रविवार, अगस्त 31, 2008

तू तरुण देश से पूछ अरे गूँजा कैसा यह ध्वंस राग ? : हिमालय - रामधारी सिंह ' दिनकर '

पिछले हफ़्ते हमारे दफ़्तर में रामधारी सिंह 'दिनकर' के जन्मशताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में उनकी कविताओं का पाठ करने के लिए एक संध्या चुनी गई थी। दिनकर राष्टकवि तो थे ही, हमारी पीढ़ी को उन्होंने किशोरावस्था में अपनी ओजपूर्ण कविताओं से कलम की ताकत का अंदाजा करवाया। और यही कारण था कि उस शाम, हॉल को भरने में ज्यादा वक़्त नहीं लगा। हम सबके सामने, हमारे एक साहित्यानुरागी सहयोगी ने दिनकर के काव्य जीवन का एक बेहद संवेदनशील जीवन वृत खींचा।


मैंने इस अवसर पर उनकी कविता 'हिमालय' का पाठ किया। ये कविता मेरी नवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक में थी। मुझे याद है कि स्कूल में जब भी इस कविता को दोहराते थे, कविता का अंत आते-आते धमनियों में रक्त प्रवाह की तीव्रता अपने चरम पर पहुँच जाती थी।

आज जब इस कविता को दोबारा पढ़ता हूँ तो लगता है फिर इस सोए हुए देश को तंद्रा से उठाने की जरूरत है। बाहरी शक्तियों की बात करें तो कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक जगह जगह दुश्मन हमारे इस प्रहरी कौ अपने पैरो तले रौंदकर इसका अपमान करते फिर रहे हैं । तो वहीं दूसरी ओर इससे जन्मी नदियाँ जो उत्तर के मैदानों को सिंचित और उर्वर बनाती थीं आज अपने प्रलय से जनमानस को लील रही हैं फिर भी ये यती चुप है,शांत है...

चाहे वो जम्मू में जनता का महिनों से उबलता आक्रोश हो, या उड़ीसा की कानूनविहीनता, या फिर तेरह दिनों से कोशी में आई प्रलयकारी बाढ़ में आम जनता के रोते बिलखते चेहरे.... भारत में राजनैतिक और प्रशासनिक अकर्मण्यता का जो दृश्य दिखाई दे रहा है वो वास्तव में बेहद भयावह है। इस दृष्टि से दिनकर की ये पंक्तियाँ और भी प्रासंगिक हो गई हैं।

उस पुण्यभूमि पर आज तपी !
रे आन पड़ा संकट कराल
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डँस रहे चतुर्दिक विविध व्याल
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !


आइए पढ़ें राष्ट्र कवि दिनकर की ये कविता ...और शपथ लें कि देश के एक सुधी नागरिक की हैसियत से हम इन अकर्मण्य नेताओं और प्रशासकों पर एकजुट होकर दबाव बनाएँ ताकि वे अपने कर्तव्यों से विमुख ना हों और साथ ही सहयोग दें उनके प्रयासों को सफल बनाने में..

मेरे नगपति ! मेरे विशाल !

साकार दिव्य गौरव विराट,
पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम करीट !
मेरे भारत के दिव्य भाल !
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !

युग युग अजेय, निर्बन्ध मुक्त
युग युग गर्वोन्नत, नित महान
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान
कैसी अखंड ये चिर समाधि ?
यतिवर! कैसा ये अमर ध्यान ?

तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान ?
उलझन का कैसा विषमजाल
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !

औ मौन तपस्या लीन यती
पल भर को तो कर दृगन्मेष
रे ज्वालाओं से दग्ध विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश

सुखसिंधु , पंचनंद, ब्रह्मपुत्र
गंगा यमुना की अमिय धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार

जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त
सीमापति ! तू ने की पुकार
'पद दलित इसे करना पीछे
पहले मेरा सिर ले उतार।'


उस पुण्यभूमि पर आज तपी !
रे आन पड़ा संकट कराल
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डँस रहे चतुर्दिक विविध व्याल
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !



कितनी मणियाँ लुट गईं ? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान मग्न ही रहा; इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश ।


वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी शान कहाँ ?
ओ री उदास गण्डकी ! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ ?


तू तरुण देश से पूछ अरे
गूँजा कैसा यह ध्वंस राग
अम्बुधि अन्तस्तल बीच छुपी
यह सुलग रही है कौन आग ?

प्राची के प्रांगण बीच देख
जल रहा स्वर्ण युग अग्निज्वाल
तू सिंहनाद कर जाग तपी
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !

रे रोक, युधिष्ठिर को ना यहाँ
जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फेर हमें गांडीव गदा
लौटा दे अर्जुन भीम वीर


कह दे शंकर से आज करें
वे प्रलय नृत्य फिर एक बार
सारे भारत में गूँज उठे
'हर हर बम' का फिर महोच्चार


अगर दिनकर की कविताएँ आपको भी उद्वेलित करती हैं तो इन्हें भी आप पढ़ना पसंद करेंगे

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16 टिप्पणियाँ:

रंजू भाटिया on अगस्त 31, 2008 ने कहा…

रामधारी सिंह दिनकर मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं ..उनके बारे में कई लेख भी लिखे हैं .उनके काव्य में जो जोश है वह तारीफे काबिल है ..अमिश जी आपका यह लेख आज उनके संदर्भ में पढ़ना अच्छा लगा ..

पारुल "पुखराज" on अगस्त 31, 2008 ने कहा…

aabhaar....

Abhishek Ojha on सितंबर 01, 2008 ने कहा…

इंटरमिडीएट के बाद शायद आज ही पढ़ रहा हूँ दिनकर की कोई कविता... ये कविता मैंने भी स्कूल में ही पढ़ी थी. एक और बहुत अच्छी कविता थी... कविता का शीर्षक याद नहीं... ये लाइन याद है, ऐसी कुछ थी: और उडाये हैं जो कपोत इसने उनके भीतर भरी हुई बारूद है !
बहुत अच्छी प्रस्तुति !

डॉ .अनुराग on सितंबर 01, 2008 ने कहा…

शुक्रिया मनीष "राष्ट कवि "की कविता बांटने के लिये ..........

बेनामी ने कहा…

आदरणीय पाठकगण रामधारी सिंह दिनकर जी की यह कविता मुझे बेहद पसंद है, ओर इन दिनों मैं हिन्दी में टाइपिंग सिख रहा हूँ तो सोचा क्यों न इसे ही नेट पर सर्वसुलभ बनाया जाये॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ रजनीश


शान्तिवादी

पुत्र मृत्यु के लिए, पिता रोने को,
माँ धुनने को सीस, वत्स आँसू पीने को,
लुटने को सिन्दूर,
उत्तराऍं विधवा होने को ।

सरहद के उस पार हो कि इस पार हो,
युद्ध सोचता नहीं, कौन किसका द्रोही है ।
उसका केवल ध्येय, ध्वंस हो मानवता का,
मनुज जहाँ भी हो, यम का आहार हो ।

माताओं को शोक, युवतियों को विषाद है;
बेकसूर बच्चे अनाथ होकर रोते हैं ।
शान्तिवादियों यही तुम्हारा शान्तिवाद है ?

अब मत लेना नाम शान्ति का,
जिह्वा जल जायेगी,
ले-देकर जो एक शब्द है बचा, उसे भी,
तुम बकते यदि रहे,
धरित्री समझ नहीं पायेगी ।

शान्तिवाद का यह नवीन सारथी तुम्हारा
नहीं शान्ति का सखा,
हलाकू है, नीरो, नमरूद है ।
और उड़ाए हैं इसने उज्जवल कपोत जो,
उनके भीतर भरी हुई बारुद है ।


रामधारी सिंह दिनकर

Dawn on सितंबर 02, 2008 ने कहा…

Wah! Manish....bahut shukriya iss post ka! Mere andar ek veer ras bhar jaata hai jab mein Dinkar ji ki koi bhi kriti padhti hoon!

Waqai oonki jo pic lagayee hai...oos mein bhi woh veer ras ki zhalak deekhti hai.

Shukriya! mere bachpan ke din yaad dilaane ka
Cheers

Smart Indian on सितंबर 02, 2008 ने कहा…

बहुत सुंदर. दिनकर जी हिन्दी और भारत के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से हैं. यादें ताज़ा करने का शुक्रिया!

Ashok Pandey on सितंबर 02, 2008 ने कहा…

राष्‍ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर व उनकी कविताओं का स्‍मरण कराने के लिए आभार।

योगेन्द्र मौदगिल on सितंबर 03, 2008 ने कहा…

दिनकर जी की इस कविता की प्रस्तुति के लिये आप साधुवाद के पात्र हैं
आपको बधाई

कंचन सिंह चौहान on सितंबर 03, 2008 ने कहा…

दिनकर जी मेरे बहुत ही प्रिय कवि रहे हैं..यह कविता हमारी इण्टरमीडिएट के पाठ्यक्रम का अंग थी।
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी शान कहाँ ?

रे रोक, युधिष्ठिर को ना यहाँ
जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फेर हमें गांडीव गदा
लौटा दे अर्जुन भीम वीर

कह दे शंकर से आज करें
वे प्रलय नृत्य फिर एक बार
सारे भारत में गूँज उठे
'हर हर बम' का फिर महोच्चार

मेरी प्रिय पंक्तियाँ हैं, लेकिन इसके साथ ही कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं

तू पूँछ अवध से राम कहाँ?
वृंदा बोलो घनश्याम कहाँ?
रे मगध कहाँ तेरे अशोक?
वह चंद्रगुप्त बलधाम कहाँ?

pallavi trivedi on सितंबर 03, 2008 ने कहा…

इस कविता को यहाँ पढ़वाने के लिए धन्यवाद....

Dimple on सितंबर 03, 2008 ने कहा…

waah manishjii..bahut hi undha kavita thee..:)

OnTheMove on सितंबर 26, 2008 ने कहा…

thnks a lot boss...
I was looking for this poem since a long time..It was my fav poem from the secondary school...
Dinkar's words are so true in the present context...

Unknown on नवंबर 26, 2008 ने कहा…

ye jo kavita aapne upload ki hai ye puri nahi hai...........
vaishali ke bhagnavshesh se pehle kuch lines missing hai........

pankaj ने कहा…

thanks for posting this marvellous poem of my favourite poet!!!
colonel pankaj

SHAURYA ने कहा…

WHAT A GOOD POEM .

 

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