साठ सालों में हमने काफी तरक्की की है। विकास के नए नए मुक़ाम हासिल किये हैं और आगे भी करेंगे। फिर भी ये विकास समाज के सभी वर्गों तक एक रूप से नहीं पहुँच सका है। इसकी वजह सिर्फ पूंजीवादी नीतियों का होना है, ऍसा मैं नहीं मानता।
उससे ज्यादा गुनाहगार हैं इन नीतियों को कार्यान्वित करने वाले लोग जिनमें मानवीय संवेदना मर सी गई है। चाहे वो बाँध बनाने का प्रश्न हो या पिछड़े इलाकों में उद्योग लगाने का, हर बार इनका विरोध होने की वजह यही रही है कि लोग ये जान गए हैं कि इनके बदले सरकार द्वारा घोषित पुनर्वास, नौकरी आदि के वायदे क़ागज तक ही सीमित रहने वाले हैं। पुनर्वास में लगाया जाने वाला धन बंदरबांट के तहत कहाँ गायब हो जाता है वो आम जनता को कभी पता नहीं चलता।
गाँधी के इस देश में भ्रष्टाचार और हिंसा का ग़र बोलबाला है तो इसकी वजह सिर्फ इतनी है कि देश के कानून से इन लोगों को कोई भय नहीं है।
कहाँ गए गाँधी के मूल्य? बेचारे खुद गाँधी जी आज इंटरनेट पर चुटकुलों के किरदार हो गए हैं। हाल ही में समाचारपत्र में एक ऐसे ही चुटकुले का जिक्र था।
गाँधीजी,सलमान खाँ, मल्लिका और में क्या समानता है?
उत्तर था
एक ने कपड़े उतारे देश के लिए
दूसरे ने ऍश के लिए
और तीसरे ने कैश के लिए..
ये स्थिति हो गई है इस देश और राष्ट्रपिता की... :(
आज के इस समय में देशगान के लिए कैलाश गौतम जी की ये कविता सर्वथा उपयुक्त लगती है जो बापू को संबोधित है और कुछ दिनों पहले मोहल्ले पर भी आई थी।
सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्ही जी
देस बंटत हौ, जइसे हरदी धान बंटत हौ, गान्ही जी
बेर बिसवतै ररूवा चिरई रोज ररत हौ, गान्ही जी
तोहरे घर क' रामै मालिक सबै कहत हौ, गान्ही जी
हिंसा राहजनी हौ बापू, हौ गुंडई, डकैती, हउवै
देसी खाली बम बनूक हौ, कपड़ा घड़ी बिलैती, हउवै
छुआछूत हौ, ऊंच नीच हौ, जात-पांत पंचइती हउवै
भाय भतीया, भूल भुलइया, भाषण भीड़ भंड़इती हउवै
का बतलाई कहै सुनै मे सरम लगत हौ, गान्ही जी
केहुक नांही चित्त ठेकाने बरम लगत हौ, गान्ही जी
अइसन तारू चटकल अबकी गरम लगत हौ, गान्ही जी
गाभिन हो कि ठांठ मरकहीं भरम लगत हौ, गान्ही जी
जे अललै बेइमान इहां ऊ डकरै किरिया खाला
लम्बा टीका, मधुरी बानी, पंच बनावल जाला
चाम सोहारी, काम सरौता, पेटैपेट घोटाला
एक्को करम न छूटल लेकिन, चउचक कंठी माला
नोना लगत भीत हौ सगरों गिरत परत हौ गान्ही जी
हाड़ परल हौ अंगनै अंगना, मार टरत हौ गान्ही जी
झगरा क' जर अनखुन खोजै जहां लहत हौ गान्ही जी
खसम मार के धूम धाम से गया करत हौ गान्ही जी
उहै अमीरी उहै गरीबी उहै जमाना अब्बौ हौ
कब्बौ गयल न जाई जड़ से रोग पुराना अब्बौ हौ
दूसर के कब्जा में आपन पानी दाना अब्बौ हौ
जहां खजाना रहल हमेसा उहै खजाना अब्बौ हौ
कथा कीर्तन बाहर, भीतर जुआ चलत हौ, गान्ही जी
माल गलत हौ दुई नंबर क, दाल गलत हौ, गान्ही जी
चाल गलत, चउपाल गलत, हर फाल गलत हौ, गान्ही जी
ताल गलत, हड़ताल गलत, पड़ताल गलत हौ, गान्ही जी
घूस पैरवी जोर सिफारिश झूठ नकल मक्कारी वाले
देखतै देखत चार दिन में भइलैं महल अटारी वाले
इनके आगे भकुआ जइसे फरसा अउर कुदारी वाले
देहलैं खून पसीना देहलैं तब्बौ बहिन मतारी वाले
तोहरै नाम बिकत हो सगरो मांस बिकत हौ गान्ही जी
ताली पीट रहल हौ दुनिया खूब हंसत हौ गान्ही जी
केहु कान भरत हौ केहू मूंग दरत हौ गान्ही जी
कहई के हौ सोर धोवाइल पाप फरत हौ गान्ही जी
जनता बदे जयंती बाबू नेता बदे निसाना हउवै
पिछला साल हवाला वाला अगिला साल बहाना हउवै
आजादी के माने खाली राजघाट तक जाना हउवै
साल भरे में एक बेर बस रघुपति राघव गाना हउवै
अइसन चढ़ल भवानी सीरे ना उतरत हौ गान्ही जी
आग लगत हौ, धुवां उठत हौ, नाक बजत हौ गान्ही जी
करिया अच्छर भंइस बराबर बेद लिखत हौ गान्ही जी
एक समय क' बागड़ बिल्ला आज भगत हौ गान्ही जी
कुन्नूर : धुंध से उठती धुन
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आज से करीब दो सौ साल पहले कुन्नूर में इंसानों की कोई बस्ती नहीं थी। अंग्रेज
सेना के कुछ अधिकारी वहां 1834 के करीब पहुंचे। चंद कोठियां भी बनी, वहां तक
पहु...
5 माह पहले
16 टिप्पणियाँ:
स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनायें।
मनीष के भोजपुरी कवि थे चकाचक बनारसी। उनकी कविता की शुरुआती पंक्तियाँ हैं :
हर अदमी परेसान ,हर अदमी त्रस्त हओ ।
मार पटके के !जे कहे पन्द्रह अगस्त हओ।
60 साल की आज़ादी का सार है ये कविता। बार-बार पढ़ें, पढ़ाएं इसे। अपनी हक़ीक़त का पता चलता है।
कृपय़ा पहला वाक्य(पिछली टिप्पणी का) सुधार लें:'मनीष,बनारस के भोजपुरी कवि थे चकाचक बनारसी।'
वाकई दिल से निकले भाव हैं। :)
पुनः पढ़ी. उतनी ही सार्थक.
स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनायें।
मनीष मज़ा आ गया इस कविता को पढ़कर । और अफलातून भाई ने चकचक बनारसी की अच्छी याद दिलाई, उनकी रचनाएं पढ़ी नहीं हैं । कोई ये ज़हमत करे तो अच्छा लगे । कैलाश गौतम मुंबई के एक कवि सम्मेलन में आये और पहले दौर के आखिर में उनसे पढ़वाया गया, इसलिये ताकि बाकी कवि फ्लॉप ना हो जायें । यक़ीन मानिए । कैलाश जी ने जब ऐलान किया कि वो इसके बाद नहीं पढ़ेंगे स्थानीय कवि दूसरे दौर में पढ़ें, तो पूरा हॉल सूना-सा हो गया । इलाहाबाद से मुंबई तक कैलाश गौतम की मिट्टी की खुश्बू वाली कविताओं का ये असर रहा है । वे नहीं रहे । बहुत दुखद बात है ये । बड़ी सादा शख्सियत, मेरी पत्नी और उनके परिवार का इलाहाबाद में कैलाश जी से अच्छा खासा परिचय रहा है । ममता इलाहाबाद आकाशवाणी में भी कंपेयर रही हैं । ज़ाहिर है इन सबको कैलाश गौतम की कविताएं कंठस्थ हैं । फिर चाहे बड़की भौजी हो या अमावस्या का मेला ।
अफलातून जी सुन रहे हैं , स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं ।
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें!
अच्छा है। बहुत अच्छा लगा यह पोस्ट पढ़कर!
वर्तमान परिवेश पर अच्छा कटाक्ष्…
स्वतंत्रता दिवस पर शुभकामना…।
यथार्थ लेख ।
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें!
स्वतंत्र भारत की ६० वी साला गिरह आप को भी खुशी दे
इस शुभ कामना के साथ...
सा स्नेह -- लावान्या
एक तो स्वतंत्रता दिवस का मौसम, उस पर हमारी भोजपुरी का तड़का मन तो खुश होना ही था!
ये पोस्ट लिखने के बाद कार्यालय के दौरे पर १५ अगस्त को ही निकल गया था। कल ही लौटा तो आप सब की शुभकामनाएँ पढ़ीं। धन्यवाद !
अफलातून जी चकाचक बनारसी जी की कविता जरूर हम लोगों को पढ़वायें।
अविनाश सही कहा आपने !
यूनुस कैलाश गौतम जी के बारे में अपनी यादें ताज़ा करने का शुक्रिया !
धन्यवाद ऐसी सुंदर कविता और यादों के लिए.बहुत अच्छा काम है आपका.
चवन्नी जी कैलाश गौतम की ये रचना आपको अच्छी लगी जानकार खुशी हुई. आते रहे !
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