वतन मेरा : हवा. मैं और सुरेश चोपड़ा

गर्मियों के ये दिन बड़े सुहाने चल रहे हैं। वैसे आप जरूर पूछेंगे ये तपती झुलसाती गर्मी मेरे लिए सुहानी कैसे हो गई?  आपका पूछना लाज़िमी है। दरअसल पिछले कुछ दिनों से जब जब हमारे शहर का तापमान बढ़ रहा है तब तब तेज़ ठंडी हवाएँ बारिश की फुहार के साथ तन और मन दोनों को शीतल किए दे रही हैं। बारिश से मेरा वैसा लगाव कभी नहीं रहा जैसा अमूमन हर कवि हृदय का होता है। पर जब भी बादलों की हलचल के साथ ठंडी हवा की मस्त बयार शरीर से टकराती है दिल हिलोरें लेने लगता है। ऐसे में मैं हमेशा छत की ओर दौड़ता हूँ इन हवाओं की प्रचंडता को और करीब से महसूस करने के लिए। पता नहीं हवा के इस सुखद स्पर्श में क्या शक्ति है कि मन चाहे कितना भी अवसादग्रस्त क्यूँ ना हो, ऐसी मुलाकातों के बाद तरोताज़ा हो जाया करता है। इन खुशनुमा लमहों में लता जी का गाया फिल्म शागिर्द का ये गीत होठों पर रहता है

उड़ के पवन के रंग चलूँगी
मैं भी तिहारे संग चलूँगी
बस मन को दिक्कत ये आती है कि आगे रुक जा ऐ हवा, थम जा ऐ बहार कहने का दिल नहीं करता..



बचपन की ये आदत कई दशकों के बाद आज भी छूटी नहीं है। वैसे इस आदत के पड़ने का कुछ जिम्मा हमारे देश की विद्युत आपूर्ति करने वाली संस्थाओं को भी जाना चाहिए। जैसा कि भारत में आम है कि जब भी आँधी आती है बिजली या तो चली जाती है या एहतियातन काट दी जाती है। फिर या तो छत या घर की बॉलकोनी, यही जगहें तो बचती है बच्चों को बोरियत से बचने के लिए। उम्र बढ़ती गई और उसकी इक दहलीज़ में आकर आँधी आते ही बिजली का जाना बड़ा भला लगने लगा।  हवा के पड़ते थपेड़ों से उड़ते बालों व धूल फाँकती मिचमिचाती आँखों  के बीच एकांत में घंटों बीत जाते और मुझे उसका पता भी ना चलता। बिजली आती तो बड़े अनमने मन से अपनी वास्तविक दुनिया में वापस लौटते।

पर तेज़ हवाओं से मेरा ये प्रेम अकेले का थोड़े ही है। आपमें से भी कई लोगों को बहती पवन वैसे ही आनंदित करती होगी जैसा मुझे। इस मनचली हवा के प्रेमियों की बात आती है तो मन लगभग दो दशक पूर्व की स्मृतियों में खो जाता है।  बात 1994 की है तब हमारे यहाँ दिल्ली से प्रकाशित टाइम्स आफ इंडिया आया करता था। उसके संपादकीय पृष्ठ पर लेख छपा था सुरेश चोपड़ा (Suresh Chopda) का। शीर्षक था  The Wind and I। उस लेख में लिखी चोपड़ा साहब की आरंभिक पंक्तियाँ मुझे इतनी प्यारी और दिल को छूती लगी थीं कि मैंने उसे अपनी डॉयरी के पन्नों में हू बहू उतार लिया था। चोपड़ा साहब ने लिखा था

"There is something so alive and moving in a strong wind, that one of my concept of perfect bliss is to find myself standing alone on a high cliff by the sea with a strong wind hurtling past me with full ferocity. Nothing depresses me more than a windless day, with everything still and the leaves of the trees hanging still and lifeless. Yes give me the wind any day the stronger, wilder and more ferocious the better."

पर जब आज आपसे जब सुरेश चोपड़ा के लेख का जिक्र किया है तो उसके साथ हवा से जुड़े उनके दो मज़ेदार संस्मरणों को भी बताता चलूँ जिन्हें मैं आज तक भुला नहीं पाया हूँ।

सुरेश चोपड़ा तब आकाशवाणी के संवाददाता थे। एक बार उन्हें पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश के मुख्यालय पेशावर में  काम के सिलसिले में कुछ महिनों के लिए भेजा गया। पेशावर के सदर इलाके में चोपड़ा साहब अपनी मारुति चला रहे थे कि उनकी नज़र सामने तांगे पर जाती एक युवती पर पड़ी। जैसा कि वहाँ का रिवाज़ है उस युवती ने अपनी आँखों को छोड़ अपना पूरा चेहरा काली मोटी चद्दर से ढका हुआ था। वो लगातार उनकी ओर अपलक देख रही थी। ये समझने का प्रयास करती हुई कि आख़िर पाकिस्तान के इस सुदूर इलाके में एक भारतीय कार् क्या कर रही है? चोपड़ा साहब मन ही मन सोच रहे थे कि काश मैं इस कन्या का चेहरा देख पाता कि इतने में पवन का एक तेज़ झोंका आया। झोंके की तीव्रता इतनी थी कि युवती के चेहरे से चादर अचानक ही हट गई। उसने तुरंत चादर वापस अपनी जगह पर कर ली पर हवा की दया से चोपड़ा साहब के मन की तमन्ना पूरी हो गई और उस चेहरे को वो कभी भूल नहीं पाए।

हवा से जुड़ा एक और दिलचस्प वाक्या सत्तर के दशक में हुआ जब चोपड़ा साहब को भारत चीन सीमा पर स्थित नाथू ला पर भेजा गया। नाथू ला पर भारत और चीन की सेनाओं की टुकड़ी आमने सामने गश्त लगाती है। दोनों सीमाओं के बीच बीस गज का फ़ासला हुआ करता था जो कि No man's land कहलाता था। एक दिन वे फौज से उधार माँगे बाइनोक्यूलर से चीनी टुकड़ीकी गतिविधियों का जायज़ा ले रहे थे। तभी उनकी नज़र एक चीनी सैनिक पर पड़ी जो एक दीवार के सहारे खड़ा होकर हाथ में लिये काग़ज़ को पढ़ रहा था। अचानक ही वहाँ हल्की सी आँधी आ गयी। वो काग़ज़ चीनी सैनिक के हाथ से निकलकर हवा में उड़ने लगा। बहुत देर तक हवा के विपरीत बहाव के बीच काग़ज़ का वो टुकड़ा नो मैन्स लेंड के ऊपर मँडराता रहा। कुछ देर के बाद वो टुकड़ा अंतरराष्ट्रीय सीमा को पार करता हुआ भारतीय हिस्से में आकर गिर गया। वो बड़ा नाटकीय क्षण था। किसी भी हालत में उस पत्र को वापस लौटाया नहीं जा सकता था क्यूँकि जवानों के बीच बातचीत की उस वक़्त सख्त मनाही थी। सेना ने उस टुकड़े को ज़ब्त कर लिया और संदेश का अनुवाद करने के लिए उसे दिल्ली भेज दिया गया।

उस घटना के कई साल बाद  जब चोपड़ा जी को सेना क मुख्यालय में जाने का मौका मिला तो उन्हें उस कागज के टुकड़े की याद आई। उन्हें पता लगा कि वो कोई गुप्त संदेश ना होकर एक प्रेम पत्र था जिसका पता चलने के बाद औपचारिक क्षमा के साथ चीनी टुकड़ी को वापस लौटा दिया गया था।
अब हवा क्या जानें सरहद की दीवारों को। वो तो बेखौफ़ उस दिशा में चलती है जिधर उसकी मर्जी हो।चीन से जुड़ी इस घटना को याद करते हुए मुझे अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन की गाई वो ग़ज़ल याद आ रही है जिसमें वो फर्माते हैं

मैं हवा हूँ कहाँ वतन मेरा
दश्त मेरा ना ये चमन मेरा

आप भी सुनिए..


तो ये थे हवा के कुछ शरारती कारनामे। क्या आपकी ज़िंदगी में भी इस नटखट हवा से जुड़ी कुछ यादें हैं ..तो बताइए ना हम सुनने को तैयार बैठे हैं..

बुधवार, अप्रैल 18, 2012

पीली छतरी वाली लड़की : हिंदी, ब्राह्मणवाद और उदयप्रकाश ...

पीली छतरी वाली लड़की शीर्षक देखने से तो यही लगता है कि ये एक प्रेम कथा होगी। पर अगर मैं इस दृष्टि से इस लंबी कहानी (लेखक उदयप्रकाश इसे लघु उपन्यास के बजाए इसी नाम से पुकारे जाने के पक्षधर हैं।) का मूल्यांकन करूँ तो इस पुस्तक के नायक राहुल व नायिका अंजली जोशी के प्यार की दास्तां किसी कॉलेज की प्रेम कहानियों सरीखी लगेगी। मैं तो इसे पढ़ने के बाद पुस्तक को इस श्रेणी में डालना भी नहीं चाहता। इसे पढ़ने के बाद जो बातें मन पर गहरे असर करती हैं वो राहुल अंजली का प्रेम हरगिज़ नहीं है। दरअसल लेखक ने इस कहानी में प्रेम का ताना बाना इसीलिए बुना है कि इसके ज़रिए वो उन मुद्दों को उठा सकें जिन्होंने उनके अब तक के लेखकीय जीवन को अंदर तक झिंझोड़ा है। पुस्तक में नायक के माध्यम से कहे गए ये विचार, पीछे चलती प्रेम कथा से ज्यादा दिलचस्प और असरदार लगते हैं।


इससे पहले कि मैं लेखक उदयप्रकाश द्वारा उठाए गए इन विचारणीय मुद्दों की बात करूँ, कथा नायक व नायिका से आपका संक्षिप्त परिचय कराना आवश्यक है। मध्यमवर्गीय परिवार से अपने घर से दूर कॉलेज में आया राहुल एनथ्रोपोलॉजी  में एम ए के लिए दाखिला लेता है पर पीली छतरी वाली लड़की अंजली जोशी को देखकर इस तरह मुग्ध हो जाता है कि दोस्तों की सलाह ना मानते हुए  हिंदी विभाग में दाखिला ले लेता है। हलके के दबंग ब्राह्मण राजनीतिज्ञ की बेटी अंजली जोशी के किरदार से तो आप कई हिंदी फिल्मों में मिल चुके होंगे। यानि भ्रष्ट पिता व गुंडे मवाली भाइयों के घर में रहने वाली आम, सुसंस्कृत, सज्जन हृदय लिए एक अतिसुंदर कन्या।

ये बताना यहाँ जरूरी होगा कि कथा का ये प्रसंग लेखक के निजी जीवन से मेल खाता है। उदयप्रकाश जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि "सागर विश्वविद्यालय में मैं एनथ्रापोलाजी में जाना चाहता था। 'पीली छतरी वाली लड़की' में मैंने हल्का सा संकेत किया है कि वहाँ कुछ ऐसी स्थितियाँ बनीं और ऐसे मित्र बने कि मैं हिन्दी में आ गया और हिन्दी में भी मैंने टॉप किया।"

उदयप्रकाश जी ने अपनी इस किताब में भाषायी शिक्षा से जुड़े कुछ बेहद महत्त्वपूर्ण मसले उठाए है। किस तरह के छात्र इन विषयों में दाखिला लेते हैं? कैसे आध्यापकों से इनका पाला पड़ता है? अपनी पुस्तक में लेखक इस बारे में टिप्पणी करते हुए कहते हैं...
हिंदी, उर्दू और संस्कृत ये तीन विभाग विश्वविद्यालय में ऐसे थे, जिनके होने के कारणों के बारे में किसी को ठीक ठीक पता नहीं था। यहाँ पढ़ने वाले छात्र.......उज्जड़, पिछड़े, मिसफिट, समय की सूचनाओं से कटे, दयनीय लड़के थे और वैसे ही कैरिकेचर लगते उनके आध्यापक। कोई पान खाता हुआ लगातार थूकता रहता, कोई बेशर्मी से अपनी जांघ के जोड़े खुजलाता हुआ, कोई चुटिया धारी धोती छाप रघुपतिया किसी लड़की को चिंपैजी की तरह घूरता। कैंपस के लड़के मजाक में उस विभाग को कटपीस सेंटर कहते थे।

कहने का अर्थ ये कि जिनका कहीं एडमिशन नहीं होता वे ऐसे विभागों की शोभा बढ़ाते थे। अगर अंजली जोशी अंग्रेजी में स्नातक करते समय बीमार ना पड़ी होती तो ये कहानी अस्तित्व में ही ना आई होती।

मैंने उदयप्रकाश जी को पहले ज्यादा पढ़ा नहीं। पर इस पुस्तक को पढ़कर ये जरूर लगा कि हिंदी साहित्य की राजनीति में ब्राह्मणों के वर्चस्व से वे आहत रहे हैं। लेखक हिंदी विभागों में बहुतायत में पाए जाने वाले ब्राह्मण अध्यापक और विभागाअध्यक्षों को इसी जातिवादी भाई भतीजावाद की उपज मानते हैं। उनकी इस पुस्तक में नायक एक किताब का हवाला देते हुए (जो संभवतः वरिष्ठ पत्रकार व लेखक प्रभाष जोशी का वक़्तव्य है) कहता है .

इस देश के इतिहास में कोई भी जाति कभी स्थिर नहीं रही है ... लेकिन एक जाति ऐसी है, जिसने अपनी जगह स्टेटिक बनाये रखी है। विल्कुल स्थिर, सबसे ऊपर .हजारों सालों से। वह जाति है ब्राह्मण . शारीरिक श्रम से मुक्त, दूसरों के परिश्रम, बलिदान, और संघर्ष को भोगने वाली संस्कृति के दुर्लभ प्रतिनिधि। इस जाति ने अपने लिए श्रम से अवकाश का एक ऐसा स्वर्गलोक बनाया, जिसमे शताब्दियों से रहते हुए इसने भाषा, अंधविश्वासों, षड्यंत्रों, संहिताओं और मिथ्या चेतना के ऐसे मायालोक को जन्म दिया, जिसके जरिये वह अन्य जातियों की चेतना,उनके जीवन और इस तरह समूचे समाज पर शासन कर सके।...एक निकम्मे , अकर्मण्य धड़ पर रखा हुआ एक बेहद सक्रिय, शातिर, षड्यंत्रकारी दिमाग, एक ऐसी खोपडी, जिसमे तुम सीधी-सादी कील भी ठोंक दो तो वह स्क्रू या स्प्रिंग बन जायेगी ।

अपनी किताब के विभिन्न किरादारों की मदद से उन्होंने ये बात रखनी चाही है कि हिंदी शिक्षण व साहित्य में फैला ब्राह्मणवाद पूरी व्यवस्था को अंदर ही अंदर दीमक की तरह चाट रहा है। उदयप्रकाश जी ने हिंदीजगत में पाए जाने वाले स्वनामधन्य साहित्यकारों की भी अच्छी खिंचाई की है। लेखक  ऐसे ही एक विद्वान के बारे में लिखते हैं..

डा. राजेंद्र तिवारी ने अपने बहनोई के कांटैक्ट से, जो कि राज्यसभा के मेंबर थे, पद्मश्री का जुगाड़ कर लिया था। अलग अलग शहरों और कस्बों में अभिनंदन समारोह आयोजित कराने का उन्हें शौक था। उनके बारे में मशहूर था कि वो जहाँ भी जाते हैं अपने झोले में एक शाल, एक नारियल, पाँच सौ रुपये का एक लिफाफा और अपनी प्रशस्ति का एक मुद्रित फ्रेम किया प्रपत्र साथ ले कर चलते हैं। सुप्रसिद्ध हिंदी सेवी एवम् विद्वान डा. राजेंद्र तिवारी का नगर में अभिनंदन शीर्षक समाचार अखबारों में अक्सर छपता रहता था। हर महिने  पखवाड़े उन्हें कोई ना कोई सम्मान या पुरस्कार मिलता रहता था, जिसका प्रबंध वे स्वयम् करते थे।
सच तो ये है कि हिंदी से जुड़े हर क्षेत्र जिसमें अपना ये ब्लॉग जगत शामिल है इस प्रवृति ने अपनी जड़े जमाई हुई हैं।

पर लेखक सिर्फ ब्राह्मणवाद से ही दुखी हैं ऐसा नहीं है। वे देश में फैले नक्सलवाद और आतंकवाद से भी उतने ही चिंतित है। दरअसल आज की सामाजिक व्यवस्था ने जिन वर्गों को हाशिये पर ला खड़ा किया है उसके लिए उनकी लेखनी बड़ी गंभीरता से चली है। कश्मीर की तो इस देश में इतनी चर्चा होती है पर क्या हम मणिपुरियों के कष्ट को , उनके इस देश से बढ़ते अलगाव को , इरोम चानु शर्मिला के एक दशक से चल रही भूख हड़ताल पर उतनी संवेदनशीलता और कुछ करने की ललक दिखलाते हैं? देश से पनपती इस विरक्तता को लेखक मणिपुरी छात्र सापाम के रूप में पाठकों के सम्मुख लाते हैं।

मायांग (परदेसियों) ने हमें बोहोत लूटा। हमारी लड़की ले गए। हमें बेवकूफ बनाया। हमारा बाजार ट्रेड नौकरी सब पर मायांग का कब्जा है। कुछ बोलो तो सेसेनिस्ट कहता है। तुम आज उदर से आर्मी हटा लो. कल हम आजाद हो जाएगा। अंग्रेजों के टाइम पर हमने सुभाष चंद्र बोस को अपना ब्लड दिया था। बर्मा तक जाकर इंडिया की आजादी के लिए हम लोग लड़ा। अब हम अपनी आज़ादी के लिए लड़ेगा। लिख के ले लो , कश्मीर से पहले हम इंडिया से आज़ाद होगा।
उदयप्रकाश जी कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। देश की राजनीति में फैली दलाली संस्कृति और उससे पनपता भोगवाद उन्हें नागवार गुजरता है। इस लिए इस संस्कृति को को भी उन्होंने आड़े हाथों लिया है और ये इशारा किया है कि सरकारें चाहे किसी की भी हों असली सत्ता ये दलाल ही चला रहे हैं। हिंदी अंग्रेजी मिश्रित भाष्य में बिना किसी लाग लपेट के लिखे उनके कटाक्ष वस्तुस्थिति से ज्यादा दूर नहीं लगते । पुस्तक में ऐसे ही एक दलाल और देश के प्रधानमंत्री के बीच चलते वार्तालाप को वे कुछ यूँ पेश करते हैं...

ठीक से सहलाओ ! पकड़कर ! ओ. के. !’ उस आदमी ने मिस वर्ल्ड को प्यार से डाँटा फिर सेल फोन पर कहा ‘इत्ती देर क्यों कर दी....साईं ! जल्दी करो ! पॉवर, आई टी, फूड, हेल्थ एजुकेशन....सब ! सबको प्रायवेटाइज करो साईं !...ज़रा क्विक ! और पब्लिक सेक्टर का शेयर बेचो... डिसएन्वेस्ट करो...! हमको सब खरीदना है साईं...! ‘बस-बस !
ज़रा सा सब्र करें भाई...बंदा लगा है डयूटी पर, मेरा प्रॉबलम तो आपको पता है। खिचड़ी सरकार है सारी दालें एक साथ नहीं गलतीं निखलाणी जी। ’
रिच एंड फेमस तुंदियल ने विश्वसुन्दरी के सिर को सहलाया फिर ‘पुच्च...पुच्च की आवाज़ निकाली, ‘आयम, डिसअपांयंटेड पंडिज्जी ! पार्टी फंड में कितना पंप किया था मैंने, हवाला भी, डायरेक्ट भी...केंचुए की तरह चलते हो तुम लोग, एकॉनमी कैसे सुधरेगी ? अभी तक सब्सिडी भी खत्म नहीं की !’
‘हो जायेगी निखलाणी जी ! वो आयल इंपोर्ट करने वाला काम पहले कर दिया था, इसलिए सोयाबीन, सूरजमुखी और तिलहन की खेती करने वाले किसान पहले ही बरबाद थे. उनके फौरन बाद सब्सिडी भी हटा देते तो बवाल हो जाता...आपके हुकुम पर अमल हो रहा है भाई....सोच-समझ कर कदम उठा रहे हैं,’
‘जल्दी करो पंडित ! मेरे को बी. पी है. ज़्यादा एंक्ज़ायटी मेरे हेल्थ के लिए ठीक नहीं, मरने दो साले किसानों बैंचो....को...ओ...के...’

विकास के इस ढाँचे ने समाज में दो वर्ग पैदा कर दिए हैं। एक जिसके पास सब कुछ है और दूसरे जिस के पास कुछ भी नहीं। लेखक विकास के अंदरुनी खोखलेपन पर हम सब का ध्यान खींचते हुए कहते हैं

भारत की नयी पीढ़ी आख़िर कौन सी है, जो आने वाले दिनों को आकार देगी? क्या इंडिया का नया एक्स-वाइ जेनेरेशन वह है, जो टीवी में सिनेमा में फैशन परेडों और दिल्ली मुंबई कलकत्ता बंगलूर से निकलने वाले अंग्रेजी के रंगीन अखबारों में पेप्सी पीता, क्रिकेट खेलता, पॉप म्यूजिक एलबम में नंगी अधनंगी लड़कियों के साथ हिप्पियों जैसा नाचता व ज्यादा से ज्यादा दौलत कमाने के लिए एम. एन. सी. की नौकरियों के लिए माँ बाप को लतियाता और तमाम परंपराओं पर थूकता हुआ अमेरिका, कनाडा जर्मनी भाग रहा है? 
या नया जेनरेशन वह है जो असम, मिज़ोरम, मणिपुर, आंध्र, कश्मीर, बिहार, तमिलनाडु से लेकर तमाम नरक जैसे पिछड़े इलाकों में एके 47, बारूदी सुरंग, तोड़ फोड़ और हताश हिंसक वारदात में शामिल है? या फिर रोजी रोटी ना होने की निराशा में हर रोज़ आत्महत्याएँ कर रहा है? ..जिसके माँ बापों को पिछले पचास सालों में शासकों द्वारा लगातार ठगा गया है और जिसके हाथ में फिलहाल हथियार है और जिसे हर रोज मुठभेड़ों में मारा जा रहा है।
राहुल के दिमाग में लेखक द्वारा उठाए गए ये मुद्दे चलते रहते हैं। हिंदी विभाग का घोर ब्राह्नणवाद और एक ब्राह्मण कन्या से उसकी निकटता उसके मन को अजीब उधेड़बुन में डाल देती है। अंजली का निश्चल प्रेम उसे इस उहापोह से निकालकर आगे की दिशा तो दिखलाता है पर क्या राहुल उस मार्ग पर चलकर अपने भविष्य की सीढ़ियाँ तय कर पाता है? इस प्रश्न का जवाब तो आप पुस्तक पढ़ कर ही जान सकते हैं। वैसे उदयप्रकाश जी की कथा का समापन एक फिल्मी क्लाइमेक्स से कम नहीं है जिसमें दुखांत और सुखांत के दोनों सीन शूट किए गए हैं। उदयप्रकाश ने अंत में उनमें से एक को चुन भर लिया है। 

ये लंबी कहानी हिंदी साहित्यिक पत्रिका हंस में छपी थी । अब ये किताब जर्मन और उर्दू  और कई अन्य भारतीय भाषाओं में अनुदित हो चुकी है। पुस्तक में लेखक द्वारा व्यक्त विचारों और कहीं कहीं प्रयुक्त उनके स्वछंद भाष्य ने काफी विवाद पैदा किया। स्वर्गीय कमलेश्वर ने तो इसे ग़लाज़त (गंदगी) भरी कहानी करारा और हंस के संपादक राजेंद्र यादव को इसे छापने के लिए आड़े हाथों लिया। ख़ैर एक दूसरे पर निशाना साधने वाली हिंदी साहित्य जगत की इस प्रवृति पर हम जैसे आम पाठकों को क्या लेना देना। 2005, 2009 और फिर 2011 के संस्करणों से तो यही लगता है कि तमाम पाठकों ने इस पुस्तक को सहर्ष स्वीकारा। इस पुस्तक के बारे में अपना मत तो इस चर्चा के पहले अनुच्छेद में रख ही चुका हूँ। 

पुस्तक के बारे में अन्य जानकारी ये रही :

गुरुवार, अप्रैल 12, 2012

जब भी ये दिल उदास होता है : जब गीत का मुखड़ा बना एक ग़ज़ल का मतला !

कुछ गीतों का कैनवास फिल्मों की परिधियों से कहीं दूर फैला होता है। वे कहीं भी सुने जाएँ, कभी भी गुने जाएँ वे अपने इर्द गिर्द ख़ुद वही माहौल बना देते हैं। इसीलिए परिस्थितिजन्य गीतों की तुलना में ये गीत कभी बूढ़े नहीं होते। गुलज़ार का फिल्म सीमा के लिए लिखा ये नग्मा एक ऐसा ही गीत है। ना जाने कितने करोड़ एकाकी हृदयों को इस गीत की भावनाएँ उन उदास लमहों में सुकून पहुँचा चुकी होंगी। कम से कम अगर अपनी बात करूँ तो सिर्फ और सिर्फ इस गीत का मुखड़ा लगातार गुनगुनाते हुए कितने दिन कितनी शामें यूँ ही बीती हैं उसका हिसाब नहीं।

कहते हैं प्रेम के रासायन को पूरी तरह शब्दों में बाँध पाना असंभव है। पर शब्दों के जादूगर गुलज़ार गीत के पहले अंतरे में लगभग यही करते दिखते हैं। होठ का चुपचाप बोलना, आँखों की आवाज़ और दिल से निकलती आहों में साँसों की तपन को महसूस करते हुए भी शायद हम कभी उन्हें शब्दों का जामा पहनाने की सोच भी नहीं पाते, अगर गुलज़ार ने इसे ना लिखा होता।

गुलज़ार के लिखे गीतों में से बहुत कम को मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ मिली है।  पर मौसम, स्वयंवर, बीवी और मकान, देवता , कशिश और कोशिश जैसी फिल्मों में गुलज़ार के लिखे गिने चुने जो गीत रफ़ी साहब को गाने को मिले उन सारे गीतों पर अकेला ये गीत भारी पड़ता है। सीमा 1971  में प्रदर्शित हुई पर कुछ खास चली नहीं पर ये गीत खूब चला। मुझे हमेशा ये लगता रहा है कि रफ़ी की आवाज़ और गुलज़ार के लाजवाब बोलों की तुलना में शंकर जयकिशन का संगीत फीका रहा। संगीतकार शंकर की बदौलत गायिका शारदा भी इस गीत का हिस्सा बन सकीं। आप अंतरों के बीच उनके आलाप और कहीं कहीं मुखड़े में उनकी आवाज़ सुन सकते हैं।


जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है


होठ चुपचाप बोलते हों जब
साँस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आँखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में साँस जलती हो, 

ठंडी आहों में साँस जलती हो
जब भी ये दिल ...

आँख में तैरती हैं तसवीरें
तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए
आईना देखता है जब मुझको
एक मासूम सा सवाल लिए

एक मासूम सा सवाल लिए
जब भी ये दिल ...

कोई वादा नहीं किया लेकिन
क्यों तेरा इंतजार रहता है
बेवजह जब क़रार मिल जाए
दिल बड़ा बेकरार रहता है
दिल बड़ा बेकरार रहता है
जब भी ये दिल ...

इस गीत को फिल्माया गया था कबीर बेदी और सिमी ग्रेवाल की जोड़ी पर। देखिए तो कितने बदले बदले से लग रहे हैं इस गीत में ये कलाकार।


पर अगर आप ये सोच रहे हों कि मुझे गुलज़ार के इस गीत की अचानक क्यूँ याद आ गई तो आपका प्रश्न ज़ायज है। वैसे तो किसी गीत के ज़हन में अनायास उभरने का कई बार कोई कारण नहीं होता। पर कल जब मैं गुलजार की एक किताब के पन्ने उलट रहा था तो उनकी एक ग़ज़ल पर नज़रे अटक गयीं। ग़ज़ल का मतला वही था जो इस गीत का मुखड़ा है.। तो आप समझ सकते हैं ना कि जितना प्यार हम सबको इस मुखड़े से है उतना ही दिलअज़ीज ये गुलज़ार साहब को भी है तभी तो उन्होंने इसी पर एक ग़ज़ल भी कह डाली।

जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है

गो बरसती नहीं सदा आँखें
अब्र तो बारह मास होता  है


छाल पेड़ों की सख़्त है लेकिन
नीचे नाख़ून के माँस होता है

जख्म कहते हैं दिल का गहना है
दर्द दिल का लिबास होता है

डस ही लेता है सब को इश्क़ कभी
साँप मौका-शनास होता है


सिर्फ उतना करम किया कीजै
आपको जितना रास होता है

जिन अशआरों को bold किया है वो दिल के ज्यादा करीब हैं। वैसे इश्क़ की तुलना सर्प दंश से करने के ख़याल के बारे में आपका क्या ख़याल है ?

बुधवार, अप्रैल 04, 2012

मेहदी हसन के दो नायाब फिल्मी गीत : मुझे तुम नज़र से.. और इक सितम और मेरी जाँ ..

बतौर ग़ज़ल गायक तो मेहदी हसन की गायिकी से शायद ही कोई संगीत प्रेमी परिचित ना होगा। पर ये बात भारत में कम ही लोगों को पता है कि ग़ज़ल गायिकी के इस बादशाह ने 1960-80 के दशक में साठ से ज्यादा पाकिस्तानी फिल्मों में पार्श्वगायक की भूमिका अदा की। आज भी पाकिस्तान में उनके गाए पुराने नग्मे चाव से सुने जाते हैं। तो आज आपसे बातें होगी ऐसे ही दो गीतों के बारे में जिनमें एक तो भारत में भी बेहद मशहूर है। 


इन दोनों गीतों के बारे में एक और साम्यता ये है कि इन्हें लिखनेवाले थे मसरूर अनवर जिन्हें पाकिस्तानी फिल्म उद्योग के लोकप्रिय गीतकार का दर्जा प्राप्त था। मसरूर के लिखे हिट गीतों की फेरहिस्त का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वो दस से ज्यादा बार निगार अवार्ड से सम्मानित हुए जो कि पाकिस्तान में हमारे फिल्मफेयर एवार्ड के बराबर की हैसियत रखता है।

1967 में परवेज़ मलिक ने एक फिल्म बनाई थी दो राहा। इस फिल्म का सिर्फ एक गीत मेहदी हसन साहब ने गाया था। फिल्म के संगीतकार थे सुहैल राना। गीत में तीन बातें गौर करने की है। एक तो ग़ज़ल सम्राट की आवाज़ जिसका पैनापन उस समय चरम पर था। दूसरी संगीतकार सुहैल राना द्वारा गीत के मुखड़े और इंटरल्यूड्स में रची हुई पियानो की धुन। तीसरे इस गीत को सुनने के बाद कोई भी संगीतप्रेमी इसे गुनगुनाए बिना नहीं रह सकता। इतनी आसानी से ये गीत होठों पर उतर आता है कि क्या कहें!

मेहदी साहब ने बाद अपने लाइव कन्सर्ट में इस गीत ग़ज़ल के अंदाज़ में  पेश करना शुरु कर दिया था।  पर मुझे आज भी ज्यादा आनंद इसके फिल्मी संस्करण को सुनने में ही आता है।


मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो
मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे
ना जाने मुझे क्यूँ यक़ीं हो चला है
मेरे प्यार को तुम मिटा ना सकोगे
मुझे तुम नज़र से....

मेरी याद होगी, जिधर जाओगे तुम,
कभी नग़मा बन के, कभी बन के आँसू
तड़पता मुझे हर तरफ़ पाओगे तुम
शमा जो जलायी मेरी वफ़ा ने
बुझाना भी चाहो, बुझा ना सकोगे
मुझे तुम नज़र से....

कभी नाम बातों में आया जो मेरा
तो बेचैन हो हो के दिल थाम लोगे
निगाहों पे छाएगा ग़म का अँधेरा
किसी ने जो पूछा, सबब आँसुओं का
बताना भी चाहो, बता ना सकोगे
मुझे तुम नज़र से....

1968 में आई फिल्म सैक़ा के लिए मसरूर अनवर ने एक बेहद संज़ीदा नज़्म लिखी। क्या कमाल का मुखड़ा था इक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है..। मेहदी साहब ने भी अपनी आवाज़ में गीत की भावनाओं को क्या खूब उतारा। आप खुद ही सुन लीजिए ना



इक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है
दिल में अबतक तेरी उल्फ़त का निशाँ बाक़ी है

जुर्म-ए-तौहीन-ए-मोहब्बत की सज़ा दे मुझको
कुछ तो महरूम-ए-उल्फ़त का सिला1 दे मुझको
जिस्म से रूह2 का रिश्ता नहीं टूटा है अभी
हाथ से सब्र का दामन नहीं छूटा है अभी
अभी जलते हुये इन ख़्वाबों का धुआँ बाक़ी है

अपनी नफ़रत से मेरे प्यार का दामन भर दे
दिल-ए-गुस्ताख़ को महरूम-ए-मोहब्बत कर दे
देख टूटा नहीं चाहत का हसीन ताजमहल
आ के बिखरे नहीं महकी हुई यादों के कँवल3
अभी तक़दीर के गुलशन में ख़िज़ा4 बाकी है
इक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है...

1. प्रेम से दूर रखने की सज़ा,  2. आत्मा बिना, 3. फूल   4. पतझड़.

मसरूर साहब सिर्फ गीत ही नहीं लिखते थे। कई फिल्मों की उन्होंने पटकथा भी लिखी। इसके आलावा वो कमाल के शायर भी थे। चलते चलते उनकी एक हल्की फुल्की ग़ज़ल भी पढ़वाना चाहूँगा जिसे गुलाम अली ने बड़ी मस्ती के साथ गाया है

हमको किसके ग़म ने मारा ये कहानी फिर सही
किसने तोड़ा दिल हमारा ये कहानी फिर सही

दिल के लुटने का सबब पूछो न सबके सामने
नाम आयेगा तुम्हारा ये कहानी फिर सही

नफ़रतों के तीर खा कर दोस्तों के शहर में
हमने किस किस को पुकारा ये कहानी फिर सही


क्या बताएँ प्यार की बाज़ी वफ़ा की राह में
कौन जीता कौन हारा ये कहानी फिर सही
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

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