वापस तो लौट आयें हैं यात्रा के अपने खट्टे मीठे अनुभवों को लेकर पर आज कुछ मन शेर- ओ- शायरी का हो रहा था तो सोचा कि इससे पहले कि सफर का हाल सुनाना शुरु करूँ क्यूँ ना मखमूर सईदी साहब की एक गजल आप सब के साथ बाँटी जाए ।
अब ये गजल क्या है एक नाराज आशिक का फसाना है ! तो जनाब उदासी की चादर से निकलती इन तल्ख भावनाओं पर जरा गौर कीजिए ।
गर ये शर्त -ए -ताल्लुक है कि है हमको जुदा रहना
तो ख्वाबों में भी क्यूँ आओ़ खयालों में भी क्या रहना
शजर जख्मी उम्मीदों के अभी तक लहलहाते हैं
इन्हें पतझड़ के मौसम में भी आता है हरा रहना
पुराने ख्वाब पलकों से झटक दो सोचते क्या हो
मुकद्दर खुश्क पत्तों का, है शाखों से जुदा रहना
अजब क्या है अगर मखमूर तुम पर यूरिश- ए -गम है
हवाओं की तो आदत है चरागों से खफा रहना
श्रेणी: आइए महफिल सजायें में प्रेषित
कुन्नूर : धुंध से उठती धुन
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आज से करीब दो सौ साल पहले कुन्नूर में इंसानों की कोई बस्ती नहीं थी। अंग्रेज
सेना के कुछ अधिकारी वहां 1834 के करीब पहुंचे। चंद कोठियां भी बनी, वहां तक
पहु...
7 माह पहले
7 टिप्पणियाँ:
"मुकद्दर खुश्क पत्तों का, है शाखों से जुदा रहना"
जबरदस्त है भाई ये गजल ।
सूरज का सफर खत्म हुआ रात न आई,
मेरे हिस्से में ख्वाबों की सौगात न आई,
हमराह कोई और न आया तो गिला क्या ?
मेरी परछाईं भी जब मेरे साथ न आई ।
गर ये शर्त -ए -ताल्लुक है कि है हमको जुदा रहना
तो ख्वाबों में भी क्यूँ आओ़ खयालों में भी क्या रहना
वैसे तो सारी गज़ल ही सुन्दर है पर यह शेर काफी पसंद आया। हर बार तरह इस बार भी आप मोती चुन कर लाएं है।धन्यवाद।
लगे रहो मनिष भाई!!!
बहूत ही उम्दा गज़ल है, मजा आ गया। :)
अच्छी शायरी है, पसंद आई
बहुत बढ़ियां गज़ल लाये हैं, अब अपनी यात्रा वृतांत भी जल्दी पेश करें.
मनीषजी हमेशा की तरह एक सदाबहार पोस्ट।
गजल वाकई खूबसूरत है।
रत्ना जी, समीर जी, शोएब, गिरिराज और भुवनेश भाई मखमूर साहब की ये गजल आप सब को अच्छी लगी जानकर खुशी हुई ।
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