कुछ लोग इब्न ए इंशा को बतौर शायर जानते हैं तो कुछ उनके सफ़रनामों को याद करते हैं। फिर उनके व्यंग्य लेखन को कौन भूल सकता है? इन तीनों विधाओं में उन्होंने जो भी लिखा उसमें एक तरह की सादगी और साफगोई थी। पर गंगा जमुनी तहज़ीब से भिगोयी उनकी लेखनी में जब आप इंशा के भीतर का शख़्स टटोलने की कोशिश करते हैं तो उनके बारे में कोई राय बना पाना बेहद मुश्किल होता है। उर्दू की आख़िरी किताब के हर पन्ने को पढ़ कर आप उनके मजाकिया व्यक्तित्व से निकलते हर तंज़ पर दाद देने को आतुर हो उठते हैं, वहीं चाँदनगर में उनकी शायरी को पढ़कर लगता है कि किसी टूटे उदास दिल की कसक रह रह कर निकल रही है। ये बच्चा किसका बच्चा है, बगदाद की इक रात, सब माया है जैसी कृतियाँ उनके वैश्विक, सामाजिक और आध्यात्मिक सरोकारों की ओर ध्यान खींचती हैं। जब जब लोगों ने उनसे इस सिलसिले में प्रश्न किये उन्होंने बात यूँ ही उड़ा दी या फिर साफ कह दिया कि मुझे उन बातों को सबसे बाँटने की कोई इच्छा नहीं। इंशा जी की ही पंक्तियों में अगर उनके मन की बात कहूँ तो...
दिल पीत की आग में जलता है
हाँ जलता रहे इसे जलने दो
इस आग से लोगों दूर रहो
ठंडी ना करो पंखा ना झलो

क़ैसर का शाब्दिक अर्थ बादशाह होता है। पर इ्ंशा जी का जीवन इस बादशाहत से कोसों दूर था। अपनी किताब चाँदनगर की भूमिका में उन्होंने कविता के प्रति अपने झुकाव के बारे में लिखा है
मैं स्वाभाव से रोमंटिक रहा हूँ पर मेरा जीवन किसी राजकुमार सा नहीं था। मेरी लंबी नज़्में ज़िदगी की कड़वी सच्चाईयों को रेखांकित करती हैं। मेरी कविताएँ मेरी रूमानियत और ज़माने के सख़्त हालातों के संघर्ष से उपजी है।
पिछली दफ़े मैंने उर्दू की आख़िरी किताब का जिक्र करते है उनके बेहतरीन sense of humor को उभारा था। आज उनकी जिस नज़्म को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ वो उसके उलट उनके व्यक्तित्व के दूसरे पहलू को सामने लाती है। ये सराय है... उन मुसाफ़िरों की दास्तान है जिन्हें हालात ने रिश्तों के धागे तोड़ते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ने को मज़बूर कर दिया। शायद इंशा जी भी कभी इस मजबूरी का शिकार रहे होंगे..बहरहाल इस नज़्म और उसमें छुपे दर्द को आप तक अपनी आवाज़ में पहुँचाने की कोशिश की है। कुबूल फरमाइएगा..
ये सराय है यहाँ किसका ठिकाना लोगों
याँ तो आते हैं मुसाफ़िर, सो चले जाते हैं
हाँ यही नाम था कुछ ऐसा ही चेहरा मोहरा
याद पड़ता है कि आया था मुसाफ़िर कोई
सूने आँगन में फिरा करता था तन्हा तन्हा
कितनी गहरी थी निगाहों में उदासी उसकी
लोग कहते थे कि होगा कोई आसेबज़दा
हमने ऐसी भी कोई बात न उसमें देखी
ये भी हिम्मत ना हुई पास बिठा के पूछें
दिल ये कहता था कोई दर्द का मारा होगा
लौट आया है जो आवाज़ न उसकी पाई
जाने किस दर पे किसे जाके पुकारा होगा
याँ तो हर रोज़ की बाते हैं ये जीती मातें
ये भी चाहत के किसी खेल में हारा होगा
एक तस्वीर थी कुछ आपसे मिलती जुलती
एक तहरीर थी पर उसका तो किस्सा छोड़ो
चंद ग़ज़लें थीं कि लिक्खीं कभी लिखकर काटीं
शेर अच्छे थे जो सुन लो तो कलेजा थामो
बस यही माल मुसाफ़िर का था हमने देखा
जाने किस राह में किस शख़्स ने लूटा उसको
गुज़रा करते हैं सुलगते हुए बाकी अय्याम
लोग जब आग लगाते हैं बुझाते भी नहीं
अजनबी पीत के मारों से किसी को क्या काम
बस्तियाँवाले कभी नाज़ उठाते भी नहीं
छीन लेते हैं किसी शख्स के जी का आराम
फिर बुलाते भी नहीं , पास बिठाते भी नहीं
एक दिन सुब्ह जो देखा तो सराय में न था
जाने किस देस गया है वो दीवाना ढूँढो
हमसे पूछो तो न आएगा वो जानेवाला
तुम तो नाहक को भटकने का बहाना ढूँढो
याँ तो आया जो मुसाफ़िर यूँ ही शब भर ठहरा
ये सराय है यहाँ किस का ठिकाना ढूँढो ।
आसेबज़दा : प्रेतों के वश में, अय्याम : दिन
दरअसल हर इंसान का व्यक्तित्व इंशा जी की ही तरह अनेक परतों में विभाजित रहता है। कार्यालय. मोहल्ले, परिवार, मित्रों, माशूक और फिर अकेलेपन के लमहों में इस फर्क को आप स्वयम् महसूस करते होंगे। कम से कम अपने बारे में मैं तो ऐसा ही अनुभव करता हूँ। आप क्या सोचते हैं इस बारे में ?
एक शाम मेरे नाम पर इब्ने इंशा
