शनिवार, जुलाई 23, 2016

बारिश के नाम एक ख़त ...

प्यारी बरखा, कितने दिन से तुम छुपी हुई थी मुझसे कहीं। तुम्हारी एक झलक पाने के लिए मैंने तुम्हें कहाँ कहाँ नहीं ढूँढा। हवाओं का शोर, बादलों की गुड़गुड़ाहट या मिट्टी से उठती सोंधी महक....तुम्हारे आने की हर हल्की सी आहट पर मेरा  दिल पागल बन बैठा। पर तुमने उन बेताब होती भावनाओं को निकलने ही कब दिया? हर बार इन कँटीली आशाओं के बोझ से दब कर घायल तो मैं ही हुई। कितना छेड़ा, कितना ललचाया था ना तुमने मुझे। मूसलाधार लड़ी का स्वप्न दिखाती तुम आई भी तो हल्की सी फुहार ले के मानो मेरे मन की तड़प पर उपहास कर रही हो। कहो तो..अपने पक्के प्रेमी से कोई ऐसा बर्ताव करता है भला? तुम्हारे जैसे ही हैं मेरे कुछ जानने वाले, वो समझते होंगे शायद...


मैं नहीं जानती कि उनकी तरह मेरे प्रति तुम्हारे इस व्यवहार का कारण क्या है? तुमसे ढंग की आखिरी मुलाकात तो बोकारो में हुई थी। फिर वक़्त मुझे ले आया सूखी, बेरहम और गरम मिजाज़ वाली इस दिल्ली में। मुझे पाल पोस कर बड़ा करने वाला ये शहर तुम्हारे बिना कभी मेरे दिल में जगह नहीं बना सका। आख़िर एक रूखा शहर मेरी आत्मा  में अपने लिए नमी कैसे भरता ?

पर इस बार तो मेरी जान मैंने तुम्हें  पश्चिमी घाटों के पार वहाँ जाकर पकड़ा जहाँ तुम्हारा बसेरा है। और तब मुझे अनायास ही भान हुआ कि तुम भी मुझसे मिलने के लिए उतनी ही आतुर थी। बस तलाश थी तो सही लम्हे और सही जगह की । जिस तीव्रता  से तुमने मुझे अपनी बाहों में लिया, जिस बेफिक्री व उन्माद के साथ तुम मेरे पर बेइंतहा बरसी, मैं मन के अन्तःस्थल तक भीग गयी। जैसी मैं तुम्हें इस रूप में पाकर ठगी सी रह गयी, क्या तुम्हारे अंदर उफनता ज्वार उतना ही शांत हो पाया?

हम दोनों ही नियंत्रण में बहने के आदी नहीं हैं। सच तो ये है कि हम दोनों के अंदर एक सागर बसता है जो उन्हीं किनारों पर उमड़ता है जिनके प्रेम में हमारा दिल नाशाद है। 

एक बार फिर कितने युगों बाद तुमने मुझे इस तरह अपने आगोश में लिया था। किसी वादे के लिए नहीं..किसी समझौते के लिए नहीं..किसी बहाने के लिए नहीं।


कितनी अनोखी थी ना इस बार की ये मुलाकात...  उन दिनों तो ऐसा लगता कि तुम हर जगह हो और तुम्हारी ताकत को धरती का कोना कोना महसूस कर रहा है। छत पर टप टप की आवाज़ से तुम मुझे जगाती थी। तुम्हारे इस संगीत को सुनने के लिए कितना तरसी थी मैं। तुम हर सुबह एक दोस्त की तरह मिलती और तुम्हारा अभिवादन स्वीकार कर जब तक मैं समुद्र तट के किनारे सैर पर निकलती तुम अपना रूप बदल चुकी होती। इस गर्जन तर्जन को देख तुम्हें रिझाने के लिए समुद्र भी कई भंगिमाएँ बनाता हुआ यूँ उमड़ता घुमड़ता कि मैं एक पल सहमती तो दूसरे पल खुशी से नाच उठती। ताल भी तुम्हारी लड़ियों को अपने में समाता देख बच्चों की तरह खिलखिलाता। सड़कें तुम्हारे स्पर्श से एक पेंटिंग सरीखी दिखतीं। पेड़ तुमसे नहाकर चमकते हुए इठलाते। वहीं दूर क्षितिज स्याह व नीले रंग में धुँधलाता हुआ सा दिखाई देता। ऐसा लगता मानो कायनात एक नई ज़िंदगी से सराबोर हो गई हो।

तुम मोतियों की लड़ी बनकर आई, परतों में बिछी और प्रचंडता के साथ बरसी। तुम सर्वशक्तिमान थी और मैं नतमस्तक जैसा कि मैं अक्सर हो जाती हूँ तुम्हारे जैसों को अपने पास पा के। हर जर्रा तुम्हारी, हर कण जीवंत, हर कोर आभारी।

शुक्रिया तुम्हारा ये भरोसा दिलाने के लिए कि तुम साथ रहोगी मेरे.. . सशर्त ही सही ! शुक्रिया तुम्हारा कि आँसुओं का जो सैलाब मैने आँखों की कोरों में रोक रखा था वो तुमने खोल दिया और उनके साथ तुम मेरे दुखों को भी बहा ले गयी। उस बहती धारा ने कई जख़्मों को भर दिया सिवाए उनके जिनका हरा रहना मेरे अस्तित्व के लिए जरूरी है। शुक्रिया तुम्हारा कि तुम्हारे आने से मेरे मन की मिट्टी फिर आद्र हो उठी है। शायद प्रेम की नई किरण उसे भेद कर भावनाओं की नई फसल उपजा सके।

तो कैसा लगा आपको ये ख़त ? ये तो आपने समझ ही लिया ही होगा कि ये ख़त मैंने नहीं लिखा। लड़कियाँ जितनी गहराई से बारिश को महसूस कर उसे व्यक्त कर पाती हैं वो अपने आप में अनूठा होता है। इसलिए मैंने जब अपनी साथी ब्लॉगर सोनल सिंह का बारिश को लिखा ये प्यारा ख़त अंग्रेजी में पढ़ा तो उसका हिंदी में भावानुवाद करने का लोभ छोड़ नहीं पाया। उनकी भावनाओं को हिंदी में कितना उतार पाया हूँ ये तो लेखिका ही बता सकती हैं फिर भी मैंने एक कोशिश करी है कि जो आनंद मुझे वो लेख पढ़कर आया वो आपको भी आए।

बारिश में भींगने की बात से फिलहाल तो परवीन शाकिर की इक छोटी सी नज़्म याद आ रही है.अगर आपको बारिश में भींगती हुई कोई तनहा लड़की मिले तो उसे जरूर सुना दीजिएगा...

बारिश में क्या तनहा भींगना लड़की ?
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन मन भींगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर भी क्या बारिश होगी
और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे :)

गुरुवार, जुलाई 14, 2016

निदा फ़ाज़ली कैसे आए इस जहान ए फानी में : अपनी अपनी सीमाओं का बंदी हर पैमाना है Apni Apni Seemaon Ka...

निदा फ़ाज़ली को सबसे पहले जगजीत व चित्रा की ग़ज़लों से ही जाना था। उनकी शायरी से मेरी पहली मुलाकात अस्सी के दशक में तब हुई थी जब रेडियो पर बिनाका गीत माला में चित्रा सिंह की गाई ग़ज़ल सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो अप्रत्याशित रूप से पाँचवी पायदान तक जा पहुँची थी। फिर तो उनकी नज़्मों , ग़ज़लों और दोहों से जगजीत की आवाज़ की बदौलत जान पहचान होती रही। बाद में उनके संस्मरण भी पढ़े और शायरी की उनकी कुछ किताबें भी और तब लगा कि उनका गद्य लेखन भी उतना ही सुघड़ है जितनी की उनकी लिखी नज़्में और दोहे। 


निदा की ग़ज़लें वो मुकाम नहीं छू पायीं जो उनके समकालीन शायर बशीर बद्र की ग़ज़लों को मिला पर उनकी नज़्मों की गहराई व दार्शनिकता वक़्त के साथ मन के अंदर उतरती चली गयी । उनकी शायरी का यही अक़्स मुझे उनकी कुछ ग़ज़लों में हाल फिलहाल सुनने को मिला तो सोचा क्यों ना उन्हें आपसे बाँट लूँ पर उससे पहले क्या ये जानना बेहतर ना होगा कि ज़िंदगी के प्रति निदा की सोच किन पारिवारिक परिस्थितियों में रहते हुए विकसित हुई।

निदा फ़ाज़ली की ज़िंदगी में झांकना हो तो उनकी आत्मकथ्यात्मक किताब "दीवारों के बीच" से गुजरिए। अपने आस पास का माहौल वे इतनी बेबाकी से बयां करते हैं कि आप हतप्रध होने के  साथ उनकी लेखनी के कायल भी  हो जाते हैं। निदा का जन्म एक  मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। पिताजी सिंधिया स्टेट में अफ़सर थे। ऊपर की आमदनी पूरी थी और मिजाज़ के रंगीन तबियत वाले थे और ऐसा मैं नहीं कह रहा बल्कि निदा अपनी किताब में कहते हैं। माँ धार्मिक प्रवृति की थीं और दिल्ली से ताल्लुक रखती थीं। शेर ओ सुखन में उनके माता पिता दोनों की ही दिलचस्पी थी। निदा इस दुनिया में कैसे आए उसका भी बड़ा रोचक रेखाचित्र उन्होंने अपनी किताब में खींचा है..

"...हर बच्चे की पैदाइश दिल्ली में होती है। वो अब तीसरे बच्चे की माँ बनने वाली हैं। दो के बाद तीसरा बच्चा ऐसी हालत में ठीक नहीं पर क्या किया जाए? तीन महीने पूरे हो चुके हैं...ऐसे काम छुप छुपा के ही किए जाते हैं। सुनी सुनाई जड़ी बूटियों से ही ख़ुदा के काम में दखल दिया जाता है। कई गर्म सर्द दवाएँ इस्तेमाल की जाती हैं। अभी ये सिलसिला ज़ारी है कि अचानक एक दिन इनके भारी पाँव तले पुरखों के घर की छत खिसक जाती है। होता यूँ है कि वो सुबह बाथरूम से बाहर आती हैं लेकिन जैसे ही पाँव बढ़ाती हैं धँसने लगती हैं। वो टूटती छत से सीधे नीचे ज़मीन पर गिरने को होती हैं कि उनके हाथ में लोहे का सरिया आ जाता है। इत्तिफाक से उनके भाई उस वक़्त नीचे ही  मकान की मरम्मत करा रहे हैं। पत्थरों के गिरने की आवाज़ से वो चौंककर ऊपर देखते हैं और अपनी बहन को ज़मीं और आसमान के बीच लटका हुआ पाते हैं। वो बाहें फैलाकर आगे बढ़ते हैं और बहन को सरिया छोड़ने को कहते हैं। कई लोग जमा हैं। ज़मीं पर रूई के गद्दे बिछा दिये जाते हैं। बच्चों के रोने चिल्लाने और औरतों की चीख पुकार में आख़िरकार वो भाई की बाहों में गिर जाती हैं। गिरते ही बेहोश हो जाती हैं। केस नाजुक है तुरंत अस्पताल ले जाया जाता है, जहाँ समय से पहले ही अपनी मर्जी के खिलाफ जमील फातिमा तीसरे बच्चे को जन्म देती हैं। उसका नाम बड़े लड़के के काफ़िये के अनुसार मुक्तदा हसन रखना तय किया जाता है। ये ही मुक्तदा हसन आगे चलकर काफिये की पाबंदी से ख़ुद को आजाद करके निदा फ़ाज़ली बन जाते हैं।..."

तो ये थी निदा फ़ाजली के इस जहान ए फानी में आने की दास्तान। तो आइए उनकी उन ग़ज़लों की बात करें जिने आप तक पहुँचाने की बात मैंने पहले की थी । निदा की ये पहली ग़ज़ल उदासी के आलम में लिपटी हुई है पर उम्दा शेर कहे हैं उन्होंने अपनी इस ग़ज़ल में। अब देखिए ना ज़िंदगी के कुछ लम्हों  को हम आपनी यादों की फोटो फ्रेम में सजा लेते हैं क्यूँकि वैसी तस्वीर ज़िंदगी बार बार नहीं बनाती और इसलिए निदा लिखते हैं  चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें...ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही।

अँधेरे में ठोकर खाकर ही राह निकलने की सूरत, दूरियों की वज़ह से हर पत्थर को चाँद समझने की भूल .या हँसते हुए चेहरे के पीछे क्रंदन करता हृदय निदा ने शायद सब झेला हो और उसी कड़वाहट और हताशा को इन शब्दों में व्यक़्त कर गए


दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही

चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर*आँखें
ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही
 *चित्रकार 
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही

फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही

शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फ़ुरसत
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही

तो सुनिए इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ देने की मेरी कोशिश..



और चलते चलते निदा साहब की एक और ग़ज़ल जिसका मतला ही पूरी ग़ज़ल पर भारी है। अपनी अपनी सीमाओं का बंदी हर पैमाना है..उतना ही दुनिया को समझा जितना ख़ुद को जाना है। भाई वाह! कितनी गहरी बात कह गए चंद शब्दो में निदा फ़ाज़ली साहब। 

इस ग़ज़ल को गाया है जगजीत सिंह के शागिर्द और आज के बदलते समय में ग़ज़ल की विधा को सहेज कर रखने वाले फ़नकार घनशाम वासवानी जी ने। वॉयलिन, पियानो, सितार व ताल वाद्यों का खूबसूरत सम्मिश्रण इस ग़ज़ल की श्रवणीयता में इजाफ़ा कर देता है बाकी घनशाम की मखमली आवाज़ के तो क्या कहने..

अपनी अपनी सीमाओं का बंदी हर पैमाना है
उतना ही दुनिया को समझा जितना ख़ुद को जाना है


अपने आप से प्यार है जिसको प्यारी है हर शय उसको
इतनी बात ही सच है बाकी जो कुछ है अफ़साना है

रोज नया दिन रोज़ नयी शब बीत गया सो बीत गया
रोज़ नया कुछ खोने को है रोज़ नया कुछ पाना है

पैदा होना पैदा होकर मरने तक जीते रहना
एक कहानी है जो सबको अलग अलग दुहराना हो  

रविवार, जुलाई 03, 2016

हाल‍ ए दिल हमारा.... कौन थे दत्ताराम वाडकर ? Haal E Dil humara

एक सदाबहार गीत है मुकेश का जिसे मैं कॉलेज के ज़माने से आज तक अक़्सर गुनगुनाया करता हूँ। और मैं क्या.. आप सभी इसे गुनगुनाते होंगे। कौन ऐसा शख़्स है जिसे ज़िंदगी में कभी ये ना लगा हो कि दुनिया  उसके जज़्बातों को समझ  ही नहीं पा रही है। तरुणाई में तो खासकर जब सारी दुनिया ही बेगानी लगती है तब  गीत का ये मुखड़ा  हम सब के मन को सुकून देता रहा कि हाल‍ ए दिल हमारा जाने ना बेवफा ये ज़माना ज़माना

इतने सहज बोल लिए, आशा भरा ये गीत जब मुकेश की आवाज़ में उन दिनों रेडियो पर बजता था तो होठ ख़ुद ब ख़ुद इसकी संगत के लिए चल पड़ते थे। एक भोला सा अपनापन था इस गीत में जिससे जुड़ने में दिल को ज़रा सी भी देरी नहीं लगती थी।

श्रीमान सत्यवादी के लिए ये गीत राज कपूर पर फिल्माया गया था। अब जहाँ राज कपूर और मुकेश साथ हों तो संगीतकार तो शंकर जयकिशन ही होंगे। इस मुगालते में मैं भी बहुत दिनों रहा। बाद में पता चला  कि इस फिल्म के संगीतकार शंकर जयकिशन नहीं बल्कि दत्ताराम वाडकर थे। आप भी सोच रहे होंगे कि सुरेश वाडकर के बारे में तो सुनते आए हैं पर ये दत्ताराम वाडकर के बारे में ज्यादा नहीं सुना। चलिए हमीं बताए देते हैं।

राजकपूर के साथ युवा दत्ताराम वाडकर

गोवा में जन्में और दक्षिणी महाराष्ट्र के एक कस्बे सामंतवाड़ी में पले बढ़े दत्ताराम सन 1942 में अपने परिवारवालों के साथ मुंबई पहुँचे। पढ़ने में खास रूचि न लेने वाले दत्ताराम की माँ की पहल पर गुरु पांडरी नागेश्वर से उनकी तबले की शिक्षा शुरु हुई । युवा दत्ताराम तबला बजाने के साथ कसरत करने का भी शौक़ रखते थे। गिरिगाँव के जिस अखाड़े में वो कसरत करते वहीं  संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन वाले शंकर भी वर्जिश के लिए आते थे। एक बार शंकर ने वहीं तबला बजाना शुरु कर दिया और कसरत के बाद अंदर स्नान कर रहे दत्ताराम के मुँह से वाह वाह निकल गई। शंकर ने तबला बजाना रोक दिया। जब दत्ताराम बाहर निकले तो उन्होंने पूछा कि क्या तुम भी तबला बजाते हो? दत्ताराम ने कहा हाँ थोड़ा बहुत बजा लेता हूँ। शंकर ने उन्हें तुरंत बजाने को कहा और उनके वादन से ऐसे प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें अपनी संगीत मंडली में शामिल कर लिया। 

दत्ताराम वाडकर

सालों साल शंकर के वादकों  के साथ अभ्यास करने  और नाटकों के बीच तबला बजाने के बाद फिल्म आवारा के गीत इक बेवफ़ा से प्यार किया में जब पहली बार उन्हें लता जी के साथ ढोलक बजाने का मौका मिला तो मानो  उनके मन की मुराद पूरी हो गई। फिर तो राज कपूर शंकर जयकिशन की फिल्मों  में बतौर वादक, वो एक स्थायी अंग बन गए। सलिल चौधरी  व कल्याणजी आनंद जी के कई मशहूर गीतों  का भी वो हिस्सा बनें। रिदम पर दत्ताराम की गहरी पकड़ थी। संगीत जगत में ढोलक पर उनकी शुरु की हुई रिदम दत्तू ठेका के नाम से मशहूर हुई।

शंकर जयकिशन की बदौलत उन्हें पहली बार फिल्म 'अब दिल्ली दूर नहीं' के लिए संगीत निर्देशन का काम मिला। संगीत के लिहाज़ से उनकी फिल्में परवरिश और श्रीमान सत्यवादी बहुत सराही गयी। आँसू भरी है जीवन की राहें , मस्ती भरा ये समा और चुनचुन करती आई चिड़िया जैसे गीतों को भला  कौन भूल सकता है। तो आइये लौटें श्रीमान सत्यवादी के इस गीत की ओर ।

श्रीमान सत्यवादी के इस गीत में वो अंतरा मुझे सबसे प्यारा लगता है जिसमें हसरत साहब लिखते हैं कि दाग हैं दिल पर हज़ारों हम तो फिर भी शाद (आनंदित) हैं.. आस के दीपक जलाये देख लो आबाद हैं। सच, जीवन में इस मंत्र को जिसने अपना लिया वो ना केवल ख़ुद को बल्कि अपने आस पास के लोगों को भी एक धनात्मक उर्जा से भर देगा। गीत के मुखड़े के पहले का संगीत और इंटरल्यूड्स में तरह तरह के वाद्यों का इस्तेमाल दत्ताराम के संगीत संयोजन की माहिरी की गवाही देता है। ये माहिरी उन्होंने शंकर जयकिशन के साथ लगातार काम करते हुए हासिल की थी।

हाल‍ ए दिल हमारा जाने ना बेवफा ये ज़माना ज़माना
सुनो दुनिया वालों आयेगा लौट कर दिन सुहाना सुहाना

एक दिन दुनिया बदलकर रास्ते पर आयेगी
आज ठुकराती है हमको कल मगर शरमायेगी
बात को तुम मान लो अरे जान लो भैया

दाग हैं दिल पर हज़ारों हम तो फिर भी शाद हैं 
आस के दीपक जलाये देख लो आबाद हैं
तीर दुनिया के सहे पर खुश रहे भैया
हाल-ए-दिल हमारा ...

झूठ की मंज़िल पे यारों हम ना हरगिज़ जायेंगे
हम ज़मीं की खाक़ सही आसमाँ पर छायेंगे
क्यूँ भला दब कर रहें डरते नहीं भैया



 मुकेश की शानदार आवाज़ में तो आपने ये गीत सुन लिया अगर मेरी झेल सकते हों तो ये भी सुन लीजिए :) 


आज दत्ताराम हमारे बीच नहीं है। उन्हें गुजरे लगभग एक दशक होने वाला है। गोवा के एक साधारण से परिवार में जन्मे दत्ताराम अपनी मेहनत के बल पर संगीत की जिन ऊँचाइयों को छू सके वो औरों के लिए एक मिसाल है। ताल वाद्यों पर उनकी गहरी पकड़ और उनके अमर गीतों की बदौलत वो संगीत प्रेमियों द्वारा हमेशा याद रखे जाएँगे।
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


Manish Kumar's favorite books »

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie