लमहा लमहा तेरी यादें जो चमक उठती हैं
ऐसा लगता है कि उड़ते हुए पल जलते हैं
मेरे ख़्वाबों में कोई लाश उभर आती है
बंद आँखों में कई ताजमहल जलते हैं...
जाँ निसार अख्तर
ऐसा लगता है कि उड़ते हुए पल जलते हैं
मेरे ख़्वाबों में कोई लाश उभर आती है
बंद आँखों में कई ताजमहल जलते हैं...
जाँ निसार अख्तर
जो जल गया वो तो राख राख ही हुआ चाहता है।
कहाँ रही संबंधों में ताजमहल की शीतल सी मुलायमियत ?
अब तो धुएँ की लकीर के साथ है तो बस राख का खुरदरापन।
गुज़रे व़क्त की छोटी छोटी बातें दिल में नासूर सा बना गई और वो ज़ख्म रिस रिस कर अब फूट ही गया।
जलते रिश्तों का धुआँ आँखों मे तो बस जलन ही पैदा कर रहा है ना।
अब शायर अफ़सोस करे तो करता रहे...कुछ बातें बदल नहीं सकतीं
क्या सही था क्या गलत ये सोचने का वक़्त जा चुका है
फिर भी कमबख़्त यादें हैं कि पीछा नहीं छोड़तीं..
ऐसे सवाल करती हैं जिनका जवाब देना अब आसान नहीं रह गया है...
तो आइए सुने इन्हीं ज़ज़्बातों को उभारती मुकेश की आवाज में जावेद अख्तर के वालिद जाँ निसार अख्तर की ये ग़ज़ल। इस ग़जल की धुन बनाई थी खय्याम साहब ने।
जरा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था
मुआफ़ कर ना सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को
वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था
*शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था
गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-**शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था
पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था
*विकसित, खिला हुआ, ** चिनगारी
मुकेश की ये बेहतरीन ग़जल HMV के कैसेट(STHVS 852512) और अब सीडी में भी मौजूद है। सोलह गैर फिल्मी नग्मों और ग़ज़लों में चार जाँ निसार अख्तर साहब की हैं। चलते-चलते पेश है इस एलबम में शामिल उनकी लिखी ये खूबसूरत ग़जल जो सुनने से ज़्यादा पढ़ने में आनंद देती है। इस ग़ज़ल के शेरों की सादगी और रूमानियत देख दिल वाह वाह कर उठता है।
अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिये हैं
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिये हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिये हैं
आँखों में जो भर लोगे तो कांटों से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिये हैं
देखूँ तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ
मंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिये हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिये हैं
ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिये हैं
जाँ निसार अख्तर की रचनाएँ आप 'कविता कोश' में यहाँ पढ़ सकते हैं
जिन्हें मुकेश की आवाज़ बेहद पसंद है उन्हे ये एलबम जरूर पसंद आएगा। अगली पोस्ट में इसी एलबम की एक और ग़ज़ल के साथ लौटूँगा जिसकी वजह से वर्षों पहले मैंने ये कैसेट खरीदी थी।
8 comments:
काफ़ी पसन्द आया जनाब, ऐसे मोती चुनकर लाते है कि मज़ा आ जाता है.. गीत संगीत पर पकड़ आपकी अच्छी है बधाई हो
किस शेर की तारीफ करूँ, जैसे सब कुछ दिल को छूते ही भीतर तीर सा उतरते से जाते हैं,
जरा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था
पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था
अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिये हैं
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिये हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिये हैं
देखूँ तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ
मंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिये हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिये हैं
ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिये हैं
शुक्रिया युँ ही हम जैसे लोगों को लाभान्वित कराते रहिये!
बहुत बहुत आभार एवं बधाईयाँ -इस लाजबाब प्रस्तुति के लिये. कहाँ कहाँ से लाते हैं ऐसी बेहतरीन कलेक्शन?? बस, वाह वाह ही निकलती है आपकी हर पोस्ट पर. जारी रहें.
जरा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था
बहुत खूब मनीश जी॥आपके सुनवाये हुए गाने हमेशा सेव कर लेती हूं बहुत बहुत शुक्रिया
मनीष भाई ,बहुत दिन बाद ये लाईन सुनने को मिली ,दिल खुश हो गया .....आप के पास बेहतरीन कोल्लेक्शन है ....जल्दी ही फिर आना होगा ....आप हमारे चिट्ठे पर दर्शन नही दे रहे है ..कौनो नाराजगी है क्या ??
विमल भाई, कंचन, समीर जी, पारुल जी आप सब का शुक्रिया इस ग़ज़ल को पसंद करने का ।
राज नाराज़गी किस बात की भाया... आजकल तो हालत ये है कि किसी दिन अगर चिट्ठा नहीं पढ़ पाए तो बैकलॉग इतना बढ़ जाता है कि वापस पिछले दिन की पोस्ट पढ़ने का मौका ही नहीं मिलता।
bahut achha bahut pyara :)
shukriya itni achhi post k liye
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