रविवार, मई 13, 2007

रात आधी खींच कर मेरी हथेली : 'बच्चन' की कविता, अमिताभ का स्वर...

कविता या गजल की अदायगी, उसमें कही हुई भावनाओं को श्रोता के दिल तक पहुँचाने में एक उत्प्रेरक का काम करती हैँ । पिताजी बताते हैं कि उनके जमाने में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हरिवंश राय बच्चन मंच से जब अपनी मधुशाला का काव्य पाठ करते, तो सब के सब मंत्रमुग्ध हो कर सुनते रहते । बच्चन को तो सुनने का सौभाग्य मुझे सिर्फ आडियो कैसेट में ही हुआ है। पर हाई स्कूल में जब पहली बार दूरदर्शन पर नीरज को पूरे भावावेश के साथ कविता पढ़ता देखा तो मन रोमांचित हो गया था ।

वैसे वीर रस के कवियों के लिए तो ये अदाएगी, उनकी रोजी रोटी का सवाल है । पता नहीं आप लोगों ने कभी ऐसा महसूस किया कि नहीं पर जहाँ तक मेरा अनुभव है, जब भी इस कोटि के कवि मंच पर आते हैं तो पूरा सम्मेलन कक्ष उनकी आवाज से गुंजायमान हो जाता है और अगर तालियों के अतिरेक ने उनका उत्साह बढ़ा दिया तो आगे की दर्शक दीर्घा के श्रोताओं के लिए कान के पर्दों के फटने का भी खतरा मंडराता रहता है ।:)

वैसे ये काबिलियत कितनी अहम है इसका अंदाजा आप इस पुरानी घटना से लगा सकते हैं। ये उस वक्त की बात है जब इन्दीवर के गीत फिल्मों में काफी मशहूर हो रहे थे।एक बार काफी पैसे देकर इन्दीवर को एक कवि सम्मेलन में आमंत्रित किया गया और जैसा कि अमूमन होता है उन्हें सबसे अंत में काव्य पाठ करने को बुलाया गया । उन्होंने अपने एक बेहद मशहूर गीत से शुरुआत करी पर उनकी अदायगी इतनी लचर थी कि जनता गीत के बीच से ही उठ कर अपने घर को पलायन कर गई और आयोजक अपने तुरुप के पत्ते का ऐसा हश्र होते देख सर धुनते रह गए ।

पर बात शुरु की थी मैंने हरिवंश राय बच्चन से और आज उन्हीं की एक कविता आपके सामने उनके सुपुत्र अमिताभ बच्चन के स्वर में पेश कर रहा हूँ। ये कविता प्रेम और विरह की भावनाओं से लबरेज है । इतनी खूबसूरती से 'बच्चन जी' ने एक प्रेमी के दर्द को उभारा है कि क्या कहा जाए ! और जब आप इसे अमिताभ की गहरी आवाज में सुनते हैं तो उसका असर इस कदर होता है कि मन कवि की पंक्तियों को अपने दिल में आत्मसात सा पाता है ।

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रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी।
तारिकाऐं ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी।
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा सा और अधसोया हुआ सा।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में।
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में।
मैं लगा दूँ आग उस संसार में है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर...
जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!

रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ उजाले में अंधेरा डूब जाता।
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूबियों के साथ परदे को उठाता।
एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था
और मैंने था उतारा एक चेहरा।
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर
ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।

रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

और उतने फ़ासले पर आज तक
सौ यत्न करके भी न आये फिर कभी हम।
फिर न आया वक्त वैसा
फिर न मौका उस तरह का
फिर न लौटा चाँद निर्मम।
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं?
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

- हरिवंशराय बच्चन

शुक्रवार, मई 11, 2007

रवीन्द्रनाथ टैगोर की कृति 'गोरा' : तात्कालिक हिंदू धर्म और समाज से जुड़ा एक पठनीय उपन्यास

बात फरवरी की है । कानपुर से नीलांचल एक्सप्रेस से लौट रहा था । मूरी में ट्रेन इतनी विलंबित हुई कि राँची की ओर जाने वाली सारी ट्रेनें छूट गईं । अगली ट्रेन दो घंटे बाद आने वाली थी । समय काटना भारी पड़ रहा था कि सामने पत्र पत्रिकाओं से सजी ठेलागाड़ी पर नजर पड़ी और देखा जीवन के असली सत्य का दर्शन कराती सत्य, मधुर और मनोहर कथा-कहानियों के बीच से टैगोर चिन्तित से झांक रहे हैं।

इससे पहले मैंने गीतांजलि की कुछ कविताओं को छोड़कर टैगोर को कभी नहीं पढ़ा था । पर गोरा के बारे में सुना था कि अच्छी किताब है , इसलिए जब पुस्तक विक्रेता ने ३०० पृष्ठों की इस किताब का मूल्य मात्र ८० रुपये बताया तो तुरंत मैंने इसे खरीदने का मन बना लिया ।

कथा की पृष्ठभूमि उस समय की है जब राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज तेजी से हिंदू समाज में अपना पाँव पसार रहा था । जहाँ जातिगत भेदभाव ने समाज के निम्न तबकों में एक असंतोष पैदा कर रखा था, वहीं दूसरी ओर रीति रिवाज और व्यर्थ के धार्मिक अनुष्ठानों और आडंबरों से हिंदुओं का पढ़ा लिखा नया तबका एक घुटन सी महसूस कर रहा था ।
पर क्या इस बारे में उपन्यास का मुख्य किरदार गोरा भी ऐसा ही सोचता था ?

धार्मिक आडंबरों और समाज में फैले कुसंस्कारों को हटा कर उद्धार की बात करने पर वो कहता

"उद्धार, उद्धार बहुत बाद की बात है । उससे कहीं बड़ी बात है प्रेम की श्रद्धा की, पहले हम एक हों फिर उद्धार अपने आप हो जाएगा । आप लोग (ब्रह्म समाज वाले) कहते हैं देश में कुसंस्कार है इसलिए हम सुसंस्कारी लोग उससे अलग रहेंगे । मैं यह कहता हूँ कि मैं किसी से उत्तम होकर किसी से भिन्न नहीं होऊँगा । आप अगर ऐसा समझते हैं कि पहले उन सब रीति रिवाजों और संस्कारों को उखाड़ फेंकेगे, और उसके बाद देश एक होगा, तब तो समुद्र पार करने के प्रयास करने से पहले समुद्र को सुखा देना होगा ।सभी देशों के सभी समाजों में दोष और अपूर्णता है, किन्तु देश के लोग जब तक जाति प्रेम के बंधन से एकता में बँधे रहते हैं तब तक उनका विष काटकर आगे बढ़ सकते हैं । सड़ने की वजह हवा में ही होती है, किंतु जीवित रहें तो उससे बचे रहते हैं, मर जाएँ तो सड़ने लगते हैं ।"

तो ऐसा था गोरा..... अद्भुत तार्किक क्षमता का धनी। गौर मुख, लंबी चौड़ी कद काठी का स्वामी गोरा जब अपनी जोशीली आवाज में संपूर्ण भारतवर्ष को हिंदू धर्म के माध्यम से एक सूत्र में बाँधने के अपने सपने के बारे में बोलना शुरु करता तो उसके तर्कों और रोबीले व्यक्तित्व के सामने विपरीत पक्ष रखने वाले को कोई उत्तर नहीं सूझ पाता था । गोरा की बातें अजीब थीं। अपनी ममतामयी माँ की वो मन ही मन अराधना करता पर उसके साथ छुआछूत भी बरतता क्यूँ वो सब जात वालों के साथ उठती बैठती थीं । गोरा की संगति में रहने वाले उसके मित्र (पहले विनय और बाद में सुचरिता ) गोरा के विचारों से ना भी सहमत होते हुए उनको ये सोचकर अपना लेते कि गोरा की दूरदर्शिता , मातृभूमि के उद्धार का जो मार्ग सहज ही तालाश लेती है वो तो उसके बिना उन्हें दृष्टिगोचर ही नहीं होगा।

पर तीन सौ पन्नों की इस किताब में सिर्फ टैगोर ने गोरा का ही व्यक्तित्व उभारा हो ऐसी बात नहीं है । गोरा के आलावा ये उपन्यास एक ब्राह्म समाजी परेश बाबू की कन्या ललिता और ब्राह्नण लड़के विनय की प्रेम कथा भी कहता है । ललिता के सानिध्य में आकर विनय अपने दोस्त के अद्भुत व्यक्तित्व की छत्र-छाया से ना केवल बाहर निकलता है पर अपनी खुद की सोच में वो आत्मविश्वास पैदा कर पाता है । अपने लिए वो ऐसी राह चुनता है जिसके लिए हठी गोरा अपनी दोस्ती त्यागने को तैयार हो जाता है।

हाल ही में हमारे एक साथी चिट्ठाकार ने अपने समाज के बाहर शादी करने वालों को इस लिए अपनी लानत भेजी थी कि ऐसा करने के पहले वो अपने परिजनों को होने वाले दुख का ध्यान नहीं रखते । यहाँ तक कहा गया कि ऐसे लोगों को समाज की फिर जरूरत क्यूँ पड़ती है ऍसे ही साथ साथ रहें । गौर करने की बात है कि बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में लिखे गए इस उपन्यास में पहले टैगोर ने ब्रह्म समाजी ( ये समाज एक ईश्वर में विश्वास रखता है, मूर्ति पूजा विरोधी है और जातिगत भेदभाव को नहीं मानता) और हिन्दू ब्राह्मण के विवाह को जायज ठहराते हुए उपन्यास के एक चरित्र परेश बाबू के माध्यम से लिखा है


"इस स्थिति को लेकर मुझे बहुत विचारना पड़ा है। जब समाज में किसी मनुष्य के खिलाफ विरोध उठ खड़ा होता है तब दो बातें विचारकर देखने की होती हैं। एक तो, दोनों पक्षों में न्याय किसकी तरफ है । और दूसरे, ताकतवर कौन है । इसमें तो शक नहीं कि समाज ताकतवर है, इसलिए विद्रोह का दुख भोगना ही पड़ेगा ।.....
ऐसे विवाह में कोई दोष नहीं है, बल्कि ये सही है, तब समाज यदि बाधा दे तो उसे मानना फर्ज नहीं है, ऐसा मेरा मन कहता है । समाज के लिए मनुष्य को संकुचित होकर रहना पड़े यह कभी उचित नहीं हो सकता, समाज को ही मनुष्य के लिए अपने को उचित कर चलना होगा। इसलिए जो दुख स्वीकार करने के लिए तैयार हैं मैं उन्हें गलत नहीं कह सकता ।"

खैर वापस लौटें इस कथा के नायक गोरा के पास । क्या गोरा सदा ही अपने विचारों पर हठी बना रहा ? कम से कम अपने मित्र विनय के साथ तो उसका बर्ताव ऍसा ही रहा । पर सुचरिता की बुद्धिमत्तता और उसके ब्रह्म समाजी पिता परेश बाबू के मध्यमार्गी संतुलित विचारों ने कई बिंदुओं पर उसकी सोच को हिलाकर रख दिया । हालांकि इस बात को स्वीकार करने में वो तब समर्थ हुआ जब उसे अपनी खुद की उत्त्पत्ति का रहस्य ज्ञात हुआ । ऐसा क्या था उस रहस्य में जिसने गोरा के जीवन का मार्ग एकदम से बदल दिया । ये तो जान पाएँगे आप इस पुस्तक को पढ़ने के बाद...

टैगोर ने इस उपन्यास में अपनी जिंदगी का अर्थपूर्ण उद्देश्य तलाशती सुचरिता और प्रेम में डूबी ललिता की मनःस्थिति को भी बखूबी चित्रित किया है। पर उपन्यास का सबसे सशक्त पहलू इसकी मजबूत वैचारिक जमीन है जो धर्म और समाज के बारे में उनकी गहन सोच को दर्शाती है। टैगोर ने गोरा के माध्यम से वैसे बुद्धिजीवियों पर कुठाराघात किया है जिनकी ऊँची सोच ,भाषणबाजी के दायरे से निकलकर कभी भी जमीनी स्तर पर कार्यान्वित नहीं हो पाती । वहीं परेश बाबू के चरित्र का सहारा लेकर हिन्दू धर्म की कमियों के प्रति भी आगाह किया है । कुल मिलाकर ये एक पठनीय उपन्यास है जो उस वक्त के बंगाली समाज के धार्मिक और सामाजिक अन्तरद्वन्द की कहानी कहता है ।

सोमवार, मई 07, 2007

ये रिश्ता क्या कहलाता है...


रिश्ता एक बहुत पेचीदा सा लफ्ज है
कई रिश्ते ऍसे होते हैं जिन्हें आप कोई नाम नहीं दे सकते
जब भी इन्हें लफ्जों के दायरे में बाँधने की कोशिश करते हैं वो धागों की तरह और उलझते चले जाते हैं
इन रिश्तों के मायने ना ही ढ़ूंढ़े जाए तो अच्छा है
क्या पता उलझते उलझते इन धागों में गाठें पड़ जाएँ ।


बकौल गुलजार


हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू
हाथ से छू के इसे रिश्तों का इलजाम ना दो
सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो
हमने देखी है ....

आपसी रिश्तों की बात छोड़ें । अपने इर्द गिर्द की प्रकृति के विविध रूपों को देखें
क्या आपको कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि इनसे जरूर मेरा कोई रिश्ता है ?


चाहे वो आपके आँगन का वो बरसों पुराना पीपल का पेड़ हो...
या आपके लॉन की हरी मखमली घास...
सुबह की ताजी हवा हो या सांझ की सिमटती धूप...
या फिर रात के पूर्ण अंधकार में फैली स्निग्ध चांदनी...


गीतकार राहत इन्दौरी के लिखे इस प्यारे से गीत में एक कोशिश है अपने आस पास की फिजा में अपने रिश्तों की परछाईयाँ ढ़ूंढ़ने की । चाहे वो झील में कंकर मारने से बनता भँवर हो या हवा में तैरती सी रुक रुक कर आती उसकी आवाजें, महबूब की कल्पनाएँ मुग्ध किए बिना नहीं रह पातीं । और उस पर ए. आर. रहमान का सौम्य संगीत और रीना भारद्वाज की दिलकश आवाज गीत में डूबने में आपकी मदद करती है ।




कोई सच्चे ख्वाब दिखा कर
आँखों में समा जाता है
ये रिश्ता...
ये रिश्ता क्या कहलाता है

जब सूरज थकने लगता है
और धूप सिमटने लगती है
कोई अनजानी सी चीज़ मेरी
साँसों से लिपटने लगती है
मैं दिल के क़रीब आ जाती हूँ
दिल मेरे क़रीब आ जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है

इस गुमसुम झील के पानी में
कोई मोती आ कर गिरता है
इक दायरा बनने लगता है
और बढ़ के भँवर बन जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है

तसवीर बना के रहती हूँ
मैं टूटी हुई आवाज़ों पर
इक चेहरा ढूँढती रहती हूँ
दीवारों कभी दरवाज़ों पर
मैं अपने पास नहीं रहती
और दूर से कोई बुलाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है



कुछ बातें इस गीत की गायिका रीना भारद्वाज के बारे में । रीना जितनी देखने में खूबसूरत हैं उतनी ही हुनरमंद भी । नृत्य में वे कत्थक से भली भांति वाकिफ हैं । हिन्दी के आलावा, तमिल, बंगाली और पंजाबी में भी अपनी गायन प्रतिभा दिखा चुकी हैं । अपनी गायिकी को और पुख्ता करने के लिए वो मुंबई के उस्ताद गुलाम मुस्तफा खाँ से उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की शिक्षा के रही हैं ।


लंदन स्कूल आफ एकोनामिक्स की स्नातक एवम् स्नातकोत्तर की छात्रा रह चुकीं रीना की खुशी का उस वक्त ठिकाना नहीं रहा, जब ए.आर. रहमान ने उन्हें हुसैन साहब की फिल्म मीनाक्षी के इस खूबसूरत गीत को गाने की पेशकश की । हिन्दी फिल्मों का ये इनका पहला गीत था।

रीना ने रहमान के साथ फिल्म मंगल पांडे दि राइसिंग में भी काम किया है । ब्रिटेन में ही रहने वाले और काफी ख्याति पा चुके संगीतज्ञ नितिन साहनी के एलबम Human में भी रीना का काम सराहा गया है । रीना भारतीय मूल की ब्रिटिश नागरिक है और लंदन और मुम्बई के बीच उनका संगीतमय सफर चलता रहता है ।

शुक्रवार, मई 04, 2007

न्यू आफिसर्स हॉस्टल, पटना :वो ' घर' अब याद आता है !

न्यू आफिसर्स हॉस्टल यानि पटना के बेली रोड और बोरिंग रोड के मिलन बिंदु के पास बनी बहुमंजिला इमारत जिसे बाहर के लोग 'कबूतरखाना' के नाम से भी जानते थे, पर हमारे लिए तो वह था हमारा प्यारा आशियाना । १९७७ में मैं यहाँ आया और करीब १९९४ में यहाँ से रुखसत हुआ। यूँ कहें यहीं मैं पढ़ लिख कर बड़ा हुआ !

आज भी जब इस इमारत के बगल से गुजरता हूँ, इसमें बिताये हुए पल याद आते हैं । आज की इस प्रविष्टि में अपने उसी प्यारे घर से जुड़ी कुछ खट्टी-मीठी यादें आप के समक्ष रखूँगा जो आज भी मेरे स्मृति पटल पर अंकित हैं ।

पाँच छः साल का रहा हूँगा जब अपने इसी घर से जातियों में विभाजित अपने राज्य की पहली तसवीर देखी । वक्त १९७९ के आस पास का होगा। रोज स्कूल से घर आने के बाद जिंदाबाद मुर्दाबाद के नारे सुनाई देते थे । पटना का तबका हड़ताली चौक घर के पास ही हुआ करता था । सो सारे जुलूस घर के निकट ही रोक लिये जाते थे। फारवर्ड-बैकवर्ड से तब मतलब आगे पीछे ही समझ आता था । जब कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ नारे लगते तो उसका मतलब ये होता कि ये आगेवालों की टोली है और जब मुख्यमंत्री की मसीहाई के चर्चे होते तो अनुमान लगा लेता कि आज का कुनबा पीछेवालों का है । रोज-रोज के इस तमाशे को देखकर अपनी उत्सुकता दबा पाना जब मुश्किल हो जाता तो आखिर माँ से पूछ ही बैठते कि माँ हम किस तरफ हैं? पर माँ इधर-उधर की बातों में ऐसे जवाब को घुमातीं कि प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता था ।

ऍसे ही एक दिन बढ़ते तनाव से मामले ने इतना तूल पकड़ा कि भारी पथराव के जवाब में जमा हुई भीड़ पर पहले आँसू गैस के गोले छोड़े गए । लड़के बगल की एक इमारत 'राजीव कमल' की छत पर जा चढ़े। पर पुलिस वाले वहाँ भी जा पहुँचे तो वहाँ से कूद कर सारे हमारे इसी आफिसर्स हॉस्टल की ओर भागे । जो पकड़े गए बुरी तरह डंडों से पिटे । भागते दौड़ते पनाह के लिए पहले तल्ले पर कुछ ने शरण ली। कुछ तो कुछ पुलिस के भय से सीधे ऊपर चढ़ते हुए उस जलती दुपहरी में सीमेंट की बनी पानी की टंकी पर लेट गए । आज भी वो टंकी बाल मन से देखे गए उस भवायह दृश्य की याद दिलाती है ।

वक्त बीतता गया..... । आफिसर्स हॉस्टल के तीसरे तल्ले का वो दो कमरों का घर प्रिय से प्रियतर होता चला गया । हमारा हॉस्टल तीन ब्लॉक्स में विभाजित था । प्रत्येक तल्ले में १२ घर और एक ब्लॉक में ६० । यानि उस छोटे से परिसर में १८० परिवारों का आशियाना था ।

१९८२ की बात है । दिल्ली से एशियाड का सीधा प्रसारण आना शुरु हुआ और उसी वक्त पटना में रंगीन टीवी आया । हमारे घर में नहीं आया तो क्या हुआ हम सारे बच्वे सुबह ९ बजे टीवी देखने बगल के परिचित के ब्लॉक में जाते और सीधे जाकर कालीन पर अपना अपना आसन जमा लेते । ऐसे ही क्रिकेट मैच देखा जाता । विपक्षी टीम के खिलाड़ी आउट नहीं होते तो लोग अपनी-अपनी सीटें बदलते । विपक्षी गेंदबाज बहुत तंग कर रहा होता तो कोई उठके उसको अपना मोजा सुंघा कर आता। ऐसी ही भीड़ गुरुवार, रविवार की फिल्मों के लिए जुटती। सामूहिक ढ़ंग से टी.वी. देखने का वो आनंद ही अलग था

स्कूल की छुट्टी होती तो दो सीढ़ियों के बीच की वर्गाकार जगह पर कभी कैरमबोर्ड, कभी व्यापार तो कभी शतरंज की बिसात बिछती। फ्लैट की उन सीढ़ियों पर १९८३ में विश्व कप फाइनल में १८० के करीब आउट होने पर दुखी होकर एकत्रित हुए थे कि आगे अब क्या देखना ! और फिर उन्हीं सीढ़ियों पर अपने ट्रांजिस्टर पर रेडियो पाकिस्तान से आती कमेंट्री को साथियों के बीच सुनते हुए राथमन्स कप में पाकिस्तान को शिकस्त दिये जाने पर जबरदस्त हो हल्ला मचाया था ।

होली आती तो पुरुष, महिलाओं, लड़के लड़कियों की अलग अलग टोलियाँ बन जातीं । दुर्गा पूजा में हफ्ते भर अलग जश्न का माहौल होता । और दीपावली की शरारतें तो पूछें मत । एक दफे लड़कों ने बीड़ी बम का लच्छा बनाकर एक सुंदर कन्या के घर की तरफ उछाला । अब बम का गुच्छा तो दूसरे तल्ले तक पहुँचने से पहले ही फटा पर कन्या ने उसके जवाब में जो आलू बम लड़कों के नीचे खड़े झुंड के बीचों बीच गिराया उसके फटने से जो भगदड़ मची वो घटना याद आते ही हम सब को हंसी के दौरे पड़ जाते थे

फिर एक दिन वो आया जब अपने इस आफिसर्स हॉस्टल में कला फिल्मों की मशहूर तारिका दीप्ति नवल बहू बन कर आईं । उस वक्त उनके पति प्रकाश झा साहब हुआ करते थे और उनका परिवार 'सी ब्लॉक' में रहा करता था। अब जहाँ से भी उनके घर की बालकोनी दिख सकती थी लोग हर उस जगह में भर गए । करीब आधे पौन घंटे के बाद दीप्ति नवल ने अपनी बालकोनी से सबका अभिवादन स्वीकारा और उनकी एक झलक देख के हम हॉस्टल वासी तर गए।
किशोरावस्था में घर के बाहर की बड़ी से ये बॉलकोनी हमारे बहुत काम आई । यही वो ऐतिहासिक स्थल था जहाँ पर १६ साल की उम्र में एक शाम हम जब नेपथ्य में ताक रहे थे तो सामने से हमें किसी ने वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में वेव (wave) किया । मैं तो एकदम से चकराया कि ये मेरे लिये तो नहीं हो सकता , पहले तो अपनी बालकोनी के नीचे देखा और फिर ऊपर। कोई नहीं था और मेरे इस कृत्य पर सामने से मुस्कुराहट का दौर जारी था । दिल की बड़ी इच्छा थी कि हम भी हाथ हिला ही दें पर हाथ तो जैसे सौ किलो के भार से जड़ हो गया अपनी अकर्मण्यता से उपजी खीज को छुपाने के लिए तब भी अपने इसी प्यारे घर की शरण ली थी।

पर आफिसर्स हॉस्टल से जुड़ी सबसे रोमांचक घटना घटित हुई १९८८ में । उस दिन दिन भर बिजली नहीं थी सो पानी भी नहीं आया था । देर रात जब नगर निगम का टैंकर आया तो पानी भरने के लिए भीड़ लग गई और जैसा कि ऍसे हालात में भारत के हर कस्बे शहर में होता है मोहल्ले के बाशिंदों में पहले मैं पहले मैं को लेकर आपस में गर्मागर्मी भी काफी हुई । नतीजन देर रात तक १२ बजे सब सोने गए । रात के अंतिम पहर करीब साढ़े तीन और चार के आसपास पाँचवे तल्ले से सारे बर्तनों के गिरने की आवाजें आने लगीं । धरती से सों-सों की ध्वनि सी निकल रही थी ।मेरा घर तीसरे तल्ले पर था जब मेरी आँख खुली तो मैंने पलंग को पूरी तरह हिलता पाया । पूरी ताकत से मैं चिल्लाया भूकंप । अब सबके जगते जगाते तो भूकंप का वेग खत्म हो गया था पर फिर भागते दौड़ते जब नीचे पहुँचे तो अपने मोहल्लेवालों की कारस्तानी के दिलचस्प नमूने सामने आए

पड़ोस का मेहता परिवार भूकंप की तेजी में भी चाबी के गुच्छे तलाशता रह गया ।
वर्मा जी दो तल्ले से वक्त रहते ही बच्चों सहित नीचे उतर तो आए पर हड़बड़ाहट में बीवी को घर के अंदर ही बंद कर आए ।
और कुछ लोगों को तो नीचे आने पर ख्याल आया कि वे जिन वस्त्रों मे नीचे आ गए हैं वो सार्वजनिक स्थल हेतु बिलकुल वर्जित हैं । :)

इंजीनियरिंग में जाने के साथ ही आफिसर्स हॉस्टल से मेरा जुड़ाव खत्म होता गया पर उस घर में बिताई वर्षों से संचित यादें मन में हमेशा कर लिए घर कर गईं।

यूँ तो पिताजी ने तो एक मकान पटना में बना लिया। पर जब भी कोई अपने घर की बात करता है आज भी आफिसर्स हॉस्टल की वो गलियाँ जेहन में एकदम से उभरती हैं । वक्त के साथ जिंदगी में कई छवियाँ कभी धूमिल नहीं होतीं......बहुत कुछ छोटी सी बात फिल्म के इस गीत की तरह


मंगलवार, मई 01, 2007

मुन्नी बेगम : हमसे वो दूर -दूर रहते हैं, दिल में लेकिन जुरूर रहते हैं : आडियो पोस्ट

गजल गायिकाओं में मुन्नी बेगम की गायन शैली कुछ हटकर रही है । मुर्शीदाबाद में जन्मी, बाँगलादेश में पली बढ़ी और सत्तर के दशक में करांची से संगीत का कैरियर शुरु करने वाली मुन्नी बेगम ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा बाँगलादेश के गुलाम मुस्तफा वारसी से पाई थी ।

तो क्या अलग था मुन्नी बेगम के लहजे में...शब्दों के चुनावों की सादगी और बिना घुमा फिरा कर उसे गाने का तरीका । इसीलिए बेगम को जनता ने तो सर आँखों पर बिठाया पर वहीं गजल पंडितों ने उनकी गायिकी के तौर तरीके पर सवालिया निशान लगाए । पर मुन्नी बेगम ने अपनी शैली नहीं बदली । वो उस जमाने की पहली ऐसी गायिका थी जो अपनी महफिल में हारमोनियम ले कर खुद बैठती थीं । मुन्नी बेगम खुद बताती हैं कि उस वक्त लोग सिर्फ ये देखने पहुँचते थे कि ये दुबली पतली सी लड़की हारमोनियम बजाते हुए गा कैसे लेती है । अपनी गायकी के साथ मुन्नी बेगम को अपनी गजलों की धुनें खुद बनाना और स्टेज पर अपने श्रोताओं से संवाद स्थापित करना बेहद पसंद है । ।

वैसे तो मुन्नी बेगम की सैकड़ों गजलें हैं पर आज उनकी एक हल्की फुल्की सी गजल पेश कर रहा हूँ जो शायद ही आपने पहले सुनी होगी । आप ध्यान दें कि इस गजल का लगभग हर शेर ऐसा है जो एक रिक्शेवाले से लेकर एक गजल प्रेमी के दिल को गुदगुदाएगा ।

तो हुजूर देर किस बात की अपने स्पीकर की आवाज तेज कीजिए और साथ- साथ मजा लीजिए इस प्यारी सी गजल का !



हमसे वो दूर दूर रहते हैं
दिल में लेकिन जरूर रहते हैं

इसलिए देखभाल करती हूँ
आईने में हुजूर रहते हैं

लोग इतने कुसूर कर के भी
इस तरह बेकसूर रहते हैं

मैं जमीं पर तालाश करती हूँ
आप तारों से दूर रहते हैं

मेरी तिशन-ए -मिजाजियों में 'अदम'
महकदे पे जरूर रहते हैं ।


तिशनगी - ‍प्यास, पिपासा
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
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Madhushala
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Jharokhe
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The Pakistani Bride: A Novel


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स्पष्टीकरण

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