शुक्रवार, सितंबर 26, 2014

तुम नाराज़ हो... मेरे कितने पास हो Tum Naraz Ho Sajjad Ali Coke Studio

ज़िदगी में बनते बिगड़ते रिश्तों को तो आपने जरूर करीब से देखा होगा। कुछ रिश्ते तो भगवान ऊपर से ही मुकर्रर कर के भेजता है, और कुछ हम स्वेच्छा से बनाते हैं। नए रिश्तों के पनपने के उस दौर में साथ जिए लमहे अक्सर खास से हो जाते हैं। दिल के लॉकर में हिफाजत से पड़े उन क्षणों को मन का ये कबूतर जब तब फुदक फुदक के देख आता है। आख़िर इन पलों को इतनी अहमियत क्यूँ? क्यूँकि जिंदगी के इन्हीं पलों में आपका दिल अंदरुनी चक्रवातों में फँसा रहता है। इन चक्रवातों में फँसने की पीड़ा और और उनसे निकलने का सुख मिला जुला कर जीवन की वो अनमोल निधि बन जाते हैं जिसमें निहित खट्टे मीठे अहसासों को आप बार बार याद करना चाहते हैं।

जब आप किसी को पसंद करने लगते हैं तो मन ही मन ये भी तो चाहते हैं ना कि उसे भी आपका साथ उतना ही प्यारा लगे। अब ये प्यारा लगना इतना आसान भी तो नहीं । चंद मुलाकातों में भला कोई किसी को क्या जान पाता है? आप ने उन्हें संदेश भेजा और जवाब नहीं आया और आप इधर उधेड़बुन में खो गए कि हे राम मैंने कुछ उल्टा पुल्टा तो नहीं लिख दिया। बड़ी मुश्किल से उपहार खरीदा पर भेजने के बाद उनका धन्यवाद भरा जवाब नहीं आया फिर वहीं चिंता। हँसी मजाक में खिंचाई कर दी उस वक़्त तो जम कर हँसे पर शाम अकेले में सोचने बैठे तो ये ख्याल दौड़ने लगा कि यार कहीं उसने बुरा तो नहीं मान लिया। लबेलुबाब ये कि आप किसी हालत में अपने पल्लवित होते रिश्ते में नाराजगी का अंश मात्र भी देखना नही चाहते। जगजीत सिंह की ग़ज़ल का वो मतला तो याद है ना आपको 

आप से गिला आप की क़सम 
सोचते रहें कर न सके हम।

पर आपके सोचने से क्या होता है? गलतियाँ फिर भी हो जाती हैं । कभी जाने में तो कभी अनजाने में। किसी से शिकायत तो तभी होती है जनाब जब वो शख़्स आपसे उम्मीदें रखता हो और किसी से उम्मीदें तब ही रखी जाती हैं जब आप दिल से उस व्यक्ति का सम्मान करते हों। इसीलिए रिश्तों में शिकवे और शिकायते हों तो समझिए कि मामला दुरुस्त है शायद इसीलिए तो इस गीत में कहा गया है
कोई शिकवा भी नहीं कोई शिकायत भी नहीं
और तुम्हें वो हमसे पहली सी मोहब्बत भी नहीं



बहरहाल दोस्ती या प्रेम में नारजगी पर मैंने इतनी सारी बातें की। इसके पीछे कोक स्टूडियो के सीजन 7 में सज्जाद अली का गाया ये नग्मा है जिसे मैंने हाल में सुना और जो मन में कुछ ऐसे ही भावों को जन्म देता है। सज्जाद अली पाकिस्तान के मशहूर पॉप गायकों में से एक है। इनकी अलग सी आवाज़ को पहली बार फिल्म बोल के गीत 'दिन परेशाँ है रात भारी है जिंदगी है कि तब भी ज़ारी है ' में सुना था और सुनकर मेरी आँखें नम हो उठी थीं। उनकी आवाज़ में कुछ तो है ऐसा जो दर्द और बेचैनी जेसे भावों को सहज उभार देता है।

इस गीत को सज्जाद ने सबसे पहले अपने एलबम लव लेटर्स में गाया था। पर कोक स्टूडियो में बड़ी खूबसूरती से इस गीत का संगीत संयोजन बदला गया। शुरुआत का वायलिन और गीत के अंत में सज्ज़ाद की अद्भुत आवाज़ के साथ लहराती बाँसुरी सुन कोई भी नाराज हृदय पिघल उठेगा। गीत के बोल तो साधारण ही हैं पर सज्जाद की आवाज़ और संगीत संयोजन पूरे गीत को श्रवणीय बना देता है।

छोड़ो भी गिला, हुआ जो हुआ
लहरों की जुबाँ को ज़रा समझो
समझो क्या कहती है हवा
तुम नाराज़ हो मेरे कितने पास हो
नाजुक नाजुक सी, प्यारी प्यारी सी
मेरे जीने की आस हो

शनिवार, सितंबर 20, 2014

क्या हिंदी संचार माध्यमों द्वारा प्रयुक्त हिंदी में अंग्रेजी की मिलावट जायज़ है?

कुछ साल पहले तक कार्यालयी जीवन में हिंदी दिवस राजभाषा पखवाड़े के तहत कुछ पुरस्कार अर्जित करने का बस एक अच्छा अवसर हुआ करता था।  पर हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए राजभाषा पखवाड़ा मनाना मुझे अब बेतुका सा लगने लगा है। राजभाषा के नाम पर कार्यालयों में जो भाषा परोसी जाती है उससे अन्य आंचलिक भाषाओं को बोलने वालों के मन में उसके प्रति प्यार कैसे पनपेगा ये मेरी समझ के बाहर है। पर सरकारी क़ायदे कानून हैं वो तो चलेंगे ही उससे हिंदी का भला हो ना हो किसको फर्क पड़ता है। दरअसल भाषा का अस्तित्व उसकी ताकत उसे बोलने वाले तय करते हैं और जब तक ये प्रेम जनता में बरक़रार है तब तक इसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। पिछले हफ्ते हिंदी दिवस पर हिंदी से जुड़े मसलों पर समाचार चैनल ABP News पर एक घंटे की परिचर्चा हुई जिसमें प्रसिद्ध गीतकार प्रसून जोशी नीलेश मिश्र, कवि कुमार विश्वास और पत्रकार पंकज पचौरी ने हिस्सा लिया। चर्चा में तमाम विषय उठाए गए पर जो मुद्दा मेरे दिल के सबसे करीब रहा वो था संचार माध्यमों द्वारा हिंदी वाक्यों में अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से उपयोग।

इस विषय पर मेरी राय प्रसून जी से मिलती जुलती है जिन्होंने कहा कि पारंपरिक भाषा में वैसे शब्द जिनकी उत्पत्ति दूसरे देशों में हुई है उन्हैं वैसे ही स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। मिसाल के तौर पर ट्रेन, टेलीफोन, सिनेमा, क्रिकेट आदि शब्द हिंदी में ऐसे घुलमिल गए हैं कि उन्हें हिंदी शब्दकोश में अंगीकार करना ही श्रेयस्कर होगा पर इसका मतलब ये भी नहीं कि दूरभाष और चलचित्र का उपयोग ही बंद कर दिया जाए। नीलेश मिश्र ने ये तो कहा कि जहाँ तक सरल शब्द उपलब्ध हों वहाँ अंग्रेजी के शब्द की मिलावट बुरी भी नहीं है। उनके संपादित समाचार पत्र का नाम गाँव कनेक्शन है और रेडियो पर कहानी सुनाते समय उन्हें अवसाद जैसे शब्दों के लिए उन्हें डिप्रेशन कहना ज्यादा अच्छा लगता है। 

दरअसल दिक्कत ये है कि इन सरल और कठिन शब्दों की परिभाषा कौन तय करेगा? किसी भी भाषा में अगर आप कोई शब्द इस्तेमाल नहीं करेंगे तो वो देर सबेर अप्रचलित हो ही जाएगा। इसका मतलब तो ये हुआ कि हम धीरे धीरे इन शब्दों को मार कर पूरी भाषा का ही गला घोंट दें?  ऊपर नवभारत टाइम्स की सुर्खियाँ देखिए बार्डर पर आमने सामने। एशियन गेम्स आज से। 

मतलब सीमा और एशियाई खेल कहना इस अख़बार के लिए दुरुह हो गया। राजस्थान पत्रिका का युवा पृष्ठ कह रहा है - थीम बेस्ड होगा पेंटिंग कम्पटीशन। अब अगर ऐसे शीर्षक आते रहे तो चित्रकला और प्रतियोगिता जैसे सामान्य शब्दों को भी नीलेश मिश्र सरीखे लोग कठिन शब्दों की श्रेणी में ले आएँगे। नीलेश जी से मेरा सीधा सवाल ये है कि क्या अंग्रेजी के समाचार पत्र अपनी भाषा के कठिन शब्दों का सरल हिंदी शब्द में अनुवाद कर कभी अपने शीर्षक लिखेंगे? क्या TOI कभी लिखेगा   Armies in front of each other at SEEMA ? क्या एक सामान्य अंग्रेजीभाषी को ऐसा पढ़ना अच्छा लगेगा?

हिंदी और आंचलिक भाषाएँ रोज़गार के अवसर तो अब प्रदान करती नहीं। दसवीं तक छात्र इन्हें पढ़ लेते हैं फिर तो इनका साबका अपनी भाषा से रेडिओ, टीवी व समाचार के माध्यमों से पड़ता है। अगर ये माध्यम भी भाषा की शुद्धता नहीं बरतेंगे तब तो किसी भी भाषा का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। मुझे आज भी याद है कि पिताजी हिंदी के सही वाचन के लिए मुझे आकाशवाणी और बीबीसी की हिंदी सेवा नियमित सुनने की हिदायत देते थे। हर भाषा की एक गरिमा होती है। ये सही है समय के साथ भाषा में अन्य भाषाओं से शब्द जुड़ते चले जाते हैं पर इसका मतलब ये नहीं कि उनका इस तरह प्रयोग हो कि वे भाषा के कलेवर को ही बदल दें। ना ऐसी मिलावट मुझे अंग्रेजी के लिए बर्दाश्त होगी ना हिंदी के लिए।

कुमार विश्वास ने कहा कि उनकी कविता में शुद्ध हिंदी भी रहती है और सामान्य प्रचलित हिंदी भी। यानि वो भाषा को उसके हर रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनका अनुभव है कि दोनों तरह की कविताओं को युवाओं से उतना ही प्रेम मिलता है। सच तो ये है कि हमें अच्छी हिंदी को इस तरह प्रचारित प्रसारित करना है कि वो पूरी जनता की आवाज़ बने ना कि उसे हिंग्लिश जैसा बाजारू बना दिया जाए कि जिसे पढ़ते भी शर्म आए।

हिंदों से जुड़े अन्य विषयों पर भी सार्थक चर्चा चली पर वातावरण को हल्का फुल्का बनाया प्रसून जोशी, कुमार विश्वास और नीलेश मिश्र की कविताओं ने। नीलेश मिश्र ने अपनी कविता में मिश्रित भाषा का प्रयोग किया है पर जो शब्द अंग्रेजी से उन्होंने लिए हैं वो कविता की रवानी को बढ़ाते हैं। मुझे तो प्रसून, नीलेश और कुमार विश्वास की अलग अलग अंदाज़ों में लिखी तीनों कविताएँ पसंद आयीं। आशा है आपको भी आएँगी..

 

प्रसून जोशी की कविता लक्ष्य

लक्ष्य ढूंढ़ते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है
इस पल की गरिमा पर जिनका थोड़ा भी अधिकार नहीं है
इस क्षण की गोलाई देखो आसमान पर लुढ़क रही है,
नारंगी तरुणाई देखो दूर क्षितिज पर बिखर रही है.
पक्ष ढूँढते हैं वे जिनको जीवन ये स्वीकार नहीं हैं
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

नाप-नाप के पीने वालों जीवन का अपमान न करना
पल-पल लेखा-जोखा वालों गणित पे यूँ अभिमान न करना
नपे-तुले वे ही हैं जिनकी बाहों में संसार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

ज़िंदा डूबे-डूबे रहते मृत शरीर तैरा करते हैं
उथले-उथले छप-छप करते, गोताखोर सुखी रहते हैं
स्वप्न वही जो नींद उडा दे, वरना उसमे धार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

कहाँ पहुँचने की जल्दी है नृत्य भरो इस खालीपन में
किसे दिखाना तुम ही हो बस गीत रचो इस घायल मन में
पी लो बरस रहा है अमृत ये सावन लाचार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

कहीं तुम्हारी चिंताओं की गठरी पूँजी ना बन जाए
कहीं तुम्हारे माथे का बल शकल का हिस्सा न बन जाए
जिस मन में उत्सव होता है वहाँ कभी भी हार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

नीलेश मिश्र की कविता 'बकवास परस्ती'

चल सर से सर टकराते है
चल सड़क पे नोट लुटाते हैं
चल मोटे स्केच पेन से एक दिन हम चाँद पे पेड़ बनाते हैं
जो हँसना भूल गए उनको गुदगुदी जरा कराते हैं
चल लड़की छेड़ने वालों पे आज सीटी जरा बजाते हैं
इन बिगड़े अमीरजादों से चल भीख जरा मँगवाते हैं
पानी में दूध मिलाया क्यूँ चल भैंस से पूछ के आते हैं
नुक्कड़ पर ठेले वाले से चल मुफ्त समोसे खाते हैं
चल गीत बेतुके लिखते है और गीत बेसुरे गाते हैं
क्या करना अक्ल के पंडों का हमें ज्ञान कहाँ हथकंडों का
चल बेअक्ली फैलाते हैं चल बातें सस्ती करते हैं
चल बकवास परस्ती करते हैं, चल बकवास परस्ती करते हैं
 

चल तारों का 'बिजनेस' करके सूरज से 'रिच' हो जाते  हैं
उस पैसे से मंगल ग्रह पे एक 'प्राइमरी' स्कूल चलाते हैं
चल रेल की पटरी पे लेटे हम ट्रेन की सीटी बजाते हैं
चल इनकम टैक्स के अफसर से क्यूँ है 'इनकम' कम कहते हैं
चल किसी गरीब के बच्चे की सपनों की लंगोटी बुनते हैं
मुस्कान जरा फेंक आते हैं जहाँ गम हमेशा रहते हैं
चल डाल 'सुगर फ्री' की गोली मीठा पान बनाते हैं
जो हमको समझे समझदार उसका चेकअप कराते हैं
चल
'बोरिंग-बोरिंग' लोगों से बेमतलब मस्ती करते हैं
चल बकवास परस्ती
करते हैं चल बकवास परस्ती करते हैं।

पुनःश्च : हिंदी के प्रमुख समाचार चैनल ABP News ने गत रविवार हिंदी दिवस के अवसर पर कई और कार्यक्रम किए जिनमें से एक का विषय था कि हिंदी माध्यम से पढ़ कर आपने क्या परेशानियाँ झेलीं और उनसे जूझते हुए कैसे अलग अलग क्षेत्रों में अपना मुकाम बनाया। इस श्रंखला में साथी ब्लॉगर प्रवीण पांडे के आलावा संतोष मिश्र, अमित मित्तल,निखिल सचान के साथ मुझे भी अपनी बात रखने का मौका मिला। ये मेरे लिए अपनी तरह का पहला अनुभव था। वैसे आधे घंटे से चली इस बातचीत को कैसे संपादक पाँच मिनट में उसके मूल तत्त्व को रखते हुए पेश करते हैं इस कला से मेरा पहली बार परिचय हुआ।


साक्षात्कार के दौरान दिए जा रहे कैप्शन में दो तथ्यात्मक त्रुटियाँ रहीं। एक तो ब्लागिंग की शुरुआत जो मैंने 2005 में की को 1995 दिखाया गया और दूसरी IIT Roorkee से किए गए MTech को BTech बताया गया। आधे घंटे की बातचीत को पाँच मिनट में संपादित करने की वज़ह से बहुत सारी बातें उन संदर्भों के बिना आयीं जिनको ध्यान में रखकर वो कही गयी थीं। मसलन स्कूल की बातों को पूरे परिपेक्ष्य में समझने के लिए आपको मेरी ये पोस्ट पढ़नी होगी। नौकरी के सिलसिले में ये बताना शायद मुनासिब हो कि सेल की सामूहिक चर्चा में हिंदी के प्रयोग के पहले अंग्रेजी में दिए साक्षात्कारों की बदौलत मेरा चयन ONGC और NTPC में हो चुका था।

मंगलवार, सितंबर 09, 2014

एक नौकरानी की डॉयरी : क्या आपने पढ़ी है कभी उनके मन की बात ? Ek Naukarani ki Diary Krishna Baldev Vaid

हमारे देश, हमारे समाज में किसी व्यक्ति को आँकने का दृष्टिकोण हमेशा से बेहद संकुचित रहा है। छोटे कार्यों को करने वाले इस देश में हेय दृष्टि से देखे जाते है चाहे वो अपने निर्धारित कार्य में कितने कुशल क्यूँ ना हों। श्रम को सम्मान देना हमारी परंपरा में कब आया है? पर कनाडा और जापान जैसे विकसित देशों में मैंने देखा कि किस तरह लोग वेटरों, चालकों व सफाई कर्मचारियों से सम्मान से बातें करते हैं। उन्हें वाजिब वेतन देते हैं। इसीलिए वहाँ अच्छे घरों के बच्चे भी इन कार्यों को खुशी खुशी करते दिखाई देते हैं। 

क्या हम अपने बच्चों को किसी घर में सफाई या अन्य किसी काम में मदद में भेज सकते हैं? सोचने से भी दिल दहल जाता है ना ? इज़्जत नहीं चली जाएगी अपनी, पुरखों की नाक नहीं कटेगी क्या कि अपने बेटे बेटियों को नौकर नौकरानी बनाने को तैयार हो गए। समाज की ऐसी सोच के बीच जो मजबूरीवश इन कामों को अंजाम देते हैं उन्हें कैसा लगता होगा?



वयोवृद्ध कथाकार कृष्ण बलदेव वैद्य ने अपने उपन्यास 'एक नौकरानी की डॉयरी' में समाज के इसी उपेक्षित वर्ग के मन को एक युवा होती नौकरानी शन्नो की दृष्टि से टटोलने की कोशिश की है। राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित दो सौ तीस पृष्ठों वाला उपन्यास हमारे घर के कामों में हाथ बँटाने वाली महिलाओं और किशोरियों की रोजमर्रा की ज़िदगी और उनके कष्टों को ना केवल करीब से देखने की कोशिश करता है बल्कि साथ ही साथ हमारे पढ़े लिखे कुलीन समाज के मानसिक पूर्वाग्रहों की परत दर परत भी खोलता जाता है।

आज भी दो गृहणियाँ मिलती हैं तो उनकी बातें घूम फिर कर अपने यहाँ काम करने वालियों पर आ ही जाती हैं। हर मालकिन के पास नौकरानियों द्वारा पैदा किए दर्द भरे  किस्से हैं। पर नौकरानियाँ अपने मालिक मालकिन को किन नज़रों में देखती हैं ये भी आपने कभी सोचा है? कृष्ण बलदेव वैद्य पुस्तक के शुरुआती पन्नों में ही उनकी सोच को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं..
"माँ कहती है मालिक लोग बहुत कमीने होते हैं। उनका कोई भरोसा नहीं उन्हें हम लोगों से कोई हमदर्दी नहीं, उनकी बातों में कभी मत आना।

आज डस्टिंग कर रही थी तो मोटी मेम ने फिर से टोकना शुरु कर दिया। बोली इतना ज़ोर कहाँ से आ जाता है तुम लोगों में, क्या खाती हो, सब तोड़ फोड़ डालोगी। .... मोटी बहुत बकती है। मन करता है मनमन की गालियाँ दूँ। मन ही मन देती रहती हूँ। मन करता है किसी दिन झाड़न उसके मुँह पर दे मारूँ। माँ कहती है, सब मालकिनें बकती हैं। कोई कम कोई ज्यादा। कोई मन ही मन, कोई मुँह से। माँ ठीक ही कहती है। उन्नीस बीस का फ़रक हो तो हो। सब परले दर्जे की शक्की और कंजूस। मालिक बकवास तो नहीं करते पर बेहयाई से बाज नहीं आते....           

मिसिज वर्मा मुझे अच्छी लगती है, उसकी बातें भी। मुझे वो सब लोग अच्छे लगते हैं जो मेरे साथ ठीक तरह से बातें करें। मुझे ये पता ना लगने दें कि मैं नौकरानी हूँ। मिसिज वर्मा में बस एक खराबी है उसे सफाई का वहम है। दस बार हाथ पैर धोने पड़ते थे, हर तीसरे दिन नाख़ून दिखाने पड़ते थे, हर रोज़ कपड़े बदलने पड़ते थे। इसलिए मैंने उसका घर छोड़ दिया था। बूढ़ियों को सफाई का वहम कुछ ज्यादा ही होता है। पढ़ी लिखी बूढ़ियों को भी।"

दरअसल इस किताब में कृष्ण बलदेव वैद्य ने शन्नो से उसकी डॉयरी में वो सब लिखवाया है जो आए दिन हम अपने घरों में देखते हैं। काम कराने वालों की प्राथमिकता होती है कि वो हर रोज़ समय पर आएँ, काम पर ध्यान दें , सफाई से काम करें, जबान ना लड़ाएँ और चुपचाप अपना काम कर चली जाएँ। पर कितनों को इस बात की फिक्र होती है कि वो घर से पिट कर आयी हैं,  तबियत नासाज़ है, मालिकों की वहशियाना नज़रों से परेशान है या आज उनका काम करने का मन ही नहीं है। सबसे बड़ी बात ये कि उनके अंदर भी एक आत्मसम्मान की भावना है जिसे हम जानते तो हैं पर उसे तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
"छोटी थी तो दूसरों के दिए लत्थड़ कपड़े पहन लेती थी, पहन कर खुश होती थी। जब से बड़ी हुई हूँ । मैंने जूठा खाना और पहनना छोड़ दिया है। मैं नख़रे नहीं करती। बस मुझे अब दूसरों के लत्थड़ पहनने में शर्म आने लगी है। अच्छा नहीं लगता। लगता है जैसे किसी के उतारे हुए नाख़ूनों को चबाना पड़ रहा हो और ये कहना कि उनका स्वाद बहुत अच्छा है। 

मैं आजकल खूब मज़े में नहाती हूँ। पानी तो ज्यादा नहीं लगाती, देर बहुत लगाती हूँ। नहाने से पहले अच्छी तरह से सफाई करती हूँ। कपड़े उतार कर। बीच बीच में शीशा देखती रहती हूँ। बीजी के तौलिए बढ़िया हैं। साबुन भी. तेल भी शैम्पू भी। शैम्पू की झाग सारे बदन पर मल लेती हूँ। बहुत मजा आता है. दो तीन दिनों में ही एड़ियाँ साफ हो गयी हैं। खूब करीम लगाती हूँ उन पर। और ये सब करते हुए डर जाती हूँ यह सोच कर कि कहीं कोई भूल तो नहीं हो रही मुझसे, कहीं कोई चोरी तो नहीं कर रही मैं।"

मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि आज भी अस्सी प्रतिशत भारतीय इसी विचारधारा को हृदय में आत्मसात किए है कि नौकरानी है तो नौकरानी की तरह रहे ज्यादा नखरे ना दिखाए। मध्यम और उच्च मध्यम वर्गीय घरों में काम करते करते उनमें भी उसी जीवन स्तर, मनोरंजन के उन्हीं साधनों का उपभोग करने की इच्छा जागी है। नकल करने की ये प्रवृति घातक तो है पर उससे निज़ात पाना इतना आसान भी नहीं। कभी इन चीजों की आवश्यकता पर वो चोरी करने से भी नहीं हिचकती। ये बिल्कुल गलत प्रवृति है है पर छोटे छोटे शहरों और कस्बों में इनको जो पगार दी जाती है वो क्या उनके सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लायक है? उपन्यास में शन्नो भी मासिक के दौरान बाथरूम में पड़ा  विस्पर का एक पैड चुरा लेती है आप कहेंगे ऐसी दिक्कत होने से वो माँग भी सकती थी? कितने लोग देंगे?

शन्नो को काम करने में सबसे ज्यादा सुकून मिलता है अख़बार वाले साब  के यहाँ क्यूँकि वहाँ उसे कभी डाँट नहीं मिलती, वो जो बनाती है साहब खा लेता है और उसके काम में कोई टोकाटाकी भी नहीं करता। मिसेज वर्मा वहीं उसे पढ़ने लिखने पर भी ज़ोर देती हैं। सफाई तो करवाती हैं पर वहाँ की वस्तुओं के इस्तेमाल करने की उसे आज़ादी है। शन्नो सोचती है कि अख़बार वाले साब और मिसिज वर्मा एक साथ क्यूँ नहीं रहते ? पर जब उसकी सोच सच हो जाती है और उन्हें उन लोगों के साथ रहना पड़ता है तो क्या शन्नो की ज़िदगी बदलती है? ये जानने के लिए तो आपको ये किताब पढ़नी पड़ेगी।

कृष्ण बलदेव वैद्य की इस पुस्तक के ज्यादा पन्ने शन्नो की सोच से रँगे हैं जिसे हर रात अपनी खोली में वो कॉपी के पन्नों पर भरती है। शन्नों के मन में आने वाले ख़यालात उसे अपने अन्तरमन का आईना दिखाते हैं और पाठक को समाज के दोगले चेहरे का। समाज के उस वर्ग से जिससे हम सभी रोज़ निबटते हैं की सोच  को जानने और समझने की जरूरत है और ये किताब इसमें हमारी मदद करती है।

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पीली छतरी वाली लड़की**, उर्दू की आख़िरी किताब     भाग :1    भाग :2 ***1/2, गुनाहों का देवता ****, कसप ****, गोरा ***, महाभोज ***,मधुशाला ****, मुझे चाँद चाहिए  ***, मित्रो मरजानी ***, घर अकेला हो गया, भाग १ , भाग २ ***             वैसे पुस्तक चर्चा में शामिल किताबों की
 पूरी सूची यहाँ है
 

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