शुक्रवार, जनवरी 30, 2015

वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 11 : चाँदनिया तो बरसे फिर क्यूँ मेरे हाथ अँधेरे लगदे ने.. Chaandania

जनवरी का महीना खत्म होने को है और वार्षिक संगीतमाला 2014 का ये सफ़र जा पहुँचा है ग्यारहवीं पायदान पर। गीतमाला  के पिछले गीत में तो अमावस्या की काली चादर ओढ़ हमारा ये 'चाँद'  अपने घर होने वाली सेंध को बचा गया था पर आज के इस गीत में देखिए ना विरह का दंश झेलते दो प्रेमियों की झोली में चाँदनी बरसा कर एक दूसरे से मिलने की चाहत को और तीव्रता प्रदान कर रहा है।



इश्क़ की भी अपनी पेचीदगियाँ है साहब। जब इसका नशा चढ़ता है तो इसके सामने मद के सारे प्याले फेल। पर ये खुमारी जब दो लोगों की छोटी छोटी गलतियों और गलतफहमियों का शिकार हो जाए तो उसे एक दूसरे के प्रति अविश्वास व क्रोध में बदलने में देर नहीं लगती। प्रेम तो वहीं रहता है पर उसके सामने अहम की दीवारें खड़ी हो जाती हैं जिसे तोड़ना कई बार बेहद मुश्किल लगने लगता है।

चेतन भगत की किताब पर बनी फिल्म 2 States का ये गीत नायक नायिका के बीच बनी ऐसी ही परिस्थिति के बाद आता है जब अलग रह कर वे  अपने एकाकी जीवन की पीड़ा महसूस कर रहे होते हैं। अमिताभ भट्टाचार्य ने इस गीत के साथ पहली बार इस साल की संगीतमाला में अपना कदम रखा है। अपने प्रियतम की जुदाई की तुलना जिस तरह उन्होंने आग रहित सूरज व बिना राग की कोयल से की है वो गीत के मुखड़े में चार चाँद लगा देती है। विरह वेदना को स्वर देते देते उनकी शब्द रचना सूफ़ियत का रंग ले उठती है जब वे कहते हैं जिस्म ये क्या है खोखली सीपी...रूह दा मोती है तू । अभी ये सुन कर आप मन से वाह वाह कर ही रहे होते हैं कि अगली पंक्ति मेरे सारे बिखरे सुरों से, गीत पिरोती है तू  आपको फिर से लाजवाब कर जाती है।

इस गीत को संगीतबद्ध किया है शंकर अहसान लॉय ने। 2 States और कुछ हद तक 'किल दिल' का संगीत छोड़ दें तो इस तिकड़ी के लिए ये साल अपेक्षाकृत फीका रहा है। पर इस गीत में गिटार की प्रमुखता में किया गया उनका संगीत संयोजन ध्यान खींचता है। उनके दिए संगीत का सबसे खूबसुरत पहलू मुझे अकार्डियन का वो 20 सेकेन्ड का मधुर टुकड़ा लगता है जिसे आप गाने में 1 मिनट 40 सेकेन्ड के बाद सुन सकते हैं। 

इस युगल गीत को आवाज़ दी है मोहन कानन और यशिता शर्मा ने। अगर आप रॉक बैंड अग्नि को सुनते हों तो मोहन कानन आपके लिए अपरिचित नाम नहीं होगा क्यूँकि वो इस बैंड के मुख्य गायक हैं। जहाँ तक यशिता की बात है तो सा रे गा मा पा 2009 में वो प्रथम रनर्स अप रह चुकी हैं। इन दो अपेक्षाकृत नयी आवाज़ों का मिश्रण गाने को एक ताजगी सा प्रदान करता है।

तो आइए सुनते हैं इस गीत को जो अँधेरे में डूबे दिलों को चाँदनी की एक नर्म रोशनी देता हुआ प्रतीत होता है..



तुझ बिन सूरज में आग नहीं रे
तुझ बिन कोयल में राग नहीं रे

चाँदनिया तो बरसे
फिर क्यूँ मेरे हाथ अँधेरे लगदे ने

हाँ तुझ बिन फागुन में फाग नहीं रे
हाँ तुझ बिन जागे भी जाग नहीं रे
तेरे बिना ओ माहिया
दिन दरिया, रैन जज़ीरे लगदे ने
अधूरी अधूरी अधूरी कहानी, अधूरा अलविदा
यूँ ही यूँ ही रह ना जाए अधूरे सदा
अधूरी है कहानी, अधूरा अलविदा

ओ चाँदनिया तो बरसे
फिर क्यूँ मेरे हाथ अँधेरे लगदे ने
केदी तेरी नाराज़गी,गल सुन लै राज़ की
जिस्म ये क्या है खोखली सीपी
रूह दा मोती है तू
गरज़ हो जितनी तेरी, बदले में जिंदड़ी मेरी
मेरे सारे बिखरे सुरों से, गीत पिरोती है तू
ओ माहिया तेरे सितम, तेरे करम
दोनों लुटेरे लगदे ने


तुझ बिन सूरज में आग नहीं रे ... लगदे ने
अधूरी .... सदा
ना ना ना…
फिर क्यूँ मेरे हाथ अधेरे लगदे ने
तेरे बिना, ओ माहिया
दिन दरिया, रैन जज़ीरे लगदे ने 


वार्षिक संगीतमाला 2014 में अब तक 

बुधवार, जनवरी 28, 2015

वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 12 : ये बावला सा सपना, बड़ा बावला सा सपना, रुकना कहाँ है आखिर, नहीं जानता था सपना Baawla Sa Sapna...

हिंदी में बच्चों के लिए फिल्में ज्यादा नहीं बनती। लिहाज़ा उनके लिए लिखे गीत भी गिनती के होते हैं। पर अगर फिल्मों में बच्चों द्वारा गाए गीतों की बात करूँ तो वो संख्या ना के बराबर ही होती है। पर साहेबान कद्रदान अगर मैं ये कहूँ कि इस संगीतमाला का अगला गीत पाँच साल की एक छोटी बच्ची ने गाया है तो क्या आप चौंक नहीं जाएँगे ? इतनी कम उम्र में पार्श्व गायन हिंदी फिल्म इतिहास में संभवतः पहली बार ही हुआ है। ये गायिका हैं दिवा रॉय जिन्होंने फिल्म Shadi Ke Side Effects में स्वानंद किरकिरे का लिखा और प्रीतम का संगीतबद्ध किया एक बेहद प्यारा सा गाना गाया। 

दिवा रॉय Diva Roy

दिवा बिना संगीत की विधिवत शिक्षा लिए हुए भी इस गाने के लिए प्रीतम जैसे संगीतकार द्वारा चुन ली गयीं इसका मतलब ही यही बनता है कि संगीत उन्हें विरासत में मिला है। उनकी माँ प्रीथा मज़ुमदार हिंदी और बंगाली फिल्मों में पार्श्व गायिका रही हैं जबकि उनके पिता राजेश रॉय ख़ुद एक संगीतकार हैं। ढाई साल की उम्र से ही माँ की देखा देखी उन्होंने गाना शुरु कर दिया था। माँ के रियाज़ के साथ गाते गाते वो किसी फिल्म के गाने का हिस्सा बन जाएगी ये दिवा ने भी कहाँ सोचा होगा? वैसे सोचने की उसकी उम्र ही अभी कहाँ हुई है :)

दरअसल इस गाने के लिए प्रीतम एक बाल कलाकार ढूँढ रहे थे। दिवा की माँ की मित्र ने जब उन्हें प्रीतम की इस आवश्यकता के बारे में बताया तो प्रीथा ने अपनी बेटी के पहले से रिकार्ड किए गए गीत भिजवा दिए। प्रीतम को दिवा की आवाज़ पसंद आ गयी। ये दिवा की प्रतिभा का कमाल था कि उन्होंने एक ही दिन में गीत की रिकार्डिंग पूरी कर प्रीतम को संतुष्ट कर दिया।

जैसा कि मैंने आपको बताया ये गीत लिखा है स्वानंद किरकिरे ने और जब स्वानंद भाई गीतकार होंगे तो गीत के बोल तो खास होंगे ही। स्वानंद वैसे तो इस गीत में एक ऐसे 'सपने' की कहानी सुना रहे हैं जो अपने बेटे के लिए चाँद को चुरा कर लाना चाहता है। यानि सपने का मानवीकरण....है ना मज़ेदार सोच !

पर मज़े मजे की बात में वो हमारे असली सपनों के लिए भी कितनी सच्ची बात कह जाते हैं। वो ये कि हम सभी के सपनों में एक तरह का पागलपन होता है। आकाश को चूमने की ललक में अपने पंख फड़फड़ाते रहते हैं, ये जानते हुए भी कि आसमान तक की दूरी का कोई ठौर नहीं है। सीमाओं की वर्जना उन्हें दिखाई नहीं देती। वे उड़ते जाते हैं... उड़ते जाते हैं..। अपने इस बावलेपन में उन्हें ये भी अहसास नहीं होता कि कब उनके डैनों की शक्ति क्षीण हुई और कब वो औंधे मुँह गिर पड़े। इसीलिए स्वानंद कहते हैं ये बावला सा सपना, बड़ा बावला सा सपना रुकना कहाँ है आखिर, नहीं जानता था सपना

स्वानंद ने गीत की भाषा ऐसी रखी है जिसमें बच्चों सा भोलापन है, एक नर्मी है जो हमें गुदगुदाती भी है और संवेदनशील भी करती है। प्रीतम गीत को पियानो की मधुर धुन और बच्चों को कोरस से शुरु करते हैं और फिर दिवा की आवाज़ में गीत के भावों के साथ आप अंतिम तक बँधे चले जानते हैं। तो आइए सुनते हैं इस चुलबुले से गीत को..



आओ जी आओ, सुनो तुमको सुनाऊँ
इक सपने की स्टोरी,
कि मेरी पलकों की टपरी के नीचे
वो रहता था सपना टपोरी
अम्बर में उड़ने का शौक़ उसे था
अक्ल थी थोड़ी
अरे चुपके से टुपके से करना वो चाहता था
'मून' की चोरी


ये बावला सा सपना, बड़ा बावला सा सपना
मेरी मानता नहीं है, मेरा ही है वो सपना
ये बावला सा सपना, बड़ा बावला सा सपना
रुकना कहाँ है आखिर, नहीं जानता था सपना


सपने का था बेटा सपनू
प्यारा प्यारा, बड़ा दुलारा बोला
पापा आना, जल्दी जल्दी
तुम चंदा लाना
हड़बड़ी में, गड़बड़ी में
सपना निकला, सँभला, फिसला
उड़ा पहुँचा पहुँचा
चाँद के घर गया

वो रात थी अमासी
छुट्टी पे था जी चंदा
दबे पाँव गया था
खाली हाथ लौटा बंदा
ये बावला सा ...

बादल बादल घूमे पागल
सपनू को अब कैसे दिखाए
चेहरा चेहरा चेहरा…
या या या ये अपना चेहरा
तभी सड़क पे पड़ा दिखा एक
उजला उजला, प्यारा प्यारा
शीशा शीशा
शीशे में उसको जाने क्या दिखा

सपनू को जा दिखाया, शीशे में उसका चेहरा
बोला मेरे प्यारे सपनू , तू ही है चाँद अपना
ये बावला सा ....

इस गीत को चित्रों के माध्यम से उकेरने का एक खूबसूरत प्रयास जो मुझे यू ट्यूब पर मिला..




वार्षिक संगीतमाला 2014

सोमवार, जनवरी 26, 2015

वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 13 : गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले.. Gulon Mein Rang Bhare

पिछले साल के बेहतरीन गीतों को ढूँढते हुए हम आ चुके हैं संगीतमाला के बीचो बीच यानि इसके बाद शुरु होगा शीर्ष की बारह पायदानों का सफ़र। संगीतमाला की तेरहवीं पॉयदान पर जो ग़ज़ल है उसके बारे में पिछले साल नवंबर में विस्तार से चर्चा कर चुका हूँ। विशाल भारद्वाज ने मेहदी हसन साहब की गाई और फै़ज़ की लिखी इस ग़ज़ल को हैदर में इतनी खूबसूरती से समाहित किया कि ये ग़ज़ल फिल्म का एक जरूरी हिस्सा बन गई।


फ़ैज़ की लिखी ग़ज़ल के भावार्थ को आज दोबारा नहीं लिखूँगा। अगर आप ने मेरी पिछली पोस्ट ना भी पढ़ी हो तो मेरी इस पॉडकॉस्ट को सुन लें जो मेरे उसी आलेख पर आधारित थी।


पर विशाल ने फिल्म की कहानी के साथ इस ग़ज़ल के अलग अलग मिसरों को वादी-ए-कश्मीर के हालातों से जोड़ कर उसे एक अलग माएने ही दे दिए हैं। फिल्म में पहली बार ये ग़ज़ल तब आती है जब डा. साहब (फिल्म में हैदर के पिता का किरदार) मेहदी हसन साहब की ग़ज़ल सुनते हुए गुनगुना रहे हैं और हैदर जेब खर्च माँगने के लिए वो ग़ज़ल बंद कर देता है। उसे पैसे मिलते हैं पर तभी जब वो ग़ज़ल का जुमला याद कर सुना देता है..

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले...

लेखिका मनरीत सोढ़ी सोमेश्वर ने इस ग़ज़ल के मतले को फिल्म की कहानी से जोड़ते हुए अपने एक अंग्रेजी आलेख में लिखा था
"कश्मीर के बाग बागीचों का कारोबार तो नब्बे के दशक के मध्य में ही बंद हो गया था। हैदर की कहानी भी इसी समय की है। चिनार के पेड़ ही इस वादी को उसकी रंगत बख्शते थे। वही  दरख्त जिनके सुर्ख लाल रंग को देख कर फारसी आक्रमणकारियों आश्चर्य से बोल उठे थे चिनार जिसका शाब्दिक अर्थ था क्या आग है ! और उस वक़्त वादी प्रतीतात्मक रूप में ही सही भारतीय सेना और आतंकियों की गोलीबारी के बीच जल ही तो रही थी।"
ग़ज़ल का अगला मिसरा भी तब उभरता है जब क़ैदखाने में डा. साहब यातनाएँ झेल रहे होते हैं। फिल्म में एक संवाद है  कैदखानों की उन  कोठरियों में सारी चीखें, सारी आहें जब  दफ़्न हो जाती थीं तब एक आवाज़ बिलखते हुए सन्नाटे से सुर मिला के रात के जख्मों पर मलहम लगाया करती थी।

कफ़स उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बह्र-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

सच तो ये है कि विशाल भारद्वाज ने फिल्म में अरिजित की ग़ज़ल इस्तेमाल ही नहीं की। पर उसे पहले प्रमोट कर देखने वाले के ज़ेहन में उसे बैठा दिया ताकि कहानी में जब उसके मिसरे गुनगुनाए जाएँ  तो लोग उसे कहानी से जोड़ सकें। मेहदी हसन की इस कालजयी ग़ज़ल को गाने की कोशिश कर पाना ही अपने आप में अरिजित के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। नाममात्र के संगीत (पूरे गीत में आपको गिटार की हल्की सी झनझनाहट के साथ मात्र ड्रम्स संगत में बजती हुई सुनाई देती है) के साथ अपनी आवाज़ के बलबूते पर उन्होंने इस ग़ज़ल को बखूबी निभाया है।

तो आइए सुनते हैं इस फिल्म के लिए रिकार्ड की गई ये ग़ज़ल


वार्षिक संगीतमाला 2014

शनिवार, जनवरी 24, 2015

वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 14 : मैं ढूँढने को ज़माने में जब वफ़ा निकला.. पता चला कि गलत ले के मैं पता निकला

वार्षिक संगीतमाला की पिछली पायदान पर के गीत के उलट आज जिस गीत को आप सबसे मिलवाने जा रहा हूँ वो शायद ही आपने पहले सुना होगा। ये गीत है पिछले साल फरवरी में प्रदर्शित हुई फिल्म Heartless का। इस संगीतमाला में बतौर संगीतकार आप एक डॉक्टर अर्को प्रावो मुखर्जी से मिल चुके हैं, आज मिलिए IIM Ahemdabad से MBA करने वाले गौरव डागोनकर से। आज से ठीक तीन साल पहले फिल्म लंका के लिए सीमा सैनी द्वारा लिखे गीत शीत लहर है, भींगे से पर हैं थोड़ी सी धूप माँगी है ने गौरव की प्रतिभा से मेरा पहला परिचय करवाया था। 

एक उच्च मध्यम वर्गीय पढ़े लिखे परिवार से जुड़े गौरव ने अपनी डिग्री, पैसे सब को अपने पहले प्रेम संगीत के प्रति न्योछावर कर दिया। पर फिल्म उद्योग में सिर्फ प्रतिभा होना ही काफी नहीं, आपको सही मौके भी मिलने चाहिए। पिछले तीन सालों में गौरव की झोली में कुछ ज्यादा गीत नहीं आए और यही वज़ह है कि अपना समय उन्होंने अपने बैंड Synchronicity को दिया जिसके वो मुख्य गायक भी हैं। फ्यूजन के इस युग में उन्होंने हिंदी के कई गीतों को मशहूर अंग्रेजी गीतों के साथ जोड़ा और ये गीत इंटरनेट पर काफी सराहे भी गए। कुछ दिनों पहले उन्होंने श्रीलंका की सिंहला भाषा में भी गीत गाया जो वहाँ काफी लोकप्रिय हुआ। 


पर जहाँ तक हिंदी फिल्म संगीत की बात है 2014 की शुरुआत में फिल्म Heartless का संगीत देने का मौका उन्हें जरूर मिला। Heartless ज्यादा नहीं चली और यही वज़ह रही कि फिल्म में अरिजित सिंह का गाया ये शानदार नग्मा मैंने फिल्म प्रदर्शित होने के कई महीने बाद सुना। इस गीत के बोल लिखे हैं अराफ़ात महमूद ने। महमूद साहब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं। अपने लिखे इस गीत के बारे में उनका कहना है

कई गीतों को लिखने के बाद ऐसा एक गीत बाहर आता है जो कि आपके लिखे हजार गानों पर भारी पड़ता है। ऐसी सिर्फ मेरी राय नहीं बल्कि सबकी राय थी। अरिजित जब इस गाने को गा रहे थे तो वो बेहद खुश थे कि देखो क्या गाना मिल गया है।
वैसे गौरव ने जब इस गीत हे बारे में शेखर सुमन को बताया तब तक फिल्म की शूटिंग पूरी हो चुकी थी और फिल्म में इसे रखने की जगह नहीं बची थी। शेखर ने तब फिल्म के Promotional Song की तरह इसका इस्तेमाल किया। वार्षिक संगीतमाला के गीतों को चुनते समय पहली बार जब मैंने गीत का मुखड़ा सुना तो मेरे दिल से सीधे वाह वाह निकली... मैं ढूँढने को ज़माने में जब वफ़ा निकला.. पता चला कि गलत ले के मैं पता निकला। प्यार की राह में टूटे दिलों की दास्तान को इन दो पंक्तियों में किस सहजता से उभार लाए महमूद साहब। मुखड़े का ये आकर्षण गीत के अगले दो अंतरों में भी वे जस का तस बनाए रखने में सफल रहे हैं।

गीत पियानो की मधुर धुन से शुरु होता है और फिर लहराती हुई अरिजित की आवाज़ गीत के जानदार मुखड़े से आपका तआरुफ कराती है। बोलों से दर्द की छुअन आप महसूस कर ही रहे होते हैं कि वॉयलिन से सजा संगीत संयोजन उसे और प्रगाढ़ कर जाता है।  आराफ़ात साहब जब जब गीत गीत में वफ़ा, ख़ुदा और जीने की वज़ह ढूँढने को निकलते हैं मन की कचोट कुछ और गहरी हो उठती है।

तो आइए सुनते हैं ये गीत..





मैं ढूँढने को ज़माने में जब वफ़ा निकला
पता चला कि गलत ले के मैं पता निकला
आ हा...

जिसके आने से मुकम्मल हो गई थी ज़िदगी
दस्तकें खुशियों ने दी थी, मिट गई थी हर ग़मी
क्यूँ बेवज़ह दी ये सज़ा, क्यूँ ख्वाब दे के वो ले गया
जियें जो हम, लगे सितम, अज़ाब ऐसे वो दे गया
मैं ढूँढने को उसके दिल में जो ख़ुदा निकला
पता चला कि गलत ले के मैं पता निकला आ हा...
मैं ढूँढने को ज़माने में वफ़ा निकला..

ढूँढता था एक पल में दिल जिसे ये सौ दफ़ा
है सुबह नाराज उस बिन, रूठी शामें, दिन ख़फा
वो आएँ ना ले जाएँ ना
हाँ उसकी यादे जो हैं यहाँ
ना रास्ता, ना कुछ पता
मैं उसको ढूँढूगा अब कहाँ
मैं ढूँढने जो कभी जीने की वज़ह निकला
पता चला कि गलत ले के मैं पता निकला आ हा...

वार्षिक संगीतमाला 2014

गुरुवार, जनवरी 22, 2015

वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 15 : तेरी गलियाँ, गलियाँ तेरी गलियाँ Galliyan

वार्षिक संगीतमाला की 15 वीं पायदान का गाना सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए नया हो सकता है जो आज कल के गानों को बिल्कुल ही ना सुनते हों। जी हाँ मैं एक विलेन के गीत गलियाँ की बातें कर रहा हूँ जो इस साल शायद ही किसी गली या नुक्कड़ पर ना बजा हो। वैसे भी इस गीत के जनक अंकित तिवारी सही मायने में नई संगीतकार पौध के रॉकस्टार हैं। इनके गीतों में एक ओर तो इलेक्ट्रिक गिटार और ड्रम्स का हल्का सा ओवरडोज होता है पर साथ में सुरीली सी मेलोडी भी होती है। अच्छी आवाज़ के मालिक तो अंकित हैं ही, साथ ही ऊँचे सुरों पर उनकी पकड़ भी मजबूत है। इन सब का मिश्रण युवाओं पर जादू सा असर करता है।

पिछले साल आशिकी 2 में रो रहा है ना तू में मिली जबरदस्त सफलता के बाद अंकित के कैरियर को बड़ा झटका तब लगा जब बेवफाई के आरोप में उन पर एक मुकदमा दायर हो गया। पर इन सब उतार चढ़ावों के बाद भी वो एक विलेन में संगीतबद्ध किए गीत में अपनी पुरानी लय में लौटते दिखे हैं। अंकित तिवारी एक साथ ढेर सारा काम नहीं करना चाहते। उनका मानना है कि सुकून से कोई काम किया जाए तभी कोई बेहतर चीज़ निकलती है। अंकित अपने काम का मूल्यांकन ख़ुद करते हैं और जब वो उससे संतुष्ट होते हैं तभी वो धुन किसी निर्देशक की झोली में जाती है।


एक विलेन के इस गीत के लिए गीतकार मनोज मुन्तसिर ने उन्हें दो पंक्तियाँ भेजी थीं यहीं डूबे दिन मेरे, यहीं होते हैं सवेरे..यहीं मरना और जीना, यहीं मंदिर और मदीना। अपनी चिरपरिचित शैली में अंकित तिवारी ने इस मुखड़े को लेकर गिटार , बाँसुरी और वॉयलिन को प्रमुखता से इस्तेमाल करते हुए जो धुन तैयार की वो आम जनता द्वारा हाथो हाथ ली गई।

बतौर गीतकार मेरा परिचय मनोज मुन्तसिर से पाँच साल पहले हुआ था जब उनका लिखा हुआ फिल्म The Great Indian Butterfly का गीत बड़े नटखट है मोरे कँगना संगीतमाला के प्रथम पाँच गीतों में अपनी जगह बना पाया था। अमेठी से ताल्लुक रखने वाले मनोज शुक्ला को कविता के प्रेम ने मनोज मुन्तशिर बना दिया। अगर आज वो मुंबई के फिल्म उद्योग का हिस्सा हैं तो इसका श्रेय  साहिर लुधयानवी को मिलना चाहिए। आपका प्रश्न होगा आख़िर क्यूँ ? अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था
"मैं एक बार अमेठी से इलाहाबाद जा रहा था। गाड़ी जब प्रतापगढ़ पहुँची तो ट्रेन में कुछ तकनीकी खराबी आ गई। मैं समय काटने के लिए प्लेटफार्म पर टहलने लगा कि अचानक बुक स्टॉल पर मुझे साहिर का एक कविता संग्रह दिखा। गाड़ी के बनने और फिर उसके इलाहाबाद पहुँचने तक वो पुस्तक मैंने पढ़ डाली और साथ ही ये फ़ैसला भी कर लिया कि मुझे भी मुंबई जाकर एक गीतकार बनना है।"

मनोज का कहना है कि एक गीतकार के लिए सबसे दुष्कर कार्य फिल्म की पेचीदा परिस्थितियों को समझते हुए सरल से सरल शब्दों में उन भावों को व्यक्त करना है ताकि एक रिक्शे वाले से लेकर उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति को वो समान रूप से असर करे। गलियाँ की सफलता का कारण भी वे यही मानते हैं। इस गीत में मनोज की लिखी  सहज पक्तियाँ जो मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करती हैं  वो हैं तू मेरी नींदों मे सोता है, तू मेरे अश्क़ो में रोता है... और  कैसा है रिश्ता तेरा-मेरा, बेचेहरा फिर भी कितना गहरा।

यहीं डूबे दिन मेरे, यहीं होते हैं सवेरे
यहीं मरना और जीना, यहीं मंदिर और मदीना

तेरी गलियाँ, गलियाँ तेरी गलियाँ
मुझको भावें गलियाँ, तेरी गलियाँ
तेरी गलियाँ, गलियाँ तेरी गलियाँ
यूँ ही तड़पावें, गलियाँ तेरी गलियाँ

तू मेरी नींदों मे सोता है, तू मेरे अश्क़ो में रोता है
सरगोशी सी है ख्यालों में, तू ना हो, फिर भी तू होता है
है सिला तू मेरे दर्द का, मेरे दिल की दुआयें हैं
तेरी गलियाँ...

कैसा है रिश्ता तेरा-मेरा, बेचेहरा फिर भी कितना गहरा
ये लमहे, लमहे ये रेशम से, खो जायें, खो ना जायें हमसे

काफिला, वक़्त का रोक ले, अब दिल से जुदा ना हों
तेरी गलियाँ...


तो आइए अंकित की आवाज़ की गूँज के साथ अपनी गूँज मिलाइए इस गीत में..


वार्षिक संगीतमाला 2014

मंगलवार, जनवरी 20, 2015

वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 16 : अर्जियाँ दे रहा है दिल आओ.. Tu Mera Afsana.

वार्षिक संगीतमाला की अगली सीढ़ी पर है मेरे चहेते गायकों की युगल जोड़ी यानि पापोन और श्रेया घोषाल ! पापोन पिछली बार वार्षिक संगीतमाला में अवतरित हुए थे 2012 मैं और वो भी सरताजी बिगुल के साथ यानी चोटी की पॉयदान पर बर्फी के यादगार गीत क्यूँ ना हम तुम के साथ। पिछले साल पापोन ने फिल्म लक्ष्मी और Happy Ending के लिए दो प्यारे से गाने गाए थे ..सुन री बावली तू अपने लिए ख़ुद ही माँग ले दुआ  (लक्ष्मी) और  तेरी याद में हुआ मैं सजायाफ़्ता  (Happy Ending)। पर वार्षिक संगीतमाला में उनके जिस गीत ने अपनी जगह बनाई है वो है विद्या बालन की फिल्म बॉबी जासूस से। पापोन को ये गीत फिल्म की सह निर्माता और अभिनेत्री दीया मिर्जा की वज़ह से मिला जो मेरी तरह ही उनकी मखमली आवाज़ की शैदाई हैं। इस गीत में पापोन का साथ दिया नए ज़माने की स्वर कोकिला श्रेया घोषाल ने।


बॉबी जासूस के इस गीत के साथ संगीतमाला में दूसरी बार प्रवेश कर रही है शान्तनु मोइत्रा और स्वानंद किरकिरे की जोड़ी।  गीत के बनने की कहानी भी काफी दिलचस्प है। फिल्म के निर्माता और निर्देशक के साथ म्यूजिक सिटिंग चल रही थी। शान्तनु ने अपनी एक धुन सुनाई। किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया ना ही कुछ आलोचना की। शान्तनु को समझ आ गया कि मामला कुछ जमा नहीं। उन्होंने थोड़ा जोख़िम लेते हुए अपनी एक दूसरी धुन निकाली जो शास्त्रीयता का पुट लिए हुई थी। जब उन्होंने उठ कर गाना शुरु किया तो सब उन्हें मंत्रमुग्ध से बैठे बैठे एकटक देखते रहे और दीया तो इतनी भावुक हो उठीं कि उनकी आँखों से आँसू बह निकले।

गीत तो स्वीकृत हो गया पर उसे शब्दों का ज़ामा पहनाने की जवाबदेही स्वानंद को सौंपी गई और उन्होंने अपने हुनर से उसमें चार चाँद लगा दिए। ज़रा गौर फरमाइए इन काव्यात्मक बोलों पर आहटें कुछ नई सी जागी हैं..मौसीक़ी एक नई सी सुन जाओ या फिर जागी सी आँखों को, दे दो ना पलकों की चादर ज़रा..रूखे से होठों को, दे दो ना साँसों की राहत ज़रा। इतने प्यारे बोलों को सुनकर किसका मूड रूमानी ना हो जाए। वैसे क्या आपको पता है कि बहुगुण सम्पन्न स्वानंद एक गीतकार के रूप में अपने आप को स्थापित करने के बाद आजकल  क्रेजी कक्कड़ फैमिली में निभाए अपने किरदार की वज़ह से भी ढेरों वाहवाही लूट रहे हैं।

शान्तनु का गीत एक द्रुत लय से शुरु होता है पर असली आनंद तब आता है जब शास्त्रीयता का रंग लिए अर्जियाँ दे रहा है दिल आओ वाला हिस्सा कानों में पड़ता है। गीत में सितार और तबले का व्यापक इस्तेमाल हुआ है। अंतरों के बीच सितार से जुड़े कुछ टुकड़े ध्यान खींचते हैं। इस गीत के दो वर्सन है। इन दो रुपों में फर्क बस इतना है कि पहले में जो हिस्सा पापोन गाते हैं उसे दूसरे में श्रेया निभाती हैं। मुझे तो दोनों ही रूप पसंद हैं..देखें आपको कौन सा अच्छा लगता है।

 

तू मेरा अफ़साना, तू मेरा पैमाना, तू मेरी आदत इबादत है तू
तू मेरा मुस्काना, तू मेरा घबड़ाना, तु मेरी गुस्ताखी माफ़ी है तू
तू मेरी रग रग में, तू मेरी नस नस में
तू मेरी जाँ है और तू मेरी रुह
तू ही जुनूँ भी है तू ही नशा भी है
तू ही दुआ मेरी, सज़दा भी तू


अर्जियाँ दे रहा है दिल आओ
सुन लो कुछ कह रहा है दिल आओ
आहटें कुछ नई सी जागी हैं
मौसीक़ी इक नई है सुन जाओ

अर्जियाँ दे....तू

जागी सी आँखों को, दे दो ना पलकों की चादर ज़रा
रूखे से होठों को, दे दो ना साँसों की राहत ज़रा
तनहा सी  रातों को दे दो ना ख़्वाबों की सोहबत ज़रा
ख़्वाहिशे ये कहें, दे दो ना अपनी सी
उल्फ़त ज़रा

रंजिशें भूल कर चले आओ
अर्जियाँ दे रहा है दिल आओ...

बिन तेरे ज़िंदगी यूँ ही बेवज़ह बेमानी लगे
बिन तेरे ज़िंदगी, जैसे अधूरी कहानी लगे
बिन तेरे बस्तियाँ क्यूँ दिल की सूनी वीरानी लगे
बिन तेरे ज़िंदगी, क्यूँ ख़ुद ही ख़ुद से बेगानी लगे

मर्जियाँ मोड़ कर चले आआो
अर्जियाँ दे रहा है दिल आओ...




वैसे ये गीत मैं जितनी बार सुन रहा हूँ ये उतना ही बेहतर लग रहा है और शायद संगीतमाला के अंत तक ये कुछ छलांगे मारता और ऊपर पहुँच जाए तो आश्चर्य नहीं.. :)


वार्षिक संगीतमाला 2014

रविवार, जनवरी 18, 2015

वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 17 : कोई मुझको यूँ मिला है, जैसे बंजारे को घर Banjara..

वार्षिक संगीतमाला में आज बारी है सत्रहवी पायदान के गीत की। ये गीत है फिल्म 'एक विलेन' का जो  साल 2014 के सफल एलबमों में से एक रहा है।  मोहित सूरी के निर्देशन में बनी ज्यादातर फिल्में संगीत के लिहाज़ से सफल रही हैं और इसकी एक बड़ी वज़ह है संगीतकार मिथुन शर्मा के साथ उनका बढ़िया तालमेल। इस आपसी समझ का ही कमाल था कि इस जोड़ी ने मौला मेरे मौला, तेरे बिन मैं यू कैसे जिया, वो लमहे वो रातें, तुम ही हो जैसे गीत दिए जो बेहद लोकप्रिय हुए। इस समझ के पीछे के राज के बारे में मिथुन कहते हैं

"मोहित के साथ काम करने का मज़ा ये है कि वो आपको वक़्त देते हैं। गीत में संगीत कैसा होगा इसमें वो कभी दखल नहीं देते। वो फिल्म की परिस्थिति या चरित्र के बारे में इस तरह बताते हैं कि मन में एक भावनात्मक आवेश सा आ जाता है और वही धुन को विकसित करने में काम आता है। मोहित मुझसे यही कहते हैं कि जब तक धुन से तुम संतुष्ट नहीं हो जाते, तुम मेरे पास मत आओ और ना हीं मैं तुम्हें उसके बारे में पूछूँगा। उनके इस तरीके की वज़ह से ही शायद मैं उनके साथ अब तक अच्छा काम कर सका हूँ।"

लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की जोड़ी वाले प्यारेलाल से दो साल की शागिर्दी में  मिथुन को ये स्पष्ट हो गया था कि उन्हें आगे चलकर संगीत में ही मुकाम बनाना है। अगर मिथुन के पिछले साल के कुछ गीतों पर ध्यान दें तो वो सारे आपको एक ही विषय से जुड़े मिलेंगे और वो है रोमांस। मिथुन की इस बारे में बड़ी प्यारी सोच है। वे इस बारे में कहते हैं

"रोमांस मुझे प्रेरणा देता है। मैं जब दो लोगों एक दूसरे के प्रेम में डूबा देखता हूँ, जब मैं उन्हें इस प्यार की वज़ह से ही लड़ते झगड़ते देखता हूँ या जब उन्हें अपनी पूरी ज़िंदगी इसी प्यार पर कुर्बान होते देखता हूँ तो मुझे लगता है कि ऐसा संगीत बनाऊँ जो इस जज़्बे को समर्पित हो।"


एक ज़माना था जब मिथुन अपने गीत अक़्सर सईद क़ादरी साहब से लिखवाया करते थे पर आजकल वो अपने गीत वे ख़ुद ही लिखते हैं। मोहित सूरी ने नायक का जो चरित्र मिथुन के सामने रखा वो ही बंजारा का रूप लेकर इस गीत की शक्ल में आया। अमूल स्टार वॉयस आफ इंडिया और सा रे गा मा में प्रतिभागी रह चुके मोहम्मद इरफ़ान से उन्होंने ये गीत गवाया। इरफ़ान की गायिकी के बारे में दिल सँभल जा ज़रा फिर मोहब्बत करने चला है तू  की चर्चा करते वक़्त आपको पहले भी बता चुका हूँ। वे एक बेहद सुरीली आवाज़ के मालिक हैं और इस गीत में उनकी आवाज़ बोलों की तरह ही सुकूँ के कुछ पल मुहैया कराती है। 

मिथुन के संगीत संयोजन में हमेशा पियानो का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है और इस गीत की शुरुआत में एक बार फिर उन्होंने अपने चहेते वाद्य यंत्र का सहारा लिया है।जैसे कोई किनारा देता हो सहारा ... के पहले के इंटरल्यूड में हारमोनियम का जो प्रयोग उन्होंने किया है उसे सुनकर दिल खुश हो जाता है।

मिथुन के बोल सहज होते हैं पर मधुर धुन की चाशनी में वो हौले से दिल को सहला जरूर जाते हैं। तो आइए सुनते हैं ये गीत..




जिसे ज़िन्दगी ढूँढ रही है, क्या ये वो मकाम मेरा है
यहाँ चैन से बस रुक जाऊँ, क्यूँ दिल ये मुझे कहता है
जज़्बात नये से मिले हैं, जाने क्या असर ये हुआ है
इक आस मिली फिर मुझको, जो क़ुबूल किसी ने किया है

किसी शायर की ग़ज़ल, जो दे रूह को सुकूँ के पल
कोई मुझको यूँ मिला है, जैसे बंजारे को घर
नए मौसम की सहर, या सर्द में दोपहर
कोई मुझको यूँ मिला है, जैसे बंजारे को घर

जैसे कोई किनारा, देता हो सहारा, मुझे वो मिला किसी मोड़ पर
कोई रात का तारा, करता हो उजाला, वैसे ही रोशन करे वो शहर
दर्द मेरे वो भुला ही गया. कुछ ऐसा असर हुआ
जीना मुझे फिर से वो सिखा रहा, जैसे बारिश कर दे तर, या मरहम दर्द पर
कोई मुझको यूँ मिला है, जैसे बंजारे को घर...

मुस्काता ये चेहरा, देता है जो पहरा, जाने छुपाता क्या दिल का समंदर
औरों को तो हरदम साया देता है, वो धूप में है खड़ा खुद मगर
चोट लगी है उसे फिर क्यूँ, महसूस मुझे हो रहा
दिल तू बता दे क्या है इरादा तेरा, मैं परिंदा बेसबर, था उड़ा जो दरबदर
कोई मुझको यूँ मिला है, जैसे बंजारे को घर...

वैसे क्या कभी आपने मुस्काते चेहरों के पीछे छुपे दिल के समंदर को टटोलने की कोशिश की है? शायद ये गीत आपको ऐसे ही किसी शख़्स की याद दिला दे..

    वार्षिक संगीतमाला 2014

      गुरुवार, जनवरी 15, 2015

      वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 18 : पलकें ना भिगोना, ना उदास होना...नानी माँ. Nani Maan

      भारतीय समाज में जिस ढाँचे के भीतर रहकर हम पलते बढ़ते हैं उसमें माता पिता व भाई बहन के आलावा कई रिश्ते साथ फलते फूलते हैं। दादा दादी और नाना नानी के साथ बीते पल आप में से कइयों की ज़िंदगी के अनमोल पल रहे होंगे। ये चरित्र भारतीय हिंदी फिल्मों का भी हिस्सा रहे हैं और समय समय पर उनको केंद्र में रखकर गीत भी बनते रहे हैं।

      बुजुर्गों पर बने दो गीतों को तो मैं कभी नहीं भुला सकता। एक तो दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ, छोड़ो भी ये गुस्सा ज़रा हँस के दिखाओ.. और दूसरा नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए, बाकी जो बचा वो काले चोर ले गए....। बचपन में ना केवल इन गीतों को गुनगुनाने में मज़ा आता था पर साथ ही जब बाहर से कोई आता तो उसके सामने इसकी कुछ पंक्तियाँ दोहराते ही ढेर सारी शाबासी मिल जाया करती थी। थोड़े बड़े हुए तो ये गीत अंत्याक्षरी के बहाने याद कर लिए जाते थे। आज भी इन गीतों को याद कर बचपन सामने आ जाता है।

      इसीलिए पिछले साल के गीतों में फिल्म सुपर नानी में नानी माँ को समर्पित ये गीत दिखाई दिया तो सुखद आश्चर्य हुआ। नानी के प्रति अपनी कृतज्ञता को प्रदर्शित करते इस गीत को सोनू निगम ने जिस भावप्रवणता से गाया है वो काबिलेतारीफ़ है। पर अगर ये गीत इतना प्रभावी बन पड़ा है तो इसमें संगीतकार हर्षित सक्सेना का बेहतरीन संगीत संयोजन और समीर के सहज पर मन को छूते शब्दों का भी हाथ है।

      अगर आप टीवी चैनलों पर संगीत से जुड़े कार्यक्रम देखते हों तो हर्षित सक्सेना को जरूर पहचानते होंगे। अमूल स्टार वॉयस आफ इ्डिया में बतौर गायक अपने हुनर का परचम लहराने वाला लखनऊ का ये जवान आज उस गायक के साथ बतौर संगीत निर्देशक के काम कर रहा है जो कभी रियालटी शो में उनके जज की भुमिका निभाते थे। तोशी शाबरी की तरह हर्षित उन कुछ प्रतिभागियों में है जो संघर्ष कर कुछ हद तक मु्बई के फिल्म जगत में पैठ बनाने में सफ़ल हुए हैं। आज भी संगीतकार से ज्यादा वो अपने आप को गायक मानते हैं पर उस दिशा में अरिजित जैसी सफलता प्राप्त करने के लिए उन्हें एक लंबे और कठिन सफ़र के लिए तैयार रहना होगा।

      फिल्म सुपर नानी के इस गीत का आरंभ गिटार व बाँसुरी की धुन से होता है। इंटरल्यूड्स में बाँसुरी का साथ देता आर्केस्ट्रा मन को सोहता है। सोनू  निगम ने गीत में हो रहे सुरो से उतार चढ़ाव को बड़ी खूबसूरती से निभाया है। इस साल उनके गाए गीतों से ऐसा लग रहा है कि हिंदी फिल्मों में पार्श्व गायिकी के प्रति पिछले कुछ सालों में उनके मन में जो उदासीनता आ गई थी उसे दूर हटाते हुए अपना पूरा ध्यान अब वो अपनी गायिकी पर लगा रहे हैं। तो आइए सुनते हैं उनकी आवाज़ में ये नग्मा..

      पलकें ना भिगोना, ना उदास होना
      तुझको है कसम मेरी, अब कभी ना रोना

      तूने मुस्कान दी, सबको पहचान दी
      सबपे वार दी ज़िन्दगी
      दुःख सबका लिया,दी है सबको ख़ुशी
      कोई शिकवा किया ना कभी
      सूरज, चंदा, ज़मीन, आसमान
      कोई तुझसा नहीं है यहाँ, नानी माँ.. नानी माँ ..

      मेरी माँ भी बुलाये तुझे कह के माँ
      तेरा दर्ज है रब से भी ऊँचा यहाँ
      तेरे आँचल में धूप है साया
      तूने ही जीना सबको सिखाया
      सबपे लुटाती है जान नानी माँ.. नानी माँ ..

      चोट खाती रही ज़ख्म सीती रही
      तू तो औरों की खातिर ही जीती रही
      तूने खुद को ना पहचाना
      मोल तेरा तूने ना जाना
      तेरे दम से दोनों जहाँ, नानी माँ.. नानी माँ ..



        वार्षिक संगीतमाला 2014

          मंगलवार, जनवरी 13, 2015

          वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 19 : चार कदम बस चार कदम, चल दो ना साथ मेरे Char Kadam ..

          वार्षिक संगीतमाला की अगली सीढ़ी पर है स्वानंद, शान्तनु और शान की तिकड़ी। मुझे याद है कि इससे पहले इस तिकड़ी की भागीदारी से एक और गाना एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला की शोभा बढ़ा चुका है। वो गीत था फिल्म Three Idiots का और गाने के बोल थे बहती हवा सा था वो। 


          पाँच साल बाद इस तिकड़ी ने फिल्म पीके में एक और मधुर गीत की रचना की है। मुझे ऐसा लगता रहा है कि शान जिस आवाज़ के मालिक हैं उसका सदुपयोग कुछ ही संगीतकार कर पा रहे हैं। अपनी जानदार और ताज़ी आवाज़ से शान गीत के स्तर को और उठाने में कामयाब रहे हैं। वैसे इस गीत की आख़िर में श्रेया घोषाल ने भी दो पंक्तियाँ के माध्यम से अपनी आवाज़ की मिठास घोली है।   शान इस गीत की के बारे में कहते हैं...
          सच कहूँ तो मुझे भी ये भरोसा नहीं था कि इस गीत को इतनी सफलता मिलेगी। शायद इसकी वज़ह ये है कि इसमें तेज बीट्स और ऊँचे सुर के बोल नहीं है। इस गीत को सुनकर एक गर्मजोशी भरे प्यार का ख्याल आता है। ये मेरे गाए बेहतरीन गीतों में से एक है। बेल्जियम के उस पुल पर जहाँ ये गीत फिल्माया गया है, से मेरी यादें जुड़ी हैं क्यूँकि वहाँ सपरिवार मैं छुट्टियाँ मनाने जा चुका हूँ।

          स्वानंद किरकिरे के लेखन का मैं शुरुआती दिनों से प्रशंसक रहा हूँ और विगत वर्षों की वार्षिक संगीतमालाओं में उनके डेढ़ दर्जन गीत अपना स्थान बना चुके हैं। स्वानंद ने ये गीत पीके के लिए सोच कर नहीं लिखा था। कविता के रूप में ये गीत वो पहले ही लिख चुके थे और वो भी फेसबुक पर। जब अपनी फेसबुकिया कविता स्वानंद ने निर्देशक राजकुमार हिरानी को सुनाई तो उन्होंने जस का तस इसे फिल्म में ले लिया। 

          शान्तनु मोइत्रा इस फिल्म के लिए संगीतबद्ध गीतों में इस गीत को अपना पसंदीदा मानते हैं। शान्तनु के दिमाग में इस रोमांटिक गीत की धुन तैयार करते हुए दो बातें थीं एक तो यूरोप और दूसरा वहाँ का नृत्य वाल्टज़ (Waltz)। इन्हीं दोनों पहलुओं ने उन्हें गीत का मूड बनाने में मदद की। पियानो, गिटार और इंटरल्यूड्स में यूरोपीय कोरस का सहारा ले के उन्होंने ये माहौल खूबसूरती से रचा भी है। हालांकि उन पर ये आरोप भी लगे कि इस धुन को उन्होंने फिल्म Beyond Sunset के गीत  Waltz for a night पर आधारित कर बनाया। 

          मैंने जब ये गीत सुना तो पाया कि दोनों गीतों के बोल तो अलग हैं ही,  धुन की शुरुआत में भी हल्की सी साम्यता  है पर उसे उन्होंने इस गीत में एक अलग ढंग से विकसित किया है। बहरहाल उस गीत की धुन तुलना के लिए आप यहाँ सुन सकते हैं। इसलिए मुझे इस आरोप में ज्यादा दम नहीं लगा । बहरहाल आइए अब सुनें ये गीत



           बिन पुछे मेरा नाम और पता, रस्मों को रख के परे
          चार कदम बस चार कदम, चल दो ना साथ मेरे

          बिन कुछ कहे, बिन कुछ सुने, हाथों में हाथ लिए
          चार कदम बस चार कदम, चल दो ना साथ मेरे

          राहों में तुमको जो धूप सताए, छाँव बिछा देंगे हम
          अंधेरे डराए तो जा कर फलक पे चाँद सज़ा देंगे हम
          छाए उदासी लतीफ़े सुना कर तुझको हँसा देंगे हम
          हँसते हँसाते यूँही गुनगुनाते चल देंगे चार कदम

          तुमसा मिले जो कोई रहगुज़र, दुनिया से कौन डरे
          चार कदम क्या सारी उमर, चल दूँगी साथ तेरे  क्यूँ

          फिल्म में अनुष्का और सुशांत के पहली बार मिलने से ले कर रिश्तों में बँधने का प्रसंगइस गीत के माध्यम से  बस चार मिनटों में ही निपटा दिया गया। हॉल में जब मैं ये फिल्म देख रहा था तो गीत खत्म होते के साथ बगल की सीट से आवाज़ आई I swear..It was damn quick man और मैं बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोक पाया। बहरहाल ये रहा इस गीत का वीडियो..



          वार्षिक संगीतमाला 2014

          रविवार, जनवरी 11, 2015

          वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान संख्या 20 : सोने दो, ख्वाब बोने दो, जागेंगे, फिर थामेंगे, कोई वजह जीने की ..

          वार्षिक संगीतमाला का पहला चरण पूरा कर आज आ पहुँचे हैं हम प्रथम बीस गीतो के दरवाज़े पर, जहाँ से झाँक रहा है फिल्म सिटीलाइट्स का ये नग्मा। पर इससे पहले मैं इस गाने की बात करूँ, ये बताना जरूरी है कि Citylights एक ऐसे विस्थापित की कहानी है जो राजस्थान के एक गाँव में सब कुछ खो कर मुंबई की महानगरी में अपने परिवार के साथ जीवन की नैया को बीच भँवर से किनारे तक ला पाने में संघर्षरत है। ये गीत महानगरीय ज़िदगी की तीखी सच्चाइयों से रूबरू हुए नायक की आंतरिक पीड़ा को व्यक्त करता है।


          इस गीत में एक तड़प है, एक बेचैनी है। बेबस आँखों से अपने सपनों को हाथों से फिसलते देखने का दर्द है। महानगर की भीड़ में अपने अकेले होने का अहसास है। नवोदित गीतकार रश्मि सिंह जिन्हें शायद पहली बार इतने बड़े कैनवास पर ये जिम्मेदारी सौंपी गई है ने फिल्म की परिस्थितियों से पूरा न्याय करते वो शब्द गढ़े हैं जो दिल में एक चुभन, एक टीस सी पैदा करते हैं। जब मैंने इस गीत का मुखड़ा सोने दो, ख्वाब बोने दो पहली बार सुना  तो मुझे गुलज़ार की वो चार पंक्तियाँ याद आ गयीं जो उन्होंने फिल्म गुरु के लिए इस्तेमाल की थीं..

          जागे हैं देर तक हमें कुछ देर सोने दो
          थोड़ी सी रात और है सुबह तो होने दो
          आधे-अधूरे ख़्वाब जो पूरे न हो सके
          इक बार फिर से नींद में वो ख़्वाब बोने दो

          रश्मि गुलज़ार के इसी ख्याल को पकड़कर आगे कहती हैं..  जागेंगे, फिर थामेंगे, कोई वजह जीने की। पर गीत की की मेरी सबसे प्रिय पंक्ति वो है जिसमें रश्मि मन के बारे में कहती हैं ....चाँद को मुट्ठी में भरने को, करता रोज़ जतन..प्यासे से, इस पंछी को, कोई नदी मिलने दो ना....। अपने दिल पर हाथ रखकर बताइए क्या आपने अपने जीवन में चंदा रूपी उन सपनीली ख्वाहिशों का पीछा नहीं किया जो शायद आपकी कभी होने वाली ही नहीं थी। सच तो ये है कि हम सब के अंदर वो पखेरू है जो मुक्त आकाश में अपने पंखों को फड़फड़ाते हुए सपनों की उस बहती नदी का स्पर्श पाना चाहता है, उसमें डूबना चाहता है।

          जैसा कि सुनो ना संगमरमर के बारे में बात करते हुए आपको बताया था भट्ट परिवार से जुड़ी फिल्मों में संगीतकार जीत गाँगुली आजकल एक अनिवार्य हिस्सा बने हुए हैं। अब जहाँ जीत रहेंगे वहाँ अरिजित कहाँ दूर रह सकते हैं :)। अरिजित की गायिकी जीत को कितनी पसंद है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस फिल्म के तीनों एकल गीत अरिजित ने ही गाए हैं। जीत गाँगुली ने इस गीत के लिए जो संगीत संयोजन किया है उसमें पश्चिमी और शास्त्रीय संगीत के तत्त्व हैं। गीत के मुखड़े के पहले और बाद में बजती गीत की Signature tune गीत के उदासी भरे मूड को परिभाषित करती है। दूसरे अंतरे के बाद गीत के अंत में शास्त्रीय सरगम के साथ इसी धुन के खूबसूरत संगम से गीत का समापन होता है। तो आइए अरिजित की आवाज़ में सुनते हैं ये संवेदनशील नग्मा..


          सोने दो, ख्वाब बोने दो
          जागेंगे, फिर थामेंगे, कोई वजह जीने की
          सोने दो...

          परछाई के पीछे पीछे भाग रहा है मन
          चाँद को मुट्ठी में भरने को, करता रोज़ जतन
          प्यासे से, इस पंछी को, कोई नदी मिलने दो ना
          सोने दो...

          इतने सारे चेहरे हैं और तन्हा सब के सब
          तेरे शहर का, काम है चलना यूँ बेमतलब
          चेहरों के, इस मेले में, अपना कोई मिलने दो ना
          सोने दो...

             

          वार्षिक संगीतमाला 2014

          शुक्रवार, जनवरी 09, 2015

          वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 21 : आख़िर क्या है सूहा साहा ? Sooha Saaha

          हिन्दी फिल्मों में अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का पार्श्व गायक या गायिका का किरदार निभाना कोई नई बात नहीं। पर्दे के आगे से माइक्रोफोन के पीछे तक का ये सफ़र पहले भी तय हुआ है और आप तो जानते ही हैं कि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन इस परंपरा के अग्रदूत रहे हैं। पर इस साल तो इस चलन ने और ज़ोर पकड़ा और कमाल की बात ये रही कि तीन मशहूर अभिनेत्रियों ने जिन गीतों को आवाज़े दी वो काफी सराहे भी गए। 

          श्रद्धा कपूर ने एक विलेन में तेरी गलियाँ ... में अपना गला तो आज़माया ही सुरेश वाडकर के साथ हैदर में कश्मीरी बोलों को भी वे अपनी आवाज़ देती दिखीं। प्रियंका चोपड़ा ने फिल्म मेरी कॉम में जो लोरी गाई उससे ये तो प्रमाणित हो ही गया कि एक अच्छी अदाकारा के साथ साथ वो एक अच्छी गायिका भी हैं। पर अपनी आवाज़ की सीमाओं के बीच हाइवे और हम्पटी शर्मा की दुल्हनिया के गीत गाकर सबसे ज्यादा लोकप्रियता अलिया भट्ट ने बटोरी।

          इन्हीं अलिया का जएब बंगेश के साथ गाया युगल गीत वार्षिक संगीतमाला की 21 वीं पायदान की शोभा बढ़ा रहा है। पाकिस्तानी गायिका जएब (Jeb) के बारे में पहले कोक स्टूडियो पाकिस्तान और फिर शान्तनु स्वानंद के साथ उनके गाए गीतों की चर्चा करते समय आपको बता ही चुका हूँ। वैसे सोचने वाली बात है कि इस लोरी में जएब जैसी सधी हुई गायिका के साथ अलिया को गवाने का ख्याल निर्देशक इम्तियाज़ अली को कैसे आया?
          Zeb Bangesh & Alia Bhatt
          इम्तियाज़ बताते हैं कि हाइवे की शूटिंग के वक़्त अलिया फुर्सत के पलों में गाने गुनगुनाने बैठ जाती थीं और उनका पसंदीदा गीत हुआ करता था जिया जिया रे जिया रे..। ये बात जब उन्होंने रहमान को बताई तो रहमान साहब को ये विचार सूझा कि क्यूँ ना फिल्म के इस गीत में अलिया की आवाज़ का प्रयोग किया जाए। अलिया ने ये चुनौती स्वीकार तो कर ली पर रहमान सर के लिए ठीक से गा पाना उनके लिए बड़ा इम्तिहान था। वो अपनी इस परीक्षा में पास होने का सारा श्रेय गीत की रिकार्डिंग के समय ए आर रहमान द्वारा बरते गए संयम को देती हैं।

          अब रहमान साहब का संगीत है तो बोलों की जिम्मेदारी तो काबिल गीतकार इरशाद क़ामिल के कंधों पर ही होनी थीं। फिल्म की कहानी के अनुरूप इस लोरी के बोल उन्होंने ऐसे रखे जिसमें गाँव की मिट्टी की सुगंध हो। पिछली पोस्ट में बात हो ही रही थी कि गीतकार आजकल गीतों में ऐसे शब्दों को लाने का प्रयास करते हैं जिससे कि सुनने वालों का गीत के प्रति कौतूहल बढ़ जाए। इरशाद क़ामिल के लिखे इस गीत में एक ऐसा ही शब्द रखा गया सूहा साहा। निश्चय ही आप में से जो इस आंचलिक शब्द से अनिभिज्ञ हैं उन्हें उत्सुकता होगी कि आख़िर सूहा साहा क्या है ? सूहा साहा का शाब्दिक अर्थ है लाल खरगोश और इस लोरी में इरशाद भाई ने एक बच्चे को माँ की नज़रों में लाल खरगोश बना दिया है।

          लोरियों का उद्देश्य ही होता है इधर उधर की कहानियाँ सुना बच्चे को नींद की गोद में ढकेल देना। कहानियों के पात्र भी अजीबो गरीब और रँगीले रखे जाते हैं ताकि बाल मन उनके बारे में सोचते हुए ऐसा उलझे कि कब पलकें झपक जाएँ ये पता ही ना चले। इरशाद अपने शब्दों से इस गीत में यही करते दिखते हैं।

          गीत की शुरुआत में माँ अपने बच्चे से कहती है कि मेरे इस प्यारे से लाल खरगोश को मैना खोए के मीठे मीठे खेतों में खेलने के लिए ले जाएगी। पर पता नहीं वहाँ उसके संगी साथी हो ना हों। पर जो भी हो पेड़ों पर बैठे तोते को भी तो यही लग रहा है कि मेरे इस लाल खरगोश की नींद में कोई विघ्न नहीं डाल पाएगा। देखो तो कोयले सी काली इस रात में तारों के इस बिछौने पर मेरे मुन्ने को कैसे हौले हौले नींद की झपकियाँ आएँगी। फिर तो वो चैन से सोएगा और उठकर गोटे लगे पुराने कपड़ों में मैना के साथ खेलने जाएगा।

          है ना ये घुमावदार कल्पनाएँ ?

          मैना ने सूहा साहा ले जाना खोय की
          मीठी मीठी खेती में खेलन हो
          तोता बोले पेड़ों पे, पेड़ से, पूड़ी से
          सूहा साहा नींदन में ओखा ना हो
          संगी साथी, हन सूने थारे हो ना हो
          सूहा साहा, अम्मा का...
          सूहा साहा, अम्मा का...

          रैना, कारी कारी कोयलां सी रैना
          नींदी तोला, तोला लाए ना
          तारों का बिछौना, चैन से सोना
          गोटा-गोटा गुदड़ी में घूमेगा घामेगा
          सूहा साहा मैना ने ले जाना हो

          फ्लैशबैक से जब ये गीत वर्तमान में आता है तब अलिया वाला गाया हिस्सा शुरु होता है..

          टूटा तारा सा, छोटा सा
          तारा सा, टूटा रे
          पूछे वो देखूँ तेरे ही बारे
          क्यूं ना सोये, क्यूं तू रोये
          क्यूं तू खोये यूं परदेस में हो
          क्यूं तू रूठा, किससे रूठा
          क्या है छूटा तेरा देस में हो
          जो भी है रूखा-सूखा
          मन में वो बोलो तो
          खोलो राहें बातों की, बाहें हो

          तोता बोले पेड़ों पे, पेड़ से, पूड़ी से
          सूहा साहा नींदन में...

          तो आइए सुनें जएब और अलिया का गाया ये गीत

           

          ये गीत एक परिस्थितिजन्य गीत है जिसके मर्म को फिल्म देख के समझा जा सकता है। जिन्होंने ये फिल्म नहीं देखी उनको बस इतना बताना चाहूँगा कि इस गीत में एक व्यस्क के आज के स्वाभाव के पीछे उसके बचपन के परिवेश को टटोलने की कोशिश की गई है। गीत के बोल और धुन ऐसे हैं जो धीरे धीरे आपके मन में बैठते हैं और एक बार बैठ जाने के बाद रुह को सुकून देते हुए से महसूस होते हैं।रणदीप हूदा और अलिया भट्ट पर फिल्माए इस गीत का वीडियो ये रहा...

           


          वार्षिक संगीतमाला 2014
           

          मेरी पसंदीदा किताबें...

          सुवर्णलता
          Freedom at Midnight
          Aapka Bunti
          Madhushala
          कसप Kasap
          Great Expectations
          उर्दू की आख़िरी किताब
          Shatranj Ke Khiladi
          Bakul Katha
          Raag Darbari
          English, August: An Indian Story
          Five Point Someone: What Not to Do at IIT
          Mitro Marjani
          Jharokhe
          Mailaa Aanchal
          Mrs Craddock
          Mahabhoj
          मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
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