मंगलवार, मई 27, 2008

प्रसून जोशी की कविता : इंतजार, इंतजार, बोलो कब तक करूँ मैं इंतजार ?

प्रसून जोशी आज फिल्म जगत में एक ऍसे गीतकार के रूप में जाने जाते हैं जिसके गीतों की काव्यात्मकता मन को सहज ही छू लेती है। पर गीतकार के आलावा प्रसून ने विज्ञापन उद्योग में भी खासा नाम कमाया है। पिछले दो दशकों में उन्होंने बड़ी-बड़ी कंपनियों के उत्पादों को अपने प्रचार अभियानों से जन जन तक पहुँचाया है। अब उनके द्वारा तैयार ये पंच लाइन 'ठंडा मतलब कोका कोला' तो आप सब को याद ही होगी।


पर ये भी एक दिलचस्प तथ्य है कि उत्तराखंड की माटी से निकली इस प्रतिभा ने विज्ञापन जगत और फिल्म उद्योग में कदम रखने के पहले मात्र सत्रह साल की उम्र में ही कविता लिखना शुरु कर दिया था। प्रसून कहते हैं कि आज भी उनका ९० प्रतिशत समय कार्यालय में और दस प्रतिशत काव्य और गीत लेखन में बीतता है। पर इन दोनों क्षेत्रों में कुछ अच्छा करने से उन्हें बराबर का संतोष मिलता है।

अपने काव्य लेखन के बारे में हाल ही में दिए एक साक्षात्कार में प्रसून ने कहा कि
वो एक बार में अपनी कविता पूर्ण नहीं कर लेते । उसमें तब तक वो सुधार करते रहते हैं जब तक उन्हें लगता है कि वो पूरी तरह उनके विचारों को अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं हो पाई है

आज आपके सामने पेश है प्रसून जोशी की ही एक कविता जिसमें नायिका अपने किसी खास का बेसब्री से इंतजार कर रही है....

रात के पहरेदार की सीटी
साथ हवा के सैर को निकली
जागते रहना, जागते रहना
रास्तों से आवाजें गुजरीं
और हँस के मैं खुद से बोली
जन्मों से मैं जाग रही हूँ
इंतजार को साध रही हूँ
कोई तो आए, कोई तो बोले तू सो जा इक बार
इंतजार, इंतजार, बोलो कब तक करूँ मैं इंतजार ?

सुबह सुबह आँगन में अपने गीले ख़्वाब सुखाती हूँ
कानों में खुद डाल के उँगली ऊँचे सुर में गाती हूँ
शाख गुलमोहर की हसरत से कितनी बार हिलाती हूँ
कभी तो खुशबू से भर जाए ये दामन इक बार
इंतजार, इंतजार, बोलो कब तक करूँ मैं इंतजार ?


पहले थोड़ा जिया जलाया
फिर आँगन में दिया जलाया
नर्म घास पर चल कर देखा
इक बुलबुल को पास बुलाया
और उसने कानों में गाया
आएगा वो धूप का टुकड़ा, इक दिन मेरे द्वार
इंतजार, इंतजार, जिसका मुझे इंतजार.....

बुधवार, मई 21, 2008

रात हमारी तो चाँद की सहेली है...!

क्या ये सच नहीं है कि अँधेरे को हम सब पीड़ा और अवसाद का प्रतीक मानते हैं ?

पर लोगों की बात मैं क्यूँ मानूँ ?

मेरी नज़रों ने तो कुछ और ही देखा है... कुछ और ही महसूस किया है...
ज़ेहन की वादियों से कभी उन लमहों को चुन कर देखें...
दिल जब कहीं भटक रहा हो निरुद्देश्य और दिशाविहीन..
अपने चारों ओर की दुनिया जब बेमानी लगने लगी हो ....
यहाँ तक की आप अपनी परछाई से, अपने साये से भी दूर भागने लगे हों .....
किसी से बात करने की इच्छा ना हो....


ऍसे हालात में अपना गम अपनी कुंठा ले के आप कहाँ जाएँगे..
सोचिए तो?
पर मुझे सोचने की जरूरत नहीं...
ऍसे समय मेरा हमदम, मेरा वो मित्र हमेशा से मेरे करीब रहा है..
अपनी विशाल गोद में काली चादर लपेटे आमंत्रित करता हुआ..

पहली बार इससे दोस्ती तब हुई थी जब मैंने किशोरावस्था में कदम रखा था। ये वो वक़्त था जब छुट्टी के दिनों में सात बजे के बाद घर की बॉलकोनी में मैं और मेरा दोस्त घंटों खोए रहते थे। जाने कैसी चुम्बकीय शक्ति थी मेरे इस सहचर में कि शाम से ही उसके आने का मैं बेसब्री से इंतजार करता फिरता।

कॉलेज के दिनों में ये दोस्ती और गहरी होती गई। फ़र्क सिर्फ इतना था कि हॉस्टल के उस बंद कमरे में घुप्प अँधेरे के साथ कोई और साथ हो आया था।

अरे ! अरे ! आप इसका कोई और मतलब ना निकाल लीजिएगा।

वो तीसरा कोई और नहीं..वो गीत और गज़लें थीं जिनके बोल उस माहौल में एक दम से जीवंत हो उठते थे।

कभी वे दिल को सुकून देते थे...
तो कभी आँखों की कोरों को पानी...


इसलिए २००५ में फिल्म परिणीता का ये गीत जब भी मैं सुनता हूँ तो लगता है कि अरे ये तो मेरा अपना गीत है..अपनी जिंदगी में जिया है इसके हर इक लफ़्ज़ को मैंने...
गीत शुरु होता है स्वान्द किरकिरे की गूँजती आवाज से.. पार्श्व में झींगुर स्वर रात के वातावरण को सुनने वाले के पास पहुँचा देता है। शान्तनु मोइत्रा का संगीत के रूप में घुँघरुओं की आवाज़ का प्रयोग लाजवाब है और फिर स्वानंद किरकिरे के शब्द चित्र और गायिका चित्रा का स्वर मन की कोरों को भिंगाने में ज्यादा समय नहीं लेता।

रतिया कारी कारी रतिया
रतिआ अँधियारी रतिया
रात हमारी तो चाँद की सहेली है
कितने दिनों के बाद आई वो अकेली है
चुप्पी की बिरहा है झींगुर का बाजे साज

रात हमारी तो चाँद की सहेली है
कितने दिनों के बाद आई वो अकेली है
संध्या की बाती भी कोई बुझा दे आज
अँधेरे से जी भर के करनी है बातें आज
अँधेरा रूठा है,अँधेरा ऐंठा है
गुमसुम सा कोने में बैठा है

अँधेरा पागल है, कितना घनेरा है
चुभता है डसता है, फिर भी वो मेरा है
उसकी ही गोदी में सर रख के सोना है
उसकी ही बाँहों में चुपके से रोना है
आँखों से काजल बन बहता अँधेरा

तो  सुनें रात्रि गीतों की श्रृंखला में परिणीता फिल्म का ये संवेदनशील नग्मा..



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(ये गीत २००५ की वार्षिक संगीतमाला जो उस वक्त मेरे रोमन हिंदी चिट्ठे पर चला करती थी का सरताज गीत था और ये प्रविष्टि भी तभी लिखी गई थी।)

शुक्रवार, मई 16, 2008

ये अलग बात है ज़रा नाशाद हूँ मैं, पंख कट गए मेरे पर आजाद हूँ मैं ...

चार साल पहले अंतरजाल पर एक नज़्म पढ़ने को मिली थी, शायरी के एक मंच पर। लिखने वाले थे विनय जी जिनके बारे में मुझे बस इतना मालूम था कि वो कानपुर से हैं। अक्सर उनकी ग़ज़लों और नज्मों को उस मंच पर हम सराहा करते थे।

आज अचानक उनकी एक सादी सी मगर बेहद असरदार नज़्म की कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं जो पहली बार पढ़ने के बाद अक्सर गाहे बगाहे फिर से लौट कर होठों पर आ जाती हैं। इसीलिए आज सोचा कि क्यूँ ना फिर पुरानी संचिकाओं से निकाल कर उन्हें आप तक लाया जाए।

पूरी नज़्म में शायर अपनी माशूका से दूर जाने की बात करता है, पर नज़्म की आखिरी दो पंक्तियाँ उस की मानसिक स्थिति को बेहद खूबसूरती से व्यक्त कर देती हैं...

मेरे सर खामोशी का कोई इलजाम भी नहीं
तुम्हारे नाम अब मेरा कोई पैगाम भी नहीं
वक़्त ए माज़ी की अब कोई तसवीर नहीं है
तुम्हारे वास्ते कागज़ पे कोई तहरीर नहीं है

अब दूर से मुझको तुम सदा मत देना
बुझते हुए शोलों को हवा मत देना
जो मसायल हैं मेरे सुलझाने दो मुझे
जाता हूँ अगर दूर तो जाने दे मुझे


मंजिलें और भी तो हैं जिन्हें पाना है तुम्हें
चाँद तारों से भी ऊपर जाना है तुम्हें
मेरे वास्ते कभी कोई गम नहीं करना
हौसला अपना कभी भी कम नहीं करना


अब हमेशा के लिए तुम भुला देना मुझको
दिल के खाली किसी कोने में सुला लेना मुझको

ये अलग बात है ज़रा नाशाद हूँ मैं
पंख कट गए मेरे पर आजाद हूँ मैं


विनय जी से पिछले चार सालों से मेरी नेट पर मुलाकात नहीं हुई। आशा है वो जहाँ भी होंगे सकुशल होंगे। चलते चलते उनका एक बेहतरीन शेर अर्ज है

ये तो नहीं कहता कि मैं शख्स बदनसीब था
मगर हारा हूँ जब कभी मैं जीत के करीब था


चित्र साभार

शनिवार, मई 10, 2008

ख़ुमार-ए-गम है महकती फिज़ा में जीते हैं..तेरे ख़याल की आबो हवा में जीते हैं

पिछली पोस्ट में फिल्म लीला के गीत 'जाग के काटी सारी रैना..' को आपने सुना था। इसी फिल्म की एक ग़ज़ल हे जो मुझे बेहद प्रिय है। इसे गाया और संगीत दिया है जगजीत सिंह ने। अब संगीत में तो कुछ खास नयापन नहीं है पर इसके बोल जो गुलज़ार ने लिखे हैं लाज़वाब हैं। खासकर इसका मतला तो दिल खुश कर देता हैऔर मुझे इन पंक्तियों को गुनगुनाना बेहद पसंद है

ख़ुमार-ए-गम है महकती फिज़ा में जीते हैं
तेरे ख़याल की आबो हवा में जीते हैं


बड़े तपाक से मिलते हैं मिलने वाले मुझे
वो मेरे दोस्त हैं तेरी वफ़ा में जीते हैं

फ़िराक-ए-यार में साँसों को रोके रखते हैं
हर एक लमहा उतरती क़ज़ा में जीते हैं
फ़िराक-वियोग

और गुलज़ार हों और सपनों की बात ना हो ये कैसे हो सकता है। सपना भी कैसा... आधा अधूरा। अब अधूरे सपनों की वेदना तो हम सबने झेली है। इसलिए तो वे अपनी बात कुछ यूँ रखते हैं।

ना बात पूरी हुई थी कि रात टूट गई
अधूरे ख़ाब की आधी सजा में जीते हैं


तुम्हारी बातों में कोई मसीहा बसता है
हसीं लबों से बरसती शफ़ा में जीते हैं
शफ़ा- चमक , तन्दरुस्ती

तो आइए सुनें इस ग़ज़ल को


डिंपल कपाड़िया पर फिल्माए इस गीत को यू ट्यूब पर यहाँ देख सकते हैं।



लीला फिल्म की सीडी आप यहाँ से खरीद सकते हैं।

गुरुवार, मई 08, 2008

जाग के काटी सारी रैना.... सुनें रात्रि गीतों की श्रृंखला में ये जगजीत सिंह का गाया गीत

जगजीत सिंह और गुलज़ार दो ऍसी शख्सियत रहे हैं जिन्होंने तीस से चालिस की पीढ़ी को ग़ज़ल और गीतों से जोड़े रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जहाँ जगजीत ने आम आदमी को ग़ज़ल की खूबसूरती से सरल अलफ़ाजो में परिचित कराया वहीं गुलज़ार ने फिल्मी गीतों में बोलो की सार्थकता और उनसे पैदा होने वाली जादूगरी को जिलाए रखा।

२००६ में गुलज़ार और जगजीत के सम्मिलित प्रयासों से से एक खूबसूरत एलबम कोई बात चले (जिसकी विस्तार से चर्चा मैंने (यहाँ की थी) की रचना हुई थी। ये एलबम जगजीत की गायिकी से कहीं ज्यादा गुलज़ार की त्रिवेणियों की वज़ह से चर्चित रही थी।

पर इससे पहले भी गुलज़ार और जगजीत २००२ में एक फिल्म में आ चुके थे। ये फिल्म थी लीला और इस का संगीत भी जगजीत सिंह ने दिया था। मुझे इस फिल्म के लगभग सारे गीत और ग़ज़ल अच्छे लगते हैं। पर इस गीत की बात ही कुछ अलग है। गुलज़ार के बोल जी को बेध जाते हैं जब वो कहते हैं

जाग के काटी सारी रैना
नयनों में कल ओस गिरी थी


ओस का रूपक के तौर पर कितना बेहतरीन इस्तेमाल किया उन्होंने और फिर गीत की ये पंक्ति

करवट करवट बाँटी रैना
जाग के काटी सारी रैना....


बस होठ निःशब्द हो जाते हैं शब्दों में गूँजती अनुभूतियों को महसूस कर के...

वही जगजीत अपनी गायिकी से गीत के बोलों की बेचैनी और दर्द को और उभार देते हैं। उनकी आवाज़ का जादू शास्त्रीयता के रंगों में रंग कर सिर चढ़ कर बोलता है। गौर कीजिएगा जगजीत जी ने ग़ज़ल गायिकी के साथ गिटार की संगत कर एक नया प्रयोग किया है

तो आइए सुनें रात्रि गीतों की श्रृंखला के इस दूसरे गीत को

जाग के काटी सारी रैना
नयनों में कल ओस गिरी थी
जाग के काटी सारी रैना....

प्रेम की अग्नि बुझती नहीं है
बहती नदिया रुकती नहीं है
सागर तक बहते दो नैना
जाग के काटी सारी रैना....
रुह के बंधन खुलते नहीं हैं
दाग हैं दिल के धुलते नहीं हैं
करवट करवट बाँटी रैना
जाग के काटी सारी रैना....


नयनों में कल ओस गिरी थी
जाग के काटी सारी रैना

लीला फिल्म में ये गीत डिंपल कपाड़िया और विनोद खन्ना पर अभिनीत इस गीत को आप यहाँ देख सकते हैं


गुरुवार, मई 01, 2008

सब जग सोए, हम जागें, तारों से करें बातें... चाँदनी रातें.. नूरजहाँ और शमसा कँवल की आवाज में आईए सुनें ये रात्रि गीत

मैं रात का प्राणी हूँ और आप में से बहुतेरे और भी होंगे। मैंने सुबह उगते सूरज की लाली तो बिरले ही देखी है पर रात्रि की बेला में चाँद तारों के साम्राज्य को बिना किसी उद्देश्य के घंटों अपलक निहारा है। इसलिए जब कोई गीत रात की बातें करता हे तो उसमें खयालात दिल पर पुरज़ोर असर करते हैं। 
 तो आज हो जाए इक रात्रि गीत वो भी ऍसी रात जब चाँद अपनी स्निग्ध चाँदनी के प्रकाश से सारी धरती को प्रकाशमान कर रहा हो। इस उजाले में जब दूर तक दिखती पंगडंडियों में किसी के आने की आस हो और दिल में हल्का हल्का प्यार का सुरूर हो तो कौन सा गीत गाना चाहेंगे आप यही ना.. 

चाँदनी रातें ..चाँदनी रातें ..सब जग सोए, हम जागें तारों से करे बातें, चाँदनी रातें ..चाँदनी रातें .. 

इस गीत में एक मीठी सी शिकायत है पर जब आप इसे गाते हैं तो सीधे सहज पर मन को छूने वाले शब्दों की मस्ती में डूब जाते हैं। सबसे पहले इस गीत को गाया था सुर की मलिका नूरजहाँ ने ! रिकार्डिंग पुरानी है इसलिए आवाज़ की गुणवत्ता वैसी नहीं है। नूरज़हाँ शुरुआत एक क़ता से करती हैं और फिर शुरु होता है ये प्यारा सा नग्मा 

इक हूक सी दिल में उठती है। 
इक दर्द सा दिल में होता है। 
हम रातों को उठ कर रोते हैं 
जब सारा आलम सोता है 
चाँदनी रातें ..चाँदनी रातें .. 
सब जग सोए, हम जागें 
तारों से करे बातें 
चाँदनी रातें ..चाँदनी रातें .. 
तकते तकते टूटी जाए आस पिया ना आए रे, तकते तकते 
शाम सवेरे, दर्द अनोखे उठे जिया घबराए रे, शाम सवेरे 
रातों ने मेरी नींद लूट ली, दिन के चैन चुराए 
दुखिया आँखें ढ़ूँढ रही है, कहे प्यार की बातें 
चाँदनी रातें ..चाँदनी रातें .. 

 पिछली रात में हम उठ उठ के चुपके चुपके रोए रे, पिछली रात में 
सुख की नींद में गीत हमारे देश पराए सोए रे सुख की नींद में 
दिल की धड़कनें तुझे पुकारें आ जा बालम आई बहारें 
बैठ के तनहाई में कर लें सुख दुख की दो बातें 
चाँदनी रातें ..चाँदनी रातें .. 

पर इस गीत को सबसे पहले मैंने शमसा कँवल की आवाज़ में सुना था जो आज के युवाओं मे भी ख़ासा लोकप्रिय है। ये गीत पार्टनर्स इन राइम का हिस्सा था जहाँ इसके संगीत को पुनः संयोजित किया था हरदीप और प्रेम की जोड़ी ने। शमसा कँवल ने भी इस गीत को उतनी ही खूबसरती से गाया है। फ़र्क सिर्फ इतना है कि संगीत संयोजन थोड़ा लाउड होने की वज़ह से कभी उनकी आवाज, पार्श्व संगीत में दब सी जाती है। तो आइए सुनें समसा कँवल की आवाज़ में ये नग्मा
 

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इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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