शुक्रवार, सितंबर 28, 2007

मधुशाला की चंद रुबाईयाँ हरिवंश राय बच्चन , अमिताभ और मन्ना डे के स्वर में...

पिछली पोस्ट की टिप्पणी में पंडित नरेंद्र शर्मा की पुत्री लावण्या जी ने 'मधुशाला' की रचना से जुड़ी एक बेहद रोचक जानकारी बाँटी है। लावण्या जी लिखती हैं
"......मधुशाला लिखने से पहले के समय की ओर चलें। श्यामा, डा.हरिवंश राय बच्चन जी की पहली पत्नी थीं जिसके देहांत के बाद कवि बच्चन जी बहुत दुखी और भग्न ह्र्दय के हो गये थे। तब इलाहाबाद के एक मकान में मेरे पापा जी के साथ कुछ समय बच्चन जी साथ रहे। तब तक बच्चन जी , ज्यादातर गद्य ही लिखते थे। पापा जी ने उन्हें "उमर खैयाम " की रुबाइयाँ " और फिट्ज़्जराल्ड, जो अँग्रेजी में इन्हीं रुबाइयों का सफल अनुवाद कर चुके थे, ये दो किताबें, बच्चन जी को भेंट कीं और आग्रह किया था कि
"बंधु, अब आप पद्य लिखिए " और "मधुशाला " उसके बाद ही लिखी गई थी।........"

'मधुशाला' की लोकप्रियता जैसे-जैसे बढ़ती गई हर कवि सम्मेलन में हरिवंश राय 'बच्चन' जी इसकी कुछ रुबाईयाँ सुनानी ही पड़तीं। मैंने सबसे पहले की कुछ रुबाईयाँ मन्ना डे की दिलकश आवाज़ में सुनी थी। उसी कैसेट में हरिवंश राय 'बच्चन' जी की आवाज में ये रुबाई सुनने का मौका मिला था। आप भी सुनें...



मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।

मन्ना डे की सधी आवाज़ में HMV पर रिकार्ड किया हुआ कैसेट तो आप सब सुन चुके ही होंगे। पर अमिताभ बच्चन की आवाज में 'मधुशाला' की पंक्तियाँ सुनने का आनंद अलग तरह का है। वो उसी लय में 'मधुशाला' पढ़ते हैं जैसे उनके पिताजी पढ़ते थे। और अमिताभ की आवाज़ तो है ही जबरदस्त। पीछे से बजती मीठी धुन भी मन में रम सी जाती है और बार-बार हाथ रिप्ले बटन पर दब जाते हैं। तो पहलें सुनें अमिताभ की आवाज में 'मधुशाला' की चंद रुबाईयाँ जो उन्होंने पिता के सम्मान में किए गए कवि सम्मेलन के दौरान सुनाईं थीं।




अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।

मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला ।

यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंतिम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।

मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला
मेरी जीह्वा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।

मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आँसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला।

और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राणप्रिये यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।
'मधुशाला' लिखने के बाद बच्चन जी ने कुछ रुबाईयाँ और लिखीं थी जिनमें से कुछ का जिक्र मैंने पिछली पोस्ट में किया था। वहीं अपनी टिप्पणी में संजीत ने जिस रुबाई का ज़िक्र किया है उसे सुनकर आँखें नम हो जाती हैं। बच्चन जी ने इसके बारे में खुद लिखा था...

".......जिस समय मैंने 'मधुशाला' लिखी थी, उस समय मेरे जीवन और काव्य के संसार में पुत्र और संतान का कोई भावना केंद्र नहीं था। अपनी तृष्णा की सीमा बताते हुए मृत्यु के पार गया, पर श्राद्ध तक ही

प्राणप्रिये यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।

जब स्मृति के आधार और आगे भी दिखलाई पड़े तो तृष्णा ने वहाँ तक भी अपना हाथ फैलाया और मैंने लिखा....

पितृ पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला। .........."

मन्ना डे ने बड़े भावपूर्ण अंदाज में इन पंक्तियों को अपना स्वर दिया है। सुनिए और आप भी संग गुनगुनाइए ....

गुरुवार, सितंबर 27, 2007

मधुशाला के लेखक हरिवंशराय 'बच्चन' क्या खुद भी मदिराप्रेमी थे ?

स्कूल में जब भी हरिवंशराय बच्चन की कविताओं का जिक्र होता एक प्रश्न मन में उठता रहता कि जिस कवि ने मदिरालय और उसमें बहती हाला पर पूरी पुस्तक लिख डाली हो वो तो अवश्य निजी जीवन में धुरंधर पीने वाला रहा होगा।

वैसे भी भला ऍसी रुबाईयों को पढ़कर हम और सोच भी क्या सकते थे?

लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।







संकोचवश ये प्रश्न कभी मैं अपने हिंदी शिक्षक से पूछ नहीं पाया। और ये जिज्ञासा, बहुत सालों तक जिज्ञासा ही रह गई....

वर्षों बाद दीपावली में घर की सफाई के दौरान पिताजी की अलमारी से दीमकों के हमले का मुकाबला करता हुआ इसका १९७४ में पुनर्मुद्रित पॉकेट बुक संस्करण मिला। और मेरी खुशी का तब ठिकाना नहीं रहा जब पुस्तक के परिशिष्ट में हरिवंशराय बच्चन जी को खुद बड़े रोचक ढंग से इस प्रश्न की सफाई देता पढ़ा।

तो लीजिए पढ़िए कि बच्चन जी का खुद क्या कहना था इस बारे में...

"...........मधुशाला के बहुत से पाठक और श्रोता एक समय समझा करते थे, कुछ शायद अब भी समझते हों, कि इसका लेखक दिन रात मदिरा के नशे में चूर रहता है। वास्तविकता ये है कि 'मदिरा' नामधारी द्रव से मेरा परिचय अक्षरशः बरायनाम है। नशे से मैं इंकार नहीं करूँगा। जिंदगी ही इक नशा है। और भी बहुत से नशे हैं। अपने प्रेमियों का भ्रम दूर करने के लिए मैंने एक समय एक रुबाई लिखी थी


स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुँचा देता मधुशाला।


फिर भी बराबर प्रश्न होते रहे, आप पीते नहीं तो आपको मदिरा पर लिखने की प्रेरणा कहां से मिलती है? प्रश्न भोला था , पर था ईमानदार। एक दिन ध्यान आया कि कायस्थों के कुल में जन्मा हूँ जो पीने के लिए प्रसिद्ध है, या थे। चन्द बरदाई के रासो का छप्पय याद भी आया। सोचने लगा, क्या पूर्वजों का किया हुआ मधुपान मुझपर कोई संस्कार ना छोड़ गया होगा! भोले भाले लोगों को बहलाने के लिए एक रुबाई लिखी

मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।

पर सच तो यह है कि हम लोग अमोढ़ा के कायस्थ हैं जो अपने आचार-विचार के कारण अमोढ़ा के पांडे कहलाते हैं, और जिनके यहाँ यह किवदंती है कि यदि कोई शराब पिएगा तो कोढ़ी हो जाएगा। यह भी नियति का एक व्यंग्य है कि जिन्होंने मदिरा ना पीने की इतनी कड़ी प्रतिज्ञा की थी, उनके ही एक वंशज ने मदिरा की इतनी वकालत की।................."

बाद में जब पूरी पुस्तक पढ़ी तो लगा मदिरालय और हाला को प्रतीक बनाकर बच्चन ने जीवन के यथार्थ को कितने सहज शब्दों में व्यक्त किया है। अगली पोस्ट में चलेंगे मधुशाला की कुछ रुबाईयों के संगीतमय सफ़र पर...

बुधवार, सितंबर 26, 2007

टवेन्टी-टवेन्टी विश्व कप: हो गयी अनहोनी...जिताकर ले आया धोनी

१९८३ में वेस्टइंडीज के खिलाफ मात्र १८३ रन बनाने के बाद हम सब बच्चे अपने पड़ोसी के श्वेत श्याम टीवी को छोड़ निराश मन से शाम को अपने अपने घर लौट आए थे। साठ ओवरों में उस वक़्त की विश्व विजेता टीम वेस्टइंडीज ये रन संख्या नहीं पार कर पाएगी, ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था और उस रात भरे मन से सो गए थे। पर अगली सुबह का अखबार कुछ और ही कहानी कह रहा था। उस मैच को लाइव ना देख पाने का दुख कई वर्षों तक सालता रहा ।

इसीलिए, २४ सालों बाद विश्व कप के किसी फाइनल को टीवी पर लाइव देखने का विशेष रोमांच तो था ही, पर साथ ही ये भी लग रहा था कि इस बार भाग्य भी हमारी टीम के साथ है। सच पूछें तो कल के फाइनल से कहीं ज्यादा आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान के साथ इस प्रतियोगिता में पहले हुए मैच का मैंने जम के आनंद उठाया था।

कल तो शुरु से ही एक अज़ीब किस्म के तनाव ने मन में घर कर लिया था। खेल की ऊँच-नीच के साथ तनाव तो घटता बढ़ता गया पर भज्जी की गेदों पर मिसबा उल हक ने जिस तरह छक्के लगाए और हमारे भज्जी जिस तरह छक्के लगने के बाद भी यार्कर लेंथ की बॉल को फेंकने का असफल प्रयास करते रहे , ये तनाव अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया।

अंतिम ओवर के फेंके जाने के समय जब हम सब का गला सूख रहा था तो भला जोगिंदर शर्मा की क्या बिसात। भाई जी ने पहली बार में विकेट से एक हाथ के बजाए चार हाथ बाहर की गेंद डाली तो बस शुष्क मन से यही निकला
"सही जा रहे हो बेटा.."

कप्तान साहब अगली गेंद पर ना जाने क्या कह आए कि पहली बार तो जोगिन्दर मिस्बा को आफ स्टंप के बाहर छकाने में कामयाब हुए पर ओवर की दूसरी गेंद पर शर्मा जी ने एक ऐसा हाई फुलटॉस फेंका जिसे देखते ही कलेजा मुँह को आ गया। फिर भी हक के बल्ले से जब
शॉट निकला तो मुझे ऐसा लगा की ये तो लांग आफ पर ही आ रहा है। पर वो नामुराद, आखिरकार छक्का निकला।
अब चार गेंदों में छः रन....
अंत तो आ ही गया था. प्रश्न सिर्फ ये था कि वो कितनी जल्दी या कितनी देर से आता है।
मुझे यकीं हैं कि मेरी क्या, मेरे सारे देशवासियों के चेहरे के मनोभाव इन हालातों में ऍसे व्यक्ति के ही रहे होंगे जिसका सब कुछ लुट चुका हो।
तीसरी गेंद पर मिस्बा का बैक स्कूप मुझे तो सीमा के बाहर जाता दिखा क्यूँकि दो सेकेंड तक श्रीसंत कहीं भी फ्रेम
में नजर नहीं आ रहे थे। इधर श्रीसंत ने कैच लिया और उधर हमारे बेज़ार पड़े दिल में उमंगों की मुरझाई कोपलें एकदम से फूट पड़ीं।
वैसे ये पूरी दास्तां इस वीडियो में भी नज़र आएगी


ये असली मायने में टीम इंडिया की जीत थी। इस पूरी प्रतियोगिता में किसी ना किसी मैच मे खेलने वाले हर खिलाड़ी ने जीत में अपना योगदान दिया। ये जीत छोटे-छोटे शहरों से आने वाले खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा पुंज का काम करेगी इसमें कोई शक नहीं।
चाहे वो केरल जैसे क्रिकेट में कमजोर राज्य के श्रीसंत हों या हरियाणा के जोगिंदर शर्मा, राजनीति का गढ़ रही रायबरेली के रुद्र प्रताप सिंह हों या बड़ौदा के पठान बंधु.....इन खिलाड़ियों ने ये दिखा दिया है कि छोटे-छोटे शहरों में रहने वाले भी बड़े सपने देख सकते हैं ..उन्हें साकार कर सकते हैं। अब हमारे शहर राँची से ताल्लुक रखने वाले भारतीय टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धौनी (जो धोनी के नाम से ज्यादा मशहूर हैं) की ही बात करें।

धोनी खुद एक निम्न मध्यम वर्ग परिवार से आते हैं। वे हमारी घर के बगल की कॉलोनी श्यामली में रहते हैं। जब वे डी.ए.वी. श्यामली में थे तो पहले फुटबॉल के खेल में बतौर गोलकीपर हुआ करते थे। स्कूल के प्रशिक्षक ने उन्हें गोलकीपर से स्कूल की टीम का विकेट कीपर बना दिया। शीघ्र ही विकेटकीपर के साथ साथ लंबे छक्के मारने वाले खिलाड़ी के रूप में वो झारखंड में जानें जाने लगे। रणजी ट्राफी में एक दूसरे दर्जे की टीम बिहार का प्रतिनिधित्व करने के बावज़ूद उन्होंने देश के लिए खेलने की आशा नहीं छोड़ी। और मौका मिलते ही इतने कम समय में देखिए, वो खुद और पूरी टीम को किस मुकाम तक ले गए हैं।

राँची में तीन दिनों से लगातार बारिश हो रही है। पर जीत की खबर मिलते ही, बारिश में भी कल रात से धोनी के घर के बाहर भारी भीड़ जुटी हुई है। जश्न अभी तक थमा नहीं है...और इसकी पुनरावृति देश के हर कस्बे, हर ग्राम और शहर में हो रही होगी। अपने शहर के इस सुपूत के नेतृत्व में टीम के सारे खिलाड़ियों ने जिस एकजुटता के साथ संघर्ष करते हुए विजय प्राप्त की और देशवासियों को खुशियों के ये हसीन पल दिये वो पूरा देश हमेशा याद रखेगा।

पिछले कुछ महिने खेल के लिए अच्छे जा रहे हैं। पहले हॉकी का एशिया कप, फिर फुटबॉल का नेहरू कप और अब टवेन्टी-टवेन्टी विश्व कप की जीत 'चक दे इंडिया' का सही समां बाँधती नज़र आ रही है।

तो लगे रहो इंडिया तुमसे आगे भी ऐसी और कई उम्मीदें हैं......


(सभी चित्र साभार cricinfo.com)

रविवार, सितंबर 23, 2007

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की कविता : ब्रह्म से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है....

आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' का जन्मदिन है। दिनकर का जन्म २३ सितंबर १९०८ में बिहार के सिमरिया नामक ग्राम में हुआ था। सो जन्मदिन के साथ-साथ ये उनका जन्मशती वर्ष भी है। बचपन से वो मेरे सबसे प्रिय कवि रहे हैं। मुझे याद है कि छठी से दसवीं तक जब भी हिंदी की नई पाठ्य पुस्तक मिलती थी, तो सबसे पहले मैं ये देखता था कि कविता वाले भाग में दिनकर की कोई कविता है या नहीं। उनकी कविता को कभी मन ही मन नहीं पढ़ा जाता था। बार बार पढ़ते और वो भी जोर जोर से बोल के जैसे खुद की ही कविता हो। जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा के छायावादी रहस्यों को समझने की उम्र नहीं थी पर दिनकर की पंक्तियाँ ना केवल बड़ी आसानी से कंठस्थ हो जाती थीं बल्कि वे मन में एक ऐसा ओज भर देती थीं जिसका प्रभाव कविता की आवृति के साथ बढ़ता चला जाता था।

पहली बार छठी कक्षा में उनका किया इस प्रश्न ने मन में हलचल मचा दी थी

दो में से तुम्हें क्या चाहिए ?
कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव
या तन में शक्ति अजय आपार !

तो वहीं सातवीं या आठवीं में शक्ति और क्षमा पढ़ने के बाद उनकी काव्य शैली ने मुझे पूरी तरह मोहित कर दिया था

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो


पूरी कविता आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

दसवीं की परीक्षा में इन पंक्तियों का भावार्थ लिखते वक़्त लगा ही नहीं था कि इसके लिए कुछ अलग से याद करना पड़ा हो..

रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर लौटा हमें गांडीव गदा
लौटा दे अर्जुन भीम वीर


आज उनकी एक और अच्छी कविता पढ़ी। पता नहीं ये पूर्ण है या नहीं, पर इसकी पंक्तियाँ मन को छू गईं।
सब हो सकते तुष्ट एक सा 
सब सुख पा सकते हैं 
चाहें तो , पल में  धरती को 
स्वर्ग बना सकते हैं

छिपा दिये सब  तत्त्व आवरण 
के नीचे  ईश्वर  ने 
संघर्षों  से खोज निकाला 
उन्हें उद्यमी  नर ने 
 
ब्रह्म से कुछ लिखा भाग्य में
मनुज नहीं लाया है
अपना सुख उसने अपने
भुजबल से ही पाया है

प्रकृति नहीं डरकर झुकती है
कभी भाग्य के बल से
सदा हारती वह मनुष्य के
उद्यम से, श्रमजल से


भाग्यवाद  आवरण पाप का 
और शस्त्र  शोषण का ,
जिससे रखता  दबा  एक जन 
भाग दूसरे जन का । 

पुछो किसी भाग्यवादी से 
यदि विधि अंक प्रबल है 
पद  पर क्यों देती न स्वयं 
वसुधा निज रत्न उगल है ? 

उपजाता क्यों विभव प्रकृति को 
सींच -सींच वह जल से ? 
क्यों न उठा लेता निज  संचित 
कोष भाग्य  के बल से । 

और मरा  जब पूर्व जन्म में 
वह धन संचित  करके 
विदा हुआ था न्यास समर्जित
किसके घर में  धर  के । 

जन्मा  है वह जहां , आज 
जिस पर उसका शासन है 
क्या है यह  घर वही ? और 
यह उसी न्यास का धन है ? 

यह भी पूछो  , धन जोड़ा 
उसने जब प्रथम -प्रथम था 
उस संचय के पीछे तब 
किस भाग्यवाद  का क्रम था ? 

वही मनुज के श्रम का शोषण 
वही अनयमय  दोहन ,
वही मलिन  छल नर - समाज से 
वही ग्लानिमय  अर्जन । 

एक मनुज संचित करता है 
अर्थ पाप के बल से , 
और भोगता उसे दूसरा 
भाग्यवाद  के छल से । 

नर - समाज  का भाग्य  एक है 
वह श्रम , वह भुज - बल है , 
जिसके सम्मुख  झुकी हुई 
पृथिवी, विनीत  नभ - तल है । 

जिसने श्रम जल दिया , उसे 
पीछे मत रह जाने दो , 
विजित  प्रकृति  से सबसे पहले 
उसको सुख पाने दो । 

जो कुछ न्यस्त प्रकृति में  है , 
वह मनुज मात्र का धन है , 
धर्मराज , उसके कण -कण  का 
अधिकारी जन - जन है ।


पूज्यनीय को पूज्य मानने
में जो बाधाक्रम है
वही मनुज का अहंकार है
वही मनुज का भ्रम है

रामधारी सिंह 'दिनकर'

शनिवार, सितंबर 22, 2007

'बुल्ला कि जाणां मैं कौण': आख़िर क्यूँ खींचता है ये गीत अपनी ओर ?

पिछली पोस्ट में बात हो रही थी रब्बी शेरगिल के गीत तेरे बिन.. की। आज कुछ बातें उनके सबसे लोकप्रिय नग्मे 'बुल्ला कि जाणां मैं कौण' की। क्या आप मानेंगे कि इस हृदय को छू लेने वाली इस सूफी धुन को बनने और बाज़ार तक पहुंचने में ५ साल लग गए। २००० में रब्बी को 'तहलका' ने लांच करने का अनुबंध किया पर अगस्त २००१ में बंगारू लक्ष्मण वाले स्टिंग आपरेशन ने 'तहलका' की नींव हिला दी। २००२ में मैग्नासाउंड ने उनके एलबम में दिलचस्पी लेनी शुरु की पर २००३ तक वो कंपनी ही खत्म हो गई। आखिरकार एक नई कंपनी फैटफिश रिकार्ड ने २००४ में रब्बी से करार किया तब जाकर २००५ में ये गीत संगीत प्रेमियों के दिल की आवाज़ बन सका। इससे ये बात साफ हो जाती है कि सिर्फ प्रतिभा ही आपको मंजिल तक नहीं पहुँचाती। साथ ही साथ भाग्य की लकीर भी होनी चाहिए आपके हाथों में..

एक रोचक तथ्य ये भी है कि रब्बी का ये गीत हम सबको ही नहीं पर अमिताभ बच्चन को भी बेहद पसंद है। तहलका की एक बोर्ड मीटिंग में ये गीत उसके निर्देशकों के बीच वितरित हुआ। बाद में तहलका के लोगों को श्वेता बच्चन ने बताया कि पिताजी की गाड़ी में लगातार ये गीत बजता रहता है।

पर आख़िर क्या खास है इस गीत में? क्यूँ खींचता है ये हम सबको अपनी ओर? शायद इस प्रश्न की वज़ह से जो जिंदगी के किसी ना किसी मुक़ाम पर हम सबको मथता ही रहा है

बुल्ला कि जाणां मैं कौन?

जिंदगी के उन रुके ठहरे लमहों में आपने क्या ये कभी नहीं सोचा..
अपने बारे में..अपनी पहचान के बारे में ?
इस दुनिया में आने के अपने मक़सद के बारे में ?
जरूर सोचा होगा और पाया होगा कि हमने अपने आप को बाँट रखा है इस पहचान के नाम पर
देश, धर्म, शहर , भाषा, जाति के छोटे छोटे खानों में..
ये जानते हुए भी कि इन बंद ख़ानों में अपने आप को समेट कर जीना सही नहीं फिर भी इनसे निकलने की कोशिश नहीं करते हम..
शायद हम लड़ना नहीं चाहते समाज के बनाए इन खोखले दायरों और दीवारों से..आखिर एक कनफर्मिस्ट हो कर जीना इतना आसान जो है ...



अठारहवीं सदी के सूफी कवि बुल्ले शाह भी इंसान द्वारा बनाए गए इन निरर्थक हिस्सों की ओर इशारा करते हुए हमें इनसे ऊपर उठने की बात बताते है्।खुद रब्बी इस गीत के बारे में कहते हैं

"...Bulla Ki Jana is all about us not knowing who we are, of thinking of life in terms of boxes, until we are enlightened. And then, you realise how meaninglessly you’ve compartmentalised life....”

तो चलिए एक बार फिर से मेरे साथ इस गीत के सफ़र पर इसके बोलों को समझते हुए। शाब्दिक अर्थों में सीधे ना जाकर मैंने कवि के भावों को पढ़ने की कोशिश की है। अनजाने में हुई त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।

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बुल्ला कि जाणां मैं कौन ?

ना मैं मोमिन विच मसीताँ
ना मैं विच कुफ्र दियां रीताँ
ना मैं पाकां विच पलीताँ
ना मैं अन्दर वेद किताबाँ
ना मैं रहदाँ भंग शराबाँ
ना मैं रिंदाँ मस्त खराबाँ
ना मैं शादी ना ग़मनाकी
ना मैं विच पलीति पाकी
ना मैं आबी ना मैं खाकी
ना मैं आतिश ना मैं पौण
बुल्ला कि जाणां मैं कौन ?

ना मेरी मस्जिद में आस्था है, ना व्यर्थ की पूजा पद्धतियों में। ना मैं शुद्ध हूँ ना मैं अशुद्ध। मैं धर्मग्रंथों को पढ़ने की इच्छा नहीं रखता । ना ही मुझे भांग या शराब की लत है और ना ही उनका सा मतवालापन । ना तुम मुझे पूर्णतः स्वच्छ मानो, ना ही गंदगी से भरा हुआ। ना जल, ना थल, ना अग्नि ना वायु , मेरा जन्म इन सबसे कहीं परे है..एक अनजाने रहस्य से गुथा हुआ......

ना मैं अरबी ना लहोरी
ना मैं हिन्दी शहर नगौरी
ना हिन्दु ना तुर्क पेशावरी
ना मैं भेद मज़हब दा पाया
ना मैं आदम हव्वा जाया
ना मैं अपणा नाम कराया
आव्वल आखिर आप नूँ जाणां
ना कोइ दूजा होर पहचाणां
मैं थों होर न कोई सियाणा
बुल्ला शाह खडा है कौण

बुल्ला कि जाणां मैं कौन?


मुझे देश, भाषा और धर्म की सरहदों में मत बाँटों। ना मैं अरब का हूँ, ना लाहौर का,. ना नगौर मेरा शहर हे ना हिंदी मेरी भाषा। ना तो मैं हिंदू हूँ, ना पेशावरी तुर्क। ना मुझे धर्मों का तत्त्व ज्ञान है ना मैं दावा करता हूँ कि मैं आदम और हव्वा की संतान हूँ। ये जो मेरा नाम है वो ले कर इस दुनिया में मैं नहीं आया । मैं पहला था, मैं ही आखिरी हूँ। ना मैंने किसी और को जाना है ना मुझे ये जानने की जरूरत है। गर अपने होने का सत्य पहचान लूँ तो फिर मुझ सा बुद्धिमान और कौन होगा?

ना मैं मूसा न फरौन.
ना मैं जागन ना विच सौण
ना मैं आतिश ना मैं पौण
ना मैं रहदां विच नादौण
ना मैं बैठां ना विच भौण
बुल्ला शाह खडा है कौण
बुल्ला कि जाणां मैं कौन


ना तो मैं मूसा हूँ और ना ही फराओ । ना तो मैं अग्नि से और ना ही हवा से पैदा हुआ हूँ। मुझे तो ये खुद भी पता नहीं कि मैं जागृत अवस्था में हूँ या निंदासा, रुका हुआ हूँ ये कालांतर से चलता जा रहा हूँ। ना मेरा कोई शहर है । सच तो ये है कि मैं बुल्ले शाह आज तक अपने अक्स की तालाश में हूँ।
इस गीत का वीडियो आप यहाँ देख सकते हैं।

मंगलवार, सितंबर 18, 2007

रब्बी शेरगिल : तेरे बिन, सन सोणिया कोई होर नहीं ओ लभना...सुनिए इस पंजाबी गीत को हिंदी अनुवाद के साथ...

पश्चिमी रॉक , लोक संगीत और सूफ़ियाना बोल का मिश्रण सुनने में आपको कुछ अटपटा सा नहीं लगता। ज़ाहिर है जरुर लगता होगा। मुझे भी लगा था जब मैंने इस नौजवान को नहीं सुना था। पर 2005 में जब मैंने 'बुल्ला कि जाणा मैं कौन' सुना तो रब्बी शेरगिल की गायिकी का मैं कायल हो गया। आज, बुल्ले शाह के सूफी लफ़्जों को गिटार के साथ इतने बेहतरीन ढ़ंग से संयोजित कर प्रसिद्धि पाने वाले रब्बी शेरगिल किसी परिचय के मुहताज़ नहीं हैं। आज की तारीख़ में उनके पास प्रशंसकों की अच्छी खासी जमात है। पर रब्बी को ये शोहरत आसानी से नहीं मिली।

सितंबर १९८८ में ब्रूस स्प्रिंगस्टीन के कान्सर्ट में संगीत को अपना पेशा चुनने की ख़्वाहिश रखने वाले रब्बी सत्रह साल बाद अपना खुद का एलबम निकालने का सपना पूरा कर पाए। ख़ैर बुल्ला ..के बाजार में पहुँचने की दास्तान तो अपने आप एक पोस्ट की हकदार है, वो बात कल करेंगे। आज चर्चा करेंगे रब्बी के गाए इस गीत की जिसे एक बार सुन कर ही मन प्रेमी के शब्दों की मासूमियत में बहता चला जाता है। अब देखिए ना, पंजाबी मेरी जुबान नहीं फिर भी इस गीत के बोल, पंजाब की मिट्टी की ख़ुशबू मेरे इर्द गिर्द फैला ही जाते हैं।

अब भला एक अच्छे च्यक्तित्व के स्वामी, गिटार के इस महारथी को पंजाबी में गाने की कौन सी जरुरत आन पड़ी? रब्बी इस प्रश्न का जवाब कुछ यूं देते हैं....

"...हम जाट सिख लोगों को अपनी भाषा पर गर्व है। वो मेरे ज़ेहन से नहीं निकल सकती। दूसरी भाषा में सोचने का मतलब उसकी श्रेष्ठता को स्वीकार कर लेना होगा। वैसे भी अंग्रेजी में गाकर मुझे दूसरे दर्जे का रॉक सिंगर नहीं बनना। मैं कभी भूल नहीं सकता कि मैं कौन हूँ. ....."

काश हमारे हिंदी फिल्मों के कलाकार भी अपनी भाषा के बारे में ये सोच रखते!

खैर रब्बी की आवाज, उनके खुद के लिखे बोल, अंतरे के बीचों-बीच में गिटार की मधुर बंदिश इस गीत में खोने के लिए काफ़ी हैं। तो लीजिए इस गीत का आनंद उठाइए।क्या कहा पंजाबी नहीं आती !

गीत का दर्द तो आप इसकी भाषा जाने बिना भी महसूस कर सकेंगे पर आपकी सुविधा के लिए इस गीत का हिंदी अनुवाद भी इसके बोल के साथ साथ देने की कोशिश की है।

तेरे बिन, सन सोणिया
कोई होर नहींऽओ लभना
जो देवे, रुह नूँ सकून
चुक्के जो नखरा मेरा

तुम्हारे सिवा इस दुनिया में मूझे कोई और पसंद नहीं। तुम्हारे आलावा कौन है जो मेरे नखरे सहे और जिस का साथ दिल को सुकून दे सके?

मैं सारे घूम के वेखिया, अमरीका, रूस, मलेशिया
ना किते वी कोई फर्क सी, हर किसे दी कोई शर्त सी
कोई मंगदा मेरा सी समा, कोई हूंदा सूरत ते फ़िदा
कोई मंगदा मेरी सी वफा, ना कोई मंगदा मेरियां बला
तेरे बिन, होर ना किसे, मंगनी मेरियां बला
तेरे बिन, होर ना किसे, करनी धूप विच छां
तेरे बिन, सन सोणिया...


मैंने कहाँ कहाँ घूम कर नहीं देखा, अमरीका हो या रूस, या फिर मलेशिया। कहीं कोई फर्क नहीं है, सारे मतलबी हैं। सबकी कोई ना कोई शर्त है। कोई मेरा समय चाहता है तो कोई मेरे रूप पर मोहित है। किसी को वफादारी का वादा चाहिए। पर मेरी कमियाँ... वो तो कोई नहीं लेना चाहता....सिवाय तेरे। इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि तुम मेरे लिए जिंदगी की इस कड़ी धूप में एक ठंडी छाँह की तरह हो।

जीवैं रुक्या  सी तू ज़रा, नहींo भूलणा मैं सारी उमर
जीवें अखियाँ सी अक्खयाँ चुरा, रोवेंगा सानू याद कर
हँस्या सी मैं हँसा अज़ीब, पर तू नहीं सी हँस्या
दिल विच तेरा जो राज सी, मैंनू तू क्यूँ नहीं दसया
तेरे बिन, सानू एह राज, किसे होर नहींऽओ दसना
तेरे बिन, पीड़ दा इलाज, किस बैद कोलों लभना
तेरे बिन, सन सोणिया...

मैं जीवन भर भूल नहीं सकता वो दिन..जिस तरह तुम हौले से रुकी थी और मुझसे आँखे चुराते हुए कहा था कि मेरी याद तुम्हें रुलाएगी। इक अज़ीब सी हँसी हंसा था मैं पर तुम तो नहीं हँसी थी। तुमने क्यूँ नहीं कहा कि तुम्हारे दिल मे वो प्यारा सा राज नज़रबंद है। भला बताओ तो तुम्हारे आलावा ये राज मुझे कौन बता सकता है? तुम्हारे बिना वो कौन सा वैद्य है जो मेरे दिल का इलाज कर सकता है?

मिलिआँ सी अज्ज मैनू.. तेरा इक पत्रां
लिखिआ सी जिस तै, तुन शेर वारे शाह दा
पढ़ के सी ओस्नूँ, हांन्जू इक दुलिया
आँखांच बंद सी, सेह राज अज्ज खुलिया
कि तेरे बिन, एह मेरे हांन्जू, किसे होर नहींऽओ चुमना
कि तेरे बिन, एह मेरे हांन्जू मिट्टी विच रुंदणा

मुझे आज ही तेरा लिखा वो ख़त मिला जिसमें तूने वारिस शाह का वो शेर लिखा था। उसे पढ़कर अनायास ही आँसू का एक कतरा नीचे ढलक पड़ा वो राज खोलता हुआ जो मेरी आँखों मे अर्से से बंद था.। अब मेरे इन आँसुओं को तुम्हारे सिवा कोई और नहीं चूमेगा। सच तो ये है कि तुम्हारे बिना मेरे लिए इन आँसुओं को मिट्टी की गर्द फाँकना ही बेहतर है।

तेरे बिन, सन सोणिया
कोई होर नहींऽओ लभना
जो देवे, रुह नूँ सकून
चुक्के जो नखरा मेरा

इस गीत को दिल्ली हाइट्स में जिमी शेरगिल और नेहा धूपिया पर फिल्माया गया है। साथ-साथ रब्बी तो हैं ही..





अगली पोस्ट में बात करेंगे रब्बी के सबसे लोकप्रिय गीत की जिसे रिलीज होने से पहले सुना अमिताभ बच्चन और वी. एस. नएपाल जैसी नामी हस्तियों ने और एक बार सुन कर ही वे इस गीत में खो गए..

क्या आप भी करते हैं रेडिओ से प्यार ?

बचपन से किशोरावस्था तक रेडिओ मेरे जीवन का अभिन्न अंग रहा है। बीबीसी वर्ल्ड सर्विस का Sports Round Up हो या रेडिओ सीलोन की सिबाका गीत माला , विविध भारती का हवा महल हो या आकाशवाणी पटना का खदेड़न को मदर... ये सब के सब कार्यक्रम एक समय में हमारी दिनचर्या का हिस्सा होते थे। और शायद ऐसे ही कुछ कार्यक्रम आपके भी पसंदीदा रहे होंगे...

रेडियो से जुड़ी यादों और आज के समय में उसके महत्त्व पर विचारों को बाँटने के लिए एक सामूहिक चिट्ठा बनाया गया है रेडियोनामा । आप भी उससे जुड़ सकते हैं बशर्ते रेडियो ने आपके जीवन को भी किसी ना किसी रूप में छुआ हो और आप अपने विचारों को हम सब के साथ बाँटने को इच्छुक हों।

इसी सिलसिले में १९७९ के ओवल क्रिकेट टेस्ट के दौरान आँखों देखा हाल सुनाने वाले सुशील दोशी से जुड़ी कुछ यादें बाँटी हैं मैंने रेडियोनामा पर जो आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

बुधवार, सितंबर 12, 2007

दर्द रुसवा ना था ज़माने में...इब्ने इंशा

जालंधर में जन्मे पाकिस्तान के मशहूर शायर इब्ने इंशा की शायरी से सबसे पहला परिचय जगजीत जी की गायी उनकी ग़ज़ल...

"कल चौदहवीं की रात थी..शब भर रहा चरचा तेरा
कुछ ने कहा ये चाँद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा..."


....से हुआ था, जो विविध भारती के रंग-तरंग कार्यक्रम में बारहा सुनने को मिला करती थी और पूरे घर भर को खूब पसंद भी आती थी।

पिछले हफ्ते इंटरनेट की दुनिया से दूर जब पटना की यात्रा पर था तो फुर्सत के क्षणों में डॉयरी के पन्नों में उनकी लिखी ये बेहतरीन नज़्म दिख गई तो सोचा इसे आपसे बाँटता चलूँ..

किसी से नेह हो तो उसके बारे में चिंता होती है..
उसे परेशानी में देख कर दिल भर भर आता है..
और उससे कई दिनों तक बात ना हो तो सब कुछ अनमना सा लगने लगता है..
पर रिश्ते के बीच का ये दर्द काफ़ूर हो जाए तो ...
तो समझ लीजिए, अब वो बात नहीं रही।

इंशा जी की ये नज़्म इसी अहसास को बड़ी खूबसूरती से इन लफ़्जों में बयाँ करती है।

दर्द रुसवा ना था ज़माने में
दिल की तन्हाईयों में बसता था
हर्फ-ए-नागुफ्तां था फ़साना-ए- दिल

एक दिन जो उन्हें खयाल आया
पूछ बैठे उदास क्यूँ हो तुम
यूँ ही ..! मुस्कुरा के मैंने कहा
देखते देखते, सर-ए-मिज़हगाँ*
एक आंसू मगर ढ़लक आया...

(पलकों की कोरों से*)

इश्क नीरस था, ख़ामक़ार था दिल
बात कुछ भी ना थी मगर हमदम
अब मोहब्बत का वो नहीं आलम

आप ही आप सोचता हूँ मैं
दिल को इल्जाम दे रहा हूँ मैं
दर्द बेवक़्त हो गया रुसवा
एक आँसू था पी लिया होता...

इश्क़ तौक़ीर* खो गया उस दिन
हुस्न मुहतात** हो गया उस दिन
हाए क्यूँ बेक़रार था दिल...


(*सम्मान, **बेफिक्री खो देना )

बुधवार, सितंबर 05, 2007

यादें किशोर दा की: वो कल भी पास-पास थे, वो आज भी करीब हैं ..समापन किश्त

जैसा कि पिछले वीडियो में लीना जी ने कहा कि किशोर कहते थे कि मरने के बाद भी लोग मेरे बारे में बातें करेंगे। और देखिए अपने मरने के बीस सालों के बाद भी वो हमारी यादों में अजर अमर हैं बहुत कुछ खामोशी फिल्म में उनके गाए हुए इस गीत की तरह जो मेरी इस श्रृंखला का प्रथम पायदान का गीत है।



विधाता ने कितने ही मोहक रंगों को समाहित कर ये प्रकृति बनाई। भोर से अर्धरात्रि तक फिज़ा के कितने रूप आते हैं और अपनी उपस्थिति से हमारा मन मोह लेते हैं। ऍसा ही एक रूप है शाम का जिससे बचपन से ही मेंने सबसे ज्यादा प्रीति कर ली है। जीवन के कितने यादगार पल इसी बेला में घटित हुए हैं और यही वज़ह हे कि मेरे चिट्ठे के नाम में भी शाम का जिक़्र है। फिर आप ही बताइए कि मेरा सर्वाधिक प्रिय गीत शाम से जुदा कैसे हो सकता है ?

यूँ तो हेमंत दा के संगीत और मेरे प्रिय गीतकार गुलज़ार के अद्भुत संगम से बनी खामोशी के सारे गीत लाजवाब हैं। पर बात अगर किशोर दा की हो तो ये गीत मेरे ज़ेहन में सबसे पहले उभरता है। इस गीत के उदास उदास बोल और धुन का ठहराव मन में यूँ चिपकता है कि लगता है कि इसमें अपने ही दर्द की प्रतिध्वनि तो नहीं। किशोर की बेमिसाल गायकी आपको उस अहसास से गीत सुनने के बाद भी काफी देर तक निकलने नहीं देती।
हर बार की तरह इसे गुनगुनाने का मेरा प्रयास...

wo shaam.mp3


वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है
वो कल भी पास पास थी, वो आज भी करीब है


झुकी हुई निगाह में, कहीं मेरा ख़याल था
दबी दबी हँसीं में इक, हसीन सा सवाल था
मैं सोचता था, मेरा नाम गुनगुना रही है वो
न जाने क्यूँ लगा मुझे, के मुस्कुरा रही है वो
वो शाम कुछ अजीब थी ...


मेरा ख़याल हैं अभी, झुकी हुई निगाह में
खुली हुई हँसी भी है, दबी हुई सी चाह में
मैं जानता हूँ, मेरा नाम गुनगुना रही है
वो यही ख़याल है मुझे, के साथ आ रही है वो


वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है
वो कल भी पास पास थी, वो आज भी करीब है


लीजिए सुनिए किशोर की आवाज़ में ये गीत


खामोशी फिल्म में ये गीत राजेश खन्ना, धर्मेन्द्र और वहीदा रहमान पर बेहद खूबसूरती से फिल्माया गया था।



ये तो थे मेरी पसंद के दस गीत पर बिना ये बताए कि किशोर दा को अपने श्रेष्ठ गीत कौन से लगते थे, ये श्रृंखला अधूरी रह जाएगी
  1. दुखी मन मेरे..., 'फंटूश' से
  2. गमग जगमग करता निकला......,'रिमझिम' से
  3. हुस्न भी है उदास उदास...., 'फ़रेब' से
  4. चिंगारी कोई भड़के..., 'अमरप्रेम' से
  5. मेरे नैना सावन भादो....., 'महबूबा' से
  6. कोई हम दम ना रहा...., 'झुमरू' से
  7. मेरे महबूब क़यामत होगी... , 'मिस्टर X इन बॉम्बे से'
  8. कोई होता जिसको अपना...., 'मेरे अपने' से
  9. वो शाम कुछ अज़ीब है...., 'खामोशी' से
  10. बड़ी सूनी सूनी है...., 'मिली' से


नौ भागों की इस श्रृंखला में मैंने किशोर के जीवन के अधिक से अधिक पहलुओं को आपके सामने लाने की कोशिश की है। मेरे इस प्रयास में अगर कोई तथ्यात्मक त्रुटि रह गई हो तो जरूर अवगत कराईएगा। जैसा कि मेंने पहले भी कहा हे कि ये एक महान कलाकार के प्रति, जिसने संगीत की ओर मुझे उन्मुख कराया, मेरी एक छोटी सी श्रृद्धांजलि है। आशा करता हूँ मेरा ये प्रयास आप सबको पसंद आया होगा।

अब इससे पहले मैं ये श्रृंखला समाप्त करूँ ..एक नज़र उन संदर्भों पर जिनके बिना इन लेखों को इस रूप में लाना संभव नहीं था।

References (संदर्भ):

  1. Kishore Kumar: A Definitive Biography by Kishore Valicha
  2. A melancholy but life-long prankster by Kuldeep Dhiman, Tribune
  3. Interview of Kishore Kumar with Pritish Nandy in the April 28, 1985 issue of Illustrated Weekly of India.
  4. Remembering RD by Raju Bharatan
  5. One evening with Kishore Kumar : India FM.com
  6. The Mystery and Mystique of Madhubala” by Mohan Deep , Magna Publishing Co. Ltd.
  7. Repertoire unlimited by Raju Bharatan
  8. Madhubala in Wikipedia
  9. Gulzar remembers R. D. Burman
  10. Asha on Kishore : Musical Nirvana.com
  11. Ruma Guha Thakurta
  12. Hamaraforums
  13. अक्षरमाला के गीतों की किताब
  14. The Versatile Genius : Downmemorylane.com

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ
  1. यादें किशोर दा कीः जिन्होंने मुझे गुनगुनाना सिखाया..दुनिया ओ दुनिया
  2. यादें किशोर दा कीः पचास और सत्तर के बीच का वो कठिन दौर... कुछ तो लोग कहेंगे
  3. यादें किशोर दा कीः सत्तर का मधुर संगीत. ...मेरा जीवन कोरा कागज़
  4. यादें किशोर दा की: कुछ दिलचस्प किस्से उनकी अजीबोगरीब शख्सियत के !.. एक चतुर नार बड़ी होशियार
  5. यादें किशोर दा कीः पंचम, गुलज़ार और किशोर क्या बात है ! लगता है 'फिर वही रात है'
  6. यादें किशोर दा की : किशोर के सहगायक और उनके युगल गीत...कभी कभी सपना लगता है
  7. यादें किशोर दा की : ये दर्द भरा अफ़साना, सुन ले अनजान ज़माना
  8. यादें किशोर दा की : क्या था उनका असली रूप साथियों एवम् पत्नी लीना चंद्रावरकर की नज़र में
  9. यादें किशोर दा की: वो कल भी पास-पास थे, वो आज भी करीब हैं ..समापन किश्त

मंगलवार, सितंबर 04, 2007

यादें किशोर दा की : क्या था उनका असली रूप साथियों एवम् पत्नी लीना चंद्रावरकर की नज़र में...भाग: ८

किशोर को मुंबई की फिल्मी दुनिया और उसके लोग कभी रास नहीं आए। १९८५ में संन्यास का मन बना चुकने के बाद उन्होंने कहा था...

"......कौन रह सकता है इस चालबाज, मित्रविहीन दुनिया में, जहाँ हर पल लोग आपका दोहन करने में लगे हों। क्या यहाँ किसी पर विश्वास किया जा सकता है? क्या कोई भरोसे का दोस्त मिल सकता है यहाँ? मैं इस बेकार की प्रतिस्पर्धा से निकलना चाहता हूँ। कम से कम अपने पुरखों की ज़मीन खंडवा में तो वैसे ही जी सकूँगा जैसा मैं हमेशा चाहता था। कौन इस गंदे शहर में मरना चाहेगा ?......."


दरअसल इस कथन का मर्म जानने के लिए फिर थोड़ा पीछे जाना होगा। किशोर की ये कड़वाहट उनके फिल्म जगत में बिताए शुरु के दिनों की देन है। वे कभी अभिनेता नहीं बनना चाहते थे। चाहते थे तो सिर्फ गाना पर बड़े भाई दादा मुनि का कहना टाल भी नहीं पाए। अभिनय में गए तो सफलता भी हाथ लगी पर गायक के रूप में ज्यादातर संगीत निर्देशकों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। खुद किशोर ने अपनी लाचारी और अपने अजीबोगरीब व्यवहार के बारे में ये सफाई पेश की है...

"...मैं सिर्फ गाना चाहता था। कुछ ऐसी परिस्थितियाँ बनीं कि मुझे अभिनय की दुनिया में आना पड़ा। मुझे अभिनय में बिताया अपना का हर एक पल नागवार गुजरा। मैंने कौन-कौन से तरीके नहीं अपनाए इस दुनिया से पीछा छुड़ाने के लिए...अपने संवाद की पंक्तियाँ गलत बोलीं, पागलपन का नाटक किया, बाल मुंडवाए, गंभीर दृश्यों के बीच यूडलिंग शुरु कर दी। मीना कुमारी के सामने वो संवाद बोले, जो किसी दूसरी फिल्म में बीना रॉय को बोलने थे..........पर फिर भी उन्होंने मुझे नहीं छोड़ा और आखिरकार एक सफल नायक बना ही दिया।...."

किशोर ने यहाँ कोई अतिश्योक्ति नहीं की थी। उनके अज़ीबोगरीब हरकतों के कुछ किस्से तो पहले भी यहाँ लिखे जा चुके हैं, अब कुछ की बानगी और लें...

भाई-भाई की शूट में निर्देशक रमन के द्वारा अपने ५००० रुपए देने के लिए अड़ गए। अशोक कुमार के समझाने पर अनिच्छा पूर्वक वो दृश्य करने को तैयार हुए। छोटे से शाँट में उन्हें सिर्फ बड़बड़ाना था और थोड़ी चहलकदमी करनी थी।

तो किशोर ने क्या किया, कुछ दूर चलते ..कलाबाजी खाते और जोर से कहते पाँच हजार रुपया। ऐसी कलाबाजियाँ खाते-खाते वो कमरे के दूसरी तरफ पहुँचे जहाँ एक पहिया गाड़ी खड़ी थी. किशोर उस पर होते हुए सीधे बाहर पहुँचे और एक छलाँग मार कर अपनी गाड़ी पर सवार होकर चलते बने । बाद में रमन ने स्वीकार किया कि वो किशोर को पैसा चुका पाने की हालत में नहीं थे।

एक निर्माता को तो उन्होंने इतना परेशान किया कि वो उनके खिलाफ़ कोर्ट से सम्मन ले आए कि किशोर उनके आदेशानुसार ही काम करेंगे।
नतीजा ये हुआ कि सेट पर अपनी कार से उतरने के पहले भी वो निर्माता का आदेश मिलने के बाद ही उतरते। एक बार वो शूटिंग के दौरान गाड़ी को लेते हुए खंडाला चले गए, तुर्रा ये कि डॉयरेक्टर ने शॉट के बाद 'कट' नहीं बोला तो मैं क्या करता...

पर ये सब उन्होंने सिर्फ फिल्मी दुनिया से निकलने के लिए किया ऐसा भी नहीं था। कुछ बचपना कह लें और कुछ उनके खुराफाती दिमाग का फ़ितूर, अपनी निजी जिंदगी में उन्होंने अपनी इमेज को ऍसा ही बनाए रखा।

उनसे जुड़ी कहानियाँ खत्म होने का नाम नहीं लेतीं। शयनकक्ष में खोपड़ी की आँखों से निकलती लाल रोशनी, ड्राइंग रूम में उल्टी पड़ी कुर्सियाँ, मेहमानों पर उनके इशारों पर भौंकते कुत्ते, गौरीकुंज के अपने आवास के बाहर लगा बोर्ड,

Beware of Kishore Kumar !

उनके मिज़ाज की गवाही देता है।

पर इतना सब जानते हुए भी उनके करीबी उनके बारे में अलग ही राय रखते थे। साथी कलाकार महमूद का कहना था


"....वो ना तो सनकी थे ना ही कंजूस, जैसा कि कई लोग सोचते हैं। वास्तव में वो एक जीनियस थे। वो राज कपूर के बड़बोले रुप थे, एक हरफनमौला जिसे सिनेमा के हर पहलू की जानकारी थी और जिसे हो हल्ला मचाकर लोगों की नज़रों में बने रहने का शौक था।....."




वहीं अभिनेत्री तनुजा का मानना था

"......मुझे समझ नहीं आता कि वो पागलपन का मुखौटा क्यूँ लगाए रहते थे?
शायद, एक आम इंसान की तरह वो दुनिया से अपने अक़्स का कुछ हिस्सा छुपाना चाहते थे। जब वो अच्छे मूड में रहते तो अपने चुटकुलों से हँसा-हँसा कर लोट पोट कर देते थे। ...."



संगीत निर्देशक कल्याण का कहना था

"....किशोर मूडी इंसान थे, पर मैं समझता हूँ कि किसी कलाकार को ये छूट तो आपको देनी ही होगी। उनसे कुछ करवाने के लिए मुझे बच्चों जैसा व्यवहार करना पड़ता था। सो मैं जो उनसे चाहता ठीक उसका उलटा बोलता।...."

किशोर के जीवन वृत को पत्रकार कुलदीप धीमन ने एक अच्छा सार दिया है। कुलदीप कहते हैं...

".....शुरुआती दौर में अपनी बतौर गायक पहचान बनाने के क्रम में मिली दुत्कार ने उनके दिल में वो ज़ख्म किए जो वक़्त के साथ भर ना पाए और जिन्होंने उन्हें एकाकी बना डाला। पर उनके अंदर का खुराफ़ाती बच्चा कभी नहीं मरा। यही वज़ह रही कि प्रशंसक और दोस्तों को उनकी कोई स्पष्ट छवि बनाने में दुविधा हुई। सामान्यतः हम जीवन में श्वेत श्याम किरदार देखने के आदि हैं पर किशोर की जिंदगी में स्याह रंग की कई परते थीं जिन्होंने उनके चरित्र को जटिल बना दिया था.... "

१९८७ में हृदयगति रुक जाने की वजह से उनकी मृत्यु हो गई। आइए देखें इस दुर्लभ वीडियो में पत्नी लीना चंद्रावरकर उनकी यादों को किस तरह सँजो रही हैं....



इस श्रृंखला की समापन कड़ी में मेरी पहली पायदान के गीत के साथ होंगे वो दस गीत जिन्हें किशोर दा ने खुद अपना पसंदीदा माना था।

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ


  1. यादें किशोर दा कीः जिन्होंने मुझे गुनगुनाना सिखाया..दुनिया ओ दुनिया
  2. यादें किशोर दा कीः पचास और सत्तर के बीच का वो कठिन दौर... कुछ तो लोग कहेंगे
  3. यादें किशोर दा कीः सत्तर का मधुर संगीत. ...मेरा जीवन कोरा कागज़

  4. यादें किशोर दा की: कुछ दिलचस्प किस्से उनकी अजीबोगरीब शख्सियत के !.. एक चतुर नार बड़ी होशियार

  5. यादें किशोर दा कीः पंचम, गुलज़ार और किशोर क्या बात है ! लगता है 'फिर वही रात है'

  6. यादें किशोर दा की : किशोर के सहगायक और उनके युगल गीत...कभी कभी सपना लगता है

  7. यादें किशोर दा की : ये दर्द भरा अफ़साना, सुन ले अनजान ज़माना

  8. यादें किशोर दा की : क्या था उनका असली रूप साथियों एवम् पत्नी लीना चंद्रावरकर की नज़र में

  9. यादें किशोर दा की: वो कल भी पास-पास थे, वो आज भी करीब हैं ..समापन किश्त

रविवार, सितंबर 02, 2007

डॉ.राही मासूम रज़ा, जगजीत और वो इंटरव्यूः हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद...

हाशिया पर कुरबान अली का डॉ. राही मासूम रज़ा पर लिखा लेख पढ़ कर उनकी वो ग़ज़ल याद आ गई जो कॉलेज के ज़माने से हमेशा मेरे ज़ेहन में रही है। पर इस ग़ज़ल को गुनगुनाने और सुनवाने से पहले इससे जुड़ी चंद स्मृतियाँ आप से बाँटना चाहूँगा।

वर्ष १९९६ की बात हे। भारतीय इंजीनियरिंग सर्विस के लिए मुझे इंटरव्यू में जाना था। मेकेनिकल इंजीनियरिंग इतना बड़ा विषय है कि साक्षात्कार के नाम से पसीने छूट रहे थे। दिमाग में बस यही था कि शुरुआत में जो रुचियों से संबंधित प्रश्न होंगे उसमें ही जितना खींच सकूँ उतना ही अच्छा। जैसे की आशा थी बात रुचियों से ही शुरु हुई। मैंने अपना एक शौक किताबों को पढ़ना भी लिखा था। इंटरव्यू बोर्ड की प्रमुख उड़िया थीं। हिंदी की किताबों के बारे में उन्हें ज़्यादा जानकारी नहीं थी। सो उन्होंने विषय बदलते पूछा कि आपको इतनी कम उम्र से ही ग़ज़लों का शौक कैसा हो गया ? ख़ैर मैंने उन्हें कुछ पूर्व अभ्यासित फंडे कह सुनाए।

अब व्यक्तिगत सवालों का दौर ख़त्म हो चुका था। तकनीकी सवालों की शुरुआत पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज से आए एक वरीय प्रोफेसर से शुरु होनी थी। मन ही मन मेरे हाथ पाँव फूलने शुरु हो गए थे। पर सरदार जी का पहला सवाल था कि

आखिर जगजीत सिंह आपको क्यूँ अच्छे लगते हैं?

ये तो बेहद मन लायक प्रश्न था सो हमने दिल से अपने उद्गार व्यक्त कर दिए। अगला प्रश्न था कि जगजीत की गाई अपनी पसंदीदा ग़ज़ल के बारे में बताइए। और मैंने डां राही मासूम रज़ा कि लिखी इस बेहद संवेदनशील ग़ज़ल का जिक्र कर डाला..

हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद....

इसकी बात सुनकर वो सज्जन इतने खुश हुए कि उन्होंने कहा कि मुझे इससे और कुछ नहीं पूछना। २५ मिनट तक चले साक्षात्कार के १५ मिनट जगजीत सिंह और राही मासूम रज़ा साहब की इस ग़ज़ल के सहारे बीत गए। बाकी अगले दस मिनटों में तो जो खिंचाई होनी थी सो हुई। पर इन सबके बावज़ूद मुझे साक्षात्कार में २०० में से १०४ अंक मिले जो उस वक़्त बहुत अच्छा तो नहीं, पर सामान्य से अच्छा परिणाम माना जाता था।

आइए रज़ा साहब की इस ग़ज़ल की ओर लौटें जिसका जिक्र मैंने चाँद के अकेलेपन के बारे में बात करते हुए यहाँ भी किया था।

एक प्राकृतिक बिम्ब चाँद की सहायता से परदेस में रहने की व्यथा को रज़ा साहब ने इतनी सहजता से व्यक्त किया है कि आँखें बरबस नम हुए बिना नहीं रह पातीं।

ये परदेस हम सब के लिए कुछ भी हो सकता है...


स्कूल या कॉलेज से निकलने के बाद घर मे ममतामयी माँ के स्नेह से वंचित होकर एक नए शहर की जिंदगी में प्रवेश करने वाला नवयुवक या नवयुवती हो...

या परिवार से दूर रहकर विषम परिस्थितियों में सरहदों की रक्षा करने वाला जवान ...

या रोटी की तालाश में बेहतर जिंदगी की उम्मीद में देश की सरजमीं से दूर जा निकला अप्रवासी...

सभी को अपने वतन, अपनी मिट्टी की याद रह-रह कर तो सताती ही है।


तो लीजिए सुनिए मेरा प्रयास ...


हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चाँद

जिन आँखों में काजल बनकर तैरी काली रात
उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चाँद

रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम में जाकर अटका होगा चाँद

चाँद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद


हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद...

जगजीत सिंह जी की आवाज़ में गाई इस ग़ज़ल को मैंने यहाँ अपलोड किया है। रज़ा साहब की बेहतरीन शायरी को बखूबी निभाया है जगजीत जी ने। तो चलें..आप भी आनंद उठाएँ रज़ा साहब की इस बेहतरीन ग़ज़ल का...

Hum To Hain Pardes...
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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