पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह रुड़की से दिल्ली जा रही बस में एक युवती की आवाज एक दम से मर्दाना हो गयी और उसके मुँह से चीखें और फिर रुदन का भारी स्वर गूँज उठा.... अब आगे पढ़ें
तीन चार हट्टे कट्टे पुरुषों को उस युवती को सँभालने में सात-आठ मिनट का समय लगा। फिर अचानक से उसका तेवर बदला जैसे कि वो लंबी तंद्रा से जागी हो। वो उसकी बाहों को पकड़े पुरुषों को धकियाती सी बोली ...
"छोड़िए इस तरह हाथ क्यूँ पकड़ रखा है? "
लोग बाग हतप्रध से रह गए और समझ गए कि वो जो कुछ भी था उसका असर जाता रहा है। पर पूरे घटनाक्रम से जितने सहयात्री हक्के बक्के थे, उसका लेशमात्र भी वो अधेड़ शख्स नहीं था जो उसकी बगल में बैठा था।
पूछने पर पता चला कि वो गाँव के किसी स्कूल का मास्टर था और अपने युवा बेटे, जिसकी असमय मृत्यु हो गई थी, का पिंडदान करके हरिद्वार से लौट रहा था। बगल में बैठी युवती उसकी बहू थी जिसकी शादी हुए डेढ वर्ष ही बीता था। ये मृत्यु कैसे हुई ये हम जान नहीं पाए इसलिए किसी साजिश वाली बात का सत्य उद्घाटित नहीं हो पाया।
मेरा मित्र अगले एक घंटे तक उस युवती की आवाज़ पर कान लगाए रहा। बाद में उसने कहा कि उस स्त्री की वास्तविक आवाज़ भी थोड़ी भारी सी थी। अपने दो घंटों के आकलन के बाद उसका मत था कि शायद नवविवाहिता के मन में भय समा गया होगा कि अब उसकी गुजर बसर कैसे होगी? वापस अपने घरवाले तो बुलाएँगे नहीं और ऍसी हालत में कहीं ससुराल वाले उसे निकाल ना दें, इसलिए वो ये स्वांग भर कर अपने ससुर के मन में भयारोपण कर रही हो।
मैं पूरी तरह नहीं कह सकता कि मेरे दोस्त की थ्योरी सत्य थी या नहीं पर जैसी सामाजिक स्थिति राजस्थान और हरियाणा के पिछड़े इलाकों की महिलाओं की है, उसके हिसाब से ऐसे तर्क को एकदम से ख़ारिज़ भी नही किया जा सकता। पर चाहे कुछ भी हो उस आठ मिनटों में एकबारगी मेरा भी इन प्रेतात्माओं के प्रति मेरा अविश्वास हिल सा गया। बहुत देर तक चाह कर भी मैं उस भयावह आवाज़ के दायरे से अपने मन को बाहर ना ला सका । अचानक कंडक्टर की आवाज़ सुनकर मेरा ध्यान बँटा। देखा मेरठ आ गया था।
कंडक्टर ठेठ लहजे में चिल्ला रहा था
जिसको जे करना है कल्ले अब सीधे बस ISBT (Inter State Bus Terminal) पे ही रुकोगी।
अब किसने कितना सुना ये तो पता नहीं पर मेरठ से निकलने के बीस मिनट बाद ही एक यात्री ने लघुशंका निवारण हेतु बस रुकवा दी। बस फिर आगे बढ़ी। दिल्ली अभी २० किमी दूर थी जब एक पगड़ी लगाए वृद्ध सज्जन ने कंडक्टर से फिर बस रुकवाने की विनती की। इस बार कंडक्टर अड़ गया । महाशय ने कहा मामला गंभीर है पर कंडक्टर ने एक ना सुनी। अपनी स्तिथि से हताश वो सज्जन ठीक गेट के सामने वाली सीढ़ी पर बैठ गए।
अब तक हम गाजियाबाद बाद पार कर शाहदरा के इलाके में आ गए थे। वो व्यक्ति हर पाँच मिनट पर कंडक्टर से बस रुकवाने की मिन्नत करता पर कोई असर ना चालक पर था ना परिचालक पर। पीछे से कुछ सहयात्री भी कहने लगे थे "थोड़ा सब्र करले ताउ"
हमें ISBT के ठीक पहले 'आश्रम' जाने वाली 'मुद्रिका' पकड़नी थी। हम पहले उतरने के लिए उन सज्जन के ठीक पीछे आ कर खड़े हुए। ISBT की ओर मुड़ने के ठीक फ्लाईओवर पर जैसे ही बस धीमी हुई, मेरा मित्र उन सज्जन के ठीक बगल से लंबी कूद मारता नीचे भागा। मैंने बस के और धीमे होने का इंतजार किया फिर बाहर की ओर कूदा जैसे ही पहला पैर सड़क पर पड़ा ठीक पीछे से दो धमाके सुनाई दिए। ये धमाके कैसे थे ये तो आप समझ ही गए होंगे।
वस्तुस्थिति समझते ही मैंने दूसरे पैर को जितनी आगे लाया जा सकता था, लाया और धमाकों के अवशेषों से बमुश्किल अपने आप को बचा पाया।
मेरा मित्र सड़क के किनारे खड़ा हँस रहा था। शायद उसे ऐसी घटना की प्रत्याशा थी।
और मैं भगवान को धन्यवाद दे रहा था कि एक सेकेंड की देरी से जो फज़ीहत मेरी हो सकती थी वो नहीं हुई।
आज जबकि इस घटना को बारह साल बीत चुके हैं उस यात्रा को याद कर रुह भी काँपती है और उसके समापन के घटनाक्रम पर हँसी भी आती है।
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7 माह पहले
9 टिप्पणियाँ:
क्या कहें.. बस मुस्कुराये जाते हैं.. :)
:) भूत कथा है अनंत :)
हमने तो आज ही दोनों पोस्ट पढ़ी । :)
kuchh bhi ho mujhe to apne blog ke liye ek post ka masaala mil gaya.
..ये कंडक्टर लोग दूसरे का दर्द नही समझते है.....!
:-)
मैं तो सोच रहा था कि कोई भूतहा समापन होगा, पर हैप्पी और विस्फोटक समापन के लिए आपको बधाई।
हा हा...बड़ी धमाके दार पोस्ट रही ये तो!
ye anubhaw hi to kisi bhi yatra ko yadgaar bana dete hai...is tarah ki baate yatra karte samay bahut pareshaan karti hai per yatra ke baad yahi sab bate yatrao ko yaadgaar bhi bana deti hai...
majedar anubhaw aur vritant bhi...
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