शमशाद बेगम ये नाम आज का संगीत सुनने वालों के लिए अनजाना ही है। जाना हुआ हो भी तो कैसे ? आजकल पुराने गानों का मतलब साठ और सत्तर के दशक के गीतों से रह गया है। हद से हद पचास के दशक के गीत आप विविध भारती सरीखे सरकारी चैनलों पर सुन पाते हैं। पर जो गायिका चालिस और पचास के दशक में अपने कैरियर के सर्वोच्च शिखर पर हो उसके गीतों की झंकार आज कहाँ सुनाई देगी? अगर पिछले दशक में शमशाद बेगम का जिक़्र आया भी तो वो उनके गाए गीतों के रिमिक्स वर्जन की वज़ह से या फिर उनकी मौत की गलत अफ़वाह की वजह से। आज जब वो हमारे बीच नहीं है आइए एक नज़र डालें शमशाद आपा के सांगीतिक सफ़र पर उनके उन पाँच गीतों के साथ जिनको सुन सुन कर हम बड़े हुए और जिनकी तरावट हम आज भी गाहे बगाहे अपने होठों पर महसूस करते रहते हैं।
1919 में पश्चिमी पंजाब के लाहौर में जन्मी शमशाद बेगम लाहौर रेडियो पर भक्ति गीत गाया करती थीं। जब वो अठारह वर्ष की थीं तब उनकी आवाज़ से प्रभावित होकर सबसे पहले पंजाबी फिल्मों के निर्देशक गुलाम हैदर ने उन्हें मौका दिया। 1941 में आई फिल्म 'ख़जाना' बतौर गायिका उनकी पहली हिंदी फिल्म थी। चालिस के उत्तरार्ध में उन्होंने अपनी समकक्ष गायिकाओं ज़ोहराबाई व अमीरबाई को पीछे छोड़ दिया। हालात ये हो गए कि उन्हें तब एक गीत गाने के लिए हजार रुपये दिए जाने लगे। आज से साठ साल पहले हजार रुपये की कीमत क्या रही होगी इसका आप सहज अंदाज़ा लगा सकते हैं। शमशाद बेगम को लोकप्रियता की सीढ़ियाँ चढ़ाने में संगीतकार नौशाद साहब का काफी हाथ रहा।
नौशाद के लिए गाए उनके गीत चाँदनी आई बनके प्यार, बादल आया झूम के, धरती को आकाश पुकारे काफी लोकप्रिय हुए। पर 1950 में फिल्म 'बाबुल' के बाद नौशाद ने बतौर मुख्य गायिका शमशाद के ऊपर लता मंगेशकर को तरज़ीह देनी शुरु कर दी। शमशाद की आवाज़ में ना तो लता की मधुरता थी और ना ही उन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखा था। इन सीमाओं के बावज़ूद उनकी आवाज़ में खनक के साथ एक सादगी थी। यही सादगी उन्हें आम आदमी की आवाज़ बना देती थी।
पचास के दशक में नौशाद से साथ छूटा पर एस डी बर्मन, सी रामचन्द्र और ओ पी नैयर जैसे संगीतकारों से शमशाद को काम मिलता रहा। पचास के दशक के इन्हीं गीतों को सुनना और गुनगुनाना मुझे बेहद पसंद रहा है। तो आइए सुनिए मेरी पसंद का पहला नग्मा जिसके बोल लिखे थे राजेंद्र कृष्ण ने और धुन बनाई थी एस डी बर्मन साहब ने। 1951 में आई फिल्म 'बहार' के इस गीत की इन पंक्तियों को कौन भूल सकता है सैंया दिल में आना रे, आ के फिर ना जाना रे छम छमाछम छम..
1919 में पश्चिमी पंजाब के लाहौर में जन्मी शमशाद बेगम लाहौर रेडियो पर भक्ति गीत गाया करती थीं। जब वो अठारह वर्ष की थीं तब उनकी आवाज़ से प्रभावित होकर सबसे पहले पंजाबी फिल्मों के निर्देशक गुलाम हैदर ने उन्हें मौका दिया। 1941 में आई फिल्म 'ख़जाना' बतौर गायिका उनकी पहली हिंदी फिल्म थी। चालिस के उत्तरार्ध में उन्होंने अपनी समकक्ष गायिकाओं ज़ोहराबाई व अमीरबाई को पीछे छोड़ दिया। हालात ये हो गए कि उन्हें तब एक गीत गाने के लिए हजार रुपये दिए जाने लगे। आज से साठ साल पहले हजार रुपये की कीमत क्या रही होगी इसका आप सहज अंदाज़ा लगा सकते हैं। शमशाद बेगम को लोकप्रियता की सीढ़ियाँ चढ़ाने में संगीतकार नौशाद साहब का काफी हाथ रहा।
नौशाद के लिए गाए उनके गीत चाँदनी आई बनके प्यार, बादल आया झूम के, धरती को आकाश पुकारे काफी लोकप्रिय हुए। पर 1950 में फिल्म 'बाबुल' के बाद नौशाद ने बतौर मुख्य गायिका शमशाद के ऊपर लता मंगेशकर को तरज़ीह देनी शुरु कर दी। शमशाद की आवाज़ में ना तो लता की मधुरता थी और ना ही उन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखा था। इन सीमाओं के बावज़ूद उनकी आवाज़ में खनक के साथ एक सादगी थी। यही सादगी उन्हें आम आदमी की आवाज़ बना देती थी।
पचास के दशक में नौशाद से साथ छूटा पर एस डी बर्मन, सी रामचन्द्र और ओ पी नैयर जैसे संगीतकारों से शमशाद को काम मिलता रहा। पचास के दशक के इन्हीं गीतों को सुनना और गुनगुनाना मुझे बेहद पसंद रहा है। तो आइए सुनिए मेरी पसंद का पहला नग्मा जिसके बोल लिखे थे राजेंद्र कृष्ण ने और धुन बनाई थी एस डी बर्मन साहब ने। 1951 में आई फिल्म 'बहार' के इस गीत की इन पंक्तियों को कौन भूल सकता है सैंया दिल में आना रे, आ के फिर ना जाना रे छम छमाछम छम..
राजेंद्र कृष्ण का ही लिखा हुआ एक और मजेदार युगल गीत था फिल्म 'पतंगा' (1949) का। मेरी समझ से रंगून को बहादुरशाह जफ़र के बाद किसी गीत ने मशहूर बनाया था तो वो इसी गीत ने :)। मेरे पिया गए रंगून को संगीतबद्ध करने वाले थे सी रामचन्द्र। वही रामचन्द्र जिन्हें शमशाद बेगम से हिन्दी फिल्मों का पहला पश्चिमी शैली में संगीतबद्ध किया गीत आना मेरी जान संडे के संडे गवाने का श्रेय दिया जाता है।
ओ पी नैयर से लता की अनबन के बारे में तो सब जानते ही हैं। पचास के दशक में इसका फायदा शमशाद बेगम को मिला। ओ पी नैयर के लिए 1954 में आई फिल्म आर पार के लिया शमशाद जी का गीत कभी आर कभी पार लागा तीर ए नज़र........ और
1956 में CID के लिए गाया गीत कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना... खूब लोकप्रिय हुए। शमशाद बेगम की आवाज़ की शोखी इन गीतों में सिर चढ़कर बोली। पर पचास के दशक में जहाँ लता मदनमोहन, नौशाद व सी रामचन्द्र की आवाज़ बन बैठी थीं। वहीं ओ पी नैयर भी अपने गीतों के लिए आशा जी और गीता दत्त को प्रश्रय देने लगे थे।
इस दौरान नौशाद ने युगल गीतों में शमशाद बेगम को मौका जरूर दिया पर उन गीतों में लता ही मुख्य गायिका रहीं। मुगले आज़म की इस कव्वाली (तेरी महफिल में..) में मधुबाला वाला हिस्सा लता के हाथ आया और निगार सुल्ताना वाला शमशाद के। साठ के दशक में शमशाद बेगम ये समझ चुकी थीं कि लता की गायिकी के सामने उनकी आवाज़ को मौके देने वाले कम ही बचे हैं। 1968 में उनका आशा जी के साथ फिल्म 'किस्मत' के लिए गाया युगल गीत कज़रा मोहब्बत वाला ....उनका आखिरी लोकप्रिय गीत था।
शमशाद बेगम ने परिवार वालों की इच्छा के विरुद्ध पन्द्रह साल की उम्र में वकील गणपत लाल से शादी की थी। पिता ने इस शर्त पर उनका गाना गाना कुबूल किया कि वो कभी बेपर्दा हो कर नहीं रहेंगी। यही वजह कि शादी के बाद अपनी गायिकी के तीन दशकों के सफ़र में उन्होंने कभी फोटो नहीं खिंचवाई। पर इसमें कोई शक़ नहीं कि उनके गाए इन अमर गीतों की बदौलत उनकी आवाज़ का चित्र हमेशा हमारे हृदयपटल पर अंकित रहेगा ।
