अस्सी के दशक की आख़िर और नब्बे के दशक में अफ़गानिस्तान, आकाशवाणी के सुबह और रात में आने वाले समाचारों में सुनाई जाने वाली अंतरराष्ट्रीय ख़बरों का अहम हिस्सा हुआ करता था। यही वो समय था जब मैं नजीबुल्लाह, अहमद शाह मसूद, गुलुबुद्दीन हिकमतयार और दोस्तम जैसे लड़ाकों के नाम से परिचित हुआ था। समाचार पत्रों और पत्र पत्रिकाओं में छपे लेखों की बदौलत दो दशकों के अंतराल में सोवियत संघ द्वारा नियंत्रित उदारवादी व्यवस्था से लेकर भरे मैदान में जनता के सामने तथाकथित अपराधियों को सज़ा देते तालिबानी लड़ाकों तक काबुल के बदलते रूप देखे। सोवियत शासन हो या मुज़ाहिदीन या फिर तालिबान किसी भी दौर में ये देश हिंसा और प्रतिहिंसा के दौर से मुक्त नहीं रहा। समझ नहीं आता था कि इस देश के लोग किस मिट्टी के बने हैं कि इतनी आपसी तबाही के बाद भी एक दूसरे को नेस्तानाबूद करने का जज़्बा जाता नहीं है?
यही वज़ह रही कि जब अफ़गान लेखक ख़ालिद होसैनी की किताब चार दिन पहले पढ़नी शुरु की तो ये आशा थी कि इस देश की व्यथा को और करीब से समझने का मौका मिलेगा। इसे कहने में मुझे कोई संशय नहीं कि ख़ालिद मेरी आशाओं पर पूरी तरह खरे उतरे। काबुल में जन्मे 49 वर्षीय होसैनी अपनी पहली किताब The Kite Runner से विख्यात हुए। 1980 में वो अमेरिका चले गए। लेखन और डॉक्टरी के आलावा वो विश्व में फैले अफ़गानी शरणार्थियों की मदद के लिए भी तत्पर रहते हैं।
सालों साल हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में सामाजिक संरचना ही क्षत विक्षत हो जाती है और अगर ये समाज कट्टर इस्लामी अनुयायियों द्वारा संचालित हो तो सबसे बुरी दशा होती है महिलाओं और बच्चों की। ख़ालिद ने अपनी किताब में इस सामाजिक प्रताड़ना को सहती और उससे सफलता पूर्वक जूझती दो महिलाओं की कथा कही है। यूँ तो कथा अफ़गानिस्तान के शहर हेरात से शुरु होती है पर उपन्यास का केंद्र काबुल ही है और इसीलिए लेखक ने पुस्तक का शीर्षक सत्रहवीं शताब्दी में साइब ए तबरीज़ी द्वारा लिखी कविता 'काबुल' से लिया है। साइब काबुल के बारे में लिखते हैं..
One could not count the moons that shimmer on her roofs,
Or the thousand splendid suns that hide behind her walls.
(Translated by Josephine Davis)
साहित्य समीक्षकों का ऐसा मानना है कि यहाँ चाँद और सूरज की तुलना काबुल के नर नारियों से की गई है। जहाँ काबुल की छतों पर चमकते चाँद वहाँ के घरों के जाँबाज़ मुखिया हैं तो वहीं घर के परकोटों में रहने और उसे सँभालने वाली स्त्रियाँ हज़ारो चमकते सूर्य की भांति हैं जिनकी सुंदरता और ममत्व से अफ़गानी समाज जीवंत है। पर मुगलिया सल्तनत की हुकूमत वाला सत्रहवीं शताब्दी का वो काबुल तीन सौ सालों बाद भी क्या वैसा रह पाया? ख़ालिद इस प्रश्न का जवाब विगत चार दशकों के अफ़गानिस्तान के हालातों को बताते हुए पुस्तक के दो मुख्य महिला चरित्रों के माध्यम से देते हैं।
उपन्यास के ये दो चरित्र है मरियम और लैला । पहले बात मरियम की। मरियम का सबसे बड़ा दोष ये है कि वो एक हरामी है और इसीलिए रईस बाप के होते हुए भी अपनी माँ के साथ हेरात शहर से दूर एक छोटे से दबड़ेनुमा घर में रहती है। मर्दों के बारे में अपनी माँ के सदवचनों पर मरियम कभी विश्वास नहीं करती। उसकी माँ पुरुषों के बारे में उसे हमेशा कहा करती थी
"A man's heart is a wretched, wretched thing. It isn't like a mother's womb. It won't bleed. It won't stretch to make room for you.............. Learn this now and learn it well, my daughter: Like a compass needle that points north, a man's accusing finger always finds a woman."
वो उसे एक हारी हुई औरत की निराशा मानती। पर ज़िंदगी की राहों पर भटकते हुए उसे इनकी सत्यता का अनुभव हुआ। मरियम के हालात किसी भी विकासशील देश के निम्न मध्यम वर्गीय गरीब महिला जैसे ही हैं जो अपने घरों में अकारण पिटती हैं। जिनकी एकमात्र खासियत उनका शरीर है और जिसे जब चाहे भोगना एक पुरुष का अधिकार। शरीर से खेलते खेलते अगर उनकी कोख एक बेटे को जन्म दे दे तो सौभाग्य नहीं तो फिर किसी दूसरे शरीर से खेलने की पति को छूट।
मरियम के विपरीत लैला एक मध्यमवर्गीय परिवार में अपने बुद्धिजीवी पिता की लाड़ली बेटी है। अपनी कुशाग्र बेटी के लिए पिता काबुल के बिगड़ते हालातों के बीच भी अच्छी ज़िंदगी की उम्मीद रखता है पर गृहयुद्ध में फँसे काबुल के चारों ओर की पहाड़ियों से चला एक रॉकेट इन सपनों पर तुषारापात करने के लिए काफी होता है। वक़्त की मार लैला को मरियम की सौत के रूप में ला खड़ा करती है।
मरियम की लैला के प्रति नफ़रत किस तरह प्रेम में बदलती है ये तो मैं आपको नहीं बताऊँगा पर इतना जरूर कहूँगा कि ख़ालिद की लेखन शैली ऐसी है कि चार सौ पृष्ठों की इस किताब से आप बँध कर रह जाते हैं। लेखक जब प्रताड़ना के क्षणों को विस्तार देते हैं तो पाठक की रुह काँप
उठती है। वहीं उन्होंने माँ और बच्चे के वातसल्य, अकेलेपन और अवसादग्रस्त
ज़िदगी जीने को अभिशप्त पात्रों के मानसिक हालातों और दो प्रेमियों के मन
की भावनाओं का सजीव चित्रण किया है।
तालिबान के बारे में हम सबने सुना है पर महिलाओं के प्रति उनके नज़रिए को एक बार यहाँ फिर से दोहरा देना सही होगा। लड़कियाँ पढ़ नहीं सकती। सज नहीं सकती। घर के बाहर बिना किसी मर्द के नहीं जा सकती। अगर गई तो पीटी जाएँगी मर्दों से नज़रें नहीं मिला सकती। सबके सामने हँस नहीं सकती। काम नहीं कर सकती। बिना पूछे जवाब नहीं दे सकती। नाचना, चित्रकला और गाना, ताश, शतरंज और पतंगबाजी के लिए तो लड़कों को भी मनाही थी। पर ऐसा नहीं हैं कि अफ़गानिस्तान में ऐसी व्यवस्था सबसे पहले तालिबानी लाए। काबुल और कुछ अन्य शहरी इलाकों को छोड़ दें तो अफ़गानिस्तान का अधिकांश कबीलाई इलाका इसी तरह की पाबंदियों के बीच आज भी जी रहा है और अपने आप को बदलने की किसी भी कोशिश का पुरज़ोर विरोध करता है।
लेखक ने काबुल के हालातों को इस किताब में कई रूपकों से इंगित करने की कोशिश की है। उनमें से दो का जिक्र करना जरूरी होगा। वे हेमिंग्सवे के उपन्यास The Old Man and the Sea की बात करते हैं जिसमें एक वृद्ध मछुआरा बड़ी मुश्किल से एक बड़ी मछली का शिकार कर अपनी छोटी नाव से घसीटता हुआ एकदम किनारे तक पहुँचता ही है कि उसका शिकार कई शार्क द्वारा टुकड़े टुकड़े कर दिया जाता है। दरअसल लेखक ये बताना चाहते हैं कि काबुल की हालत उस शिकार की है जिसे जीतने के लिए सब उसे छिन्न भिन्न करने से नहीं हिचकिचाते।
अब ज़रा लेखक द्वारा प्रयुक्त एक दूसरे रोचक रूपक पर गौर करें। ये रूपक है फिल्म Titanic का। लेखक तालिबानी समय (2000) में आई फिल्म Titanic के काबुल में जबरदस्त लोकप्रियता का विवरण कुछ यूँ देते हैं।
That summer, Titanic fever gripped Kabul. People smuggled pirated copies of the film from Pakistan- sometimes in their underwear. After curfew, everyone locked their doors, turned out the lights, turned down the volume, and reaped tears for Jack and Rose and the passengers of the doomed ship. At the Kabul River, vendors moved into the parched riverbed. Soon, from the river's sunbaked hollows, it was possible to buy Titanic carpets, and Titanic cloth, from bolts arranged in wheelbarrows. There was Titanic deodorant, Titanic toothpaste, Titanic perfume, Titanic pakora, even Titanic burqas. A particularly persistent beggar began calling himself "Titanic Beggar.""Titanic City" was born.
Titanic की इस लोकप्रियता के कई कारण हो सकते हैं पर लेखक अपने गढ़े चरित्र लैला के माध्यम से कहते हैं कि निराशा और विध्वंस के इस माहौल में काबुल के लोग सोचते हैं कि फिल्म की नायिका की तरह उन्हें भी बचाने कोई जरूर आएगा। अफ़गानिस्तान से जुड़े कई अन्य उपन्यासों की तरह A Thousand Splendid Suns.. में भी रोज़ मरते लोगों और उनकी असहनीय पीड़ा का मार्मिक चित्रण है पर साथ ही किताब ये भी दिखाती है कि लोगों ने इतनी कठिनाइयों से जूझते हुए किस तरह जीवन में आगे बढ़ने की कोशिशें की हैं और इसमें प्रेम की भावना किस तरह सहायक सिद्ध हुई है। ख़ालिद के शब्दों में कहें तो
"Love can move people to act in unexpected ways and move them to overcome the most daunting obstacles with startling heroism”
निश्चय ही ये पुस्तक पढ़ने योग्य है। आज भारत में कई ताकतें इस मुल्क को पीछे खींचने पर तुली हैं। ऐसे रास्ते किन भयावह परिस्थितियों की ओर ले जाते हैं ये इस किताब को पढ़कर कोई भी महसूस कर सकता है।