रविवार, जुलाई 01, 2007

दिल्ली है दिलवालों कीः किस्सा साथी चिट्ठाकारों से मेरी मुलाकात का भाग :1

सच कहूँ तो मैं निजी जिंदगी में अपने शहर से बाहर निकलने पर बहुत मिलनसार नहीं रहा हूँ, इसमें आलस्य का ही मुख्य योगदान रहा है। कानपुर में तो सच ही मेरे पास शादी से निकलने का वक्त नहीं था पर कोलकाता में प्रियंकर जी से इसी वजह से मुलाकात नहीं कर पाया था।

२७ तारीख को जब मैं दिल्ली के लिए निकल रहा था तो इसी असमंजस में था कि सबको बता तो दिया है, पर मैं क्या खुद ही वक्त निकाल पाऊँगा सबसे मिलने जुलने का? विमान के केबिन कक्ष से उदघोषणा हो रही थी कि दिल्ली के चारों ओर मानसूनी बादलों का पहरा है...विमान के उतरने के पहले की डगमगाहट के लिए मानसिक रूप से तैयार रहें। पर ये क्या जब दिल्ली पास आई तो बादलों का कोई नामोनिशान तक नहीं था। शाम के सात बजे भी अँधेरा दिल्ली को निगल नहीं पाया था। ३६ डिग्री तापमान के साथ उमस भरी शाम हमारा इंतजार कर रही थी । करोलबाग में होटल में तरोताजा होने के बाद फोन नंबर की फेरहिस्त निकाली जो कि मुझे मेल और चिट्ठे पर मिली थी। हमारी सोशल नेटवर्किंग का जनाब हाल ये है कि फोन की कौन कहे उनमें से ९० फीसदी लोगों से चैट तक में भी कभी मेरी बात नहीं हुई थी।

मेरे पहले निशाने पे थे जगदीश भाटिया साहब...नंबर तुरंत लगा और उधर से शांत चित्त स्वर सुनाई पड़ा। मेरा नाम सुनकर कुछ देर तक वो चुप रहे....आखिर वास्तविक दुनिया से नेट की दुनिया में आने में कुछ समय तो लगता ही हैना । फिर बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया, मौसम, शेयर, घर परिवार की बातें हुईं...फिर कहा जरूर मुलाकात होगी। भोजन के बाद फिर फोन सँभाला, अब रात के वक्त तो जो तयशुदा बैचलर्स हैं उन्हें ही परेशान किया जा सकता है। सो पहले अमित से बात हुई , फिर राजेश रौशन और सबसे अंत में शैलेश भारतवासी से। अमित के बारे में ब्लॉगर मीट के पहले के किस्सों और परिचर्चा में साथ होने की वजह से मुझे उसके व्यक्तित्व का अंदाजा था। बातचीत से बिलकुल नहीं लगा कि पहली बार बात हो रही हो। राजेश रौशन राँची के हैं ये मुझे पता नहीं था। पहले शशि फिर अविनाश .. सचिन और अब राजेश ..जानकर प्रसन्नता हुई की ब्लागिंग परिवार में झारखंड से किसी ना किसी रूप में जुड़े पत्रकारों की फेरहिस्त लंबी होती जा रही है।

हाँ तो हिन्दी युग्म के शैलेश जी से संपर्क करना आसान सिद्ध नहीं हुआ। मजे की बात ये कि रात के ग्यारह बजे के बाद भी उनका फोन व्यस्त चल रहा था। हमारे दिमाग की घंटी बजी..कहीं इनका कोई चक्कर वक्कर तो नहीं चल रहा? खैर दस मिनट बाद फिर कोशिश की तो कहने लगे कि एक पुराने सखा थे , उन से अक्सर जब भी बात होती है लंबी ही चलती है। अब वे वास्तव में सखा थे या सखि इसकी पुष्ट खबर तो हमारे देवेश खबरी जी ही दे सकते हैं :p। मुझे इस पोस्ट के छपते-छपते अभी भी उनकी इस बारे में अंतिम रिपोर्ट का इंतजार है।

अगली सुबह कार्यालय निकलने के ठीक पहले मैथिली जी से संपर्क साधा। इतने प्यार से उन्होंने मिलने की इच्छा जताई कि मन अभिभूत हो गया। इससे पहले मैं उनके बारे में बस इतना जानता था कि वो कैफे हिंदी चलाते हैं जिसकी शुरुआत में लेखों को चिट्ठे से लेने के संबंध में विवाद हुआ था। मसिजीवी को जब फोन किया तो वो कॉलेज जाने की तैयारी में थे। कनॉट प्लेस में उनका कॉलेज है तो वहाँ मुलाकात होने की संभावना हो पाएगी ऐसा उन्होंने कहा। फिर संगीत में रुचि रखने वाले सजीव सारथी से बात हुई। बहुत अच्छी आवाज लगी उनकी। बातों से पता चला कि वो भी कनॉट प्लेस के पास ही काम करते हैं और वो जरूर आएँगे।

अरुण अरोड़ा से बात शुरु हुई तो उन्होंने पहली बात ये कही कि मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा कि आप मुझे फोन करेंगे। दरअसल अरुण जी सबसे पहले परिचर्चा में आए थे और पंगेबाज बनने से पहले सबसे पहली नोंक झोंक (श्रीश, याद है आपको) उनकी मुझसे ही हुई थी :)। अरुण जी की २९ को एक मीटिंग थी। पर २८ को फोन पर ही उनसे काफी बातें हुईं। मैंने उन्हें अपने फरीदाबाद के पुराने अनुभव बताये और उनसे उनके व्यापार से जुड़ी जद्दोजहद की कहानी सुनीं।

२८ का सारा दिन और शाम कार्यालय के काम में निकल गया। रात को राजीव रंजन प्रसाद से बात हुई। पता चला कि २९ को शायद ही उन्हें समय मिल पाए। बात उनकी कविताओं से चलकर बस्तर की नक्सली समस्या तक पहुँच गई। अपने क्षेत्र की समस्याओं के प्रति उनकी भावनाएँ अपने जिले से उनके ममत्व को दर्शाती दिखीं। कुल मिलाकर मुझे वो जिंदादिल व्यक्तित्व के स्वामी लगे।

२८ को मैंने अपना ठिकाना करोलबाग से हटाकर कनॉट प्लेस के होटल पार्क में कर लिया। होटल तो बेहतर था ही ,साथ में सबसे बातचीत से ये अनुमान भी लग गया कि मिलन स्थल कनॉट प्लेस में रहने से सुविधा होगी। शाम ५ बजे का वक्त अमित ने सुझाया ताकि आफिस से सीधे लोग उधर चलें जाएँ। सबको sms कर दिया गया। चार बजे तक मैं होटल पहुँच गया था। पाँच बज गए पर भारतीय मानकों के हिसाब से कोई नहीं आया। सबसे पहली घंटी साढ़े पाँच बजे अमित ने बजाई , और करीब साढ़े छः तक सारे लोग एक-एक कर आ चुके थे। हैरत की बात थी कि एक ही शहर में रहकर भी बहुत से लोग पहली बार आपस में मिल रहे थे।



(चित्र में बायें से शैलेश भारतवासी,सजीव सारथी, देवेश खबरी, अमित गुप्ता, मनीष यानि मैं खुद :), अरुण अरोड़ा,जगदीश भाटिया और मैथिली गुप्त जी)

साढ़े पाँच बजे हमारी गपशप रात बारह बजे तक चली। बीच-बीच में लोग रुखसत होते गए। विभिन्न मसलों पर हम सब एक दूसरे के विचारों से अवगत हुए और साथ ही एक दूसरे की शख्सियत से वाकिफ हुए।

हमने रात तक क्या किया वो किस्सा इस पोस्ट की अगली कड़ी में आपके समक्ष बाकी चित्रों के साथ जल्द ही पेश करूँगा।
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14 टिप्पणियाँ:

Sajeev on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

thank you manish for a great evening

Sanjeet Tripathi on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

शुक्रिया जानकारी देने के लिए!!
अगली किश्त की प्रतीक्षा रहेगी!

ghughutibasuti on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

बढ़िया मनीष जी । आपने तो हम सबसे पहले ही अपनी मीट कर ली । यह अच्छा ही रहा कि दिल्ली व आसपास के लोग पहले ही मिल लिये । अब हम दूर वालों से जब मिलेंगे तो हम ही हम नये होंगे व हमारा महत्व भी बढ़ जायेगा । जिन लोगों के केवल विचार व अभिव्यक्ति के तरीके से ही हम अब तक परिचित थे उनसे जब साक्षात मिलना होगा तो बहुत अजीब पर सुखद लगेगा । उनसे भी जिनसे विचार बिल्कुल नहीं मिलते । तो मुझे तो उस दिन की प्रतीक्षा है ।
घुघूती बासूती

Arun Arora on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

अरे भाइ अगर ये मीट्ना १२ बजे तक चला तो दुबारा फ़ोन करना था हम वापस आ जाते :)

बेनामी ने कहा…

सुन्दर भूमिका।अब गपशप की तफ़सील का इन्तेजार है । आभार ।

बेनामी ने कहा…

मनीष भाई आपसे मिल कर बहुत अच्छा लगा और इतना समय कैसे बीता पता ही नहीं चला।

Pratik Pandey on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

वाह! आपकी दिल्ली भेंटवार्ता का क़िस्सा पढ़कर बहुत बढ़िया लगा। अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा।

Udan Tashtari on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

वाह भई, भूमिका तो रोचक बन गई, अब इन्तजार है बातचीत जानने का.अच्छा लगा अब तक का अंदाज.

Pramendra Pratap Singh on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

बहुत अच्‍छा लगा, बधाई

अनूप शुक्ल on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

बहुत खूब लगता है आजकल मीटिंगो का मौसम है।

mamta on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

बढ़िया लगा पढ़कर और अगली किश्त का इंतज़ार रहेगा।

शैलेश भारतवासी on जुलाई 01, 2007 ने कहा…

मनीष जी,

यह तो मेरा सौभाग्य ही है कि मेरा नं॰ व्यस्त रहता है, इस उम्र की यही तो असली कमाई होती है। वैसे मुझे अंदेशा था कि इसे आप ज़रूर क़ोट करेंगे। बढ़िया रपट है। ख़बरी को बोल दिया है, अंतिम रपट के लिए। आती होगी।

Dawn on फ़रवरी 18, 2008 ने कहा…

WOW you are lucky to meet them in person :)
agli kisht ka intezaar

Thanks for sharing
Cheers

"अर्श" on मार्च 01, 2009 ने कहा…

manish ji ye to mera durbhagya hai ke main aaplogon se nahi mil paya delhi me rahkar bi,kambkht mujhe pata hi nahi chal paya ke aap sabhi yahan ekatrit ho rahe hai....ye shikayat bhi sammjh le...khair kya karun...ab post padhkar hi dil khush kar raha hun...


arsh

 

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