जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
Author: Manish Kumar
| Posted at: 6/26/2007 10:16:00 am |
Filed Under: सूचना
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हफ्ते भर बाहर था। वापस आया तो देखा कंम्पयूटर पर कुछ टाइप नहीं कर सकता। कम्पयूटर वायरस ने ब्लॉगिंग बंद करा दी है और तमाम Antivirus बेकार साबित हो रहे हैं। इसलिए चिट्ठा लिखने ओर पढ़ने का काम ठप्प है।
मैं कार्यालय के काम से २७-२९ तक दिल्ली में रहूँगा, संभवतः करोलबाग इलाके में। इससे पहले कानपुर और कोलकाता जाकर भी लोगों से मिल नहीं पाया। इस बार भी कितना समय मिल पाएगा मुझे मालूम नहीं। कोशिश करूंगा कि वहाँ आप में से जिससे संभव हो पाए मिल सकूँ। आप अपना दिल्ली का पता ठिकाना मुझे ई मेल कर सकते हैं या यहाँ प्रतिक्रिया दें।
वैसे तो गुलज़ार साहब आजकल 'झूम बराबर झूम' के गीतों से सबको झुमा रहे हैं पर मैंने अब तक इस एलबम के जितने गीत सुने हैं, वो कुछ खास पसंद नहीं आए हैं। खैर बहुत दिनों से उनका लिखा एक सूफी गीत आपके सामने पेश करने की चाहत थी । बात 1994 की है, विशाल भारद्वाज और गुलज़ार की जोड़ी माचिस का संगीत तैयार करने में जुटी थी । उसी वक्त विशाल अपनी पत्नी के लिए सूफी कवि बुल्लेशाह की कविताओं पर एक एलबम तैयार करने की सोच रहे थे। अब ये ना पूछने लगिएगा कि कौन हैं विशाल की पत्नी (अगर नहीं पता तो उसका खुलासा थोड़ी देर बाद)? और तब गुलजार ने पेशकश की, कि वो इस एलबम के गीतों के बोल लिखेंगे।
पर 1994 में दिमाग में उपजे इस विचार को फलीभूत होने में 10 वर्ष लग गए और 2004 में इश्का-इश्का के नाम से ये एलबम म्यूजिक टुडे ने निकाला । अब इस नग्मे के बारे में क्या कहा जाए...धुन ,लफ्ज, गायिकी मूड को रूमानी बना ही देते हैं। लबेलुबाब ये कि खुदा इश्क़ ना करवाये:) !
प्रेम की अनुभूतियों के लिए गुलज़ार जिस शब्द चित्र का इस्तेमाल करते हैं वो अपने आस-पास के प्राकृतिक बिम्बों से भरा होता है । गुलजार की कल्पनाओं को जीने की कोशिश कीजिए....
आप अपने प्रियतम के ख्यालों में खोए होते हैं और ये दिन कब आपकी टोह लेता हुआ चला जाता है..स्याह रातें तारों का साथ छोड़ कब सुबह में तब्दील हो जाती है.. क्या इनका हिसाब रख पाते हैं आप? ऐसे में रात कोयल से भी काली दिखे तो क्या आश्चर्य है? आसमां जमीं सब एक लगने लगें तो भी ताज्जुब नहीं । आपके दिल का मौसम तो वही रहता है भले सामने की फिजा कितनी बार अपना रंग बदल ले। हर पल, हर लमहे को अपनी यादों में सहेज कर रखना चाहते हैं आप। और कभी तो ऐसा लगता है कि मानों लमहों को गिनते-गिनते सदियाँ बीत गईं पर तनहाई दूर होने का नाम ही नहीं लेती। तो आइए सुनते हैं रेखा जी की आवाज़, गुलज़ार के शब्द और विशाल के संगीत संयोजन में इश्क की मीठी नमकीन चाशनी से सराबोर ये बेहद खूबसूरत नग्मा..
तेरे इश्क़ में, हाय तेरे इश्क़ में राख से रूखी, कोयल से काली रात कटे ना, हिज़्राँ* वाली (*वियोग की रात) तेरे इश्क़ में, हाय तेरे इश्क़ में..
तेरी जुस्तजू करते रहे, मरते रहे तेरे इश्क़ में, तेरे रू-ब-रू बैठे हुए, मरते रहे, तेरे इश्क़ में... तेरे रू-ब-रू, तेरी जुस्तजू*(तलाश) तेरे इश्क़ में, हाय तेरे इश्क़ में..
बादल धुने, मौसम बुने सदियाँ गिनीं, लमहे चुने लमहे चुने, मौसम बुने कुछ गर्म थे, कुछ गुनगुने तेरे इश्क़ में, बादल धुने मौसम बुने, तेरे इश्क़ में तेरे इश्क़ में, हाय हाय तेरे इश्क़ में...
तेरे इश्क़ में तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ तेरे इश्क़ में हमने बहुत, बहलाइयाँ तन्हाइयाँ, तेरे इश्क़ में रूसे कभी, मनवाइयाँ तन्हाइयाँ, तेरे इश्क़ में...
मुझे टोह कर, कोई दिन गया मुझे छेड़ कर, कोई शब गई मैंने रख ली सारी आहटें कब आई थी, शब कब गई तेरे इश्क़ में, कब दिन गया शब कब गई, तेरे इश्क़ में तेरे इश्क़ में, हाय हाय तेरे इश्क़ में..
राख से रूखी ...
दिल सूफी ये था हम चल दिये, जहाँ ले चला तेरे इश्क़ में, हम चल दिये तेरे इश्क़ में, हाय तेरे इश्क़ में
मैं आस्माँ, मैं ही ज़मीं गीली ज़मीं, सीली ज़मीं जब लब जले, पी ली ज़मीं गीली ज़मीं, तेरे इश्क़ में
अब बात इश्क की हो रही है तो चलते-चलते ये भी बताता चलूँ कि रेखा और विशाल भारद्वाज एक ही कॉलेज में पढ़ा करते थे। रेखा की ख्याति कॉलेज में एक अच्छी गायिका के तौर पर पहले से थी। विशाल इनके जूनियर थे। पर संगीत के कार्यक्रमों मे साथ-साथ हिस्सा लेते रहे और साथ ही लगे रहे अपने इश्क़ का मुकाम हासिल करने में और आज की वस्तुस्थिति से तो आप वाकिफ हैं ही।
Author: Manish Kumar
| Posted at: 6/17/2007 09:14:00 pm |
Filed Under: अपनी बात
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मुझे नहीं लगता था कि पाँच साल का ये बच्चा मेरा कुछ बिगाड़ पाएगा, पर वास्तव में ऐसा हो नहीं सका है। अव्वल तो इसके आते ही अपने पुत्र को मैं टी.वी. बंद करने की हिदायत दे देता था। आखिर है भी तो ये इतना शरारती। जब देखो अपने माता पिता की नाक में दम कर देता है , अपने टीचरों को छकाता रहता है और यहाँ तक की सुंदर कन्याओं को देख उनकी ओर आँखें तरेरने लगता है। पर क्या मैं इतने शरारती बच्चों के कारनामों को अपलक निहारते अपने बालक को मना कर पा रहा हूँ। नहीं, क्यूँकि अपनी इन सारी खुराफातों के बाद भी शिन चान नोहारा हम सबके मन-मस्तिष्क में रच बस गया है।
जो लोग शिन चान कार्टून शो से परिचित नहीं है उनको बताना चाहूँगा कि ये जापानी कार्टून शो हंगामा टीवी पर आता है और छोटे-बड़े बच्चों के साथ-साथ बड़ों में भी काफी लोकप्रिय हो रहा है । परसों यानि १९ जून को ये भारत में अपने प्रसारण का एक साल पूरा कर लेगा। वैसे सबसे पहले आज से १५ साल पूर्व ये शो 'क्रेयन शिन चान ' के नाम से जापान के एक चैनल टीवी आशी से प्रसारित होना शुरु हुआ था। आज इसका प्रसारण भारत के आलावा उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका और यूरोप में भी सफलतापूर्वक हो रहा है।
शिन चान की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इस कार्टून श्रृंखला में एक पाँच साल के बच्चे की मासूमियत और उसके खुराफाती दिमाग को बखूबी चित्रित किया गया है। जब वो टीवी पर अपने माता-पिता से बातें कर रहा होता है तो दूसरे कमरे से सुनते हुए मुझे ऐसा लगता है कि अरे ये तो वही संवाद और हिदायते हैं जो हम रोज अपने कुलदीपक के सामने रटते रहते हैं। कार्टून में दिखाई जाने वाली ज्यादातर शरारतें इतनी मासूमियत भरी होती हैं कि होठों पर मुस्कुराहट आ ही जाती है।
शिन चान के परिवार के सभी सदस्यों को आप जरा नजदीक से जानना चाहते हैं तो यहाँ जाइए । इस जालपृष्ठ पर आपको इसकी शीर्षक धुन भी सुनने को मिलेगी। और १९ जून को इसकी वर्षगांठ के उपलक्ष में सारा दिन इसी श्रृंखला के अंश आप हंगामा टीवी पर देख ही सकते हैं। और अगर आप ऐसी जगह बैठे हों जहाँ इस चैनल का दूर-दूर तक अता-पता ना हो तो भी कोई वात नहीं। आखिर यू ट्यूब तो है ना...
तो चलिए आप भी देखिए ना 'शिन चान' की एक झलक !:)
वैसे शिन चान की कुछ शरारतें ऐसी भी हैं जिन्हें देखकर लगता है कि गर इसे संपादित कर दिया जाता तो बेहतर रहता। क्योंकि जिस बात को बुरा बताकर अपने बच्चों में हम सही गलत की भावना लाते हैं, उसे ही अपने पसंदीदा चरित्र को करता देख बच्चा उसे सही मानने के लिए जल्द तैयार नहीं होता। खैर ऐसे में मैं तो बस ये कह देता हूँ कि ये थोड़ा शैतान बच्चा है इसलिए ऐसा करता है। वैसे आप क्या करते/कहते ऐसे हालातों में ?
कुन्नूर : धुंध से उठती धुन
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आज से करीब दो सौ साल पहले कुन्नूर में इंसानों की कोई बस्ती नहीं थी। अंग्रेज
सेना के कुछ अधिकारी वहां 1834 के करीब पहुंचे। चंद कोठियां भी बनी, वहां तक
पहु...
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