कभी कभी बेहद पुरानी यादें अचानक ही मस्तिष्क की बंद पड़ी काल कोठरियों से बाहर आ जाती हैं। टीवी पर एक कार्यक्रम देख रहा था जिससे पता चला कि आज मुकेश 36 वीं पुण्य तिथि है और एकदम से वो काला दिन मेरी आँखों के सामने घूम गया।
शायद मैं स्कूल से लौट कर आया था। पता नहीं किस वज़ह से छुट्टी कुछ जल्दी हो गई थी। कपड़े बदलकर पहला काम तब रेडिओ आन करना ही होता था। विविध भारती पर फिल्म धर्म कर्म से लिया और मुकेश का गाया नग्मा इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएँगे प्यारे तेरे बोल आ रहा था। वो उस वक़्त का मेरा पसंदीदा गीत हुआ करता था। गाने के बाद उद्घोषिका द्वारा ये बताना कि हम मुकेश के गाए गीत इसलिए सुना रहे हैं क्यूँकि आज ही अमेरिका में उनका निधन हो गया है मुझे विस्मित कर गया था। बचपन के उन दिनों में बस इतना समझ आता था कि ये खबर, बड़ी खबर है और जल्द ही इसका प्रसारण दौड़कर घर के कोने कोने में कर देना चाहिए। मैंने भी यही किया था और सब के चेहरे पर विषाद की रेखाओं को उभरता देख मन कुछ दुखी अवश्य हो गया था। इस बात को तीन दशक से ऊपर हो गए हैं पर इन गुजरते वर्षों में मुकेश के गाए गीतों की स्मृतियाँ दिन पर दिन प्रगाढ़ ही होती गयी हैं।
मुकेश को तकनीकी दृष्टि से बतौर गायक भले ही संगीतकारों ने अव्वल दर्जे पर नहीं रखा पर उनकी आवाज़ की तासीर कुछ ऍसी थी जो सीधे आम लोगों के दिल में जगह बना लेती थी। दर्द भरे नग्मों को गाने का उनका अंदाज़ अलहदा था। शायद ही उस ज़माने में कोई घर ऐसा रहा होगा जहाँ मुकेश के उदास करने वाले गीतों का कैसेट ना हो। आज मुझे ऐसे ही एक गीत की याद आ रही है जिसे संगीतकार शंकर जयकिशन ने 1967 में फिल्म रात और दिन के लिए रचा था। गीत के बोल लिखे थे हसरत जयपुरी ने।
मुकेश, हसरत जयपुरी, शंकर व जयकिशन की चौकड़ी ने ना जाने कितने ही मधुर गीतों को रचा होगा। पर ये जान कर आश्चर्य होता है कि ये सारे कलाकार कितनी मामूली ज़िंदगियों से निकलकर संगीत के क्षेत्र में उन ऊँचाइयों तक पहुँचे जिसकी कल्पना उन्होंने अपने आरंभिक जीवन में कभी नहीं की होगी।
अब हसरत साहब को ही लें। स्कूल से आगे कभी नहीं पढ़ पाए। क्या आप सोच सकते हैं कि मुंबई आकर उन्होंने अपनी जीविका चलाने के लिए क्या किया होगा? सच तो ये है कि जयपुर का ये शायर मुंबई के शुरुआती दिनों में बस कंडक्टरी कर अपना गुजारा चलाता था। ये जरूर था कि मुफ़लिसी के उस दौर में भी उन्होंने मुशायरों में शिरक़त करना नहीं छोड़ा और यहीं पृथ्वी राज कपूर ने उन्हें सुना और राजकपूर से उनके नाम की सिफारिश की।
हसरत जयपुरी की तरह ही शंकर जयकिशन का मुंबई का सफ़र संघर्षमय रहा। शंकर हैदराबाद में छोटे मोटे कार्यक्रमों में तबला बजाते थे तो गुजरात के जयकिशन हारमोनियम में प्रवीण थे। इनकी मुलाकात और फिर पृथ्वी थियेटर में काम पाने के किस्से कोतो मैं पहले ही आपसे साझा कर चुका हूँ। दस बच्चों के परिवार में पले बढ़े मुकेश ने भी दसवीं के बाद पढ़ना छोड़ दिया था। छोटी मोटी सरकारी नौकरी मिली तो साथ में शौकिया गायन भी करते रहे। बहन की शादी में यूँ ही गा रहे थे कि अभिनेता मोतीलाल (जो उनके रिश्तेदार भी थे) की नज़र उन पर पड़ी और वो उन्हें मुंबई ले आए। इससे ये बात तो साफ हो जाती है कि अगर आपमें हुनर और इच्छा शक्ति है तो परवरदिगार आपको आगे का रास्ता दिखाने के लिए मौका जरूर देते हैं और इन कलाकारों ने उन मौकों का पूरा फ़ायदा उठाते हुए फिल्म संगीत जगत में अपनी अमिट पहचान बना ली।
तो लौटते हैं रात और दिन के इस गीत पर। गीत का मुखड़ा हो या कोई भी अंतरा , हसरत कितने सहज शब्दों में नायक की व्यथा को व्यक्त कर देते हैं और फिर मुकेश की आवाज़ ऐसे गीतों के लिए ही बनी जान पड़ती है। आप इस गीत को सुनकर क्या महसूस करते हैं ये तो मैं नहीं जानता पर रात और दिन के इस गीत को मैं जब भी सुनता हूँ पता नहीं क्यूँ बिना बात के आँखे नम हो जाती हैं। गीत का नैराश्य मुझे भी शायद अपने मूड में जकड़ लेता है। मन अनमना सा हो जाता है।
रात और दिन दीया जले
मेरे मन में, फिर भी अँधियारा है
जाने कहाँ, है वो साथी
तू जो मिले जीवन उजियारा है
रात और दिन.....
पग-पग मन मेरा ठोकर खाए
चाँद सूरज भी राह न दिखाए
ऐसा उजाला कोई मन में समाए
जिससे पिया का दर्शन मिल जाए
रात और दिन.....
गहरा ये भेद कोई मुझको बताए
किसने किया है मुझ पर अन्याय
जिसका हो दीप वो सुख नहीं पाए
ज्योत दीये की दूजे घर को सजाए
रात और दिन....
खुद नहीं जानूँ, ढूँढे किसको नज़र
कौन दिशा है मेरे मन की डगर
कितना अजब ये दिल का सफ़र
नदिया में आए जाए, जैसे लहर
रात और दिन.....