बुधवार, दिसंबर 31, 2008

वार्षिक संगीतमाला 2008 :पायदान संख्या 25 - पप्पू नाच नहीं सकता..Pappu Can't Dance Sala

२००८ खत्म होने की कगार पर है और साल को विदा करते समय वक़्त आ गया है वार्षिक संगीतमाला २००८ की उलटी गिनती शुरु करने का। संगीतमाला की २५ वीं पायदान यानि २५ वें नंबर पर गाना वो जिसका आरंभिक संगीत बजते ही बच्चे, बूढ़े और जवान एक साथ थिरकने लगते है्। ये गीत इस साल इतनी बार पार्टियों में बजा कि आप शायद सुन कर थोड़े बोर हो गए होंगे।


जी हाँ मैं उसी पप्पू की बात कर रहा हूँ जिसके पास वो सारी खूबियाँ हैं जिन्हें आज की पीढ़ी बेहद महत्त्व देती है पर जिसे कमबख्त नाचना ही नहीं आता। खैर नाचना तो मुझे भी नहीं आता पर अनुपमा देशपांडे, बेनी दयाल, सतीश सुब्रमनियम, तन्वी, दर्शना और असलम के सम्मिलित स्वर में गाए इस गीत ने कई बार मुझे बच्चों के साथ मुझे भी झूमने पर विवश किया है। जाने तू या जाने ना फिल्म के इस गीत को ए.आर रहमानऔरअब्बास टॉयरवाला अपने संगीत और गीत बदौलत साल का सबसे मस्ती भरा गीत बनाने में सफल रहे हैं।

इस गीत में 'साला'शब्द के प्रयोग पर बहस हो सकती है। अब्बास और रहमान साला की जगह 'बाबा' शब्द का प्रयोग कर सकते थे पर शायद गाने को एक मसालेद्वार स्वाद देने के लिए उन्होंने 'साला'शब्द चुना। वैसे छोड़िए इन बातों को, फिलहाल तो पिछले साल को खुशी खुशी अलविदा करना है इसलिए एक बार पप्पू के साथ और थिरक लें तो तैयार हैं ना आप....


और अगर तेज बैंडविड्थ आपके पास हो तो ये रहा यू ट्यूब पर इस फिल्म का वीडिओ



३१ दिसंबर की इस रात को मैं एक शाम मेरे नाम के तमाम पाठकों और अपने साथी चिट्ठाकारों को नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ। आशा है आप सब नए साल में भी इस चिट्ठे के साथी बने रहेंगे..........

मंगलवार, दिसंबर 23, 2008

तीन भूलें जिंदगी की (the 3 mistakes of my life) : चेतन भगत

जिंदगी में भूलें तो हम सभी करते है पर इन भूलों के बारे में कितनों से चर्चा की होगी आपने ? शायद अपने नजदीकियों से ! अब ये आइडिया तो कभी आपके मन में नहीं ही आया होगा कि अपनी गलतियों से तंग आकर आप आत्महत्या करने की सोचें और उसे कार्यान्वित करने से पहले एक बहुचर्चित उपन्यासकार के ई मेल कर दें। खैर मैं जानता हूँ इतना धाँसू आइडिया आपके मन में कभी नहीं आया, क्योंकि अगर ऍसा होता तो आप अपना वक़्त मेरी इस पोस्ट को पढ़ने में बर्बाद नहीं कर रहे होते। :)

अब देखिए अहमदाबाद के गोविंद पटेल ने यही किया और चेतन भगत की तीसरी किताब 'The 3 Mistakes of My Life' के नायक बन बैठे। गोविंद भाग्यशाली रहे कि वो बच गए और अपनी कहानी चेतन को सुना पाए। और परसों ही टीवी पर एक प्रोमो दिखा जिसमें हीरो कहता है कि मैं गोविंद हूँ तो तुरत समझ आ गया कि अब 'Hello' की तरह इस किताब पर भी फिल्म बनने जा रही है।

चेतन भगत की ये कहानी अहमदाबाद की है और गुजरात की तात्कालिक घटनाओं भूकंप, दंगों और भारत आस्ट्रेलिया क्रिकेट श्रृंखला आदि के बीच बनती पनपती है। पूरी कहानी उन तीन निम्न मध्यमवर्गीय दोस्तों के इर्द गिर्द घूमती है जिनकी रुचियाँ अलग अलग विषयों (धर्म, क्रिकेट और व्यापार) से जुड़ी हुई हैं। मैंने इससे पहले उनकी Five Point Someone और One Night at Call Centre पढ़ी थी और Five Point Someone को तो पढ़ने में बहुत मजा आया था। अगर किसी उपन्यासकार की पहली किताब बहुत पसंद की जाए तो वो एक मापदंड सी बन जाती है और अक्सर उसकी तुलना बाद की किताबों से होने लगती है।

और इस हिसाब से २५७ पृष्ठों की ये किताब मुझे उतनी पसंद नहीं आती। हालांकि चेतन की लेखन शैली हमेशा की तरह रोचक है। उनके चरित्रों से आम आदमी भी जल्द ही जुड़ा महसूस करता है। युवाओं के दिल में उठ रही बातों को बेबाकी से लिखने में चेतन माहिर हैं। उन्होंने गुजरातियों के व्यापार में Never Say Die वाली निष्ठा के साथ एक आम व्यापारी की सोच को भी टटोलने का काम किया है।

पर किताब से गुजरने के बाद आपको ये नहीं लगता कि आपने कुछ विशिष्ट पढ़ा। पूरी किताब एक व्यवसायिक हिंदी फिल्म की पटकथा ज्यादा नज़र आती है जिसमें राजनीति, धर्म, हिंसा, प्रेम, क्रिकेट का उचित अनुपातों में समावेश है और यही कारण है कि फिल्मवालों ने इस कहानी को जल्द ही झटक लिया।

अंततः यही कहना चाहूँगा कि अगर आपके पास कुछ और करने को ना हो तो ये किताब पढ़ सकते हैं जैसा मैंने अस्पताल में अपनी ड्यूटी निभाते वक्त किया और अगर किताब से ज्यादा फिल्मो का शौक रखते हों तो इस पर आधारित फिल्म देख लें ..

शुक्रवार, दिसंबर 19, 2008

बात अधूरे उदास चाँद की...हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद

बिछड़ के मुझसे कभी तू ने ये भी सोचा है
अधूरा चाँद भी कितना उदास लगता है


जिंदगी में कमोबेश आप सब ने एक बात तो अवश्य महसूस की होगी । वो ये, कि हम बड़ी सहजता से हर उस इंसान से जुड़ जाते हैं जो अपने जैसे हालातों से गुजर रहा हो ! और जब अपनी बॉलकोनी से तनहा चाँद को देख ते हैं तो अपनी जिंदगी की तनहाई मानो चाँद रूपी शीशे में रह-रह कर उभरने लगती है । इसीलिए तो कहा है किसी ने

चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले
कितने गम थे जो तेरे गम के बहाने निकले


अब चाँद की त्रासदी देखिये, जो सूरज अपने प्रकाश से चाँद को सुशोभित करता है, हमारा ये चाँद उसे छू भी नहीं पाता.....
अपनी इस विरह-वेदना को दिल में जब्त किये चलता जाता है..चलता जाता है...
बिना रुके, बिना थके...
और चाँद का यही एकाकीपन हमें बरबस अपनी ओर खींचता है, आकर्षित करता है...


इसीलिए तो...
कभी जब हम रोजमर्रा की जिंदगी से उब से गए हों...
जब जी बिलकुल कुछ करने को नहीं करता...
नींद भी आखों से कोसों दूर रहती है...
ऐसे में अनमने से , चुपचाप इक बंद कमरे में बैठे हों...
और सामने ये चाँद दिख जाए तो...
तो वो भी अनगिनत तारों के बीच अपने जैसा अकेला प्रतीत होता है !
दिल करता है घंटों उसके सामने बैठे रहें ...
उसे निहारते रहें... उससे बातें करते रहें

कुछ उसी तरह जैसे नूरजहाँ अपने गाए इस मशहूर नग्मे में कर रही हैं

चाँदनी रातें, चाँदनी रातें..
सब जग सोए हम जागें
तारों से करें बातें..
चाँदनी रातें, चाँदनी रातें..


और ऐतबार साजिद साहब घर की राह पर निकले तो थे पर चाँद देखा तो ख्याल बदल लिया, उतर लिये राह ए सफर में ये कहते हुए

वहाँ घर में कौन है मुन्तजिर कि हो फिक्र दर सवार की
बड़ी मुख्तसर सी ये रात है, इसे चाँदनी में गुजार दो


कोई बात करनी है चाँद से, किसी शाखसार की ओट में
मुझे रास्ते में यहीं कहीं, किसी कुंज -ए -गुल में उतार दो


जिस तरह चाँदनी समंदर की लहरों को अपनी ओर खींच लेती है उसी तरह वो हमारी खट्टी- मीठी यादों को भी बाहर ले आती है, चंद शेरों की बानगी लें !

तेरी आखों में किसी याद की लौ चमकी है
चाँद निकले तो समंदर पे जमाल आता है


आप की याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर


चाँद के इतने रूपों की मैंने बातें कीं । पूर्णिमा से अमावस्या तक ना जाने ये कितनी ही शक्लें बनाता है और अपने मूड, अपनी कैफियत के हिसाब से हम इसकी भाव-भंगिमाओं को महसूस करते हैं ।

इससे पहले कि इस कड़ी को समाप्त करूँ, उस गजल से आपको जरूर रूबरू कराना चाहूँगा जिसे सुनते और गुनगुनाते ही चाँद मेरे दिल के बेहद करीब आ जाता है । अगर आपने डॉ. राही मासूम रजा की लिखी और जगजीत सिंह की गाई ये भावभीनी गजल ना सुनी हो तो जरूर सुनिएगा । एक प्राकृतिक बिम्ब चाँद की सहायता से परदेस में रहने की व्यथा को रज़ा साहब ने इतनी सहजता से व्यक्त किया है कि आँखें बरबस नम हुए बिना नहीं रह पातीं।

ये परदेस हम सब के लिए कुछ भी हो सकता है...

स्कूल या कॉलेज से निकलने के बाद घर मे ममतामयी माँ के स्नेह से वंचित होकर एक नए शहर की जिंदगी में प्रवेश करने वाला नवयुवक या नवयुवती हो...

या परिवार से दूर रहकर विषम परिस्थितियों में सरहदों की रक्षा करने वाला जवान ...

या रोटी की तालाश में बेहतर जिंदगी की उम्मीद में देश की सरजमीं से दूर जा निकला अप्रवासी...

सभी को अपने वतन, अपनी मिट्टी की याद रह-रह कर तो सताती ही है।


तो चलते चलते चाँद से जुड़ी अपनी इस बेहद प्रिय ग़ज़ल को गुनगुनाकर आप तक पहुंचाना चाहूँगा...




हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चाँद

जिन आँखों में काजल बनकर तैरी काली रात
उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चाँद

रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम पे जाकर अटका होगा चाँद

चाँद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद

हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद...


आशा है ये श्रृंखला आपको पसंद आई होगी। अपने विचारों से अवगत कराते रहिएगा।

....समाप्त

इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ

सोमवार, दिसंबर 15, 2008

चाँद और चाँदनी : मैं हूँ तेरा खयाल है और चाँद रात है...


चाँद को देख के किसी के मन में क्या ख्याल आता है ये तो निर्भर करता है उस शख्स के मानसिक हालातों पर अब यही देखिये ना पंडित विनोद शर्मा की लिखी हुई ये पंक्तियाँ चाँदनी रात की रूमानियत का जादू सा जगा देती हैं मन में

एक नीली झील सा फैला अचल
आज ये आकाश है कितना सजल
चाँद जैसे रूप का उभरा कँवल
रात भर इस रूप का जादू जगाओ
प्राण तुम क्यूँ मौन हो कुछ गुनगुनाओ


सच ही तो हे कि जब दिल में प्यार का बीज अंकुरित हो जाए तो इस चाँद में ही हमें अपने प्रियतम की छवि नजर आने लगती है ।और अगर ना भी नजर आए तो उनसे निगाहें मिलाने की एक तरकीब है हमारे पास :)

मैं चाँद देखता हूँ
चाँद उन को देखता है
गर वो भी चाँद देखें
मिल जाए दो निगाहें


क्या कहा नहीं पसंद आया ये तरीका! हम्म.. चलिए कोई बात नहीं मेरी बात न सही तो कम से कम युवा शायर वासी शाह की बात तो आप जरूर मानेंगे । अपने महबूब से जुड़ी यादों को संजोए रखा था इन्होंने पर जब ये चाँद सामने आया तो दिल में छुपे हर गिले शिकवे की परत दर परत खुलती चली गई। और क्यूँ ना खुले भाई ? आखिर ये चाँद ही तो अपनी प्रेयसी के साथ बिताये हुए उन यादगार लमहों का राजदार है

मैं हूँ तेरा खयाल है और चाँद रात है
दिल दर्द से निढाल है और चाँद रात है

आखों में चुभ गयीं तेरे यादों की किरचियाँ*
कान्धों पर गम की शाल है और चाँद रात है
* छोटे टुकड़े

दिल तोड़ के खामोश नजारों को क्या मिला?
शबनम का ये सवाल है और चाँद रात है

फिर तितलियाँ सी उड़ने लगीं दश्त- ए- ख्वाब में
फिर ख्वाहिश- ए- विसाल* है और चाँद रात है

*मिलन

कैम्पस की नहर पर है तेरा हाथ, हाथ में
मौसम भी लाजवाल है और चाँद रात है

हर एक कली ने ओढ़ लिया मातमी लिबास
हर फूल पर मलाल है और चाँद रात है

मेरी तो पोर- पोर में खुशी सी बस गई
उस पर तेरा खयाल है और चाँद रात है

छलका सा पड़ रहा है वासी, वहशतों *का रंग
हर चीज पर जवाल** है और चाँद रात है

* डर, चिंता **उतार


पर ये भी गौर करने की बात है कि कभी तो हम अपनी बीती हुई यादों को चाँद के साथ बाँटते हैं तो चाँदनी रात की खूबसूरती में ही अपने महबूब का अक्स देखने लगते हैं जैसा कुछ साहिर साहब यहाँ देख रहे हैं

ये रात है या तुम्हारी जुल्फें खुली हुई हैं
है चाँदनी या तुम्हारी नजरों से मेरी रातें धुली हुई हैं
ये चाँद है या तुम्हारा कंगन
सितारे हैं या तुम्हारा आँचल.....

पर चाँद को लेकर सिर्फ प्यार मोहब्बत की बातें हों ऐसी भी बात नहीं, इसकी आड़ में उलाहने भी दिये जाते हैं । लता जी के गाए इस नग्मे की बानगी लें....नायिका को शिकायत है कि मुआ ये चाँद तो बिना कहे वक्त पर मिलने रोज चला आता है और एक तुम हो जो वादा कर के भी अपनी शक्ल नहीं दिखाते ।

चाँद फिर निकला
मगर तुम ना आए...
जला फिर मेरा दिल
करूँ क्या मैं हाए...


सच तो ये है कि जब चाँद अपने पूरे शबाब पर रहता है तो हमारे आँखे इसकी रंगत में कुछ इस क़दर घुल जाती हैं कि सपनों और वास्तविकता की लकीर ही धूमिल सी लगने लगती है इसीलिए तो किसी शायर ने कहा है

कहो वो चाँद कैसा था
फ़लक से जो उतर आया तुम्हारी आँख में बसने

कहा वो ख़्वाब जैसा था
नहीं ताबीर1 थी उसकी, उसे इक शब2 सुला आए


1.परिणाम, फल 2. रात्रि

आज के लिये तो बस इतना ही.. ! अगली बार बात करेंगे उस अधूरे उदास चाँद की......तब तक के लिये इजाजत !

अब तक इस श्रृंखला में

गुरुवार, दिसंबर 11, 2008

चाँद और चाँदनी : चाँदनी, रात के हाथों पे सवार उतरी है....

 
















अम्बर की इक पाक सुराही
बादल का इक जाम उठाकर
घूँट चाँदनी पी है हमने
बात कुफ्र की, की है हमने
अम्बर की इक पाक सुराही...


अमृता प्रीतम
 

तो दोस्तों मेरे चिट्ठे का ये हफ्ता चाँद और चाँदनी के नाम....
पर पहले इस आसान से सवाल का जवाब तो दे दें ! बताइए तो, चाँद से हम सबका पहला परिचय कब का है ?

शायद उन लोरियों से....जो बचपन में माँ हमें निद्रा देवी की गोद में जाने के पहले सुनाया करती थी ।

चंदा मामा दूर के
पूए पकायें भूर के
आप खायें थाली में
मुन्ने को दे प्याली में
 
तो बचपन के वो हमारे प्यारे से मामा कब जिंदगी की रहगुजर पर चलते चलते हमारे हमसफर बन जाएँगे भला ये कौन जानता था ? इसीलिए तो किसी शायर ने अर्ज किया है कि

ये चाँद भी क्या हसीं सितम ढाता है
बचपन में मामा और जवानी में सनम नजर आता है

क्या आपने कभी चाँद के साथ सफर किया है ?
मैंने तो कई बार किया है....
बस या ट्रेन की खिड़की से बाहर दूर क्षितिज में साथ साथ ही तो चलता रहा है वो
क्या ऐसे में कभी आपका मन नहीं हुआ कि काश ये चाँद धरती पर उतर आता!
ऐ चाँद खूबसूरत !
ऐ आसमां के तारे
तुम मेरे संग जमीं पर थोड़ी सी रात गुजारो
कुछ अपनी तुम कहो
कुछ लो मेरी खबर
हो जाए दोस्ती कट जाए ये सफर ...


और ये चाँद अगर नहीं भी उतरा तो क्या हर्ज है बकौल डा० शैल रस्तोगी
उगा जो चाँद
चुपके चुरा लाई
युवती झील।

और यहाँ देखिए हमारी सहयोगी चिट्ठाकार रचना बजाज को कैसे प्रेरित करता है चाँद
"हुई रात, अब चाँद फिर से है आया,
तभी मैने अपने मे, अपने को पाया!
उसी ने नये कल का सपना दिखाया,
उसी ने मुझे घट के बढना सिखाया!"


पर यही सफ़र अगर अधजगी रातों और भूखे पेट के साथ गुजरे तो सारा परिपेक्ष्य बदल सा जाता है


माँ ने जिस चाँद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने
रात भर रोटी नज़र आया है वो चाँद मुझे


चाँद की बात हो और उसकी चाँदनी की बात ना हो ऐसा कभी हो सकता है ! नहीं जी नहीं..हरगिज नहीं
जरा सोचिए तो ...
जब सूर्य देव अपना रौद्र रूप धारण कर लेते हैं ....
और अपनी किरणों के वार से हम सभी को झुलसा डालते हैं ....
तो शाम के साथ आई ये चाँदनी ही तो हमें अपनी मित्र सी दिखती है
जिसकी विशाल नर्म बाहों में सिर रखकर किसी अपने की याद बरबस ही आ जाती है

बिखरी हुई नर्म सी चाँदनी
लहरों के घर जा रही रोशनी
लमहा लमहा छू रही हैं सर्द हवायें
तनहा- तनहा लग रहे हैं अपने साये
याद आए कोई...


अरे ये क्या ! याद करते- करते चाँदनी के रथ से उतरती यादों की ये मीठी खुशबुएँ आखिर क्या कह उठीं?

चाँदनी रात के हाथों पे सवार उतरी है
कोई खुशबू मेरी दहलीज के पार उतरी है

इस में कुछ रंग भी हैं, ख्वाब भी, खुशबुएँ भी
झिलमिलाती हुई ख्वाहिश भी, आरजू भी
इसी खुशबू में कई दर्द भी, अफसाने भी
इसी खुशबू ने बनाए कई दीवाने भी
मेरे आँचल पे उम्मीदों की कतार उतरी है
कोई खुशबू मेरी दहलीज के पार उतरी है


चाँदनी रात में मधुर स्मृतियों का लुत्फ इन जनाब ने तो उठा लिया पर क़मर जलालवी साहब का क्या करें? सोचा था चाँदनी रात में उनसे कुछ गुफ्तगू कर लेंगे पर वो हैं कि आसमां पर चाँद देखा और घर को रुखसत हो लिये !

वो मेहमान रहे भी तो कब तक हमारे
हुई शमा गुल और टूटे सितारे
कमर इस कदर उन को जल्दी थी घर की
वो घर चल दिये चाँदनी ढलते-ढलते


कमर साहब की इन पंक्तियों के साथ फिलहाल मुझे इजाजत दीजिए । और हाँ चाँद के साथ का सफर तो बदस्तूर जारी रहेगा अगली किश्त में ...


(पूर्व में दिसंबर २००६ में प्रकाशित आलेख में कुछ बदलाव के साथ, चित्र इंटरनेट से)

रविवार, दिसंबर 07, 2008

मुंबई त्रासदी पर प्रसून जोशी की कविता : इस बार नहीं ...

प्रसून जोशी फिल्म जगत में एक उच्च कोटि के गीतकार का दर्जा रखते हैं। फिर मिलेंगे, रंग दे बसंती और फिर पिछले साल की बहुचर्चित फिल्म तारे जमीं पर के गीतों को उन्होंने ही लिखा था। इस प्रतिभाशाली गीतकार के पीछे छुपे संवेदनशील कवि को आप में से बहुतों ने शायद ना देखा हो। कुछ दिन पहले इस चिट्ठे पर आप सब के साथ उनकी एक कविता इंतज़ार आप सबके साथ बाँटी थी।

आज जबकि मुंबई में हाल की घटनाओं ने पूरे देश को ही झकझोर कर रख दिया है तो प्रसून इससे अछूते कैसे रहते ? तो आइए पढ़ें उनकी पीड़ा को व्यक्त करती ये कविता जिसके भावों को हम सब भारतवासी तहेदिल से महसूस कर रहे हैं..


इस बार नहीं

इस बार जब वह छोटी सी बच्ची
मेरे पास अपनी खरोंच लेकर आएगी
मैं उसे फू-फू करके नहीं बहलाऊँगा
पनपने दूँगा उसकी टीस को
इस बार नहीं

इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखूँगा
नहीं गाऊँगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूँगा
उतरने दूँगा गहरे
इस बार नहीं

इस बार मैं ना मरहम लगाऊँगा
ना ही उठाऊँगा रुई के फाहे
और ना ही कहूँगा कि तुम आंखे बंद कर लो,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूँ
देखने दूँगा सबको
हम सबको
खुले नंगे घाव
इस बार नहीं

इस बार जब उलझनें देखूँगा,
छटपटाहट देखूँगा
नहीं दौड़ूँगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं

इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊँगा औज़ार
नहीं करूँगा फिर से एक नई शुरुआत
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूँगा ज़िंदगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूँगा उसे कीचड़ में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पे
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार
की पान की पीक और खून का फ़र्क ही ख़त्म हो जाए

इस बार नहीं .....

इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फ़ैसले
और उसके बाद हौसले
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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