शुक्रवार, दिसंबर 19, 2008

बात अधूरे उदास चाँद की...हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद

बिछड़ के मुझसे कभी तू ने ये भी सोचा है
अधूरा चाँद भी कितना उदास लगता है


जिंदगी में कमोबेश आप सब ने एक बात तो अवश्य महसूस की होगी । वो ये, कि हम बड़ी सहजता से हर उस इंसान से जुड़ जाते हैं जो अपने जैसे हालातों से गुजर रहा हो ! और जब अपनी बॉलकोनी से तनहा चाँद को देख ते हैं तो अपनी जिंदगी की तनहाई मानो चाँद रूपी शीशे में रह-रह कर उभरने लगती है । इसीलिए तो कहा है किसी ने

चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले
कितने गम थे जो तेरे गम के बहाने निकले


अब चाँद की त्रासदी देखिये, जो सूरज अपने प्रकाश से चाँद को सुशोभित करता है, हमारा ये चाँद उसे छू भी नहीं पाता.....
अपनी इस विरह-वेदना को दिल में जब्त किये चलता जाता है..चलता जाता है...
बिना रुके, बिना थके...
और चाँद का यही एकाकीपन हमें बरबस अपनी ओर खींचता है, आकर्षित करता है...


इसीलिए तो...
कभी जब हम रोजमर्रा की जिंदगी से उब से गए हों...
जब जी बिलकुल कुछ करने को नहीं करता...
नींद भी आखों से कोसों दूर रहती है...
ऐसे में अनमने से , चुपचाप इक बंद कमरे में बैठे हों...
और सामने ये चाँद दिख जाए तो...
तो वो भी अनगिनत तारों के बीच अपने जैसा अकेला प्रतीत होता है !
दिल करता है घंटों उसके सामने बैठे रहें ...
उसे निहारते रहें... उससे बातें करते रहें

कुछ उसी तरह जैसे नूरजहाँ अपने गाए इस मशहूर नग्मे में कर रही हैं

चाँदनी रातें, चाँदनी रातें..
सब जग सोए हम जागें
तारों से करें बातें..
चाँदनी रातें, चाँदनी रातें..


और ऐतबार साजिद साहब घर की राह पर निकले तो थे पर चाँद देखा तो ख्याल बदल लिया, उतर लिये राह ए सफर में ये कहते हुए

वहाँ घर में कौन है मुन्तजिर कि हो फिक्र दर सवार की
बड़ी मुख्तसर सी ये रात है, इसे चाँदनी में गुजार दो


कोई बात करनी है चाँद से, किसी शाखसार की ओट में
मुझे रास्ते में यहीं कहीं, किसी कुंज -ए -गुल में उतार दो


जिस तरह चाँदनी समंदर की लहरों को अपनी ओर खींच लेती है उसी तरह वो हमारी खट्टी- मीठी यादों को भी बाहर ले आती है, चंद शेरों की बानगी लें !

तेरी आखों में किसी याद की लौ चमकी है
चाँद निकले तो समंदर पे जमाल आता है


आप की याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर


चाँद के इतने रूपों की मैंने बातें कीं । पूर्णिमा से अमावस्या तक ना जाने ये कितनी ही शक्लें बनाता है और अपने मूड, अपनी कैफियत के हिसाब से हम इसकी भाव-भंगिमाओं को महसूस करते हैं ।

इससे पहले कि इस कड़ी को समाप्त करूँ, उस गजल से आपको जरूर रूबरू कराना चाहूँगा जिसे सुनते और गुनगुनाते ही चाँद मेरे दिल के बेहद करीब आ जाता है । अगर आपने डॉ. राही मासूम रजा की लिखी और जगजीत सिंह की गाई ये भावभीनी गजल ना सुनी हो तो जरूर सुनिएगा । एक प्राकृतिक बिम्ब चाँद की सहायता से परदेस में रहने की व्यथा को रज़ा साहब ने इतनी सहजता से व्यक्त किया है कि आँखें बरबस नम हुए बिना नहीं रह पातीं।

ये परदेस हम सब के लिए कुछ भी हो सकता है...

स्कूल या कॉलेज से निकलने के बाद घर मे ममतामयी माँ के स्नेह से वंचित होकर एक नए शहर की जिंदगी में प्रवेश करने वाला नवयुवक या नवयुवती हो...

या परिवार से दूर रहकर विषम परिस्थितियों में सरहदों की रक्षा करने वाला जवान ...

या रोटी की तालाश में बेहतर जिंदगी की उम्मीद में देश की सरजमीं से दूर जा निकला अप्रवासी...

सभी को अपने वतन, अपनी मिट्टी की याद रह-रह कर तो सताती ही है।


तो चलते चलते चाँद से जुड़ी अपनी इस बेहद प्रिय ग़ज़ल को गुनगुनाकर आप तक पहुंचाना चाहूँगा...




हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चाँद

जिन आँखों में काजल बनकर तैरी काली रात
उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चाँद

रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम पे जाकर अटका होगा चाँद

चाँद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद

हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद...


आशा है ये श्रृंखला आपको पसंद आई होगी। अपने विचारों से अवगत कराते रहिएगा।

....समाप्त

इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ

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13 टिप्पणियाँ:

रंजू भाटिया on दिसंबर 19, 2008 ने कहा…

चाँद पर चला यह सफर बहुत ही अच्छा लगा ..आपने जो गाने चुने वह कभी न भूलने वाले गाने हैं ...

kumar Dheeraj on दिसंबर 19, 2008 ने कहा…

आपने चांद की तुलना बहुत शानदार तरीके से किया है । लगता है चांद की खूबसूरती को आप बहुत बारीक से जानते है । जगजीत सिंह की गजल बहुत अच्छा लगा । मेरे ब्लांग पर भी आए

Yunus Khan on दिसंबर 19, 2008 ने कहा…

बहुत पसंद आई श्रृंखला ।
और सबसे ज्‍यादा पसंद है यही रचना ।
राही साहब वाली ।
तुम्‍हारी सक्रियता को सलाम है मनीष ।

डॉ .अनुराग on दिसंबर 19, 2008 ने कहा…

हाय अब न वो जगजीत वैसे जगजीत रहे जो हर ६ महीने में धांसू अल्बम लेकर आते थे ओर न वो मासूमियत हम में रही.....ये गजल ऐसे ही किसी होस्टल के कमरे में ले गई

siddheshwar singh on दिसंबर 19, 2008 ने कहा…

चाँद को क्या मालूम..
वैसे ही आपको शायद मालूम हो कि आप हम जैसों के वास्ते क्या ही उम्दा काम कर रहे हैं ..
चंदा रे ...

एस. बी. सिंह on दिसंबर 19, 2008 ने कहा…

बहुत बढिया भाई। चाँद के बहाने न जाने क्या क्या याद दिलाया आपने।

एक शेर याद आया-
कमर ज़रा भी नहीं तुमको खौफेरुसवायी
चले हो चाँदनी शब् में उन्हें मनाने को।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` on दिसंबर 20, 2008 ने कहा…

आप जितने भी गीत चुन चुन कर सुनवाते हैँ बेहद रोचक लगते हैँ
आपकी मेहनत को सलाम मनीष भाई ~~~
- लावण्या

नीरज गोस्वामी on दिसंबर 20, 2008 ने कहा…

आप के चाँद की चाँदनी में हम तो भरपूर नहा लिए...आप की ये चाँद श्रृंखला विलक्षण थी...ब्लॉग जगत में एक नया अनुभव...
नीरज

कंचन सिंह चौहान on दिसंबर 22, 2008 ने कहा…

चाँद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद
ye antara to yu.n hi likh diya.... is geet ka har antara dil par asar karta hai....!

safal series....congratulations

बेनामी ने कहा…

manishji, muze nahi pata tha ki aap itna acchcha gaate bhi hain,such me maza aa gaya. chand aur usse jude geeton,gazlon me sarabor karne ke liye dhanywad, ummid hai aage bhi aise shaamen hamare naam karte rahegen.

सुरभि on दिसंबर 28, 2008 ने कहा…

gazal bahut hi achchi gayi hai aur mujhe original se bhi behtar lagi aur dil ko choone wali

Dr. Alok Mishra, PhD on मार्च 28, 2010 ने कहा…

chand ke safar ke anubhav ka sunder vritant.

Manish Kumar on मार्च 28, 2010 ने कहा…

इस प्रयास को सराहने के लिए आप सभी पाठकों का आभार। आलोक भाई आप ब्लाग पर आए और अपने विचार दिए देखकर अच्छा लगा

 

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