शुक्रवार, अप्रैल 17, 2009

मैं एक अघोषित पागल हूँ : पुरानी पीढ़ी के नेताओं का जीवन दर्शन दिखाती एक जानदार कविता

कल जब राँची के दैनिक प्रभात खबर के मुख पृष्ठ पर छपी देश के एक पुराने नेता स्व.रामदत्त जोशी की कविता देखी तो आज के नेताओं के गिरते नैतिक स्तर पर बेहद रोष आया। आजकल के इस चुनावी माहौल में ये कविता बेहद प्रासंगिक है। पर इससे पहले कि आप रामदत्त जोशी जी की ये व्यंग्यात्मक कविता पढ़ें, थोड़ी जानकारी जोशी जी के बारे में आपसे बाँटता चलूँ जो इस अखबार और अंतरजाल के माध्यम से मुझे मिली है।

रामदत्त जोशी साहब साठ के दशक में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता थे। वे दो बार तब के उत्तरप्रदेश और आज के उत्तराखंड की काशीपुर विधानसभा सीट से विधानसभा के लिए चुने गए। १९६७ के चुनावों में उन्होंने कांग्रेस के बड़े नेता और उत्तराखंड के भूतपूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को भी हरा दिया था। जोशी साहब की एक और कविता 'नैनीताल की शाम' भी बेहद चर्चित हुई थी। आज जब राजनीति, परिवारवाद, भ्रष्टाचार और अपराधीकरण के दलदल में फँसती जा रही है, जोशी जी का सहज शब्दों में गिरते नैतिक मूल्यों पर ये कटाक्ष दिल को झकझोर जाता है। तो आइए पढ़ें और सुनें इस कविता को और संकल्प लें कि जहाँ तक हो सके हमारा वोट स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों के हक में ही पड़े



मैं एक अघोषित पागल हूँ

जो बीत गया मैं वो कल हूँ
कलांतर ने परिभाषाएँ, शब्दों के अर्थ बदल डाले
सिद्धांतनिष्ठ तो सनकी है, खब्ती हैं नैतिकतावाले
नहीं धन बोटरने का शऊर, ज्यों बंद अकल के हैं ताले
ईमानदार हैं बेवकूफ, वह तो मूरख हैं मतवाले
आदर्शवाद है पागलपन, लेकिन मैं उसका कायल हूँ
मैं एक अघोषित पागल हूँ

निर्वाचित जनसेवक होकर भी मैंने वेतन नहीं लिया
जो फर्स्ट क्लॉस का नकद किराया भी मिलता था नहीं लिया
पहले दरजे में रेल सफ़र की फ्री सुविधा को नहीं लिया
साधारण श्रेणी में जनता के साथ खुशी से सफ़र किया
जो व्यर्थ मरुस्थल में बरसा मैं एक अकेला बादल हूँ
मैं एक अघोषित पागल हूँ

जनता द्वारा परित्यक्त विधायक को पेंशन के क्या माने
है एक डकैती कानूनी, जनता बेचारी क्या जाने ?
कानून बनाना जनहित में जिनका कर्तव्य वही जाने
क्यों अपने ही ऐश्वर्य वृद्धि के नियम बनाते मन माने
आँसू से जो धुल जाता है, दुखती आँखों का काजल हूँ
मैं एक अघोषित पागल हूँ

सादा जीवन ऊँचे विचार, यह सब ढकोसलाबाजी है
अबके ज्यादातर नेतागण झूठे , पाखंडी पाजी हैं
कोई वैचारिक वाद नहीं, कोई सैंद्धांतिक सोच नहीं
सर्वोपरि कुर्सीवाद एक, जिसका निंदक मैं पागल हूँ
मैं एक अघोषित पागल हूँ

जन प्रतिनिधियों का जीवन स्तर, साधारण के ही समान
है लोकतंत्र में आवश्यक, समुचित है नैतिक संविधान
कोई कोरा उपदेश नहीं, गाँधीजी का कीर्तिमान
लंदन के राजमहल में भी, भारत के प्रतिनिधि ने महान
चरितार्थ किया आदर्शों को, जिनका मैं मन से कायल हूँ
मैं एक अघोषित पागल हूँ

कड़ियाँ, ईटों की छत दीवारें, दरकीं बिना पलस्तर की
टूटे उखड़े हैं फर्श और हैं फटी चादरें बिस्तर की
घर की न मरम्मत करा सका, दो बार विधायक रह कर भी
मैं एक खंडहरवासी हूँ, खुश हूँ इस बदहाली में भी
लाखों जनसाधारण हैं बेघर, उनकी पीड़ा से घायल हूँ
मैं एक अघोषित पागल हूँ
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12 टिप्पणियाँ:

कंचन सिंह चौहान on अप्रैल 17, 2009 ने कहा…

is kavi, Neta aur kavita se parichay karaane ka bahut bahut shukriya Manish Ji...!

aise hi kuchh aghoshit pagalo ki zarurat hai bharat ko..! naman

रवीन्द्र प्रभात on अप्रैल 17, 2009 ने कहा…

भाई मेरे वैसे तो चुनाव अनमोल है ,मगर नेताओं की ढोल में पोल है...सचमुच ऐसे अघोषित पागलों की जरूरत है यहाँ ....वाकई जानदार है यह कविता !

संगीता पुरी on अप्रैल 17, 2009 ने कहा…

बहुत सुंदर रचना ... लीक से उल्‍टा चलनेवालों को तो पागल कह ही दिया जाता है ... यह जानते हुए कि उनकी ही जरूरत है समाज को।

P.N. Subramanian on अप्रैल 17, 2009 ने कहा…

कविता तो वास्तव में जोरदार रही. आभार.

रंजना on अप्रैल 17, 2009 ने कहा…

Sachmuch ekdam sateek aur samsamyik rachna hai....

Aapka bahut bahut aabhaar mahan vyaktitv se parichit karane aur itni sundar rachna padhwane ke liye.

Abhishek Ojha on अप्रैल 17, 2009 ने कहा…

आभार इसे पढ़वाने के लिए. कभी हम भी प्रभात खबर सुबह-सुबह पढ़ा करते थे. यही तो फायदा है ब्लॉग्गिंग का... हर जगह की अच्छी चीजें पढने को मिल जाती है वो भी विस्तार से विवरण सहित.

श्यामल सुमन on अप्रैल 18, 2009 ने कहा…

अच्छा लगा पढ़कर। एक नयी जानकारी दी आपने।

ऐसे पागल और हों उन्नत होगा देश।
भ्रष्टाचारी के लिए उत्तम यह संदेश।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

archana on अप्रैल 18, 2009 ने कहा…

bahut umda.

एस. बी. सिंह on अप्रैल 19, 2009 ने कहा…

राजनेताओं में क्या आज तो सब तरफ़ यही भाव व्याप्त है। ऐसे पागल तो विलुप्त होते प्राणियों की तरह हैं। इन्हे संरक्षण की जरूरत है अगर देश और समाज को बचाए रखना है। कविता प्रस्तुत कराने का धन्यवाद।

Zyenab on अप्रैल 20, 2009 ने कहा…

kya baat hai janab =)

बेनामी ने कहा…

Bahut achhe!! aaj ke samay me Desh ko aise hi Paagal logo ki jarurat hai

kavita verma on नवंबर 19, 2009 ने कहा…

bahut sateek kavita hai,is pagalpan ke dard ko agar mahasus bhi kiya jaay tabhi isaki sarthakata hai.

 

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