सोमवार, दिसंबर 29, 2014

वार्षिक संगीतमाला 2014 का आगाज़ ग्यारह गीतों की दावत ए इश्क़ के साथ Varshik Sangeetmala 2014

एक शाम मेरे नाम पर साल के अंत के साथ वक़्त आ गया है वार्षिक संगीतमाला 2014 की शुरुआत का। अगर विकिपीडिया पर दी इस सूची पर गौर करें तो इस साल करीब 140 फिल्में रिलीज़ हुई। अगर हर फिल्म में औसत गीतों की संख्या को चार भी मानें तो समझिए साल में पाँच सौ से छः सौ के बीच नए गीत बने। वैसे अगर मैं आपसे ये पूछूँ कि इस साल प्रदर्शित फिल्मों के गीतों में अपनी पसंद बताइए तो शायद ही वो सूची बीस से ऊपर तक पहुँचे। 

दरअसल होता ये है कि अधिकतर फिल्म निर्माता प्रदर्शन के समय अपने एक या दो गानों को टीवी के माध्यम से खूब प्रचारित करते हैं। निर्माता भी अक़्सर वही गीत चुनता है जिसकी Visual appeal ज्यादा हो। सो सारे आइटम नंबरों की तो बारी आ जाती है पर फिल्मों के बहुत सारे गीत अनसुने रह जाते हैं। एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला में कोशिश यही रहती है कि साल के लोकप्रिय गीतों के साथ वैसे भी गीत बाहर निकाले जाएँ जो मधुर या अनूठे होते हुए भी श्रोताओं की नज़र से ओझल रह जाते हैं। 


पर सोचिए पाँच सौ से ऊपर गीतों में अपनी पसंद के पच्चीस गीतों को छाँटना कितना मुश्किल है। वैसे भी गीतों के मामले में हर व्यक्ति की पसंद का नज़रिया अलग होता है। मेरे लिए गीत की धुन और गायिकी के साथ साथ उसके बोल भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं और मैं इसी आधार पर अपना चुनाव करता हूँ।  पिछले महीने मैंने सारी फिल्मों के गीत सुनने शुरु किए और उनमें से लगभग पचास को अलग किया। मुझे अपने पसंदीदा दस गीतों को चुनने में कभी दिक्कत नहीं होती पर नीचे की पॉयदानों के गीतों में अंतर करना एक दुष्कर कार्य लगता है। 

वार्षिक संगीतमाला में शुरुआती पच्चीस गीतों की क्रमवार प्रस्तुति तो जनवरी से होगी। पर उसके पहले आपके साथ उन ग्यारह गीतों का जिक्र करना चाहूँगा जो भले ही अंतिम पच्चीस में जगह ना बना पाए हों पर ये थे उनके बेहद करीब। इन गीतों में एक समानता है और वो कि ये सभी रूमानियत के अहसासों से लबरेज़ हैं। इन सबकी धुनें भी बेहद कर्णप्रिय है और हल्के फुल्के मूड में इन्हें गुनगुनाना आपको जरूर भाएगा। तो आइए देखें कि एक शाम मेरे नाम की इस दावत ए इश्क़ में प्यार की फुलझड़ियाँ छोड़ते कौन कौन से नग्मे हैं?

36. मेहरबानी 

फिल्म शौकीन के इस गीत में संगीतकार और गीतकार अर्को मुखर्जी हैं और गाया है इसे जुबीन ने। अगर कोई मँजा हुआ गीतकार इस धुन पर काम करता तो अंतरे और बेहतर हो सकते थे। मुखड़ा तो ठीक ठाक ही बन पड़ा है इस गीत का। है साज तू, तेरा तर्ज मैं तू है दवा और मर्ज मैं दिलदार तू, खुदगर्ज मैं .. ।वैसे अगर किसी में इतनी ख़ामियाँ रहेगी तो उनकी नज़रें इनायत तो होने वाली नहीं इसीलिए अर्को इन्हें उनकी मेहरबानी मान रहे हैं। :)

  

35. साँसों को 
शरीब साबरी और तोशी साबरी कोआपने बतौर गायक रियालटी शो में देखा होगा। तोशी को मैंने सबसे पहले सा रे गा मा 2005 में गाते सुना था। संगीत से जुड़े राजस्थान के साबरी परिवार के इन चिरागों ने भले ही बतौर गायक पिछले एक दशक में कुछ खास ना कर दिखाया हो पर बतौर संगीतकार पिछले कुछ सालों से उनका किया काम प्रशंसनीय है। गीतकार शकील आज़मी के बोल भले औसत दर्जे के हैं पर ज़िद के दो गीतों साँसों को जीने का इशारा मिल गया और तू जरूरी सा है मुझको जिंदा रहने के लिए की धुन शानदार है। इस गीत को अावाज़ दी है अरिजित सिंह ने

  

34. जो तू मेरा हमदर्द है 
ये गीत है फिल्म एक विलेन का। संगीतकार मिथुन ने आजकल अपने गीतों के बोल भी ख़ुद लिखने शुरु कर दिए हैं। गीत के मुखड़े पर गौर फरमाएँ। पल दो पल की है क्यूँ ज़िदगी ...इस प्यार को है सदियाँ काफी नहीं... तो ख़ुदा से माँग लूँ मोहलत मैं इक नई... रहना है बस यहाँ..... अब दूर जाना नहीं .....जो तू मेरा हमदर्द है... सुहाना हर दर्द है... सही तो कह रहे हैं ना मिथुन। अगर प्यार की राहों में कोई दर्द बाँटने वाला मिल जाए तो फिर दर्द भी तो सगा लगने लगता है ना। मिथुन के सहज भावों को अरिजित सिंह ने अपनी आवाज़ में बखूबी उभारा है।

  

33. मनचला 
फिल्म हँसी तो फँसी इस साल के उन चुनिंदा एलबमों में से हें जिनके सारे गीत औसत से ऊपर वाली कोटि के हैं। संगीतकार विशाल शेखर ने एक बार फिर दिखाया है कि मेलोडी पर उनकी पकड़ कमज़ोर नहीं हुई। शफ़कत अमानत अली का हुनर तो जगजाहिर है। मुझे इस गीत की आरंभिक धुन और अमिताभ भट्टाचार्य के लिखे बोल दिल को छूते से लगते हैं जब वो लिखते हैं..कभी गर्दिशों का मारा.. कभी ख्वाहिशों से हारा.. रूठे चाँद का है चकोर.. ज़रा सी भी समझो कैसे.. यह परहेज़ रखता है क्यूँ.. माने न कभी कोई जोर.. दुनिया जहाँ की बंदिशों की यह कहाँ परवाह करे जब खींचे तेरी डोर ..खींचे तेरी डोर ..मनचला मन चला तेरी ओर

  

32. तू जरूरी 
ये साल सुनिधि चौहान के लिए गायिकी के लिहाज़ से फीका ही रहा है पर इस गीत की लोकप्रियता शायद उनके गिरते कैरियर ग्राफ को कुछ सहारा प्रदान करे। इस युगल गीत में उनका साथ दिया है शरीब साबरी ने। धुन तो ऐसी है जिसे आप बार बार गुनगुनाना चाहें.. 


31. इश्क़ बुलावा 
गायिकी के लिहाज़ से सनम पुरी का नाम इस साल की नई खोजों में लिया जा सकता है। हँसी तो फँसी में विशाल शेखर द्वारा दिए मौके को उन्होंने पूरे मन से निभाया है। जब वो इश्क़ बुलावा जाने कब आवे ...मैं ता कोल तेरे रहना ..तैनू तकदा रवाँ ..बातों पे तेरी हँसदा रवाँ ..तैनू तकदा रवाँ गाते हैं तो एक प्रेमी का मासूम चेहरा उभर कर सामने आ जाता है।

  

30. सावन आया है 
अभी तो ख़ैर ठंड आ गई है पर Creature 3 D का ये प्यारा सा नग्मा सावन में आग लगा चुका है। वैसे लगता है बॉलीवुड में भी पश्चिमी रॉक बैंड की तरह ख़ुद ही गीत लिखकर उसकी धुन बनाने का चलन जोर शोर से शुरु हो गया है। मिथुन और अर्को मुखर्जी के बाद टोनी कक्कड़ ने भी इस गीत और संगीत की कमान अपने पास रखी है। धुन तो कमाल की है जो सहज बोलों को चला ले जाती है। अरिजित सिंह ने इस गीत को गाया भी बड़े प्यार से है।


29 सज़दा 
कैसे कैसे नाम हो गए हैं फिल्मों के किल दिल और गीतकार के रूप में गुलज़ार हम्म थोड़ा अजीब सा लगता है ना। ये फिल्म उनके बोलों लायक नहीं थी बहरहाल सज़दा के माध्यम से पानी में आग तो गुलज़ार साहब भी लगा रहे हैं.. इक ख्वाब ने आँखें खोली हैं, क्या मोड़ आया है कहानी में वो भीग रही है बारिश में और आग लगी है पानी में..

  

28.दावत ए इश्क़ 
एक खानसामे के प्यार को गीतकार क़ौसर मुनीर और संगीतकार साजिद वाजिद ने बेहतरीन शब्द रचना और संगीत से बाँधा है इस गीत में। जावेद अली और सुनिधि चौहान की जोड़ी भी पूरे रंग में है। हम भी आपसे यही कहेंगे कि दिल ने दस्तरखान बिछाया, दावत ए इश्क़ है. 


27.हम तुम्हें कैसे बताएँ तुममें क्या क्या बात है
इस गीत को आपने पहले सुना हो इसमें मुझे संशय है। राम सम्पत की संगीतबद्ध और संदीप नाथ के लिखे इस गीत को आवाज़ दी है अमन तिरखा और तरन्नुम मलिक ने। एक सुकून है इस सहज से गीत में। फिल्म है इकतीस तोपों की सलामी..एक बार सुनिएगा जुरूर

  

26.Love is a waste of time 
और अगर आपको लगता है कि इन प्यार मोहब्बत की बाते कहने वाले गीतों को सुनवाकर मैंने आपका वक़्त ज़ाया किया है तो उसके लिए मैं कुछ नहीं कर सकता। आख़िर पीके अब दूसरे हफ्ते में चल रही है। अब तक तो
आपको तो पता होना चाहिए कि  Love is a waste of time :)


आशा है इन गीतों ने आपको प्रेम के रंग में रँग दिया होगा। वार्षिक संगीतमाला 2014 का सफ़र ज़ारी रहेगा अगले साल। मेरी तरफ़ से एक शाम मेरे नाम के पाठकों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!

वार्षिक संगीतमाला 2014

    शुक्रवार, दिसंबर 19, 2014

    पेशावर हमले पर प्रसून जोशी की कविता...समझो कुछ गलत है Samjho Kuch Ghalat Hai ...

    कभी कभी सोचता हूँ कि आख़िर भगवान के मन में ऐसा क्या आया होगा कि उसने मानव मात्र की रचना करने की सोची। क्या फर्क पड़ जाता अगर इस दुनिया में पेड़ पौधे, पर्वत, नदियाँ, सागर और सिर्फ जानवर होते? आख़िर जिस इंसान को प्रेम, करुणा, वातसल्य से परिपूर्ण एक सृजक के रूप में बाकी प्रजातियों से अलग किया जाता है उसी इंसान ने आदि काल से विध्वंसक के रूप में घृणा, द्वेष, क्रूरता और निर्ममता के अभूतपूर्व प्रतिमान रचे हैं और रचता जा रहा है।

    आख़िर इंसानों ने आपने आप को इस हद तक गिरने कैसे दिया है? मानवीय मूल्यों के इस नैतिक पतन की एक वज़ह ये भी है कि हमने अपने आप को परिवार, मज़हब, शहर, देश जैसे छोटे छोटे घेरों में बाँट लिया है। हम उसी घेरे के अंदर सत्य-असत्य, न्याय अन्याय की लड़ाई लड़ते रहते हैं और घेरे के बाहर ऐसा कुछ भी होता देख आँखें मूँद लेते हैं क्यूँकि उससे सीधा सीधा नुकसान हमें नहीं होता। यही वज़ह है कि समाज के अंदर जब जब हैवानियत सर उठाती है हम उसे रोकने में अक़्सर अपने को असहाय पाते हैं क्यूँकि हम अपने घेरे से बाहर निकलकर एकजुट होने की ताकत को भूल चुके हैं।

    पेशावर हमले में मारे गए मासूम

    पेशावर में जो कुछ भी हुआ वो इसी हैवानियत का दिल दहला देने वाला मंज़र था। पर ये मत समझिएगा कि ये मानवता का न्यूनतम स्तर है। हमारी मानव जाति में इससे भी ज्यादा नीचे गिरने की कूवत है। ये गिरावट तब तक ज़ारी रहेगी जब तक ये दुनिया है और जब तक इंसान अपने चारों ओर बनाई इन अदृश्य दीवारों को तोड़कर एकजुट होने की कोशिश नहीं करता।

    पेशावर से जुड़ी इस घटना पर प्रसून जोशी जी की दिल को छूती इस कविता को पढ़ा तो लगा कि मेरी भावनाओं को शब्द मिल गए। आज मन में उठती इन्हीं भावनाओं को अपनी आवाज़ के माध्यम से आप तक पहुंचाने की कोशिश की है..'

     

    जब बचपन तुम्हारी
    गोद में आने से कतराने लगे
    जब मां की कोख से झांकती जिंदगी
    बाहर आने से घबराने लगे
    समझो कुछ गलत है।

    जब तलवारें फूलों पर जोर आजमाने लगें
    जब मासूम आँखों में खौफ़ नजर आने लगे
    समझो कुछ गलत है।

    जब ओस की बूँदों को हथेलियों पर नहीं
    हथियारों की नोक पर तैरना हो
    जब नन्हे नन्हे तलवों को
    आग से गुजरना हो
    समझो कुछ गलत है...।

    जब किलकारियाँ सहम जाएँ
    जब तोतली बोलियाँ खामोश हो जाएँ
    समझो कुछ गलत है।

    कुछ नहीं बहुत कुछ गलत है
    क्योंकि जोर से बारिश होनी चाहिए थी
    पूरी दुनिया में

    हर जगह टपकने चाहिए थे आँसू
    रोना चाहिए था ऊपर वाले को
    आसमान से, फूटफूटकर।

    शर्म से झुकनी चाहिए थी
    इंसानी सभ्यता की गर्दनें
    शोक नहीं, सोच का वक्त है
    मातम नहीं, सवालों का वक्त है।

    अगर इसके बाद भी
    सर उठाकर खड़ा हो सकता है इंसान
    समझो कुछ गलत है।


    वे बच्चे तो इस दुनिया में नहीं है पर शायद उनकी असमय मौत हममें से कुछ को जरूर सोचने में मदद करे कि हम कहाँ गलत थे।

    रविवार, दिसंबर 07, 2014

    इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा..कैसे बना 21 रूपकों वाला ये गीत ? Ek ladki ko dekha...

    तकरीबन बीस साल हो गए इस बात को। इंजीनियरिंग कॉलेज से निकले हुए एक साल बीता था। नौकरी तो तुरंत लग गई थी अलबत्ता काम करने में मन नहीं लग रहा था। मार्च का महीना था। फरीदाबाद में उस वक़्त गर्मियाँ आई नहीं थी। कार्यालय की मगज़मारी के बाद रात को ही फुर्सत के कुछ पल नसीब होते थे। रात्रि भोज ढाबे में होता था और वहीं दोस्त यारों से बैठकी का अड्डा जमा करता था। कभी कोई नहीं मिला तो यूँ ही सेक्टर चौदह के छोटे से बाजार के चक्कर अकेले मार दिया करता था। ऐसी ही चहलकदमी में एक छोटी सी दुकान में बजता ये गीत पहली बार कानों में पड़ा था और मेरे कदम वहीं ठिठक गए थे।

    गीत को पहली बार सुनते ही फिल्म देखने का मन हो आया था। आख़िर क्या खास था इस गाने में? जावेद अख्तर के लिखे वो इक्कीस रूपक जो दिल में एक मखमली अहसास जगाते थे, या फिर कुमार शानू जिनकी आवाज़ का सिक्का आशिकी (पहली वाली) के लोकप्रिय नग्मों के बाद हर गली नुक्कड़ पर चल रहा था। पर सच कहूँ तो दूर से आती इस गीत की धुन ही थी जिसने मेरा इस गीत की ओर उस रात ध्यान खींचा था। तब तो मुझे भी ये भी नहीं पता था कि इस गीत के पीछे पंचम का संगीत है। ताल वाद्यों से अलग तरह की आवाज़ पैदा करने में पंचम को महारत हासिल थी। यहाँ भी ताल वाद्यों के साथ गिटार का कितनी खूबसूरती से उपयोग किया था गीत के आरंभ में पंचम ने। ये गीत वैसे गीतों में शुमार किया जाता है जिसमें मुखड़े और अंतरे को एक साथ ही पिरोया गया है। इंटरल्यूड्स पर आप ध्यान दें तो पाएँगे कि हर एक मुखड़े अंतरे के खत्म होते ही गूँजते ढोल को बाँसुरी का प्यारा साथ मिलता है।


    पर क्या आपको पता है कि फिल्म में ये गीत कैसे आया? जावेद अख़्तर साहब ने कुछ अर्से पहले इस गीत के बारे में चर्चा करते हुए बताया था कि पहले ये गीत फिल्म में ही नहीं था। स्क्रिप्ट सुनते वक़्त जावेद साहब ने सलाह दी थी कि यहाँ एक गाना होना चाहिए। पंचम और निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने तब जावेद साहब से कहा कि अगर आपको ऐसा लगता है तो गाना लिखिए। अगर हमें अच्छा लगा तो फिल्म में उसके लिए जगह बना लेंगे।

    अगली सिटिंग में जब जावेद जी को जाना था तब उन्हें ख्याल आया कि मैंने सलाह तो दे दी पर लिखा कुछ भी नहीं। रास्ते में वो गीत के बारे में सोचते रहे और एक युक्ति उनके मन में सूझी कि गीत की शुरुआत इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ...से की जाए और आगे रूपकों की मदद से इसे आगे बढ़ाया जाए.. जैसे ये जैसे वो। जावेद साहब सोच रहे थे कि ये विचार शायद ही सबको पसंद आएगा और बात टल जाएगी। पर जब उन्होंने पंचम को अपनी बात कही तो उन्होंने कहा कि तुरंत एक अंतरा लिख कर दो। जावेद साहब ने वहीं बैठ कर अंतरा लिखा और पंचम ने दो मिनट में अंतरे पर धुन तैयार कर दी। जावेद साहब बताते हैं कि पहला अंतरा जिसमें सात रूपक थे तो उन्होंने वहाँ जल्दी ही मुकम्मल कर लिया था पर बाकी हिस्सों में चौदह बचे रूपको को रचने में उन्हें  तीन चार दिन लग गए।

    बताइए तो जिन गीतों के बारे में हम इतनी लंबी बातें कर लेते हैं। जिनकी भावनाओं में हम बरसों डूबते उतराते हैं वो इन हुनरमंदों द्वारा चंद मिनटों में ही तैयार हो जाती हैं. ये होता है कलाकार। ख़ैर आपको ये गाना इसके बोलों के साथ एक बार फिर सुनवाए देते हैं।


    इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
    जैसे खिलता गुलाब
    जैसे शायर का ख्वाब
    जैसे उजली किरण
    जैसे वन में हिरण
    जैसे चाँदनी रात
    जैसे नरमी की बात
    जैसे मन्दिर में हो एक जलता दिया
    इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा!

    इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
    जैसे सुबह का रूप
    जैसे सरदी की धूप
    जैसे वीणा की तान
    जैसे रंगों की जान
    जैसे बल खाये बेल
    जैसे लहरों का खेल
    जैसे खुशबू लिये आये ठंडी हवा
    इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा!

    इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
    जैसे नाचता मोर
    जैसे रेशम की डोर
    जैसे परियों का राग
    जैसे सन्दल की आग
    जैसे सोलह श्रृंगार
    जैसे रस की फुहार
    जैसे आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता नशा
    इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा!


    फिल्म आई और इसके सारे गीत खूब बजे। मनीषा कोइराला फिल्म में गीत में बयाँ की गई लड़की सी प्यारी दिखीं। ये अलग बात है कि जावेद साहब ने ये गीत तब मनीषा को नहीं बल्कि माधुरी दीक्षित को ध्यान में रखकर लिखा था। यूँ तो मैं फिल्म दोबारा देखता नहीं पर इस फिल्म को तब मैंने एक बार अकेले और दूसरी बार दोस्तों के साथ देखा।

    पर फिल्म के संगीत निर्देशक पंचम स्वयम् इस गीत की लोकप्रियता को जीते जी नहीं देख सके। वैसे उन्हें इस फिल्म का संगीत रचते हुए ये यकीन हो चला था कि इस बार उनकी मेहनत रंग लाएगी। पंचम पर लिखी गई किताब R D Burman The Man The Music में इस गीत को याद करते हुए फिल्म के निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा बताते हैं कि
    31 दिसम्बर 1993 को फिल्म सिटी के टाउन स्कवायर में नए साल के उपलक्ष्य में इस एक पार्टी का आयोजन हुआ था। पार्टी में यूनिट के सभी सदस्यों और कामगारों ने हिस्सा लिया था। हमने साउंड सिस्टम पर इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...बजाया। मुभे याद है कि सारे लोगों को उत्साह बढ़ाते और तालियाँ बजाते देख पंचम समझ चुके थे कि उनका काम इस बार जरूर सराहा जाएगा।

    शायद पंचम के लिए वो आख़िरी मौका था कि वो अपने रचे संगीत को सबके साथ सुन रहे थे। उसके तीन दिन बाद ही हृदयाघात की वज़ह से उनका देहांत हो गया था।पंचम भले आज हमारे बीच नहीं हों पर ये गीत, इसकी धुन इसके रूपक को हम हर उस सलोने चेहरे के साथ जोड़ते रहेंगे जिसने हमारे दिल में डेरा जमा रखा होगा। क्यूँ है ना?

    बुधवार, नवंबर 26, 2014

    ये सराय है यहाँ किसका ठिकाना लोगों : इब्न ए इंशा एक उदास शायर या ज़िदादिल व्यंग्यकार ? Ye Sarai Hai by Ibn e Insha

    कुछ लोग इब्न ए इंशा को बतौर शायर जानते हैं तो कुछ उनके सफ़रनामों को याद करते हैं। फिर उनके व्यंग्य लेखन को कौन भूल सकता है? इन तीनों विधाओं में उन्होंने जो भी लिखा उसमें एक तरह की सादगी और साफगोई थी। पर गंगा जमुनी तहज़ीब से भिगोयी उनकी लेखनी में जब आप इंशा के भीतर का शख़्स टटोलने की कोशिश करते हैं तो  उनके बारे में कोई  राय बना पाना  बेहद मुश्किल होता है। उर्दू की आख़िरी किताब के हर पन्ने को पढ़ कर आप उनके मजाकिया व्यक्तित्व से निकलते हर तंज़ पर दाद देने को आतुर हो उठते हैं, वहीं चाँदनगर में उनकी शायरी को पढ़कर लगता है कि किसी टूटे उदास दिल की कसक रह रह कर निकल रही है। ये बच्चा किसका बच्चा है, बगदाद की इक रात, सब माया है जैसी कृतियाँ उनके वैश्विक, सामाजिक और आध्यात्मिक सरोकारों की ओर ध्यान खींचती हैं। जब जब लोगों ने उनसे इस सिलसिले में प्रश्न किये उन्होंने बात यूँ ही उड़ा दी या फिर साफ कह दिया कि मुझे उन बातों को सबसे बाँटने की कोई इच्छा नहीं। इंशा जी की ही पंक्तियों में अगर उनके मन की बात कहूँ तो...

    दिल पीत की आग में जलता है
    हाँ जलता रहे इसे जलने दो
    इस आग से लोगों दूर रहो
    ठंडी ना करो पंखा ना झलो

    कल इंटरनेट पर बरसों पहले किया हुआ उनका एक साक्षात्कार सुन रहा था। इंटरव्यू लेने वाले हज़रत उनकी तारीफ़ में एक से एक नायाब विशेषणों का इस्तेमाल कर रहे थे और इ्ंशा जी अपने उसी खुशनुमा अंदाज़ में श्रोताओं को उन तारीफ़ों के वज़न को कम करने की सलाह दे रहे थे। ये तो मैं आपको पहले भी बता चुका हूँ कि 1927 में जालंधर जिले में जन्मे इब्न ए इ्ंशा का वास्तविक नाम शेर मोहम्मद खाँ था। पर इंशा जी का इस नाम से सरोकार बहुत कम रहा। आपको जान कर ताज्जुब होगा कि जनाब ने छठी कक्षा से ही अदब की ख़िदमत करनी शुरु कर दी थी, पर शेर मुहम्मद खाँ के नाम से नहीं बल्कि इब्ने इंशा के नाम से।   हाई स्कूल के दिनों में रूमानियत दिल पर हावी थी। वैसे भी जब वो गाँव से पहली बार लुधियाना शहर आए तो अकेलापन और उदासी उनके ज़ेहम में समा सी गई। इसका असर ये हुआ कि उन्होंने अपना तखल्लुस यानि उपनाम बदल कर मायूस अदमाबादी रख दिया। बाद में किसी उस्ताद ने धर्म की दुहाई देकर उन्हें ये समझाया कि ऐसा नाम रखना गुनाह है तो उन्होंने अपना नाम क़ैसर सहराई कर लिया।

    क़ैसर का शाब्दिक अर्थ बादशाह होता है। पर इ्ंशा जी का जीवन इस बादशाहत से कोसों दूर था। अपनी किताब चाँदनगर की भूमिका में उन्होंने कविता के प्रति अपने झुकाव के बारे में लिखा है

    मैं स्वाभाव से रोमंटिक रहा हूँ पर मेरा जीवन किसी राजकुमार सा नहीं था। मेरी लंबी नज़्में ज़िदगी की कड़वी सच्चाईयों को रेखांकित करती हैं। मेरी कविताएँ मेरी रूमानियत और ज़माने के सख़्त हालातों के संघर्ष से उपजी है।

    पिछली दफ़े मैंने उर्दू की आख़िरी किताब का जिक्र करते है उनके बेहतरीन  sense of humor को उभारा था। आज उनकी जिस नज़्म को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ वो उसके उलट उनके व्यक्तित्व के दूसरे पहलू को सामने लाती है। ये सराय है... उन मुसाफ़िरों की दास्तान है जिन्हें हालात ने रिश्तों के धागे तोड़ते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ने को मज़बूर कर दिया।  शायद इंशा जी भी कभी इस मजबूरी का शिकार रहे होंगे..बहरहाल इस नज़्म और उसमें छुपे दर्द को आप तक अपनी आवाज़ में पहुँचाने की कोशिश की है। कुबूल फरमाइएगा..





    ये सराय है यहाँ किसका ठिकाना लोगों
    याँ तो आते हैं मुसाफ़िर, सो चले जाते हैं

    हाँ यही नाम था कुछ ऐसा ही चेहरा मोहरा
    याद पड़ता है कि आया था मुसाफ़िर कोई
    सूने आँगन में फिरा करता था तन्हा तन्हा
    कितनी गहरी थी निगाहों में उदासी उसकी
    लोग कहते थे कि होगा कोई आसेबज़दा
    हमने ऐसी भी कोई बात न उसमें देखी

    ये भी हिम्मत ना हुई पास बिठा के पूछें
    दिल ये कहता था कोई दर्द का मारा होगा
    लौट आया है जो आवाज़ न उसकी पाई
    जाने किस दर पे किसे जाके पुकारा होगा
    याँ तो हर रोज़ की बाते हैं ये जीती मातें
    ये भी चाहत के किसी खेल में हारा होगा

    एक तस्वीर थी कुछ आपसे मिलती जुलती
    एक तहरीर थी पर उसका तो किस्सा छोड़ो
    चंद ग़ज़लें थीं कि लिक्खीं कभी लिखकर काटीं
    शेर अच्छे थे जो सुन लो तो कलेजा थामो
    बस यही माल मुसाफ़िर का था हमने देखा
    जाने किस राह में किस शख़्स ने लूटा उसको


    गुज़रा करते हैं सुलगते हुए बाकी अय्याम
    लोग जब आग लगाते हैं बुझाते भी नहीं
    अजनबी पीत के मारों से किसी को क्या काम
    बस्तियाँवाले कभी नाज़ उठाते भी नहीं
    छीन लेते हैं किसी शख्स के जी का आराम
    फिर बुलाते भी नहीं , पास बिठाते भी नहीं
    एक दिन सुब्ह जो देखा तो सराय में न था
    जाने किस देस गया है वो दीवाना ढूँढो
    हमसे पूछो तो न आएगा वो जानेवाला
    तुम तो नाहक को भटकने का बहाना ढूँढो
    याँ तो आया जो मुसाफ़िर यूँ ही शब भर ठहरा
    ये सराय है यहाँ किस का ठिकाना ढूँढो ।


     आसेबज़दा : प्रेतों के वश में, अय्याम : दिन


    दरअसल हर इंसान का व्यक्तित्व इंशा जी की ही तरह अनेक परतों में विभाजित रहता है। कार्यालय. मोहल्ले, परिवार, मित्रों, माशूक और फिर अकेलेपन के लमहों में इस फर्क को आप स्वयम् महसूस करते होंगे। कम से कम अपने बारे में मैं तो ऐसा ही अनुभव करता हूँ। आप क्या सोचते हैं इस बारे में ?

    एक शाम मेरे नाम पर इब्ने इंशा

    बुधवार, नवंबर 19, 2014

    क्या वाकई प्रेम वक्त की बर्बादी है ? : Come waste your time with me !

    बड़ीं विडंबना है ना कि ज़िंदगी में जिस चीज़ की सबसे ज्यादा किल्लत हो उसे ही हम व्यर्थ गँवाने को तैयार हो जाएँ। पर इतना तो आपको भी मानना पड़ेगा कि सबकी नज़रों में फालतू गँवाए ये क्षण किन्हीं दो ज़िंदगियों के लिए एक अनमोल धरोहर बन जाते हैं हैं। ये पल उन दानों का काम करते हैं जिन्हें हमारा दिल रूपी पंक्षी जब चाहे चुग आता है और कुछ देर के लिए ही सही  तृप्ति के अहसास से सराबोर हो उठता है।

    आजकल टीवी के पर्दे पर आमिर खाँ और अनुष्का शर्मा भी हल्के फुल्के अंदाज़ में हम सबसे यही तो कह रहे हैं। पर मेरी ये पोस्ट पीके (PK) के इस चुलबुले गीत पर नहीं बल्कि इसी बात को बेहद खूबसूरती से व्यक्त करते उस गीत की है जो आज से अठारह साल पहले पहली बार अस्तित्व में आया था। इस गीत का जनक था अमेरिका का रॉक बैंड फिश (Phish)।

    पहली बार 1996 में हुए एक कान्सर्ट में इस गीत को बैंड ने जनता के सामने पेश किया। पर मेरी मुलाकात इस  से चंद महीने पहले हुई जब एक मित्र के ज़रिए ये गीत मेरे पास पहुँचा और सच पहली बार सुनकर ही इस गीत में निहित भावनाओं का मैं कायल हो गया। इस गीत की शुरुआत में बजती गिटार की मधुर धुन और मुलायम सी गायिकी के  पीछे कलाकार थे Trey Anastasio । गीत में उनका सहयोग दिया था समूह के अन्य सदस्य माइक गोर्डन (Mike Gordon), पेज मैकानल  और जोन फिशरमेन (Jon Fisherman) ने। तो पहले सुनें इस गीत को...


    और फिर देखें कि कि ऐसा क्या है इस गीत के शब्दों में..

    Don't want to be an actor pretending on the stage
    Don't want to be a writer with my thoughts out on the page
    Don't want to be a painter 'cause everyone comes to look
    Don't want to be anything where my life's an open book

    A dream it's true
    But I'd see it through
    If I could be
    Wasting my time with you

    Phish Rock Band group members
    Don't want to be a farmer working in the sun
    Don't want to be an outlaw always on the run
    Don't want to be a climber reaching for the top
    Don't want to be anything where I don't know when to stop

    A dream it's true
    But I'd see it through
    If I could be
    Wasting my time with you

    So if I'm inside your head
    Don't believe what you might have read
    You'll see what I might have said
    To hear it

    Come waste your time with me
    Come waste your time with me

    नहीं मैं नहीं चाहता कि मैं अभिनेता बनकर मंच पर अपनी भाव भंगिमा का प्रदर्शन करूँ। ना ही मैं ये चाहता हूँ कि एक ऐसा लेखक बनूँ जिसके विचार कागज़ के पन्नों पर बिखर कर सब तक पहुँचे। मैं तो वो चित्रकार भी नहीं बनना चाहता जिसकी कला को देखने के लिए सब लालायित हों। दुनिया में अपनी पहचान बनाने के लिए मैं अपने जीवन को खुली किताब बना दूँ ये भी मुझे गवारा नहीं है। मुझे नहीं बनना किसान या एक विद्रोही, नहीं चढ़नी सफलता की सीढ़ियाँ, नहीं करना ऐसा कोई भी काम जहाँ ये ही ना पता हो कि रूकना कहाँ है ? मैंने तो बस एक ही सपना देखा है। पर उस सपने को पूरा करने के लिए मुझे तुम्हारे साथ अपना समय निरुद्देश्य बिताना होगा।

    अरे तुमने तो वक़्त जाया करने वाली बात को सच ही मान लिया। अगर मैंने तुम्हारे दिलो दिमाग में अपना घर बना लिया है तो फिर वो सुनो जो तुम सुनना चाहती हो। हाँ मुझे तुम्हारे साथ समय नष्ट करना पसंद है क्यूँकि जिंदगी में किसी भी मुकाम तक पहुँचने के लिए तुम्हारा साथ मेरे लिए सबसे जरूरी है। ये संगत ही हमें उन सपनों तक भी पहुँचाएगी जो हमारे साझे होंगे।



    वैसे आपका क्या मत है क्या प्रेम वाकई में समय की बर्बादी है ? क्या प्यार हमें उस राह से भटका देता है जो हम अपने हुनर के बल पर ज़िदगी में प्राप्त करने योग्य थे? तो दूसरी ओर क्या ये सही नहीं कि सब कुछ पा लेने के बाद भी व्यक्ति के जीवन में मोहब्बत ना हो तो सारा प्राप्य खोखला लगने लगता है? आपको इन प्रश्नों में उलझा कर मैं तो आमिर का राग ही अलापना पसंद करूँगा

    फिर भी सोच लिया हूँ मन मा
    एक बार तो इस जीवन मा
    कर लें भेस्ट आफ टाइम
    करना है भेस्ट आफ टाइम
    I want to waste my time..I love this waste of time..

    मंगलवार, नवंबर 11, 2014

    सारा आकाश : राजेंद्र यादव Sara Aakash by Rajendra Yadav

    राजेंद्र यादव मेरे प्रिय लेखक कभी नहीं रहे। कॉलेज के दिनों में कई बार उनकी कहानियों से साबका पड़ा और वो मुझ पर कोई खास असर नहीं छोड़ पायीं। पिछली बार उन्हें मैंने तब पढ़ा, जब उन्होंने मन्नू भंडारी के साथ उपन्यास एक इंच मुस्कान संयुक्त रूप से लिखा था। उस उपन्यास को पढ़ते हुए भी मन्नू जे के हिस्से तो तेजी से निकल जाते थे पर राजेंद्र जी के अध्यायों पर पढ़ाई की गाड़ी किसी पैसैंजर ट्रेन की माफ़िक घिसटती चलती थी। पर इतना सब होते हुए भी मुझे उनकी लिखी मशहूर किताब सारा आकाश को पढ़ने की इच्छा थी़। हाल भी में अपने मित्रों की पसंदीदा सूची में इसका नाम देखकर ये इच्छा फिर जोर पकड़ने लगी। बाकी  काम आनलाइन बाजार ने कर दिया।



    राजेंद्र जी ने ये किताब 1952 में लिखी थी यानि आज से करीब साठ साल पहले। वैसे उसके करीब 8 साल पहले वे इसी पुस्तक को प्रेत बोलते हैं के नाम से लिख चुके थे। सारा आकाश में प्रेत बोलते हैं कि भूमिका और अंत दोनों को बदल दिया गया। राधाकृष्ण प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में पाठकों की जिज्ञासा को देखते हुए प्रेत बोलते हैं के वे अंश भी दिए गए हैं जिन्हें सारा आकाश में बदला गया। अगर दोनों अंतों की तुलना करूँ तो सारा आकाश का अंत मुझे ज्यादा बेहतर लगा। निम्नमध्यम वर्गीय समाज को जिसने करीब से देखा हो या उसके अंग रहे हो वे बड़ी सहजता से इस कथा से अपने को जोड़ पाएँगे।  

    बकौल राजेंद्र यादव सारा आकाश एक निम्नमध्यवर्गीय युवक के अस्तित्व के संघर्ष की, आशाओं, महत्त्वाकांक्षाओं और आर्थिक सामाजिक, सांस्कारिक सीमाओं के बीच चलते द्वन्द्व, हारने थकने और कोई रास्ता निकालने की बेचैनी की कहानी है। पुस्तक की भूमिका में लेखक बताते हैं कि किशोर मन में गूँजती रामधारी सिंह 'दिनकर' की ये पंक्तियाँ उपन्यास के नामाकरण का स्रोत बनीं

    सेनानी, करो प्रयाण अभय, भावी इतिहास तुम्हारा है
    ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है

    इन्हीं पंक्तियों के संदर्भ में ये उपन्यास अपनी सार्थकता खोजता है और इसलिए राजेंद्र जी कहते हैं कि इस कहानी के ब्याज, इन पंक्तियों को पुनः विद्रोही कवि को लौटा रहा हूँ कि आज हमें इनका अर्थ भी चाहिए। राष्ट्रकवि दिनकर ने राजेंद्र जी की इस बात का क्या जवाब दिया वो भी इस पुस्तक में है। सारा आकाश पर बाद में बासु चटर्जी द्वारा एक फिल्म भी बनाई गई जो आशा के विपरीत सफल रही। इस पुस्तक के भी कई संस्करण छपे। आठ लाख से ऊपर प्रतियाँ बिकीं।

    बहरहाल लौटते हैं इस उपन्यास पर। इंटर की परीक्षा के ठीक पहले कथा के नायक समर के अनिच्छा से किए गए विवाह से उपन्यास की शुरुआत होती है। परीक्षा के तनाव के बीच आई इस नई मुसीबत को मानसिक रूप से झेलने में समर अपने आप को असमर्थ पाता है। माता पिता द्वारा लादे गए इस निर्णय का विरोध वो अपनी पलायनवादी रणनीति से करता है। ना वो अपनी पत्नी से कोई संबंध रखता है ना घर के अंदर घट रहे मसलों से। ज़ाहिर है ये परिस्थिति घर में आई नई बहू के लिए बेहद कठिन होती है पर प्रभा ना अपना धैर्य खोती है ना आत्मसंयम। पति पत्नी में बोलचाल ना होने का ये सिलसिला एक दिन टूटता है। 

    दो सौ से ऊपर पृष्ठों की ये किताब पारिवारिक समस्याओं के चक्रव्यूह में उलझे समर और प्रभा की संघर्ष गाथा है। लेखक पुस्तक में संयुक्त परिवार की अवधारणा पर प्रश्न चिन्ह उठाते हैं। साथ ही शादी विवाह के आज के तौर तरीकों को पति पत्नी के बीच की मानसिक संवादहीनता का कारण मानते हैं।

    निम्न मध्यम वर्गीय परिवार का खाका खींचते वक़्त लेखक ने उपन्यास में पुरुष और स्त्री पात्रों की मनोवृतियों को जिस तरह उभारा है उसका आकलन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। आख़िर समर का प्रभा से साल भर ना बोलने का फैसला क्या इंगित करता है? समर जैसे पुरुष अपने दबंग पिता के सामने कितने निरीह क्यूँ ना हो पर स्त्री के सामने उनका अहंकार जागृत हो जाता है। ये घमंड उस परम्परागत  परिवेश से पनपता है जहाँ स्त्री को पुरुष से हमेशा नीचे समझा जाता है। इस निर्मूल अहंकार को स्त्रियों के खिलाफ़ हिंसा में तब्दील होने में देर नहीं लगती। पर ये प्रवृति पुरुषों तक सीमित है  ऐसा भी नहीं है। 

    सत्ता हाथ में आते ही स्त्रियाँ भी नृशंसता की हदें पार कर जाती हैं और वो भी तब जब उन्होंने ख़ुद इसका दंश झेला हो। समर की माँ इसी तरह के चरित्र का एक रूप हैं। बहुओं के उत्प्रीड़न, बच्चों पर अपनी इच्छा को जबरदस्ती थोपने की प्रवृति से आज भी हमारा समाज मुक्त नहीं हो पाया है। 

    आख़िर ऐसा क्यूँ है? पुराने ज़माने में लोग उतने पढ़े लिखे नहीं होते थे। पर शिक्षा का स्तर बढ़ने के बावज़ूद भी हमारी सोच का स्तर नहीं बढ़ा है। या यूँ कहें कि हम स्तर बढ़ाना नहीं चाहते। क्यूँकि वैसा करने से हमारी सहूलियत आड़े आती हैं। हमारी बरसों की जमाई पारिवारिक सत्ता छिन्न भिन्न होती नज़र आती है। सो हम रीति रिवाज़ो का सहारा लेने लगते हैं ताकि तार्किक प्रश्नों के जवाब में उनका आवरण ले सकें। 

    पर आज के इस युग में नई पीढ़ी के लोग इतना तो कर सकते हैं कि दुनिया, समाज व परिवार के विचारों को आँख मूँद कर अनुसरण करने के बजाए इंसानियत के जज़्बे को ध्यान में रखकर अपना आचार व्यवहार विकसित कर सकें। अगर ऐसा वे नहीं करेंगे तो समर और प्रभा जैसी परिणति के वे भी शिकार होंगे। 

    एक शाम मेरे नाम पर मेरी पढ़ी हुई पुस्तकों की सूची, मूल्यांकन और पुस्तक चर्चा सम्बंधित प्रविष्टियाँ आप यहाँ देख सकते हैं।

    रविवार, नवंबर 02, 2014

    गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले.. Gulon Mein Rang bhare...

    दीवाली की छुट्टियों के दौरान विशाल भारद्वाज की फिल्म हैदर देखी। फिल्म में विशाल ने फैज़ की लिखी सदाबहार ग़ज़ल गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले फिर से जुबाँ पर ला दी। फिल्मों में किसी ग़ज़ल को खूबसूरती से पेश किया जाए तो उसमें अन्तरनिहित भावनाएँ दिल में बहुत दिनों तक बनी रहती हैं। सोचा था वार्षिक संगीतमाला 2014 में  अरिजित सिंह की गाई इस ग़ज़ल को तो स्थान मिलेगा ही तब ही लिखूँगा इसके बारे में। पर एक बार कोई गीत ग़ज़ल दिमाग पर चढ़ जाए फिर मन कहाँ मानता है बिना उसके बारे में लिखे हुए। मुझे मालूम है कि हैदर देखते हुए बहुत से लोगों का पहली बार इस ग़ज़ल से साबका पड़ा होगा और उसकी भावनाओं की तह तक पहुँचने की राह में उर्दू व फ़ारसी के कठिन शब्दों ने रोड़े अटकाए होंगे। मैंने यही कोशिश की है कि जो भावनाएँ ये ग़ज़ल मेरे मन में जगाती है वो इस आलेख के माध्यम से आप तक पहुँचा सकूँ। ये इस ग़ज़ल का शाब्दिक अनुवाद नहीं पर ग़ज़ल को समझने की मेरी छोटी सी कोशिश है। ग़ज़ल का मतला है..

    गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
    चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

    काश ऐसा हो कि वसंत की ये हवा चले और इस बागीचे के सारे फूल अपने रंग बिरंगे वसनों को पहन कर खिल उठें। पर सच बताऊँ इस गुलशन की असली रंगत तो तब आएगी जब तुम इनके बीच रहो।

    कफ़स उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
    कहीं तो बह्र-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

    कभी तो सुब्ह तेरे कुन्ज-ए-लब से हो आगाज़
    कभी तो शब् सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले


    फ़ैज़ ने ये ग़ज़ल तब लिखी थी जब वो जेल की सलाखों के पीछे थे। उनके अशआरों में छुपी बेचैनी को इसी परिपेक्ष्य में महसूस करते हुए ऐसा लगता है मानो वे कह रहे हों इन सींखचों के पीछे मन में तैरती उदासी जाए तो जाए कैसे ? ऐ हौले हौले बहने वाली हवा भगवान के लिए तुम्हीं उनका कोई ज़िक्र छेड़ो ना। क्या पता उनकी यादों की खुशबू इस मायूस हृदय को सुकून पहुँचा सके। कभी तो ऐसा हो कि सुबह की शुरुआत तुम्हारे होठों के किनारों के छू जाने से होने वाली सिहरन की तरह हो। कभी तो रात का आँचल तुम्हारी घनी जुल्फो से आती खुशबू सा महके।

    जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब्-ए-हिजरां
    हमारे अश्क तेरे आक़बत सँवार चले

    जब हम प्रेम में होते हैं तो हमें अपने से ज्यादा अपने साथी की फिक्र होती है उसकी हर खुशी हमें अपने ग़म से बढ़कर प्रतीत होती हैं। फ़ैज अपने  शेर में इस भावना को कुछ यूँ बयाँ करते हैं.. मैं तो अपनी पीड़ा को किसी तरह सह लूँगा पर मेरे दोस्त मुझे इस बात का संतोष तो है कि विरह की उस रात में बहे मेरे आँसू बेकार नहीं गए। कम से कम आज तुम्हारारे भविष्य सही राहों पर तो है।

    हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
    गिरह मे लेके गरेबां का तार-तार चले

    आज उन्होंने बुलाया है मुझे, मेरे जुनूँ मेरी दीवानगी के सारे बही खातों पर गौर फ़रमाने के लिए और मैं हूँ कि अपने दिल रूपी गिरेबान कें अदर दर्द के इन टुकड़ो् की गाँठ बाँध कर निकल पड़ा हूँ।

    मक़ाम फैज़ कोई राह मे जँचा ही नही
    जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

    फ़ैज ने आपनी शायरी की शुरुआत तो रूमानियत से की पर माक्रसवादी विचारधारा के प्रभाव ने उन्हें एक क्रांतिकारी शायर बना दिया। अपनी ज़िदगी में उन्होंने कभी बीच की राह नहीं चुनी। मक़्ते में शायद इसीलिए वे कहते हैं इस दोराहे के बीच उन्हें कोई और रास्ता नहीं दिखा। प्रेमिका की गली से निकले तो फिर वो राह चुनी जो फाँसी के फंदे पर जाकर ही खत्म होती थी।

    वैसे तो इस ग़ज़ल को तमाम गायकों ने अपनी आवाज़ दी है पर पर जनाब मेहदी हसन की अदाएगी की बात कुछ और है तो लीजिए सुनिए उनकी आवाज़ में ये दिलकश ग़ज़ल


    वैसे अगर आप पूरी पोस्ट मेरी आवाज़ में सुनना चाहते हों तो इस पॉडकॉस्ट में सुन भी सकते हैं। बोलने में तीन चार जगह गलतियाँ हो गई हैं उसके लिए पहले से ही क्षमा प्रार्थी हूँ।

    मंगलवार, अक्तूबर 28, 2014

    हमसफ़र ग़म जो मोहब्बत में दिया है तुमने.. Humsafar gham jo mohabbat mein diya hai tumne.. Anup Jalota

    अनूप जलोटा का नाम सुनते ही उनके द्वारा गाए लोकप्रिय भजनों का ख्याल मन में आने लगता है। अस्सी के दशक में कोई भी पर्व त्योहार हो गली या नुक्कड़ के बजते लाउडस्पीकर से अनूप जी का गाया भजन ना सुनाई दे ऐसा हो नहीं सकता था। ऐसी लागी लगन, जग में सुंदर हैं दो नाम, प्रभु जी तुम चंदन मैं पानी, रंग दे चुनरिया, मैं नहीं माखन खायो और ना जाने कितने ऐसे ही भजन सुनते सुनते रट से गए थे।

    भजनों की गायिकी में अपना जौहर दिखलाने वाले अनूप जलोटा को ये क़ाबिलियत विरासत में मिली थी। पिता पुरुषोत्तम दास जलोटा एक भजन गायक थे और अनूप के गुरु भी। आपको जान कर अचरज होगा कि तीन दशकों के अपने सांगीतिक सफ़र में दो सौ से ज्यादा एलबम गाने वाले अनूप जलोटा ने अपनी गायिकी की शुरुआत आल इंडिया रेडियो के समूह गायक (Chorus Singer) से शुरु की थी।


    अनूप जलोटा ने उस समय भजन गाने शुरु किए जब बतौर भजन गायक आर्थिक रूप से स्वावलंबी होना बेहद कठिन था। कुछ साल पहले हैदराबाद दूरदर्शन को दिए अपने साक्षात्कार में इसके पीछे की रोचक दास्तान बाँटी थी। अनूप का कहना था उस समय भजन गायक बहुत ही कम थे, इसीसे जब भी किसी महोत्सव या मन्दिर निर्माण, आदि अवसरो के कार्यक्रम होते तो उन्हें आमंत्रित किया जाता था।

    अनूप के सामने दुविधा ये थी कि एक तो इन कार्यक्रमों में टिकट भी नहीं होता है सो कोई पारिश्रमिक भी नहीं मिलता था तो दूसरी ओर भजनों के कार्यक्रम के लिए आमन्त्रित किए जाने पर इन्कार भी नहीं किया जा सकता था। पर टिकट नहीं होने का नतीज़ा ये हुआ कि इन कार्यक्रमों में भीङ बढ़ने लगी और कार्यक्रम लोकप्रिय होने लगे, साथ ही भजनों के रिकार्ड भी इसी वज़ह से चल निकले।

    अनूप जलोटा भजन सम्राट तो कहलाए ही पर साथ ही उन्होंने ग़ज़लों का दामन भी नहीं छोड़ा। पंकज उधास, पीनाज़ मसानी, अनूप जलोटा जैसे गायक जगजीत सिंह के साथ अस्सी के दशक की शुरुआत में ग़ज़ल गायिकी के परिदृश्य में उभरे। पर जगजीत ने अपने ग़ज़लों के चुनाव और बेमिसाल गायिकी से बाकी गायकों को पीछे छोड़् दिया। उस दौर में भी अनूप जलोटा की कुछ ग़ज़लें हम गुनगुनाया करते थे। तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे की बात तो मैं यहां पहले कर ही चुका हूँ। आज उनकी गाई एक और ग़ज़ल जो उस वक़्त बेहद लोकप्रिय हुई थी, का जिक्र करना चाहूँगा। बिल्कुल सहज अंदाज़ और हल्के फुल्के शब्दों से सजी इस ग़ज़ल ने किशोरावस्था के उन दिनों में दिल पर जबरदस्त तासीर छोड़ी थी। जलोटा साहब की वो कैसट तो आज मेरे पास नहीं हैं पर जहाँ तक याद पड़ता है इस ग़ज़ल को शायद मुराद लखनवी ने लिखा था।

    अनूप अपनी गाई ग़ज़लों की शुरुआत हमेशा एक क़ता से करते आए हैं। अक्सर ये चार पंक्तियाँ ग़ज़ल के मूड को परवान चढ़ा देती थीं। देखिए तो इस क़ता में शायर ने क्या कहना चाहा है। शायर फरमाते हैं..

    मैं तुम्हारे सजल नेत्रों के आँसू बटोर सकता हूँ, तुम्हारी इन अस्त व्यस्त बिखरी जुल्फों को सहेज सकता हूँ। बस एक बार तुम मुझे अपना तो मानो फिर तो तुम्हारा हर ग़म मैं अपनाने को तैयार हूँ..

    चश्मे पुरनम खरीद सकता हूँ
    जुल्फें बरहम खरीद सकता हूँ
    तू अगर अपना बना ले मुझको
    तेरा हर ग़म खरीद सकता हूँ


    हम सफ़र ग़म जो मोहब्बत में दिया है तुमने
    ये भी मुझ पर बड़ा एहसान किया है तुमने

    एक मुद्दत से इसी दिन की थी हसरत दिल में
    आज मैं खुश हूँ कि दीवाना कहा है तुमने

    जब भी टकराई मेरे जिस्म से ये शोख़ हवा
    मुझको महसूस हुआ ये के, छुआ है तुमने

    क्या मेरे दिल के धड़कने की ही आवाज़ है ये
    या फिर कान में कुछ आ कर  कहा है तुमने

    हिचकियाँ भी कभी कमबख्त नहीं आती हैं
    जो यूँ सोचूँ कि याद किया है तुमने



    मोहब्बत एक ऐसा दिमागी फितूर है जिसमें ग़म का अक़्स ना हो तो उसका मजा ही क्या। इस प्यारी सी ग़ज़ल के चंद अशआरों में कहीं इश्क़ की खुमारी है तो कहीं विरह की विकलता। पर कुल मिलाकर इस ग़ज़ल को सुन या गुनगुना कर दर्द का मीठा अहसास ही जगता है मन में। क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?

    शुक्रवार, अक्तूबर 17, 2014

    रात खामोश है चाँद मदहोश है,थाम लेना मुझे जा रहा होश है.... (Raat Khamosh Hai..)

    मेरे शहर का मौसम बदल रहा है। कार्यालय से वापस आते शरीर से टकराती हवाएँ आने वाली ठंड की पहली दस्तक दे रही हैं। आफिस की आपाधापी में एक अदद शाम का नज़ारा देखना सप्ताहांत में ही नसीब हो पाता है। वैसे जब जब मन अनमना हो तो घर की बालकोनी या फिर छत पर अकेले बैठना व्यथित मन को हमेशा से सुकून देता आया है। इसी सुकून की तलाश कल मुझे ले गई रात्रि के आँचल में कुछ देर अपना सर छुपाने के लिए।

    छत पर गहरी निस्तब्धता थी। रात काली चादर ओढ़े  खामोश सी बैठी थी। गहरे सन्नाटे को दूर से आती रेल इंजन की सीटी कभी कभार तोड़ देती थी। आसमान की ओर यूँ ही टकटकी लगा कर देखता रहा। चाँद का दूर दूर तक कोई अता पता ना था। ना जाने कहाँ बेसुध पड़ा था। तारे तो हर तरफ थे  पर ज्यादातर में कोई रोशनी ना थी। बस उनमें से इक्का दुक्का रह रह कर चमक उठते थे। बहुत कुछ वैसे ही जैसे आस पास और आभासी दुनिया मैं फैले हजारों मित्रों में कुछ रह रह कर अपनी उपस्थिति से हमारी यादों को रौशन कर देते हैं।

    निशा की इस नीरवता को महसूस करते हुए अचानक ही जगजीत के उस गीत का मुखड़ा याद आ गया जो उन्होंने अपने एलबम मुन्तज़िर के लिए गाया था..  ऐसा लगा मानो चंद शब्द पूरे माहौल को अपनी अंजुलि में भर कर बैठे हों

    रात खामोश है चाँद मदहोश है,
    थाम लेना मुझे जा रहा होश है....

    वर्ष 2004 में मुन्तज़िर के बारे में लोगों को बताने आए Planet M में जगजीत

    आप तो जानते ही हैं कि जब अचानक कोई ग़ज़ल या  गीत बरबस ख्यालों के आँगन में आ जाता है तो उसे उसी वक़्त सुनने की तीव्र इच्छा मन में उठती है। फिर तो रात थी और साथ इस गीत की ख़ुमारी। दिल के अनमनेपन को नग्मे की रूमानियत ने धो सा दिया था। जगजीत जिस मुलायमियत से थाम लेना मुझे... जा .. रहा.. होश है गाते हैं कि इक मीठी टीस दिल के आर पार हो जाती है।

    हरि राम आचार्या के शब्द किस तरह मेरे मन में मस्ती घोल रहे थे ये आपको इस गीत के शब्दों को पढ़ कर पता चल जाएगा..

    मिलन की दास्ताँ धडकनों की जुबाँ,
    गा रही है ज़मीन सुन रहा आसमान,
    गुनगुनाती हवा दे रही है सदा,
    सर्द इस रात की गर्म आगोश है,

    महकती यह फिजा जैसे तेरी अदा,
    छा रहा रूह पर जाने कैसा नशा,
    झूमता है जहाँ अजब है यह समां,
    दिल के गुलज़ार मे इश्क पुरजोश है,

    रात खामोश है चाँद मदहोश है,
    थाम लेना मुझे जा रहा होश है



    एक दशक पहले आए इस एलबम का स्वरूप जगजीत के बाकी ग़ज़ल एलबमों से भिन्न था। नब्बे के दशक में जगजीत के एलबमों से सुधी श्रोताओं को एक शिकायत रही थी। वो थी ग़ज़लों में प्रयुक्त संगीत के दोहराव की। बात बहुत कुछ सही भी थी। शायद यही ख़्याल जगजीत के दिमाग में रहा हो जो उन्होंने इस एलबम में अपने आलावा पाँच अलग अलग संगीतकारों को मौका दिया था। इन संगीतकारों में विशाल शेखर और ललित सेन जैसे नाम भी थे जिन्होंने आगे चलकर फिल्म संगीत में बहुत नाम कमाया।

    मुन्तज़िर का शाब्दिक अर्थ होता है इंतज़ार में। जगजीत जी की गायिकी अगर आपको उस शख्स की याद दिला दे जिसका इंतज़ार आपको हमेशा रहा है तो समझिए इन शब्दों में समायी भावनाओं ने आपका भी दिल छू लिया है..

    शुक्रवार, अक्तूबर 10, 2014

    जगजीत सिंह : गली क़ासिम से चली एक ग़ज़ल की झनकार था वो..एक आवाज़ की बौछार था वो (Remembering Jagjit Singh)

    जगजीत सिंह को गुजरे यूँ तो तीन साल हो गए पर ऐसा कभी नहीं लगा कि उनकी आवाज़ हम से कभी बिछुड़ी हो।  कुछ ही दिन पहले की बात है दफ़्तर में एक क्विज का आयोजन हुआ और उसमें मैंने जगजीत चित्रा की मशहूर नज़्म वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी की आरंभिक धुन बजवाई और सही उत्तर बीस सेकेंड में आ गया। आज भी ज़िदगी के तमाम भागते दौड़ते लमहों के बीच उनकी गाई ग़ज़ल का कोई शेर गाहे बगाहे दिल के दरवाजे पर दस्तक दे ही देता है। 

    पर जगजीत जी का जो विश्वास था कि ग़ज़लों का पुराना दौर वापस आएगा वैसा निकट भविष्य में होता नहीं दिख रहा। ग़ज़ल गायिकी के पुराने चिराग ढलती उम्र के साथ ग़ज़ल का परचम फहरा तो रहे हैं पर नए कलाकार  ग़ज़ल गायिकी में अपना मुकाम तलाशते वापस फिल्म संगीत की ओर मुड़ते नज़र आ रहे हैं। वे करें भी तो क्या आज का बाजार शब्दों से नहीं बल्कि संगीत के सहारे दौड़ता है। वहीं ग़ज़लों की रुह अलफ़ाजों में समाती है।

    जगजीत जी की खूबी थी कि वो तमाम शायरों की उन ग़ज़लों को चुनते थे जो सहज होते हुए भावनाओं की तह तक पहुँचने में सक्षम होती थीं। उनकी आवाज़ का जादू कुछ ऐसा था कि मन करता था कि बिना किसी संगीत के उन को घंटों अविराम सुना जाए।  तो चलिए आज की इस पोस्ट में याद करते हैं ऐसे ही कुछ अशआरों को जिन्हें गा कर जगजीत ने उन्हें अमरत्व प्रदान कर दिया।  वैसे जगजीत के चाहने वाले इस बात से भली भांति वाकिफ़ हैं कि इस फेरहिस्त की कोई सीमा नहीं है।  पर जगजीत से जुड़ी यादों से ख़ुद को जोड़ने के लिए मैंने उन चंद ग़ज़लों और नज़्मों का सहारा लिया जिनके अशआर पिछले कुछ महीनों में मेरे आस पास मँडराते रहे हैं।

    तो शुरुआत क़तील शिफ़ाई से। क़तील को मोहब्बतों का शायर कहा जाता है। जगजीत ने यूँ तो क़तील साहब की कई ग़ज़लें गायीं पर उनमें सदमा तो है मुझे भी, परेशाँ रात सारी है मुझे बेहद प्रिय है। पर इस ग़ज़ल की तो बात ही क्या। इतनी बार सुना है कि इसका हर शेर दिल पे नक़्श हो गया है...

    अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ
    आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ
    कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर
    बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ

    बशीर बद्र, निदा फ़ाजली और सुदर्शन फ़ाकिर को जो मक़बूलियत बतौर शायर मिली उसमें एक बड़ा हाथ जगजीत जी की गायिकी का भी था। जगजीत की आवाज़ में  बशीर बद्र की ग़ज़ल कौन आया रास्ते आईनाख़ाने हो गए... रात रौशन हो गई सुन कर तन मन ही रौशन हो जाता है। पर बशीर बद्र से कहीं ज्यादा मुझे जगजीत, निदा फ़ाजली और सुदर्शन फ़ाकिर के साथ श्रवणीय लगते हैं। निदा फ़ाजली की बात करूँ तो मुँह की बात सुने हर कोई, चाँद से फूल से या मेरी जुबाँ से सुनिए, ये जिंदगी, दुनिया जिसे कहते हैं ..झट से याद पड़ती हैं वहीं फाक़िर की वो काग़ज़ की कश्ती, चराग ओ आफताब गुम, ये शीशे, ये सपने, ये रिश्ते ये धागे को भूलने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।

    जगजीत की ग़ज़लों और नज़मों की लोकप्रियता का ही ये असर था कि कुछ  शायर गुमनामी के अँधेरों से निकल सके। बताइए अगर सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता, बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी, बहुत दिनों की बात है जैसी लोकप्रिय ग़ज़लें और नज़्में जगजीत नहीं गाते तो अमीर मीनाई,कफ़ील आज़र और सलाम मछलीशहरी जैसे शायरों का हुनर हम तक कहाँ पहुँच पाता?

    नए पुराने शायरों के साथ भारत के नामाचीन शायरों फिराक़ गोरखपुरी, जिगर मुरादाबादी, मजाज़ लखनवी जैसे शायरों की ग़ज़लों और नज़्मों को बड़े करीने से जगजीत ने धारावाहिक कहकशाँ में अपनी आवाज़ से पिरोया। देखना जज़्बे मोहब्बत का असर आज की रात, तुझसे रुखसत की वो शाम ए..., अब मेरे पास आई हो तो क्या आई हो, अब अक्सर चुप चुप से रहे हैं, आवारा, रोशन जमाल ए यार से ...... इस धारावाहिक में जगजीत की गाई कुछ बेहद कमाल ग़ज़लों में से हैं।

    मिर्जा ग़ालिब से गुलजार और जगजीत की जुगलबंदी शुरु हुई। गुलज़ार के साथ जगजीत ने दो बेहतरीन एलबम किए । एक तो कोई बात चले और दूसरा मरासिम । मरासिम में जगजीत की गाई ग़ज़ल आँखों में जल रहा है क्यूँ बुझता नहीं धुआँ आज भी दिल को तार तार कर देती है वहीं कहीं बात चले की फूलों की तरह लब खोल कभी, खुशबू की जुबाँ में बोल कभी मन को एकदम से तरोताजा। आज भी जब किसी अपने की याद रह रह कर सताती है तो लीला की यही ग़ज़ल मन को सुकून पहुँचाती है।

    ख़ुमार-ए-गम है महकती फिज़ा में जीते हैं
    तेरे ख़याल की आबो हवा में जीते हैं
    ना बात पूरी हुई थी कि रात टूट गई
    अधूरे ख़्वाब की आधी सजा में जीते हैं

    गुलज़ार साहब ने जगजीत सिंह के गुजरने के बाद उन पर एक नज़्म कही थी। चलते चलते गुलज़ार के इन प्यारे शब्दों में एक बार ग़ज़ल सम्राट को याद कर लिया जाए


    एक बौछार था वो शख्स
    बिना बरसे
    किसी अब्र की सहमी सी नमी से
    जो भिगो देता था

    एक बौछार ही था वो
    जो कभी धूप की अफ़शां भर के दूर तक
    सुनते हुए चेहरों पे छिड़क देता था...
    नीम तारीक़ से हॉल में आँखें चमक उठती थीं

    सर हिलाता था कभी झूम के टहनी की तरह
    लगता था झोंका हवा का था
    कोई छेड़ गया है..


    गुनगुनाता था तो खुलते हुए बादल की तरह
    मुस्कुराहट में कई तरबों की झनकार छुपी थी

    गली क़ासिम से चली एक ग़ज़ल की झनकार था वो
    एक आवाज़ की बौछार था वो

    हम खुशकिस्मत रहे कि कई दशकों तक इस बौछार में भींगने का सुख पाते रहे। जगजीत की आवाज़ आज भी दूर बादलों के कोने से बहती हुई दिल के कोरों तक पहुँचती है उसे नम करती हुई। आशा है ये नमी सदियों बनी रहेगी हम सब के दिलों में।

    शुक्रवार, सितंबर 26, 2014

    तुम नाराज़ हो... मेरे कितने पास हो Tum Naraz Ho Sajjad Ali Coke Studio

    ज़िदगी में बनते बिगड़ते रिश्तों को तो आपने जरूर करीब से देखा होगा। कुछ रिश्ते तो भगवान ऊपर से ही मुकर्रर कर के भेजता है, और कुछ हम स्वेच्छा से बनाते हैं। नए रिश्तों के पनपने के उस दौर में साथ जिए लमहे अक्सर खास से हो जाते हैं। दिल के लॉकर में हिफाजत से पड़े उन क्षणों को मन का ये कबूतर जब तब फुदक फुदक के देख आता है। आख़िर इन पलों को इतनी अहमियत क्यूँ? क्यूँकि जिंदगी के इन्हीं पलों में आपका दिल अंदरुनी चक्रवातों में फँसा रहता है। इन चक्रवातों में फँसने की पीड़ा और और उनसे निकलने का सुख मिला जुला कर जीवन की वो अनमोल निधि बन जाते हैं जिसमें निहित खट्टे मीठे अहसासों को आप बार बार याद करना चाहते हैं।

    जब आप किसी को पसंद करने लगते हैं तो मन ही मन ये भी तो चाहते हैं ना कि उसे भी आपका साथ उतना ही प्यारा लगे। अब ये प्यारा लगना इतना आसान भी तो नहीं । चंद मुलाकातों में भला कोई किसी को क्या जान पाता है? आप ने उन्हें संदेश भेजा और जवाब नहीं आया और आप इधर उधेड़बुन में खो गए कि हे राम मैंने कुछ उल्टा पुल्टा तो नहीं लिख दिया। बड़ी मुश्किल से उपहार खरीदा पर भेजने के बाद उनका धन्यवाद भरा जवाब नहीं आया फिर वहीं चिंता। हँसी मजाक में खिंचाई कर दी उस वक़्त तो जम कर हँसे पर शाम अकेले में सोचने बैठे तो ये ख्याल दौड़ने लगा कि यार कहीं उसने बुरा तो नहीं मान लिया। लबेलुबाब ये कि आप किसी हालत में अपने पल्लवित होते रिश्ते में नाराजगी का अंश मात्र भी देखना नही चाहते। जगजीत सिंह की ग़ज़ल का वो मतला तो याद है ना आपको 

    आप से गिला आप की क़सम 
    सोचते रहें कर न सके हम।

    पर आपके सोचने से क्या होता है? गलतियाँ फिर भी हो जाती हैं । कभी जाने में तो कभी अनजाने में। किसी से शिकायत तो तभी होती है जनाब जब वो शख़्स आपसे उम्मीदें रखता हो और किसी से उम्मीदें तब ही रखी जाती हैं जब आप दिल से उस व्यक्ति का सम्मान करते हों। इसीलिए रिश्तों में शिकवे और शिकायते हों तो समझिए कि मामला दुरुस्त है शायद इसीलिए तो इस गीत में कहा गया है
    कोई शिकवा भी नहीं कोई शिकायत भी नहीं
    और तुम्हें वो हमसे पहली सी मोहब्बत भी नहीं



    बहरहाल दोस्ती या प्रेम में नारजगी पर मैंने इतनी सारी बातें की। इसके पीछे कोक स्टूडियो के सीजन 7 में सज्जाद अली का गाया ये नग्मा है जिसे मैंने हाल में सुना और जो मन में कुछ ऐसे ही भावों को जन्म देता है। सज्जाद अली पाकिस्तान के मशहूर पॉप गायकों में से एक है। इनकी अलग सी आवाज़ को पहली बार फिल्म बोल के गीत 'दिन परेशाँ है रात भारी है जिंदगी है कि तब भी ज़ारी है ' में सुना था और सुनकर मेरी आँखें नम हो उठी थीं। उनकी आवाज़ में कुछ तो है ऐसा जो दर्द और बेचैनी जेसे भावों को सहज उभार देता है।

    इस गीत को सज्जाद ने सबसे पहले अपने एलबम लव लेटर्स में गाया था। पर कोक स्टूडियो में बड़ी खूबसूरती से इस गीत का संगीत संयोजन बदला गया। शुरुआत का वायलिन और गीत के अंत में सज्ज़ाद की अद्भुत आवाज़ के साथ लहराती बाँसुरी सुन कोई भी नाराज हृदय पिघल उठेगा। गीत के बोल तो साधारण ही हैं पर सज्जाद की आवाज़ और संगीत संयोजन पूरे गीत को श्रवणीय बना देता है।

    छोड़ो भी गिला, हुआ जो हुआ
    लहरों की जुबाँ को ज़रा समझो
    समझो क्या कहती है हवा
    तुम नाराज़ हो मेरे कितने पास हो
    नाजुक नाजुक सी, प्यारी प्यारी सी
    मेरे जीने की आस हो

    शनिवार, सितंबर 20, 2014

    क्या हिंदी संचार माध्यमों द्वारा प्रयुक्त हिंदी में अंग्रेजी की मिलावट जायज़ है?

    कुछ साल पहले तक कार्यालयी जीवन में हिंदी दिवस राजभाषा पखवाड़े के तहत कुछ पुरस्कार अर्जित करने का बस एक अच्छा अवसर हुआ करता था।  पर हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए राजभाषा पखवाड़ा मनाना मुझे अब बेतुका सा लगने लगा है। राजभाषा के नाम पर कार्यालयों में जो भाषा परोसी जाती है उससे अन्य आंचलिक भाषाओं को बोलने वालों के मन में उसके प्रति प्यार कैसे पनपेगा ये मेरी समझ के बाहर है। पर सरकारी क़ायदे कानून हैं वो तो चलेंगे ही उससे हिंदी का भला हो ना हो किसको फर्क पड़ता है। दरअसल भाषा का अस्तित्व उसकी ताकत उसे बोलने वाले तय करते हैं और जब तक ये प्रेम जनता में बरक़रार है तब तक इसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। पिछले हफ्ते हिंदी दिवस पर हिंदी से जुड़े मसलों पर समाचार चैनल ABP News पर एक घंटे की परिचर्चा हुई जिसमें प्रसिद्ध गीतकार प्रसून जोशी नीलेश मिश्र, कवि कुमार विश्वास और पत्रकार पंकज पचौरी ने हिस्सा लिया। चर्चा में तमाम विषय उठाए गए पर जो मुद्दा मेरे दिल के सबसे करीब रहा वो था संचार माध्यमों द्वारा हिंदी वाक्यों में अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से उपयोग।

    इस विषय पर मेरी राय प्रसून जी से मिलती जुलती है जिन्होंने कहा कि पारंपरिक भाषा में वैसे शब्द जिनकी उत्पत्ति दूसरे देशों में हुई है उन्हैं वैसे ही स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। मिसाल के तौर पर ट्रेन, टेलीफोन, सिनेमा, क्रिकेट आदि शब्द हिंदी में ऐसे घुलमिल गए हैं कि उन्हें हिंदी शब्दकोश में अंगीकार करना ही श्रेयस्कर होगा पर इसका मतलब ये भी नहीं कि दूरभाष और चलचित्र का उपयोग ही बंद कर दिया जाए। नीलेश मिश्र ने ये तो कहा कि जहाँ तक सरल शब्द उपलब्ध हों वहाँ अंग्रेजी के शब्द की मिलावट बुरी भी नहीं है। उनके संपादित समाचार पत्र का नाम गाँव कनेक्शन है और रेडियो पर कहानी सुनाते समय उन्हें अवसाद जैसे शब्दों के लिए उन्हें डिप्रेशन कहना ज्यादा अच्छा लगता है। 

    दरअसल दिक्कत ये है कि इन सरल और कठिन शब्दों की परिभाषा कौन तय करेगा? किसी भी भाषा में अगर आप कोई शब्द इस्तेमाल नहीं करेंगे तो वो देर सबेर अप्रचलित हो ही जाएगा। इसका मतलब तो ये हुआ कि हम धीरे धीरे इन शब्दों को मार कर पूरी भाषा का ही गला घोंट दें?  ऊपर नवभारत टाइम्स की सुर्खियाँ देखिए बार्डर पर आमने सामने। एशियन गेम्स आज से। 

    मतलब सीमा और एशियाई खेल कहना इस अख़बार के लिए दुरुह हो गया। राजस्थान पत्रिका का युवा पृष्ठ कह रहा है - थीम बेस्ड होगा पेंटिंग कम्पटीशन। अब अगर ऐसे शीर्षक आते रहे तो चित्रकला और प्रतियोगिता जैसे सामान्य शब्दों को भी नीलेश मिश्र सरीखे लोग कठिन शब्दों की श्रेणी में ले आएँगे। नीलेश जी से मेरा सीधा सवाल ये है कि क्या अंग्रेजी के समाचार पत्र अपनी भाषा के कठिन शब्दों का सरल हिंदी शब्द में अनुवाद कर कभी अपने शीर्षक लिखेंगे? क्या TOI कभी लिखेगा   Armies in front of each other at SEEMA ? क्या एक सामान्य अंग्रेजीभाषी को ऐसा पढ़ना अच्छा लगेगा?

    हिंदी और आंचलिक भाषाएँ रोज़गार के अवसर तो अब प्रदान करती नहीं। दसवीं तक छात्र इन्हें पढ़ लेते हैं फिर तो इनका साबका अपनी भाषा से रेडिओ, टीवी व समाचार के माध्यमों से पड़ता है। अगर ये माध्यम भी भाषा की शुद्धता नहीं बरतेंगे तब तो किसी भी भाषा का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। मुझे आज भी याद है कि पिताजी हिंदी के सही वाचन के लिए मुझे आकाशवाणी और बीबीसी की हिंदी सेवा नियमित सुनने की हिदायत देते थे। हर भाषा की एक गरिमा होती है। ये सही है समय के साथ भाषा में अन्य भाषाओं से शब्द जुड़ते चले जाते हैं पर इसका मतलब ये नहीं कि उनका इस तरह प्रयोग हो कि वे भाषा के कलेवर को ही बदल दें। ना ऐसी मिलावट मुझे अंग्रेजी के लिए बर्दाश्त होगी ना हिंदी के लिए।

    कुमार विश्वास ने कहा कि उनकी कविता में शुद्ध हिंदी भी रहती है और सामान्य प्रचलित हिंदी भी। यानि वो भाषा को उसके हर रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनका अनुभव है कि दोनों तरह की कविताओं को युवाओं से उतना ही प्रेम मिलता है। सच तो ये है कि हमें अच्छी हिंदी को इस तरह प्रचारित प्रसारित करना है कि वो पूरी जनता की आवाज़ बने ना कि उसे हिंग्लिश जैसा बाजारू बना दिया जाए कि जिसे पढ़ते भी शर्म आए।

    हिंदों से जुड़े अन्य विषयों पर भी सार्थक चर्चा चली पर वातावरण को हल्का फुल्का बनाया प्रसून जोशी, कुमार विश्वास और नीलेश मिश्र की कविताओं ने। नीलेश मिश्र ने अपनी कविता में मिश्रित भाषा का प्रयोग किया है पर जो शब्द अंग्रेजी से उन्होंने लिए हैं वो कविता की रवानी को बढ़ाते हैं। मुझे तो प्रसून, नीलेश और कुमार विश्वास की अलग अलग अंदाज़ों में लिखी तीनों कविताएँ पसंद आयीं। आशा है आपको भी आएँगी..

     

    प्रसून जोशी की कविता लक्ष्य

    लक्ष्य ढूंढ़ते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है
    इस पल की गरिमा पर जिनका थोड़ा भी अधिकार नहीं है
    इस क्षण की गोलाई देखो आसमान पर लुढ़क रही है,
    नारंगी तरुणाई देखो दूर क्षितिज पर बिखर रही है.
    पक्ष ढूँढते हैं वे जिनको जीवन ये स्वीकार नहीं हैं
    लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

    नाप-नाप के पीने वालों जीवन का अपमान न करना
    पल-पल लेखा-जोखा वालों गणित पे यूँ अभिमान न करना
    नपे-तुले वे ही हैं जिनकी बाहों में संसार नहीं है
    लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

    ज़िंदा डूबे-डूबे रहते मृत शरीर तैरा करते हैं
    उथले-उथले छप-छप करते, गोताखोर सुखी रहते हैं
    स्वप्न वही जो नींद उडा दे, वरना उसमे धार नहीं है
    लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

    कहाँ पहुँचने की जल्दी है नृत्य भरो इस खालीपन में
    किसे दिखाना तुम ही हो बस गीत रचो इस घायल मन में
    पी लो बरस रहा है अमृत ये सावन लाचार नहीं है
    लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

    कहीं तुम्हारी चिंताओं की गठरी पूँजी ना बन जाए
    कहीं तुम्हारे माथे का बल शकल का हिस्सा न बन जाए
    जिस मन में उत्सव होता है वहाँ कभी भी हार नहीं है
    लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

    नीलेश मिश्र की कविता 'बकवास परस्ती'

    चल सर से सर टकराते है
    चल सड़क पे नोट लुटाते हैं
    चल मोटे स्केच पेन से एक दिन हम चाँद पे पेड़ बनाते हैं
    जो हँसना भूल गए उनको गुदगुदी जरा कराते हैं
    चल लड़की छेड़ने वालों पे आज सीटी जरा बजाते हैं
    इन बिगड़े अमीरजादों से चल भीख जरा मँगवाते हैं
    पानी में दूध मिलाया क्यूँ चल भैंस से पूछ के आते हैं
    नुक्कड़ पर ठेले वाले से चल मुफ्त समोसे खाते हैं
    चल गीत बेतुके लिखते है और गीत बेसुरे गाते हैं
    क्या करना अक्ल के पंडों का हमें ज्ञान कहाँ हथकंडों का
    चल बेअक्ली फैलाते हैं चल बातें सस्ती करते हैं
    चल बकवास परस्ती करते हैं, चल बकवास परस्ती करते हैं
     

    चल तारों का 'बिजनेस' करके सूरज से 'रिच' हो जाते  हैं
    उस पैसे से मंगल ग्रह पे एक 'प्राइमरी' स्कूल चलाते हैं
    चल रेल की पटरी पे लेटे हम ट्रेन की सीटी बजाते हैं
    चल इनकम टैक्स के अफसर से क्यूँ है 'इनकम' कम कहते हैं
    चल किसी गरीब के बच्चे की सपनों की लंगोटी बुनते हैं
    मुस्कान जरा फेंक आते हैं जहाँ गम हमेशा रहते हैं
    चल डाल 'सुगर फ्री' की गोली मीठा पान बनाते हैं
    जो हमको समझे समझदार उसका चेकअप कराते हैं
    चल
    'बोरिंग-बोरिंग' लोगों से बेमतलब मस्ती करते हैं
    चल बकवास परस्ती
    करते हैं चल बकवास परस्ती करते हैं।

    पुनःश्च : हिंदी के प्रमुख समाचार चैनल ABP News ने गत रविवार हिंदी दिवस के अवसर पर कई और कार्यक्रम किए जिनमें से एक का विषय था कि हिंदी माध्यम से पढ़ कर आपने क्या परेशानियाँ झेलीं और उनसे जूझते हुए कैसे अलग अलग क्षेत्रों में अपना मुकाम बनाया। इस श्रंखला में साथी ब्लॉगर प्रवीण पांडे के आलावा संतोष मिश्र, अमित मित्तल,निखिल सचान के साथ मुझे भी अपनी बात रखने का मौका मिला। ये मेरे लिए अपनी तरह का पहला अनुभव था। वैसे आधे घंटे से चली इस बातचीत को कैसे संपादक पाँच मिनट में उसके मूल तत्त्व को रखते हुए पेश करते हैं इस कला से मेरा पहली बार परिचय हुआ।


    साक्षात्कार के दौरान दिए जा रहे कैप्शन में दो तथ्यात्मक त्रुटियाँ रहीं। एक तो ब्लागिंग की शुरुआत जो मैंने 2005 में की को 1995 दिखाया गया और दूसरी IIT Roorkee से किए गए MTech को BTech बताया गया। आधे घंटे की बातचीत को पाँच मिनट में संपादित करने की वज़ह से बहुत सारी बातें उन संदर्भों के बिना आयीं जिनको ध्यान में रखकर वो कही गयी थीं। मसलन स्कूल की बातों को पूरे परिपेक्ष्य में समझने के लिए आपको मेरी ये पोस्ट पढ़नी होगी। नौकरी के सिलसिले में ये बताना शायद मुनासिब हो कि सेल की सामूहिक चर्चा में हिंदी के प्रयोग के पहले अंग्रेजी में दिए साक्षात्कारों की बदौलत मेरा चयन ONGC और NTPC में हो चुका था।

    मंगलवार, सितंबर 09, 2014

    एक नौकरानी की डॉयरी : क्या आपने पढ़ी है कभी उनके मन की बात ? Ek Naukarani ki Diary Krishna Baldev Vaid

    हमारे देश, हमारे समाज में किसी व्यक्ति को आँकने का दृष्टिकोण हमेशा से बेहद संकुचित रहा है। छोटे कार्यों को करने वाले इस देश में हेय दृष्टि से देखे जाते है चाहे वो अपने निर्धारित कार्य में कितने कुशल क्यूँ ना हों। श्रम को सम्मान देना हमारी परंपरा में कब आया है? पर कनाडा और जापान जैसे विकसित देशों में मैंने देखा कि किस तरह लोग वेटरों, चालकों व सफाई कर्मचारियों से सम्मान से बातें करते हैं। उन्हें वाजिब वेतन देते हैं। इसीलिए वहाँ अच्छे घरों के बच्चे भी इन कार्यों को खुशी खुशी करते दिखाई देते हैं। 

    क्या हम अपने बच्चों को किसी घर में सफाई या अन्य किसी काम में मदद में भेज सकते हैं? सोचने से भी दिल दहल जाता है ना ? इज़्जत नहीं चली जाएगी अपनी, पुरखों की नाक नहीं कटेगी क्या कि अपने बेटे बेटियों को नौकर नौकरानी बनाने को तैयार हो गए। समाज की ऐसी सोच के बीच जो मजबूरीवश इन कामों को अंजाम देते हैं उन्हें कैसा लगता होगा?



    वयोवृद्ध कथाकार कृष्ण बलदेव वैद्य ने अपने उपन्यास 'एक नौकरानी की डॉयरी' में समाज के इसी उपेक्षित वर्ग के मन को एक युवा होती नौकरानी शन्नो की दृष्टि से टटोलने की कोशिश की है। राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित दो सौ तीस पृष्ठों वाला उपन्यास हमारे घर के कामों में हाथ बँटाने वाली महिलाओं और किशोरियों की रोजमर्रा की ज़िदगी और उनके कष्टों को ना केवल करीब से देखने की कोशिश करता है बल्कि साथ ही साथ हमारे पढ़े लिखे कुलीन समाज के मानसिक पूर्वाग्रहों की परत दर परत भी खोलता जाता है।

    आज भी दो गृहणियाँ मिलती हैं तो उनकी बातें घूम फिर कर अपने यहाँ काम करने वालियों पर आ ही जाती हैं। हर मालकिन के पास नौकरानियों द्वारा पैदा किए दर्द भरे  किस्से हैं। पर नौकरानियाँ अपने मालिक मालकिन को किन नज़रों में देखती हैं ये भी आपने कभी सोचा है? कृष्ण बलदेव वैद्य पुस्तक के शुरुआती पन्नों में ही उनकी सोच को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं..
    "माँ कहती है मालिक लोग बहुत कमीने होते हैं। उनका कोई भरोसा नहीं उन्हें हम लोगों से कोई हमदर्दी नहीं, उनकी बातों में कभी मत आना।

    आज डस्टिंग कर रही थी तो मोटी मेम ने फिर से टोकना शुरु कर दिया। बोली इतना ज़ोर कहाँ से आ जाता है तुम लोगों में, क्या खाती हो, सब तोड़ फोड़ डालोगी। .... मोटी बहुत बकती है। मन करता है मनमन की गालियाँ दूँ। मन ही मन देती रहती हूँ। मन करता है किसी दिन झाड़न उसके मुँह पर दे मारूँ। माँ कहती है, सब मालकिनें बकती हैं। कोई कम कोई ज्यादा। कोई मन ही मन, कोई मुँह से। माँ ठीक ही कहती है। उन्नीस बीस का फ़रक हो तो हो। सब परले दर्जे की शक्की और कंजूस। मालिक बकवास तो नहीं करते पर बेहयाई से बाज नहीं आते....           

    मिसिज वर्मा मुझे अच्छी लगती है, उसकी बातें भी। मुझे वो सब लोग अच्छे लगते हैं जो मेरे साथ ठीक तरह से बातें करें। मुझे ये पता ना लगने दें कि मैं नौकरानी हूँ। मिसिज वर्मा में बस एक खराबी है उसे सफाई का वहम है। दस बार हाथ पैर धोने पड़ते थे, हर तीसरे दिन नाख़ून दिखाने पड़ते थे, हर रोज़ कपड़े बदलने पड़ते थे। इसलिए मैंने उसका घर छोड़ दिया था। बूढ़ियों को सफाई का वहम कुछ ज्यादा ही होता है। पढ़ी लिखी बूढ़ियों को भी।"

    दरअसल इस किताब में कृष्ण बलदेव वैद्य ने शन्नो से उसकी डॉयरी में वो सब लिखवाया है जो आए दिन हम अपने घरों में देखते हैं। काम कराने वालों की प्राथमिकता होती है कि वो हर रोज़ समय पर आएँ, काम पर ध्यान दें , सफाई से काम करें, जबान ना लड़ाएँ और चुपचाप अपना काम कर चली जाएँ। पर कितनों को इस बात की फिक्र होती है कि वो घर से पिट कर आयी हैं,  तबियत नासाज़ है, मालिकों की वहशियाना नज़रों से परेशान है या आज उनका काम करने का मन ही नहीं है। सबसे बड़ी बात ये कि उनके अंदर भी एक आत्मसम्मान की भावना है जिसे हम जानते तो हैं पर उसे तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
    "छोटी थी तो दूसरों के दिए लत्थड़ कपड़े पहन लेती थी, पहन कर खुश होती थी। जब से बड़ी हुई हूँ । मैंने जूठा खाना और पहनना छोड़ दिया है। मैं नख़रे नहीं करती। बस मुझे अब दूसरों के लत्थड़ पहनने में शर्म आने लगी है। अच्छा नहीं लगता। लगता है जैसे किसी के उतारे हुए नाख़ूनों को चबाना पड़ रहा हो और ये कहना कि उनका स्वाद बहुत अच्छा है। 

    मैं आजकल खूब मज़े में नहाती हूँ। पानी तो ज्यादा नहीं लगाती, देर बहुत लगाती हूँ। नहाने से पहले अच्छी तरह से सफाई करती हूँ। कपड़े उतार कर। बीच बीच में शीशा देखती रहती हूँ। बीजी के तौलिए बढ़िया हैं। साबुन भी. तेल भी शैम्पू भी। शैम्पू की झाग सारे बदन पर मल लेती हूँ। बहुत मजा आता है. दो तीन दिनों में ही एड़ियाँ साफ हो गयी हैं। खूब करीम लगाती हूँ उन पर। और ये सब करते हुए डर जाती हूँ यह सोच कर कि कहीं कोई भूल तो नहीं हो रही मुझसे, कहीं कोई चोरी तो नहीं कर रही मैं।"

    मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि आज भी अस्सी प्रतिशत भारतीय इसी विचारधारा को हृदय में आत्मसात किए है कि नौकरानी है तो नौकरानी की तरह रहे ज्यादा नखरे ना दिखाए। मध्यम और उच्च मध्यम वर्गीय घरों में काम करते करते उनमें भी उसी जीवन स्तर, मनोरंजन के उन्हीं साधनों का उपभोग करने की इच्छा जागी है। नकल करने की ये प्रवृति घातक तो है पर उससे निज़ात पाना इतना आसान भी नहीं। कभी इन चीजों की आवश्यकता पर वो चोरी करने से भी नहीं हिचकती। ये बिल्कुल गलत प्रवृति है है पर छोटे छोटे शहरों और कस्बों में इनको जो पगार दी जाती है वो क्या उनके सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लायक है? उपन्यास में शन्नो भी मासिक के दौरान बाथरूम में पड़ा  विस्पर का एक पैड चुरा लेती है आप कहेंगे ऐसी दिक्कत होने से वो माँग भी सकती थी? कितने लोग देंगे?

    शन्नो को काम करने में सबसे ज्यादा सुकून मिलता है अख़बार वाले साब  के यहाँ क्यूँकि वहाँ उसे कभी डाँट नहीं मिलती, वो जो बनाती है साहब खा लेता है और उसके काम में कोई टोकाटाकी भी नहीं करता। मिसेज वर्मा वहीं उसे पढ़ने लिखने पर भी ज़ोर देती हैं। सफाई तो करवाती हैं पर वहाँ की वस्तुओं के इस्तेमाल करने की उसे आज़ादी है। शन्नो सोचती है कि अख़बार वाले साब और मिसिज वर्मा एक साथ क्यूँ नहीं रहते ? पर जब उसकी सोच सच हो जाती है और उन्हें उन लोगों के साथ रहना पड़ता है तो क्या शन्नो की ज़िदगी बदलती है? ये जानने के लिए तो आपको ये किताब पढ़नी पड़ेगी।

    कृष्ण बलदेव वैद्य की इस पुस्तक के ज्यादा पन्ने शन्नो की सोच से रँगे हैं जिसे हर रात अपनी खोली में वो कॉपी के पन्नों पर भरती है। शन्नों के मन में आने वाले ख़यालात उसे अपने अन्तरमन का आईना दिखाते हैं और पाठक को समाज के दोगले चेहरे का। समाज के उस वर्ग से जिससे हम सभी रोज़ निबटते हैं की सोच  को जानने और समझने की जरूरत है और ये किताब इसमें हमारी मदद करती है।

    इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं 
    पीली छतरी वाली लड़की**, उर्दू की आख़िरी किताब     भाग :1    भाग :2 ***1/2, गुनाहों का देवता ****, कसप ****, गोरा ***, महाभोज ***,मधुशाला ****, मुझे चाँद चाहिए  ***, मित्रो मरजानी ***, घर अकेला हो गया, भाग १ , भाग २ ***             वैसे पुस्तक चर्चा में शामिल किताबों की
     पूरी सूची यहाँ है

    रविवार, अगस्त 31, 2014

    जब कोई प्यार से बुलाएगा.. तुमको एक शख़्स याद आएगा Jab koyi pyar se bulayega... Mehdi Hassan

    पिछले दो हफ्तों से मेरे शहर का मौसम बड़ा खुशगवार है। दिन में हल्की फुल्की बारिश और फिर रात में खुले आसमान के नीचे मंद मंद बहती प्यारी शीतल हवा। ऐसी ही इक रात में इंटरनेट की वादियों में भटकते भटकते ये गीत सुनाई दिया। गीत तो सरहद के उस पार का था जहाँ से चलती गोलियों ने पिछले कुछ हफ्तों से सीमा पर रहने वाले लोगों का जीवन हलकान कर दिया है। गीत में आवाज़ उस शख्स की थी जिसकी गायिकी ने दोनों देशों के आवाम को अपना मुरीद बनाया है। जी हाँ मैं मेहदी हसन की बात कर रहा हूँ। सोचता हूँ कि अगर इन दोनों देशों की हुकूमत मेहदी हसन व गुलज़ार सरीखे कलाकारों के हाथ होती तो गोलियों का ये धुआँ गीत संगीत की स्वरलहरियों की धूप से क्षितिज में विलीन हो गया होता।


    अमूमन मेहदी हसन का नाम ग़ज़ल सम्राट के रूप में लिया जाता रहा है पर अपने शुरुआती दिनों में गायिकी का ये बादशाह साइकिल और फिर कार व ट्रैक्टर का मेकेनिक हुआ करता था। पर आर्थिक बाधाओं से जूझते हुए भी कलावंत घराने के इस चिराग ने रियाज़ का दामन नहीं छोड़ा। रेडियो में ठुमरियाँ गायीं । उससे कुछ शोहरत मिली तो शायरी से मोहब्बत की वज़ह से ग़ज़लें भी गाना शुरु किया। साठ के दशक में इसी नाम के बल पर पाकिस्तानी फिल्मों के नग्मे गाने का मौका मिला। उनकी रुहानी आवाज़ को मकबूलियत इस हद तक मिली कि साठ से सत्तर के दशक की कोई भी फिल्म उनके गाए नग्मे के बिना अधूरी मानी जाती रही। 

    मेहदी हसन के गाए जिस गीत की गिरफ्त में मैं आजकल हूँ उसे उन्होंने फिल्म ज़िंदगी कितनी हसीन है के लिए गाया था। गीत में अपनी महबूबा से दूर होते विकल प्रेमी की पीड़ा है। गीत की धुन तो सुरीली है ही पर मेहदी हसन की आवाज़ को इस अलग से सहज अंदाज़ में सुनने का आनंद ही कुछ और है। तो चलिए उसी आनंद को बाँटते हैं आप सब के साथ

    जब कोई प्यार से बुलाएगा
    तुमको एक शख़्स याद आएगा

    लज़्ज़त-ए-ग़म से आशना होकर
    अपने महबूब से जुदा हो कर
    दिल कहीं जब सुकून न पाएगा
    तुमको एक शख़्स याद आएगा


    तेरे लब पे नाम होगा प्यार का
    शम्मा देखकर जलेगा दिल तेरा
    जब कोई सितारा टिमटिमाएगा
    तुमको एक शख़्स याद आएगा


    ज़िन्दग़ी के दर्द को सहोगे तुम
    दिल का चैन ढूँढ़ते रहोगे तुम
    ज़ख़्म-ए-दिल जब तुम्हें सताएगा
    तुमको एक शख़्स याद आएगा।





    पर गीत को सुनने के बाद उसकी मूल भावनाओं से भटकते हुए मुझे तुमको एक शख़्स याद आएगा वाली पंक्ति ने दूसरी जगह ले जा खींचा।  जीवन की पगडंडियों में चलते चलते जाने कितने ही लोगों से आपकी मुलाकात होती है। उनमें से कुछ के साथ गुजारे हुए लमहे चाहे वो कितने मुख्तसर क्यूँ ना हों हमेशा याद रह जाते हैं। रोज़ की आपाधापी में जब ये यादें अचानक से कौंध उठती हैं तो आँखों के सामने ऐसे ही किसी शख़्स का चेहरा उभर उठता है और मन मुस्कुरा उठता है। फिर तो घंटों उस एहसास की खुशबू हमें तरोताज़ा बनाए रखती है..

    बहरहाल बात सरहद, मेहदी हसन और गुलज़ार से शुरु हुई थी तो उसे गुलज़ार की मेहदी हसन को समर्पित पंक्तियों से खत्म क्यूँ ना किया जाए..

    आँखो को वीसा नहीं लगता
    सपनों की सरहद नहीं होती
    बंद आँखों से रोज़ चला जाता हूँ
    सरहद पर मिलने मेहदी हसन से

    अब तो मेहदी हसन साहब बहुत दूर चले गए हैं, सरहदों की सीमा से पर उनकी आवाज़ कायम है और रहेगी जब तक ये क़ायनात है।
     

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