मैंने इस अवसर पर उनकी कविता 'हिमालय' का पाठ किया। ये कविता मेरी नवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक में थी। मुझे याद है कि स्कूल में जब भी इस कविता को दोहराते थे, कविता का अंत आते-आते धमनियों में रक्त प्रवाह की तीव्रता अपने चरम पर पहुँच जाती थी।
आज जब इस कविता को दोबारा पढ़ता हूँ तो लगता है फिर इस सोए हुए देश को तंद्रा से उठाने की जरूरत है। बाहरी शक्तियों की बात करें तो कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक जगह जगह दुश्मन हमारे इस प्रहरी कौ अपने पैरो तले रौंदकर इसका अपमान करते फिर रहे हैं । तो वहीं दूसरी ओर इससे जन्मी नदियाँ जो उत्तर के मैदानों को सिंचित और उर्वर बनाती थीं आज अपने प्रलय से जनमानस को लील रही हैं फिर भी ये यती चुप है,शांत है...
चाहे वो जम्मू में जनता का महिनों से उबलता आक्रोश हो, या उड़ीसा की कानूनविहीनता, या फिर तेरह दिनों से कोशी में आई प्रलयकारी बाढ़ में आम जनता के रोते बिलखते चेहरे.... भारत में राजनैतिक और प्रशासनिक अकर्मण्यता का जो दृश्य दिखाई दे रहा है वो वास्तव में बेहद भयावह है। इस दृष्टि से दिनकर की ये पंक्तियाँ और भी प्रासंगिक हो गई हैं।
उस पुण्यभूमि पर आज तपी !
रे आन पड़ा संकट कराल
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डँस रहे चतुर्दिक विविध व्याल
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
आइए पढ़ें राष्ट्र कवि दिनकर की ये कविता ...और शपथ लें कि देश के एक सुधी नागरिक की हैसियत से हम इन अकर्मण्य नेताओं और प्रशासकों पर एकजुट होकर दबाव बनाएँ ताकि वे अपने कर्तव्यों से विमुख ना हों और साथ ही सहयोग दें उनके प्रयासों को सफल बनाने में..
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
साकार दिव्य गौरव विराट,
पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम करीट !
मेरे भारत के दिव्य भाल !
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
युग युग अजेय, निर्बन्ध मुक्त
युग युग गर्वोन्नत, नित महान
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान
कैसी अखंड ये चिर समाधि ?
यतिवर! कैसा ये अमर ध्यान ?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान ?
उलझन का कैसा विषमजाल
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
औ मौन तपस्या लीन यती
पल भर को तो कर दृगन्मेष
रे ज्वालाओं से दग्ध विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश
सुखसिंधु , पंचनंद, ब्रह्मपुत्र
गंगा यमुना की अमिय धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त
सीमापति ! तू ने की पुकार
'पद दलित इसे करना पीछे
पहले मेरा सिर ले उतार।'
उस पुण्यभूमि पर आज तपी !
रे आन पड़ा संकट कराल
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डँस रहे चतुर्दिक विविध व्याल
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
कितनी मणियाँ लुट गईं ? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान मग्न ही रहा; इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश ।
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी शान कहाँ ?
ओ री उदास गण्डकी ! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ ?
तू तरुण देश से पूछ अरे
गूँजा कैसा यह ध्वंस राग
अम्बुधि अन्तस्तल बीच छुपी
यह सुलग रही है कौन आग ?
प्राची के प्रांगण बीच देख
जल रहा स्वर्ण युग अग्निज्वाल
तू सिंहनाद कर जाग तपी
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
रे रोक, युधिष्ठिर को ना यहाँ
जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फेर हमें गांडीव गदा
लौटा दे अर्जुन भीम वीर
कह दे शंकर से आज करें
वे प्रलय नृत्य फिर एक बार
सारे भारत में गूँज उठे
'हर हर बम' का फिर महोच्चार
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