शनिवार, सितंबर 22, 2007

'बुल्ला कि जाणां मैं कौण': आख़िर क्यूँ खींचता है ये गीत अपनी ओर ?

पिछली पोस्ट में बात हो रही थी रब्बी शेरगिल के गीत तेरे बिन.. की। आज कुछ बातें उनके सबसे लोकप्रिय नग्मे 'बुल्ला कि जाणां मैं कौण' की। क्या आप मानेंगे कि इस हृदय को छू लेने वाली इस सूफी धुन को बनने और बाज़ार तक पहुंचने में ५ साल लग गए। २००० में रब्बी को 'तहलका' ने लांच करने का अनुबंध किया पर अगस्त २००१ में बंगारू लक्ष्मण वाले स्टिंग आपरेशन ने 'तहलका' की नींव हिला दी। २००२ में मैग्नासाउंड ने उनके एलबम में दिलचस्पी लेनी शुरु की पर २००३ तक वो कंपनी ही खत्म हो गई। आखिरकार एक नई कंपनी फैटफिश रिकार्ड ने २००४ में रब्बी से करार किया तब जाकर २००५ में ये गीत संगीत प्रेमियों के दिल की आवाज़ बन सका। इससे ये बात साफ हो जाती है कि सिर्फ प्रतिभा ही आपको मंजिल तक नहीं पहुँचाती। साथ ही साथ भाग्य की लकीर भी होनी चाहिए आपके हाथों में..

एक रोचक तथ्य ये भी है कि रब्बी का ये गीत हम सबको ही नहीं पर अमिताभ बच्चन को भी बेहद पसंद है। तहलका की एक बोर्ड मीटिंग में ये गीत उसके निर्देशकों के बीच वितरित हुआ। बाद में तहलका के लोगों को श्वेता बच्चन ने बताया कि पिताजी की गाड़ी में लगातार ये गीत बजता रहता है।

पर आख़िर क्या खास है इस गीत में? क्यूँ खींचता है ये हम सबको अपनी ओर? शायद इस प्रश्न की वज़ह से जो जिंदगी के किसी ना किसी मुक़ाम पर हम सबको मथता ही रहा है

बुल्ला कि जाणां मैं कौन?

जिंदगी के उन रुके ठहरे लमहों में आपने क्या ये कभी नहीं सोचा..
अपने बारे में..अपनी पहचान के बारे में ?
इस दुनिया में आने के अपने मक़सद के बारे में ?
जरूर सोचा होगा और पाया होगा कि हमने अपने आप को बाँट रखा है इस पहचान के नाम पर
देश, धर्म, शहर , भाषा, जाति के छोटे छोटे खानों में..
ये जानते हुए भी कि इन बंद ख़ानों में अपने आप को समेट कर जीना सही नहीं फिर भी इनसे निकलने की कोशिश नहीं करते हम..
शायद हम लड़ना नहीं चाहते समाज के बनाए इन खोखले दायरों और दीवारों से..आखिर एक कनफर्मिस्ट हो कर जीना इतना आसान जो है ...



अठारहवीं सदी के सूफी कवि बुल्ले शाह भी इंसान द्वारा बनाए गए इन निरर्थक हिस्सों की ओर इशारा करते हुए हमें इनसे ऊपर उठने की बात बताते है्।खुद रब्बी इस गीत के बारे में कहते हैं

"...Bulla Ki Jana is all about us not knowing who we are, of thinking of life in terms of boxes, until we are enlightened. And then, you realise how meaninglessly you’ve compartmentalised life....”

तो चलिए एक बार फिर से मेरे साथ इस गीत के सफ़र पर इसके बोलों को समझते हुए। शाब्दिक अर्थों में सीधे ना जाकर मैंने कवि के भावों को पढ़ने की कोशिश की है। अनजाने में हुई त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।

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बुल्ला कि जाणां मैं कौन ?

ना मैं मोमिन विच मसीताँ
ना मैं विच कुफ्र दियां रीताँ
ना मैं पाकां विच पलीताँ
ना मैं अन्दर वेद किताबाँ
ना मैं रहदाँ भंग शराबाँ
ना मैं रिंदाँ मस्त खराबाँ
ना मैं शादी ना ग़मनाकी
ना मैं विच पलीति पाकी
ना मैं आबी ना मैं खाकी
ना मैं आतिश ना मैं पौण
बुल्ला कि जाणां मैं कौन ?

ना मेरी मस्जिद में आस्था है, ना व्यर्थ की पूजा पद्धतियों में। ना मैं शुद्ध हूँ ना मैं अशुद्ध। मैं धर्मग्रंथों को पढ़ने की इच्छा नहीं रखता । ना ही मुझे भांग या शराब की लत है और ना ही उनका सा मतवालापन । ना तुम मुझे पूर्णतः स्वच्छ मानो, ना ही गंदगी से भरा हुआ। ना जल, ना थल, ना अग्नि ना वायु , मेरा जन्म इन सबसे कहीं परे है..एक अनजाने रहस्य से गुथा हुआ......

ना मैं अरबी ना लहोरी
ना मैं हिन्दी शहर नगौरी
ना हिन्दु ना तुर्क पेशावरी
ना मैं भेद मज़हब दा पाया
ना मैं आदम हव्वा जाया
ना मैं अपणा नाम कराया
आव्वल आखिर आप नूँ जाणां
ना कोइ दूजा होर पहचाणां
मैं थों होर न कोई सियाणा
बुल्ला शाह खडा है कौण

बुल्ला कि जाणां मैं कौन?


मुझे देश, भाषा और धर्म की सरहदों में मत बाँटों। ना मैं अरब का हूँ, ना लाहौर का,. ना नगौर मेरा शहर हे ना हिंदी मेरी भाषा। ना तो मैं हिंदू हूँ, ना पेशावरी तुर्क। ना मुझे धर्मों का तत्त्व ज्ञान है ना मैं दावा करता हूँ कि मैं आदम और हव्वा की संतान हूँ। ये जो मेरा नाम है वो ले कर इस दुनिया में मैं नहीं आया । मैं पहला था, मैं ही आखिरी हूँ। ना मैंने किसी और को जाना है ना मुझे ये जानने की जरूरत है। गर अपने होने का सत्य पहचान लूँ तो फिर मुझ सा बुद्धिमान और कौन होगा?

ना मैं मूसा न फरौन.
ना मैं जागन ना विच सौण
ना मैं आतिश ना मैं पौण
ना मैं रहदां विच नादौण
ना मैं बैठां ना विच भौण
बुल्ला शाह खडा है कौण
बुल्ला कि जाणां मैं कौन


ना तो मैं मूसा हूँ और ना ही फराओ । ना तो मैं अग्नि से और ना ही हवा से पैदा हुआ हूँ। मुझे तो ये खुद भी पता नहीं कि मैं जागृत अवस्था में हूँ या निंदासा, रुका हुआ हूँ ये कालांतर से चलता जा रहा हूँ। ना मेरा कोई शहर है । सच तो ये है कि मैं बुल्ले शाह आज तक अपने अक्स की तालाश में हूँ।
इस गीत का वीडियो आप यहाँ देख सकते हैं।
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12 टिप्पणियाँ:

Sanjeet Tripathi on सितंबर 22, 2007 ने कहा…

वाकई यह गाना सु्नने पर एक अलग ही अनुभूति दे जाता है, दिल करता है सुनते रहें सुनते रहें!

शुक्रिया इसके बारे मे विवरण देने के लिए!

Yunus Khan on सितंबर 22, 2007 ने कहा…

इन्‍टेन्सिटी । वही तो है जो इस गाने को ज़ोरदार बनाती है ।
वीडियो जिस विचार के तहत बनाया गया है । वो भी जबर्दस्‍त है ।
भीड़ समाज और धर्म के बीच कितना कितना अकेला है इंसान ।
रब्‍बी हमारे समय के सबसे ज़हीन गायक हैं ।
शुक्रिया छोटा शब्‍द है इस पोस्‍ट के लिए ।
सूफियाना माहौल कायम रखिए ।
अरे हां पिछले दिनों मैंने म्‍यूजिक टुडे की एकदम मिनी सी डी देखीं मुंबई के म्‍यूजिक शॉप में ।
कमाल का संग्रह है । ज्‍यादातर सूफी रचनाएं हैं ।

Yunus Khan on सितंबर 22, 2007 ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
SahityaShilpi on सितंबर 22, 2007 ने कहा…

मनीष भाई!
इस गीत को लेकर अपनी पसंद के संदर्भ में पहले ही कह चुका हूँ. इसे सुनवाने के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद!

-अजय यादव http://merekavimitra.blogspot.com
http://ajayyadavace.blogspot.com

पारुल "पुखराज" on सितंबर 22, 2007 ने कहा…

काफ़ी दिनों से सुनना चाह रही थी ये बंदिश्………।बहुत शुक्रिया मनीश जी

Udan Tashtari on सितंबर 22, 2007 ने कहा…

आनन्द आ गया, मनीष भाई. आप तो हमारी पसंद पर पसंद देते चले जा रहे हैं. बहुत बहुत आभार.

VIMAL VERMA on सितंबर 23, 2007 ने कहा…

आपने अनुवाद करके एक धरोहर कम से कम मुझे तो दे ही दी है, अब एक बात ये भी कि इस तरह के गईतों की रचना पंजाब,असम बंगला, आदि में तो हो रहे है जो जो हर जगह लोकप्रिय भी हुए है पर ये काम हमारे हिन्दी इलाके में तो हो ही नही रहा..भुपेन हजारिका के गीत जो हिन्दी में अनुवाद होकर आए हैअसके अलावा भी हिन्दी में कुछ इस तरह की रचना क्यों नही मिलती.....ये सोचनए की बात है.... पर रब्बी को सुनना दिव्य है,.. शुक्रिया मनीषजी.!!!!

mamta on सितंबर 23, 2007 ने कहा…

शुक्रिया मनीष जी इसका अनुवाद हिन्दी मे लिखने के लिए क्यूंकि पहली लाइन का अर्थ तो समझ मे आता था पर बाकी समझना मुश्किल था. पर फ़िर भी इसे सुनना अच्छा लगता था.

Manish Kumar on सितंबर 26, 2007 ने कहा…

संजीत, अजय, पारुल, समीर जी और ममता जी आप सब का शुक्रिया इस गीत को सुनने और इसके बारे में अपनी मनोभावना प्रकट करने का।

Manish Kumar on सितंबर 26, 2007 ने कहा…

भीड़ समाज और धर्म के बीच कितना कितना अकेला है इंसान ।

सही कहा आपने यूनुस ! म्यूजिक टुडे की वो सीडी हाथ लगेगी तो जरूर सुनूँगा।

Manish Kumar on सितंबर 26, 2007 ने कहा…

विमल भाई बेहद सही मुद्दा उठाया आपने की हिंदी इलाके में जमीन की खुशबू से निकला लोक संगीत क्यों नहीं उभर कर आ रहा है। शायद हिंदी फिल्म संगीत की तुलना से इस कोटि के संगीत के चलने में संशय इसकी एक वज़ह हो। दूसरी बात ये भी है कि इस इलाके में लोक संगीत के नाम पर भोंड़ें संगीत ने बाज़ार में अपनी जगह बना ली है। गीतों में अश्लीलता परोस कर उनका बिकना ज्यादा आसान हो तो फिर मेहनत कौन करे।

Unknown on सितंबर 07, 2010 ने कहा…

मनीष साब ,कोई दिन ही ऐसा जाताहोगा जब ये सूफी कलाम मैंने ना सुना हो .क्या गिटार की अदायगी क्या रब्बी जी की गायकी सवेरे की शीतल पवन की तरह मस्त करते हैं .बाबा बुले शाह के कलाम पर टिप्पनी पर तो बड़े बड़ों का सर झुकता है .मैं एक अदना जुगनू सूरज पर क्या कमेन्ट करे सिवा उजाले में खोकर धन्य होने के .
आपने जिस इंटेंसिटी और गहराई से लिखा है ,तारीफ काबिल है .सोंग की आधुनिक हिस्ट्री जिसमें कई मुश्किलों के बाद रिलीज होंना और कई अनछुए परसंग,अमित जी वाला आदि की जानकारी देने के लिए शुक्रिया.

 

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