मंगलवार, अगस्त 07, 2007

खोलो प्रियतम खोलो द्वार...'डा.राम कुमार वर्मा' रचित कुछ मनपसंद कविताएँ...

डा. राम कुमार वर्मा के व्यक्तिगत जीवन के बारे में मुझे ज्यादा कुछ पता नहीं था। अगर आज मैं, उनकी ये कविताएँ आपके सामने पेश कर रहा हूँ तो इसका पूरा श्रेय मेरी माताजी को जाता है जिन्होंने वर्मा जी की कविताओं से हमारा प्रथम परिचय कराया। आज भी अक्सर वो अंत्याक्षरी खेलते वक्त या ऍसे भी, उनकी कविताएँ धाराप्रवाह बोल जाती हैं। ये मुझे बाद में ही पता चला, कि आधुनिक हिंदी साहित्य में राम कुमार वर्मा जी की गिनती, एक कवि के आलावा नाटककार के रूप में भी होती थी। राम कुमार जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से जुड़े थे और अपनी समकालीन, महादेवी जी के करीबी थे। तो आएं आनंद उठाएँ, राम कुमार वर्मा जी की लिखी हुई मेरी पसंदीदा रचनाओं से.....

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ये गजरे तारों वाले?
वैसे तो बरसात में शायद ही मेघविहीन आकाश नज़र आता है। पर ग़र आसमान साफ हो तो इधर-उधर बिखरे तारों का सौंदर्य देखते ही बनता है। गर्मी में देर रात बिजली गुल होने से छत पर खाट के ऊपर लेटे-लेटे कितनी बार ही इस दृश्य का आनंद उठाया है। पर तारों भरी रात, अगर एक झरने के बहते जल के सानिध्य में गुजारी जाए तो.....? पानी पर टिमटिमाते तारों के लहराते प्रतिबिंब का सम्मोहन भी क्या खूब होगा। तो चलें अनुभव करें वर्मा जी का ये अद्बुत शब्दचित्र...

इस सोते संसार बीच,
जग कर, सज कर रजनी बाले!
कहाँ बेचने ले जाती हो,
ये गजरे तारों वाले?

मोल करेगा कौन,
सो रही हैं उत्सुक आँखें सारी।
मत कुम्हलाने दो,
सूनेपन में अपनी निधियाँ न्यारी॥

निर्झर के निर्मल जल में,
ये गजरे हिला हिला धोना।
लहर हहर कर यदि चूमे तो,
किंचित् विचलित मत होना॥

होने दो प्रतिबिम्ब विचुम्बित,
लहरों ही में लहराना।
'लो मेरे तारों के गजरे'
निर्झर-स्वर में यह गाना॥

यदि प्रभात तक कोई आकर,
तुम से हाय! न मोल करे।
तो फूलों पर ओस-रूप में
बिखरा देना सब गजरे॥


(काव्यालय से साभार)
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एक दीपक किरण-कण हूँ।


रात की बात हो तो फिर उसको उद्दीपित करती दीपक की उस किरण की गाथा नहीं सुनना चाहेंगे आप ? बालकवि बैरागी की एक ओजमयी कविता "दीवट(दीप पात्र) पर दीप" की चर्चा तो मैंने पहले भी की थी। राम कुमार वर्मा जी ने भी धुएँ की गोद में जलती लौ की कहानी कुछ यूँ बयान की है ...


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एक दीपक किरण-कण हूँ

धूम्र जिसके क्रोड़ में है, उस अनल का हाथ हूँ मैंनव प्रभा लेकर चला हूँ, पर जलन के साथ हूँ मैं
सिद्धि पाकर भी, तुम्हारी साधना का..
ज्वलित क्षण हूँ।
एक दीपक किरण-कण हूँ


व्योम के उर में, अपार भरा हुआ है जो अँधेरा
और जिसने विश्व को, दो बार क्या सौ बार घेरा
उस तिमिर का नाश करने के लिए,
मैं अटल प्रण हूँ।
एक दीपक किरण-कण हूँ।

शलभ को अमरत्व देकर,प्रेम पर मरना सिखायासूर्य का संदेश लेकर,रात्रि के उर में समाया
पर तुम्हारा स्नेह खोकर भी
तुम्हारी ही शरण हूँ।
एक दीपक किरण-कण हूँ।

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खोलो प्रियतम खोलो द्वार....
और चलते-चलते वो कविता जो मेरी माँ और अब मुझे भी बेहद प्रिय है । इस छोटी सी कविता को माँ की मदद से मैंने अपनी डॉयरी में उतारा था। शायद ये तब लिखी गई हो जब छायावाद की तूती, हिंदी काव्य साहित्य में बोल रही हो।


शिशिर कणों से लदी हुई
कमली के भीगे हैं सब तार
चलता है पश्चिम का मारुत
ले कर शीतलता का भार

अरुण किरण सम कर से छू लो
खोलो प्रियतम खोलो द्वार....

डरो ना इतना धूल धूसरित
होगा नहीं तुम्हारा द्वार
धो डाले हैं इनको प्रियतम
इन आँखों से आँसू ढ़ार
अरुण किरण सम कर से छू लो
खोलो प्रियतम खोलो द्वार...

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7 टिप्पणियाँ:

कंचन सिंह चौहान on अगस्त 07, 2007 ने कहा…

छायावाद के चारों कवियों मे मुझे माहादेवी जी और रामकुमार जी का काव्य मिलता जुलता लगता है। अब आप द्वारा उद्धृत एक दीपक किरण कण हूँ को लीजिये मुझे महादेवी जी के गीत मैं नीर भरी दुःख की बदली और उक्त गीट मे साम्यता सी नज़र आती है। ये गजरे तारों वाले अपनी गेयता के कारण तब से भाता था जब इसके अर्थ की गहराई भी नही समझ में आती थी। परंतु ये दोनो ही कवि मुझे बचपन से ही पसंद है।
इनके विषय मे बात करने का मऔका देने के लिये आपको धन्यवाद और माँ को प्रणाम!

mamta on अगस्त 07, 2007 ने कहा…

बहुत-बहुत बढ़िया। आपके ब्लॉग पर हमेशा कुछ अलग ही पढने को मिलता है।

Udan Tashtari on अगस्त 07, 2007 ने कहा…

माता जी को हमारा नमन. राम कुमार वर्मा जी की कवितायें पढ़कर मन आनन्दित हो गया. बहुत आभार. कुछ ऑडियो भी डाला है क्या? चला नहीं.

अनूप शुक्ल on अगस्त 07, 2007 ने कहा…

बहुत अच्छे। आपके ब्लाग पर बहुत दिन का मसाला इकट्ठा हो गया पढ़ने के लिये और टिपियाने के लिये। रामकुमार वर्मा जी के बारे में लिखना हमारी पेंडिंग लिस्ट में आ गया।:)

ghughutibasuti on अगस्त 07, 2007 ने कहा…

इतनी अच्छी कविताएँ पढ़वाने के लिए धन्यवाद ।
घुघूती बासूती

Manish Kumar on अगस्त 08, 2007 ने कहा…

कंचन रामकुमार वर्मा जी की कोई रचना हमारी पाठ्य पुस्तक में नहीं थी। इसलिए मैं उन्हें महादेवी जी की तरह ज्यादा नहीं पढ़ पाया हूँ। कभी मौका लगे तो दोनों की रचनाओं के बारे में एक तुलनात्मक समीक्षा कीजिएगा।

Manish Kumar on अगस्त 08, 2007 ने कहा…

ममता जी शुक्रिया !

समीर जी उसी कविता को पढ़ कर रिकार्ड किया था। शायद कुछ बैंडविड्थ की समस्या की वजह से ना चल पाई हो।

अनूप जी जरूर उनके बारे में लिखें, हमारी जानकारी बढ़ेगी।

घुघुति जी आप को सबसे ज्यादा पसंद कौन आई ?

 

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