अनूप जलोटा का नाम सुनते ही उनके द्वारा गाए लोकप्रिय भजनों का ख्याल मन में आने लगता है। अस्सी के दशक में कोई भी पर्व त्योहार हो गली या नुक्कड़ के बजते लाउडस्पीकर से अनूप जी का गाया भजन ना सुनाई दे ऐसा हो नहीं सकता था। ऐसी लागी लगन, जग में सुंदर हैं दो नाम, प्रभु जी तुम चंदन मैं पानी, रंग दे चुनरिया, मैं नहीं माखन खायो और ना जाने कितने ऐसे ही भजन सुनते सुनते रट से गए थे।
भजनों की गायिकी में अपना जौहर दिखलाने वाले अनूप जलोटा को ये क़ाबिलियत विरासत में मिली थी। पिता पुरुषोत्तम दास जलोटा एक भजन गायक थे और अनूप के गुरु भी। आपको जान कर अचरज होगा कि तीन दशकों के अपने सांगीतिक सफ़र में दो सौ से ज्यादा एलबम गाने वाले अनूप जलोटा ने अपनी गायिकी की शुरुआत आल इंडिया रेडियो के समूह गायक (Chorus Singer) से शुरु की थी।
अनूप जलोटा ने उस समय भजन गाने शुरु किए जब बतौर भजन गायक आर्थिक रूप से स्वावलंबी होना बेहद कठिन था। कुछ साल पहले हैदराबाद दूरदर्शन को दिए अपने साक्षात्कार में इसके पीछे की रोचक दास्तान बाँटी थी। अनूप का कहना था उस समय भजन गायक बहुत ही कम थे, इसीसे जब भी किसी महोत्सव या मन्दिर निर्माण, आदि अवसरो के कार्यक्रम होते तो उन्हें आमंत्रित किया जाता था।
अनूप के सामने दुविधा ये थी कि एक तो इन कार्यक्रमों में टिकट भी नहीं होता है सो कोई पारिश्रमिक भी नहीं मिलता था तो दूसरी ओर भजनों के कार्यक्रम के लिए आमन्त्रित किए जाने पर इन्कार भी नहीं किया जा सकता था। पर टिकट नहीं होने का नतीज़ा ये हुआ कि इन कार्यक्रमों में भीङ बढ़ने लगी और कार्यक्रम लोकप्रिय होने लगे, साथ ही भजनों के रिकार्ड भी इसी वज़ह से चल निकले।
अनूप जलोटा भजन सम्राट तो कहलाए ही पर साथ ही उन्होंने ग़ज़लों का दामन भी नहीं छोड़ा। पंकज उधास, पीनाज़ मसानी, अनूप जलोटा जैसे गायक जगजीत सिंह के साथ अस्सी के दशक की शुरुआत में ग़ज़ल गायिकी के परिदृश्य में उभरे। पर जगजीत ने अपने ग़ज़लों के चुनाव और बेमिसाल गायिकी से बाकी गायकों को पीछे छोड़् दिया। उस दौर में भी अनूप जलोटा की कुछ ग़ज़लें हम गुनगुनाया करते थे। तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे की बात तो मैं यहां पहले कर ही चुका हूँ। आज उनकी गाई एक और ग़ज़ल जो उस वक़्त बेहद लोकप्रिय हुई थी, का जिक्र करना चाहूँगा। बिल्कुल सहज अंदाज़ और हल्के फुल्के शब्दों से सजी इस ग़ज़ल ने किशोरावस्था के उन दिनों में दिल पर जबरदस्त तासीर छोड़ी थी। जलोटा साहब की वो कैसट तो आज मेरे पास नहीं हैं पर जहाँ तक याद पड़ता है इस ग़ज़ल को शायद मुराद लखनवी ने लिखा था।
अनूप अपनी गाई ग़ज़लों की शुरुआत हमेशा एक क़ता से करते आए हैं। अक्सर ये चार पंक्तियाँ ग़ज़ल के मूड को परवान चढ़ा देती थीं। देखिए तो इस क़ता में शायर ने क्या कहना चाहा है। शायर फरमाते हैं..
मैं तुम्हारे सजल नेत्रों के आँसू बटोर सकता हूँ, तुम्हारी इन अस्त व्यस्त बिखरी जुल्फों को सहेज सकता हूँ। बस एक बार तुम मुझे अपना तो मानो फिर तो तुम्हारा हर ग़म मैं अपनाने को तैयार हूँ..
चश्मे पुरनम खरीद सकता हूँ
जुल्फें बरहम खरीद सकता हूँ
तू अगर अपना बना ले मुझको
तेरा हर ग़म खरीद सकता हूँ
हम सफ़र ग़म जो मोहब्बत में दिया है तुमने
ये भी मुझ पर बड़ा एहसान किया है तुमने
एक मुद्दत से इसी दिन की थी हसरत दिल में
आज मैं खुश हूँ कि दीवाना कहा है तुमने
जब भी टकराई मेरे जिस्म से ये शोख़ हवा
मुझको महसूस हुआ ये के, छुआ है तुमने
क्या मेरे दिल के धड़कने की ही आवाज़ है ये
या फिर कान में कुछ आ कर कहा है तुमने
हिचकियाँ भी कभी कमबख्त नहीं आती हैं
जो यूँ सोचूँ कि याद किया है तुमने
भजनों की गायिकी में अपना जौहर दिखलाने वाले अनूप जलोटा को ये क़ाबिलियत विरासत में मिली थी। पिता पुरुषोत्तम दास जलोटा एक भजन गायक थे और अनूप के गुरु भी। आपको जान कर अचरज होगा कि तीन दशकों के अपने सांगीतिक सफ़र में दो सौ से ज्यादा एलबम गाने वाले अनूप जलोटा ने अपनी गायिकी की शुरुआत आल इंडिया रेडियो के समूह गायक (Chorus Singer) से शुरु की थी।
अनूप जलोटा ने उस समय भजन गाने शुरु किए जब बतौर भजन गायक आर्थिक रूप से स्वावलंबी होना बेहद कठिन था। कुछ साल पहले हैदराबाद दूरदर्शन को दिए अपने साक्षात्कार में इसके पीछे की रोचक दास्तान बाँटी थी। अनूप का कहना था उस समय भजन गायक बहुत ही कम थे, इसीसे जब भी किसी महोत्सव या मन्दिर निर्माण, आदि अवसरो के कार्यक्रम होते तो उन्हें आमंत्रित किया जाता था।
अनूप के सामने दुविधा ये थी कि एक तो इन कार्यक्रमों में टिकट भी नहीं होता है सो कोई पारिश्रमिक भी नहीं मिलता था तो दूसरी ओर भजनों के कार्यक्रम के लिए आमन्त्रित किए जाने पर इन्कार भी नहीं किया जा सकता था। पर टिकट नहीं होने का नतीज़ा ये हुआ कि इन कार्यक्रमों में भीङ बढ़ने लगी और कार्यक्रम लोकप्रिय होने लगे, साथ ही भजनों के रिकार्ड भी इसी वज़ह से चल निकले।
अनूप जलोटा भजन सम्राट तो कहलाए ही पर साथ ही उन्होंने ग़ज़लों का दामन भी नहीं छोड़ा। पंकज उधास, पीनाज़ मसानी, अनूप जलोटा जैसे गायक जगजीत सिंह के साथ अस्सी के दशक की शुरुआत में ग़ज़ल गायिकी के परिदृश्य में उभरे। पर जगजीत ने अपने ग़ज़लों के चुनाव और बेमिसाल गायिकी से बाकी गायकों को पीछे छोड़् दिया। उस दौर में भी अनूप जलोटा की कुछ ग़ज़लें हम गुनगुनाया करते थे। तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे की बात तो मैं यहां पहले कर ही चुका हूँ। आज उनकी गाई एक और ग़ज़ल जो उस वक़्त बेहद लोकप्रिय हुई थी, का जिक्र करना चाहूँगा। बिल्कुल सहज अंदाज़ और हल्के फुल्के शब्दों से सजी इस ग़ज़ल ने किशोरावस्था के उन दिनों में दिल पर जबरदस्त तासीर छोड़ी थी। जलोटा साहब की वो कैसट तो आज मेरे पास नहीं हैं पर जहाँ तक याद पड़ता है इस ग़ज़ल को शायद मुराद लखनवी ने लिखा था।
अनूप अपनी गाई ग़ज़लों की शुरुआत हमेशा एक क़ता से करते आए हैं। अक्सर ये चार पंक्तियाँ ग़ज़ल के मूड को परवान चढ़ा देती थीं। देखिए तो इस क़ता में शायर ने क्या कहना चाहा है। शायर फरमाते हैं..
मैं तुम्हारे सजल नेत्रों के आँसू बटोर सकता हूँ, तुम्हारी इन अस्त व्यस्त बिखरी जुल्फों को सहेज सकता हूँ। बस एक बार तुम मुझे अपना तो मानो फिर तो तुम्हारा हर ग़म मैं अपनाने को तैयार हूँ..
चश्मे पुरनम खरीद सकता हूँ
जुल्फें बरहम खरीद सकता हूँ
तू अगर अपना बना ले मुझको
तेरा हर ग़म खरीद सकता हूँ
हम सफ़र ग़म जो मोहब्बत में दिया है तुमने
ये भी मुझ पर बड़ा एहसान किया है तुमने
एक मुद्दत से इसी दिन की थी हसरत दिल में
आज मैं खुश हूँ कि दीवाना कहा है तुमने
जब भी टकराई मेरे जिस्म से ये शोख़ हवा
मुझको महसूस हुआ ये के, छुआ है तुमने
क्या मेरे दिल के धड़कने की ही आवाज़ है ये
या फिर कान में कुछ आ कर कहा है तुमने
हिचकियाँ भी कभी कमबख्त नहीं आती हैं
जो यूँ सोचूँ कि याद किया है तुमने
मोहब्बत एक ऐसा दिमागी फितूर है जिसमें ग़म का अक़्स ना हो तो उसका मजा ही क्या। इस प्यारी सी ग़ज़ल के चंद अशआरों में कहीं इश्क़ की खुमारी है तो कहीं विरह की विकलता। पर कुल मिलाकर इस ग़ज़ल को सुन या गुनगुना कर दर्द का मीठा अहसास ही जगता है मन में। क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?
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