रविवार, मई 31, 2015

आपके हसीन रुख पे आज नया नूर है..कितना जानते हैं आप गीतकार अनजान को ?

पिछले पन्द्रह बीस दिनों से मुल्क से बाहर सैर सपाटे पर गया हुआ था। इसीलिए इस ब्लॉग पर शांति छाई रही। जाने के पहले गीतकार अनजान के बारे में लिखने का मन था। जाने के पहले व्यस्तता इतनी रही कि उन पर शुरु किया गया आलेख पूरा ना कर सका।

बचपन में जब हम रेडियों सुनते थे और उद्घोषक गीतकार के रूप में अनजान का नाम बताते थे तो ऐसा लगता था मानो इस गीत के गीतकार का नाम उद्घोषक को भी पता नहीं है। बाद में ये खुलासा हुआ कि अनजान ख़ुद किसी गीतकार का नाम है। वैसे अनजान , अनजान के नाम से पैदा नहीं हुए थे। उनका वास्तविक नाम लालजी पांडे था और उनका जन्म बनारस में हुआ था। अनजान को शुरु से ही कविता पढ़ने औरलिखने  का शौक़ था।  बड़े बुजुर्ग कहा करते कि बनारस में रहे तो एक दिन हरिवंश राय 'बच्चन' जैसी काव्यात्मक ऊँचाइयों को छू पाओगे। ख़ैर ये तो हो ना सका पर बच्चन खानदान से उनका नाता बरसों बाद किसी और रूप मे जाकर जरूर जुड़ा।

पचास के दशक की बात है। उन दिनों ही गायक मुकेश बनारस के क्लार्क होटल में पधारे। होटल के मालिक ने उन्हें अनजान की कविताएँ सुनने का आग्रह किया। मुकेश ने सुना भी और कहा कि मुंबई आकर बतौर गीतकार भाग्य आजमाओ। ख़ैर बात आई गई हो गयी।

अनजान ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से बी कॉम की डिग्री ली थी। इरादा था कि बैंक में नौकरी करेंगे। युवावस्था में ही अनजान को दमे की बीमारी ने जकड़ लिया।। डॉक्टर ने कहा कि अगर अनजान बनारस जैसी सूखी जलवायु वाले इलाके में रहेंगे तो ये रोग बढ़ता ही जाएगा और ज़िदगी भी ख़तरे में पड़ सकती है। साथ ही ये सलाह भी दी कि  आपको किसी ऐसी जगह जाना होगा जहाँ पास में समुद्र तट हो। तब उन्हें गायक मुकेश की बात याद आई और वो अकेले ही रोज़ी रोटी की तलाश में मुंबई चले आए। मु्बई में मुकेश ने उनकी मुलाकात  प्रेमनाथ से करायी जो उस वक़्त Prisoner of Golconda (1956) बना रहे थे। अनजान को मिला ये पहला काम था पर दुर्भाग्यवश फिल्म भी फ्लॉप हुई और उसका संगीत भी। अनजान के लिए ये कठिन घड़ी थी। उनके बेटे समीर उन दिनों की बात करते हुए कहते हैं।

"उस दौर में हालत ये थी कि पिताजी ने कई बार किसी बड़ी इमारत में सीढ़ियों की नीचे वाली जगह में  रातें बिताईं। उनके पास तब दो जोड़ी कपड़े हुआ करते थे। वे कुएँ से पानी खींचते और वहीं नहाते। एक कपड़ा वहीं धुलता और दूसरा वे पहनते।"

अगले सात साल उनका गुजारा छोटी मोटी फिल्मों में काम और ट्यूशन कर चला। फिर 1963 में बनारस के निर्माता निर्देशक त्रिलोक जेटली प्रेमचंद के उपन्यास पर आधारित अपनी  फिल्म गोदान के लिए उत्तर प्रदेश की भाषा को समझने वाला गीतकार ढूँढ रहे थे और उन्होंने इसके लिए अनजान को चुना।  इस तरह अनजान को एक और बड़े कैनवास पर काम करने का मौका मिला। गोदान भी नहीं चली पर उसके गीतों पर लोगों का ध्यान जरूर गया।  भोजपुरी रंग में रँगा मोहम्मद रफ़ी का गाया वो मस्ती भरा नग्मा तो याद होगा ना आपको

पिपरा के पतवा सरीखे डोले रे मनवा कि हियरा में उठत हिलोल,
पूरवा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा कि चल अब देसवा की ओर

अनजान का संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ था। उन्हें अपने अगले बड़े मौके के लिए छः सालों का और इंतज़ार करना पड़ा। जी पी सिप्पी की फिल्म बंधन (1969) के लिए उन्हें नरेंद्र बेदी कल्याण जी आनंद जी से मिलवाने ले गए। अनजान ने उस फिल्म के लिए बिन बदरा के बिजुरिया कैसे चमके जैसा लोकप्रिय गीत लिखा। ये गीत उनकी ज़िंदगी के लिए अहम पड़ाव था क्यूँकि इस गीत के माध्यम से वो उस संगीतकार जोड़ी से मिले जिन्होंने सत्तर के दशक में उनके कैरियर की दशा और दिशा तैयार कर दी।

पर आज मैं आपको अनजान का वो गीत सुनवाने जा रहा हूँ जो उन्होंने साठ के दशक में ओ पी नैयर साहब के लिए लिखा था। बहारे फिर भी आएँगी का ये गीत नैयर साहब के साथ अनजान का इकलौता गीत था। अनजान के लिए ये नग्मा एक चुनौती के रूप में था क्यूँकि उनकी पहचान तब तक ठेठ हिंदी और पुरवइया गीतों के गीतकार के रूप में बन रही थी। उस वक़्त के तमाम नामी गीतकार उर्दू जुबाँ पर अच्छा खासा दखल रखते थे सो इस गीत के लिए अनजान ने उसी अनुरूप अपना अंदाज़ बदला।

क्या रोमांटिक गीत लिखा था अनजान साहब ने. और उतनी ही खूबसूरत धुन बनाई ओ पी नैयर साहब ने। गीत के बोलों के बीच बजती बाँसुरी और इंटरल्यूड्स का पियानो और इन सबके बीच रफ़ी साहब की इत्ती प्यारी रससिक्त आवाज़ जिसमें नायिका को छेड़ती हुई एक चंचलता है और साथ ही प्रणय का छुपा छुपा सा आमंत्रण। ये गीत ऐसा है जिसे गुनगुनाने और सुनने से ही मन में एक ख़ुमार सा छा जाता है।

आपके हसीन रुख पे आज नया नूर है
मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है
आपकी निगाह ने कहा तो कुछ ज़ुरूर है
मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है

खुली लटों की छाँव में खिला-खिला ये रूप है
घटा से जैसे छन रही सुबह-सुबह की धूप है
जिधर नज़र मुड़ी उधर सुरूर ही सुरूर है
मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है

झुकी-झुकी निगाह में भी है बला की शोखियाँ
दबी-दबी हँसी में भी तड़प रही हैं बिजलियाँ
शबाब आपका नशे में खुद ही चूर-चूर है
मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है

जहाँ-जहाँ पड़े क़दम वहाँ फिजा बदल गई
कि जैसे सर-बसर बहार आप ही में ढल गई
किसी में ये कशिश कहाँ जो आप में हुज़ूर है
मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है



क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कोई ऐसा चेहरा सामने आ गया हो जिससे नज़रें हटाने का दिल ही नहीं करे और फिर बरबस ये गीत याद आ गया हो.. ख़ैर इसमें ना आपका कुसूर है ना ऐसे किसी चेहरे का, गलती तो सिर्फ उन्हें बनाने वाले सृष्टिकर्ता की है जो आँखों को ऐसा बेबस कर देते हैं कि वे उन्हें निहारते हुए  झपकने का नाम ही नहीं लेतीं :)।

अनजान के गीतों की यात्रा अभी खत्म नहीं हुई। इस आलेख की अगली कड़ी में आपसे साझा करूँगा संघर्ष के इन दिनों से शोहरत की बुलंदियों तक तय किया गया अनजान का सफ़र..

शनिवार, मई 02, 2015

यूँ मातमी से लिबास में कोई आह ओ फुगाँ है आज भी .. Yoon matami se libas mein...

कई साल पहले एक उर्दू फोरम में इस ग़ज़ल से पहला परिचय हुआ था। तब भी पता नहीं था कि ये ग़ज़ल किसने लिखी? आज भी नहीं है। पर जिसने भी लिखी है क्या खूब लिखी है।  गाहे बगाहे डॉयरी को खोलकर इसे पढ़ जरूर लेता हैँ। पन्नों पर बिखरे शब्द जहाँ दिल को गुदगुदाते हैं वहीं कुछ उदास भी कर जाते हैं। मोहब्बत के जज़्बे में पिरोये अहसास दिल को दाद देने पर मजबूर तो करते ही हैं पर साथ ही शायर का एकाकीपन कुछ अशआरों में एक चुभन सी पैदा करता है।


चूँकि ये ग़ज़ल सरहद पार के किसी शायर की रचना है तो देवनागरी में शायद ही आपने इसे पढ़ा होगा। आज यूँ ही मन हुआ इसे अपनी आवाज़ में रिकार्ड करने का। तो आइए सुनते हैं इस ग़ज़ल को




यूँ मातमी से लिबास में कोई आह ओ फुगाँ है आज भी
जैसे चश्म ए तर में ख़्वाब कोई परेशाँ है आज भी

चश्म ए तर : भीगी आँखें, आह ओ फुगाँ  :आांतरिक पीड़ा/ विलाप

मैं ज़िंदगी की रहगुज़र पे दरबदर हूँ इसलिए
कि मोहब्बतों के शहर में दिल बेमकाँ है आज भी


तेरी आरजू है बहुत मगर मेरी पहुँच नहीं है इस क़दर
मेरी ख़्वाहिशों के वास्ते तू आसमाँ है आज भी


मैं तौहीद के हर हिसाब से वैसे तो मुसलमान हूँ
पर तुझे पूजने की बात है तो दिल बेईमान है आज भी
 

तौहीद : नियम

तेरी अंजुमन, तेरा हर करम, तेरी चाहतें तो छिन गयीं
मगर दर्द जो मेरा नसीब बना वो मेहरबाँ है आज भी

तेरी अज़ीयतों का सवाल है तो मुझे कल भी ज़ब्त पे नाज़ था
तुझे कोसने की बात है तो दिल बेजुबाँ है आज भी

 

अज़ीयत  :यंत्रणा,  ज़ब्त  :अपनी भावनाओं को काबू में रखना

कभी दर्द हद से बढ़ा भी तो मैं तेरी हद से बढ़ा नहीं
मेरी साँस की तस्बीहों में इक तू ही रवाँ है आज भी
 

तस्बीह :प्रार्थना , रवाँ : चलता बहता हुआ

सौ बादलों के सिलसिले मेरी छत पे बरस कर चले गए
पर जला जला धुआँ धुआँ मेरा आशियाँ है आज भी

मुझे कल मिले थे कुछ गुलाब जो तेरे लिए ये कह गए
कि तेरे इंतज़ार में सोग़वार गुलशन का समा है आज भी
 

सोग़वार : ग़मज़दा

रिकार्डिंग मोबाइल पे की इसलिए उसकी गुणवत्ता उतनी अच्छी नहीं है, पर ये ग़ज़ल आपके दिल के करीब से गुजरी होगी ऐसी उम्मीद है।
 

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