विनोद सहगल याद आते हैं आपको ? जगजीत सिंह के दो मशहूर एलबमों से उनका जुड़ाव मुझे तो उनकी आवाज़ से दूर नहीं जाने देता। इंटर में था जब मिर्जा गालिब में उनके द्वारा गाई ग़ज़ल कोई दिनगर ज़िंदगानी और है.... सुनी थी। पर फिर नव्बे के दशक की शुरुआत में कहक़शाँ में उनकी आवाज़ जो गूँजी वो गूँज धीरे धीरे कहाँ विलुप्त हो गई पता ही नहीं चला। कुछ फिल्मों में मौके तो मिले पर माचिस का छोड़ आए हम वो गलियाँ के सामूहिक स्वर के आलावा शायद ही कोई गीत श्रोताओं तक ठीक से पहुँच सका। पर उनकी रुहानी आवाज़ रह रह कर यादों के गुलिस्ताँ से कानों तक यू ट्यूब के माध्यम से पहुँचती रही। आज आपको दूरदर्शन द्वारा उर्दू कवियों पर बनाया गए धारावाहिक कहक़शाँ की वो दिलकश ग़ज़ल सुनवाने जा रहा हूँ जो फिराक़ गोरखपुरी ने लिखी थी। पर इस पहले कि उस ग़ज़ल से आपका परिचय कराऊँ कुछ बातें इस गुमनाम से फ़नकार के बारे में..
अम्बाला में जन्मे विनोद सहगल का संगीत से विधिवत परिचय उनके पिता सोहन लाल सहगल के माध्यम से हुआ था। आशा छाबड़ा, आर एम कुलकर्णी व चमन लाल जिज्ञासु जैसे शिक्षकों का आशीर्वाद पाने वाले विनोद सहगल का सितारा पहली बार तब बुलंद हुआ जब नए ग़ज़ल गायकों को बढ़ावा दे रहे ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह की नज़र उन पर पड़ी।
अस्सी के दशक में जगजीत के साथ विनोद सहगल को दो एलबमों में काम करने का मौका मिला। पहला तो “Brightest talents of 80’s” और फिर “Jagjit Singh presents Vinod Sehgal। पर अशोक खोसला, घनश्याम वासवानी और सुमिता चक्रवर्ती जैसे ग़ज़ल गायकों के साथ संगीत की दुनिया में क़दम रखने वाले विनोद तेजी से बदलते संगीत में अपना मुकाम नहीं पा सके जिसके वे हक़दार थे।
कहकशाँ में विनोद सहगल ने फिराक़ की लिखी कई ग़ज़लें गायी हैं पर आज आपसे जिक्र ये जो क़ौल-ओ-क़रार है क्या है.. का करना चाहूँगा। फिराक़ गोरखपुरी की निजी ज़िंदगी के बारे में पहले भी विस्तार से लिख चुका हूँ। घरेलू ज़िदगी इतनी तकलीफ़देह (जिसके लिए वे ख़ुद काफी हद तक जिम्मेदार थे) होने के बावज़ूद उन्होंने शेर ओ शायरी में मोहब्बत से जुड़े वो रंग बिखेरे कि कहाँ दाद दें कहाँ छोड़े इसका फैसला करना उन्हें पढ़ने सुनने वालों के लिए मुश्किल ही रहा है। अब इस ग़ज़ल को ही देखिए एक बिखरे हुए हुए रिश्ते में उम्मीद की लौ तलाश रहे हैं फिराक़ साहब
ये जो क़ौल-ओ-क़रार है क्या है
शक़ है या ऐतबार है क्या है
ये जो उठता है दिल में रह रह कर
अब्र है या गुबार है क्या है
तुम्हारा दिया हुआ वचन, हमारी वो कभी ना बिछड़ने की प्रतिज्ञा आख़िर क्या थी? उस क़रार को मैं शक़ की नज़रों से देखूँ या अभी भी तुम्हारा विश्वास करूँ। दिल का तो ये आलम है कि तुम्हारी यादों की रह रह कर एक हूक़ सी उठती है। क्या इन्हें अपने मन में अब भी तुम्हारे लिए मचलती भावनाओं की घटाएँ मानूँ या मेरे अंदर तुम्हारी बेवफाई से उपजा हुआ रोष , जो दबते दबाते भी बीच बीच में प्रकट हो ही जाता है।
ज़ेर-ए-लब इक झलक तबस्सुम की
बर्क़ है या शरार है क्या है
कोई दिल का मक़ाम समझाओ
घर है या रहगुज़ार है क्या है
क्या कहूँ आज भी समझ नहीं पाता तुम्हारे होठों से छलकती उस मुस्कुराहट में ऐसा कौन सा नशा था जिसे देख कभी दिल पर बिजलियाँ सा गिरा करती थीं । आज तुम्हारे उसी तबस्सुम की याद से हृदय में एक चिंगारी सी जल उठती है। मैंने तो सोचा था कि मेरे दिल को तुम अपना आशियाना बना लोगी। पर अब लगता है कि वो तो उस रास्ते की तरह था जहाँ तुम एक मुसाफ़िर बन कर आई और चली गयी।
ना खुला ये कि सामना तेरा
दीद है इंतज़ार है क्या है
देखो तो आज फिर तुम्हारा सामना हुआ। तुम्हारी इन तकती आँखों को पढ़ने की कोशिश में हूँ। क्या इसे मैं सिर्फ तुम्हारी एक झलक पाने का संयोग मानूँ या फिर दिल में तुम्हारे इंतज़ार की थोड़ी ही सही गुंजाइश छोड़ दूँ।
फिराक़ की भावनाओं की इस कशमकश को विनोद सहगल की आवाज़ में सुनना मन को ठहराव सा दे जाता है खासकर जिस अंदाज़ में क्या है.. को निभाते हैं। तो आइए जगजीत सिंह के रचे संगीत पर सुनें विनोद सहगल की गाई ये ग़ज़ल
शक़ है या ऐतबार है क्या है
ये जो उठता है दिल में रह रह कर
अब्र है या गुबार है क्या है
तुम्हारा दिया हुआ वचन, हमारी वो कभी ना बिछड़ने की प्रतिज्ञा आख़िर क्या थी? उस क़रार को मैं शक़ की नज़रों से देखूँ या अभी भी तुम्हारा विश्वास करूँ। दिल का तो ये आलम है कि तुम्हारी यादों की रह रह कर एक हूक़ सी उठती है। क्या इन्हें अपने मन में अब भी तुम्हारे लिए मचलती भावनाओं की घटाएँ मानूँ या मेरे अंदर तुम्हारी बेवफाई से उपजा हुआ रोष , जो दबते दबाते भी बीच बीच में प्रकट हो ही जाता है।
ज़ेर-ए-लब इक झलक तबस्सुम की
बर्क़ है या शरार है क्या है
कोई दिल का मक़ाम समझाओ
घर है या रहगुज़ार है क्या है
क्या कहूँ आज भी समझ नहीं पाता तुम्हारे होठों से छलकती उस मुस्कुराहट में ऐसा कौन सा नशा था जिसे देख कभी दिल पर बिजलियाँ सा गिरा करती थीं । आज तुम्हारे उसी तबस्सुम की याद से हृदय में एक चिंगारी सी जल उठती है। मैंने तो सोचा था कि मेरे दिल को तुम अपना आशियाना बना लोगी। पर अब लगता है कि वो तो उस रास्ते की तरह था जहाँ तुम एक मुसाफ़िर बन कर आई और चली गयी।
ना खुला ये कि सामना तेरा
दीद है इंतज़ार है क्या है
देखो तो आज फिर तुम्हारा सामना हुआ। तुम्हारी इन तकती आँखों को पढ़ने की कोशिश में हूँ। क्या इसे मैं सिर्फ तुम्हारी एक झलक पाने का संयोग मानूँ या फिर दिल में तुम्हारे इंतज़ार की थोड़ी ही सही गुंजाइश छोड़ दूँ।
फिराक़ की भावनाओं की इस कशमकश को विनोद सहगल की आवाज़ में सुनना मन को ठहराव सा दे जाता है खासकर जिस अंदाज़ में क्या है.. को निभाते हैं। तो आइए जगजीत सिंह के रचे संगीत पर सुनें विनोद सहगल की गाई ये ग़ज़ल
एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ
- फि़राक़ गोरखपुरी : अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभो लब खोले हैं...
- जोश मलीहाबादी : तुझसे रुख़सत की वो शाम-ए-अश्क़-अफ़शाँ हाए हाए...
- हसरत मोहानी : तोड़कर अहद-ए-करम ना आशना हो जाइए
- मजाज़ लखनवी : देखना जज़्बे मोहब्बत का असर आज की रात..
- मजाज़ लखनवी : अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो
- हसरत मोहानी : रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
