बुधवार, अप्रैल 08, 2009

' मैं बोरिशाइल्‍ला ' : महुआ माजी का बाँग्लादेश स्वतंत्रता संग्राम पर लिखा पुरस्कृत उपन्यास

वैसे तो एक शाम मेरे नाम पर अब तक कई किताबों की चर्चा हुई है पर आज फर्क सिर्फ इतना है कि इस किताब को पढ़ने के पहले, इसकी लेखिका महुआ माजी को हिंदी दिवस समारोह में देखने सुनने का सौभाग्य मुझे मिला है। मैं बोरिशाइल्ला, राँची की लेखिका महुआ माजी का पहला उपन्यास है जो हमारे पड़ोसी देश, बाँग्लादेश के मुक्ति संग्राम की अमर गाथा कहता है।

समाजशास्त्र से स्नात्कोत्तर करने वाली महुआ माजी जी ने बाँग्लादेश को ही आखिर अपने उपन्यास का विषय क्यूँ चुना? दरअसल लेखिका का ददिहाल ढाका और ननिहाल बारिसाल (बोरिशाल) रहा। इसलिए बंग भूमि से बाहर रहती हुई भी उनके पुरखों की मातृभूमि और वहाँ से आए लोगों के बारे में उनकी सहज उत्सुकता बनी रही।

जैसा कि विषय से स्पष्ट है, इस तरह का उपन्यास लिखने के लिए गहन छान बीन और तथ्य संकलन की आवश्यकता है। महुआ ने जिस तरह इस पुस्तक में मुक्तिवाहिनी के कार्यकलापों का विवरण दिया है, उसमें उनके द्वारा रिसर्च में की गई मेहनत साफ झलकती है। अब अगर आप इस उहापोह में हों कि पुस्तक का शीर्षक मैं बोरिशाइल्ला क्यूँ है तो इसका सीधा सा जवाब है कि आंचलिक भाषा में बांग्लादेश के दक्षिणी हिस्से में अवस्थित इस सांस्कृतिक नगरी बोरिशाल बारिसाल के लोगों को बोरिशाइल्ला कहा जाता है और इस कहानी के नायक केष्टो घोष की कर्मभूमि भी बोरिशाल ही है इसीलिए वो कह सकता है 'मैं बोरिशाइल्‍ला'।

महुआ ने अपनी कथा केस्टो के माध्यम से रची है। केस्टो का बचपन बोरिशाल शहर में बीता और फिर जब उसके पिता की मिठाई की दुकान में आग लग गई तो उसे अपने भाई बहनों के साथ अपने पैतृक गाँव शोनारामपुर जाना पड़ा। केस्टो के बचपन की कहानी कहने में महुआ बंग भूमि का पूरा नज़ारा आपके सामने ला खड़ा करती हैं। गाछ भरा नारियल, पोखर भरी मछली, वोरोज भरा पान और गोला भरा धान जैसे दृश्य रह रह कर उभरते हैं। हर मौसम की अपनी निराली छटा को लेखिका ने अपनी कलम में बखूबी क़ैद किया है। ग्राम बाँग्ला में उतर आई शरद ॠतु के बारे में वो लिखती हैं
"......बरसात खत्म होने के साथ ही आकाश का रंग बदलने लगा। जेठ के मध्य से लगातार रोते रहने के बाद इस आश्विन में आकर आकाश मानों दिल खोलकर हँस पड़ा। स्वच्छ भारहीन बादलों के कुछ झुंड आकाश के हँसते नीले चेहरे पर सफेद दाँतों की तरह चमकने लगे। झूटकलि, मोहनचुड़ा, हरियाल, हल्दिमना, टूनि, बॉगाई जैसे तरह तरह के रंग बिरंगे पक्षी जो बारिश के कारण नज़र नहीं आते थे, झुंड के झुंड पंख पसार कर खुले आकाश में मँडराने लगे। खुले मैदान में जहाँ लम्बे लम्बे धान के पौधे नहीं थे, पानी के ऊपर दूर दिगंत तक मानों फूलों को साम्राज्य बिछा हुआ था। लाल लाल कुमुद फूलों का, जलकुम्भी के नीले नीले मनभावन फूलों का और बड़े बड़े थाल से बिछे हरे पत्तों के बीच सर उठाए खड़े सफेद गुलाबी कमल फूलों का साम्राज्य।....."
आंचलिक परिवेश की प्रस्तुति जमीन से जुड़ी लगे इसके लिए लेखिका ने हिंदी शब्दों को वैसे ही लिखा है जैसे वे बाँग्ला में बोले जाते हैं। साथ ही साथ उन्होंने जगह जगह बंग भूमि के महान कवियों, भटियारी लोक गीतों और मुक्ति संग्राम के प्रेरक नारों को हिन्दी के साथ साथ बाँग्ला में भी लिखा है ताकि पाठक को उस संस्कृति और उस समय के माहौल से अपना सामंजस्य बिठाने में सहूलियत हो।

पूरे उपन्यास को दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहले चरण में लेखिका केस्टो की बचपन की शरारतों से लेकर किशोरावस्था में मुंबई भागने और फिर प्रेम में असफल होकर वापस बोरिशाल में एक बड़े व्यवसायी और बॉडी बिल्डर बनकर अपने आप को स्थापित करने की कहानी कहती हैं। उपन्यास का अगला चरण स्वतंत्र पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से में उभरे भाषाई राष्ट्रवाद की कथा कहता है। पश्चिमी पाकिस्तान के शासकों द्वारा निरंतर बरते जाने वाले भेदभाव, से ये भाषाई राष्ट्रवाद स्वतंत्रता संग्राम में तब बदल जाता है जब चुनावी जीत के बाद पाकिस्तानी शासक शेख मुजीब को सत्ता हस्तांतरित किये जाने से आनाकानी करते हैं।

फिर शुरु होती है मुक्तिवाहिनी के अभ्युदय के साथ पाकिस्तानी शासकों के बर्बर जुल्म की गाथा जो कई जगह रोंगटे खड़ी कर देती है। अगर आप मुक्तिवाहिनी की उत्पत्ति के कारणों, उनके लड़ने के तरीकों और उस कालखंड में पाक सेना द्वारा की गई बर्बरता और भारत द्वारा किए गए परोक्ष और प्रत्यक्ष सहयोग के बारे में विस्तार से जानने में रुचि रखते हों तो ये उपन्यास आपके लिए है। भारत के युद्ध में निर्णायक सहयोग के बावजूद भी बाँग्लादेशियों की भारत के प्रति संदेह करने की प्रवृति और विगत वर्षों में अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ होने वाली दंगाई हिंसा का जिक्र भी एक कचोट के साथ लेखिका ने किया है।

महुआ माजी के इस उपन्यास को पढ़ने के बाद कुछ प्रश्न दिमाग में स्वतः उठते हैं।
क्या धर्म को किसी राष्ट्र की उत्पत्ति का आधार बनना चाहिए ? अगर ऍसा होता तो पाकिस्तान के दो टुकड़े कभी ना बनते। 'मैं बोरिशाइल्ला' की रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए महुआ माजी कहती हैं कि बाँग्लादेश के मुक्ति संग्राम को अपने पहले ही उपन्यास का विषय बनाने का कारण था कि मैं नई पीढ़ी के लिए उसे एक दृष्टांत के रूप में पेश करना चाहती थी कि आज बेशक पूरी दुनिया में सारी लड़ाइयाँ धर्म के नाम पर ही लड़ी जा रही हैं, लेकिन सच तो ये है कि सारा खेल सत्ता का है।
उपन्यास के आखिर में अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखते हुए महुआ लिखती हैं

"........तो क्या धर्म से अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ और तत्व हैं जो धर्म के साथ शामिल हैं या धर्म उनमें शामिल है। क्या हैं वो तत्त्व ? यह तो हम सबने देखा है कि पूर्वी पाकिस्तानियों के लिए धर्म से अधिक महत्त्वपूर्ण संस्कृति रही। तभी तो बाँग्ला भाषा, साहित्य संस्कृति के लिए भाषा आंदोलन हुआ और आंदोलनों का सिलसिला चल निकला ।
और पश्चिमी पाकिस्तानियों के लिए? उनके लिए निश्चय ही धर्म से अधिक महत्त्वपूर्ण सत्ता रही। वर्चस्व का सुख, शोषण से प्राप्त ऍश्वर्य का सुख हमेशा उनके धर्म पर हावी रहा तभी तो समानधर्मी होते हुए भी वो पूर्वी प्रान्त के लोगों से इतनी क्रूरता से पेश आए जितनी कि कोई विधर्मी भी नहीं आ सकता था।
इसका मतलब धर्म उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना जतलाया जाता है। महत्त्वपूर्ण होते हैं दूसरे कारक। धर्म तो सिर्फ एक मुखौटा है जिसे पहनकर और पहनाकर कुछ स्वार्थी तत्त्व अपना स्वार्थ साधते हैं। ...."


महुआ माजी ने अपने ३९९ पृष्ठों के उपन्यास में रोचकता बनाए रखी है। ' राजकमल' द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास को जुलाई २००७ में 'इंदु शर्मा कथा सम्मान' से नवाज़ा गया था। १५० रुपये की इस पुस्तक को आप नेट पर यहाँ से खरीद सकते हैं।

इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं

असंतोष के दिन, जल्लाद की डॉयरी, गुनाहों का देवता, कसप, गोरा, महाभोज, क्याप, एक इंच मुस्कान, लीला चिरंतन, क्षमा करना जीजी, मर्डरर की माँ, दो खिड़कियाँ, हमारा हिस्सा, मधुशाला, मुझे चाँद चाहिए, कहानी एक परिवार की' , तीन भूलें जिंदगी की

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14 टिप्पणियाँ:

रवि रतलामी on अप्रैल 08, 2009 ने कहा…

निरंतर पर मेरी भी एक समीक्षा थी -

रवि रतलामी

महुआ माजी का उपन्यास "मैं बोरिशाइल्ला" बांग्लादेश की मुक्ति-गाथा पर केंद्रित है। महुआ माजी ने इस उपन्यास को कई वर्षों के शोध उपरांत लिखा है और प्रामाणिक इतिहास लिखा है। यह उपन्यास बहुत ही कम समय में खासा चर्चित हुआ है और इस कृति को सम्मानित भी किया गया है। इस उपन्यास के अजीब से नाम के बारे में स्पष्टीकरण देती हुई महुआ, उपन्यास के अपने प्राक्कथन में कहती हैं -

महुआ माजी द्वारा बांग्‍लादेश के मुक्ति संग्राम की पृष्‍ठभूमि पर 2006 में लिखा "मैं बोरिशाइल्ला", उनका पहला ही उपन्‍यास है पर इससे उन्होंने साहित्य संसार में समर्थ रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज की। महुआ समाजशास्‍त्र में पीएचडी हैं। उनकी लिखी अनेक कहानियां विभिन्‍न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। "मैं बोरिशाइल्‍ला" को पाठकों और समीक्षकों की काफी प्रशंसा मिलने के बाद इसके अंग्रेजी और बांग्ला में अनिवादित किये जाने की खबरें हैं। महुआ को 2007 में इस उपन्यास के लिये अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान से भी सम्मानित किया गया।
“...जिस तरह बिहार के लोगों को बिहारी तथा भारत के लोगों को भारतीय कहा जाता है, उसी प्रकार बोरिशाल के लोगों को यहाँ की आंचलिक भाषा में बोरिशाइल्ला कहा जाता है। उपन्यास का मुख्य पात्र केष्टो, बोरिशाल का है। इसीलिए वह कह सकता है - मैं बोरिशाइल्ला।”

जैसा कि उपन्यास के द्वितीय शीर्षक पृष्ठ पर अंकित है - यह उपन्यास बांग्लादेश के अभ्युदय की महागाथा है। 1948 से लेकर 1971 तक के ऐतिहासिक तथ्यों, पाकिस्तानी हुकूमत द्वारा बांग्लादेशी जनता पर किए अत्याचारों की घटनाओं तथा मुक्तिवाहिनी के संघर्ष गाथाओं को महुआ माजी ने इस उपन्यास के कथा सूत्र में पिरोया है। एक बानगी देखें -
"...इसी तरह एक बार मैं सब्जियाँ खरीदने बाजार गया। एक सब्जीवाला शिमला मिर्च, जिसे वहां के लोग बोम्बाइया लौंका कहा करते थे, बेच रहा था। मुझे देखकर सब्जीवाले ने जोर से आवाज दी, "बोम्बाइया लौंका ले जाइए बाबू।" बाज़ार में घूमते एक सैनिक के कानों तक जैसे ही बोम्बाइया यानी बम्बइया शब्द पहुँचा, उसने सब्जी वाले की पीठ पर एक भरपूर बेंत मारी और चिल्लाते हुए कहा, "इंडिया से मिर्च मंगाता है? यहां पाकिस्तान में पैदा नहीं कर सकता?"
... अयूबशाही शासनकाल में भारत की मुहर लगी हुई कोई भी चीज रखना जुर्म माना जाता था। सैनिक घर-घर की तलाशी लेते थे। एक दिन जब हमारे घर में सेना के जवान भारतीय सामानों की जांच करने घुस आए तब मेरी मां को उनके अत्याचार के डर से भारत से मंगाई गई अपनी सिन्दूर की डिबिया को, यह जानते हुए भी कि सुहागन के लिए सिन्दूर पानी में फेंकना अपशगुन होता है, मजबूरन उठाकर खिड़की से बाहर फेंकना पड़ा था...इस बीच अयूब खान ने यह फरमान जारी कर दिया था कि पाकिस्तान के हर घर में उनकी तस्वीर टाँगना अनिवार्य है। जांच के दौरान जिनके घर में उनकी तस्वीर टंगी हुई नहीं मिलती थी, कड़ी सज़ा दी जाती...” (पृ 141-142)

जैसा कि ऊपर दिए उद्धरण में स्पष्ट है, उपन्यास की भाषा अत्यंत साधारण है, और समूचे उपन्यास में कहीं भी कोई भाषाई शिल्प नमूदार नहीं होता। कथन में प्रवाह नहीं है, और उपन्यास घटना-प्रधान होते हुए भी आमतौर पर बोझिल-सा बना रहता है। इसके कई खण्ड घोर अपठनीय ही बने रहते हैं।

कुल मिलाकर उपन्यास पाठक को लगातार बांधे रखने में अक्षम ही रहता है। जाहिर है उपन्यास के ताने-बाने को और कसावदार बुना जा सकता था। दरअसल लेखिका ने मुक्ति संग्राम के दिनों में पाकिस्तानी सैनिकों तथा उर्दूभाषी नागरिकों द्वारा बांग्लाभाषियों पर किए गए अत्याचारों तथा मुक्तिवाहिनी के कार्यों के बहुत प्रामाणिक विवरण देने के लोभ में उपन्यास को बिखरा सा दिया है। घटना प्रधान कथानक में सस्पेंस का सर्वथा अभाव भी आगे पढ़ने में जिज्ञासा बनाए रखने में मदद नहीं करता।

जो भी हो, 400 पृष्ठों की यह किताब बांग्ला जन जीवन को निकट से जानने समझने वाले, बांग्लादेश के इतिहास में रुचि रखने वाले उत्सुक लोगों के लिए निःसंदेह दिलचस्प रहेगी। और, आम हिन्दी उपन्यासों की तर्ज पर यह मात्र विचारों व कल्पना की निपट-बयानी नहीं है। क्योंकि यह पारिवारिक, ग्रामीण जन-जीवन या दलित-विमर्श जैसी कहानी नहीं है संभवतः इसीलिए यह भीड़ से अलग भी है। पाठक अगर हिन्दी उपन्यासों में अगर कुछ नया सा पढ़ना चाहते हैं तो मैं बोरिशाइल्ला अवश्य पढ़ें।

Manish Kumar on अप्रैल 08, 2009 ने कहा…

Ravi ji agar aap is post ke bare mein apne vichar dete huye nirantar wali link de dete to behtar hota.

Mahua ji ki bhasha sadharan jaroor hai par mujhe aapki terah iska koyi ansh ghor apathneey nahin laga. Jise bangladesh ki muktigatha mein dilchaspi hogi use ye upanyas bojhil nahin lagna chahiye.

रवि रतलामी on अप्रैल 08, 2009 ने कहा…

मनीष जी, मैं लिंक ही देना चाह रहा था, मगर निरंतर अभी डाउन है. यह पाठ भी गूगल कैश से हासिल कर डाला है ताकि सनद रहे :)

डॉ .अनुराग on अप्रैल 08, 2009 ने कहा…

बांग्लादेश की दो महिलाओं ने उस वक़्त के आन्दोलन पर फिल्म बनाई है ..उसके लिए जब उन्होंने शोध किया तो पाकिस्तानी सेना की क्रूरता ओर बर्बरता को जानकार वे दुःख ओर हताश में भर गयी ओर पाकिस्तानी सेना का सबसे ज्यादा शिकार स्त्र्यिया हुई ...फिर भी इस किताब को पढना चाहूँगा ...

Manish Kumar on अप्रैल 08, 2009 ने कहा…

अनुराग हर युद्ध में जान माल के तौर पर तो बहादुर सैनिक वीरगति प्राप्त करते ही हैं पर स्त्रियों का शारीरिक दोहन इतना होता हे कि त्रासदी खत्म होने के बाद उनकी मानसिक स्थिति विक्षिप्तों जैसी हो जाती है। इस किताब में भी ऐसी कई घटनाओं का जिक्र है। क़ैद में यौन शोषण के सा् निर्वस्त्र इसलिए रखा जाता था ताकि कपड़ा मिलने से कहीं वो फाँसी ना लगा लें।

संगीता पुरी on अप्रैल 09, 2009 ने कहा…

आपके पोस्‍ट और रवि रतलामी जी की टिप्‍पणी दोनो से महुआ माजी के उपन्‍यास 'मै बोरिशाइल्‍ला' के बारे में विस्‍तृत जानकारी मिली।

बेनामी ने कहा…

अच्छी लेखनी हे / पड़कर बहुत खुशी हुई / जानकारी केलिए दान्यवाद /

आप जो हिन्दी मे टाइप करने केलिए कौनसी टूल यूज़ करते हे...? रीसेंट्ली मे यूज़र फ्रेंड्ली इंडियन लॅंग्वेज टाइपिंग टूल केलिए सर्च कर रहा ता, तो मूज़े मिला " क्विलपॅड " / आप भी " क्विलपॅड " यूज़ करते हे क्या...? www.quillpad.in

कंचन सिंह चौहान on अप्रैल 09, 2009 ने कहा…

आप द्वारा उपन्यास के सकारात्मक पक्ष और रवि जी के द्वारा कमजोर पक्षों की चर्चा पढ़ने के बाद अपना पक्ष तैयार रने के लिये आवश्यक हो गया है कि इस उपन्यास को पढ़ा जाये...! कहीं मिली तो अवश्य पढ़ूँगी और तब अपना मत रखूँगी।

Manish Kumar on अप्रैल 09, 2009 ने कहा…

रवि जी और मेरी अनुशंसा गौर करें तो पाएँगी कि हम दोनों इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि जिसे बाँग्लादेश के इतिहास में रुचि है उसे ये किताब निश्चय ही रोचक साबित होगी। और इसके उलट अगर ऍसा नहीं है तो फिर इसे पढ़ना उतना आन्ददायक साबित नहीं होगा।

RAJ SINH on अप्रैल 09, 2009 ने कहा…

maneesh jee is post ke liye dhanyavad. chapne par iskee kafee charcha huyee aur tabhee se ise padhne ka man hai. abhee tak naheen ho paya.

jahan tak iskee aitihasikta kee baat hai kayee logon ne ise itihas ke kafee kareeb paya hai.

desh ,dharm,pravriti ko darshatee yeh katha jaroor hee rochak hogee . padhunga jaroor .

dhanyavad.

एस. बी. सिंह on अप्रैल 09, 2009 ने कहा…

अच्छी जानकारी के लिए शुक्रिया। उपन्यास पर टिप्पडी पढ़ने के बाद।

आशीष कुमार 'अंशु' on अप्रैल 11, 2009 ने कहा…

जानकारी के लिए आभार ...

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) on अप्रैल 26, 2009 ने कहा…

महुआ मांझी के इस उपन्यास को आद्योपांत रस ले-लेकर मैंने पढ़ा है.........और विभिन्न जगहों पर उसकी अनुशंसाएं भी की....जहां-जहां भी उसके बारे में लिख पाया...मैंने जरूर लिखा...सच ही एक अद्भुत ही चीज़ लिख डाली है उन्होंने.....इसके लिए समस्त हिंदी संसार उनका शुक्रगुजार रहेगा.....!!.....सच.....!!

बेनामी ने कहा…

सस्ती लोकप्रियता और नकली लेखन तथा एक पुरानी बिना छ्पी, कही से मिली पांडुलिपि का अनुवाद करवा कर, संजीव से बाकायदा मय पारिश्रमिक ठीक करवा कर मी बोरिशाइल्ला से लेखिका बनी, महुआ माजी हैं। चाहे तो संजीव से पूछ ले वह इसे जीवन की भूल कह्ते है.

खैर हमे क्या?

 

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