गुरुवार, दिसंबर 24, 2009

रेत में सर किए यूँ ही बैठा रहा, सोचा मुश्किल मेरी ऐसे टल जाएगी...

जिंदगी में बहुत कुछ अपने आस पास के हालात में, अपने समाज में, अपने देश में हम बदलते देखना चाहते हैं। पर सब कुछ वैसा ही रहने पर सारा दोष तत्कालीन व्यवस्था यानि सिस्टम पर मढ़ देते हैं।
  • राजनीति गंदी है कोई नैतिक स्तर तो आजकल रह ही न हीं गया है... ऐसे जुमले रोज़ उछाला करेंगे। पर मतदान का दिन आएगा तो उसे छुट्टी का आम दिन बनाकर बैठ जाएँगे।
  • भ्रष्टाचार चरम पर है इस पर कार्यालय और घर में लंबी चौड़ी बहस करेंगे पर अपना कोई काम फँस गया हो कहीं तो चपरासी से लेकर क्लर्क तक को छोटी मोटी रिश्वत देने से नहीं कतराएँगे।
  • अपने घर को साफ सुथरा रखेंगे पर घर से बाहर निकलेंगे तो फिर जहाँ जाएँगे कूड़ेदान की तलाश बिना किए चीजों को इधर उधर फेकेंगे। फिर ये भी टिप्पणी करने से नहीं चूकेंगे कि ये जगह कितनी गंदी है। सरकार कुछ भी नहीं करती।


ऐसे कितने ही और उदहारण दिए जा सकते हैं। मुद्दा ये है कि हमारा ध्यान इस बात पर ज्यादा है कि बाकी लोग क्या नहीं कर रहे हैं। ये विचार करने की बात है कि आखिर हमने समाज और अपने आसपास के हालातों को बदलने के लिए कितना कुछ किया है या फिर सब कुछ दूसरों के लिए छोड़ रखा है।

आज जबकि इस साल का अंत करीब आ रहा है आप सब को ऍसे ही विचारों से ओतप्रोत एक गीत सुनवाना चाहता हूँ जो हमें अपने समाज के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित करता है। साथ ही ये गीत इस बात की भी आशा दिलाता है कि ऍसा करने से शायद आपको अपनी जिंदगी के नए माएने भी दिख जाएँ।

सरल शब्दो का भी अगर सही ढ़ंग से मेल करवाया जाए तो उससे उपजी भावनाएँ भी मन पर गहरा असर डालती हैं। जब ऐसे गीतों को पूरी भावना से गायक या गायिका अपना स्वर देता है तो फिर गीत के साथ संगीत का रहना बेमानी सा हो जाता है। नवोदित गायिका शिल्पा राव के गाए इस गीत में भी वही बात है। तो आइए पहले इस गीत के बोलों से परिचित हो लें और फिर सुनें इस गीत को..






रेत में सर किए यूँ ही बैठा रहा
सोचा मुश्किल मेरी ऐसे टल जाएगी
और मेरी तरह सब ही बैठे रहे
हाथ से अब ये दुनिया निकल जाएगी
दिल से अब काम लो
दौड़ कर थाम लो
जिंदगी जो बची है फिसल जाएगी

थोड़ी सी धूप है आसमानों में अब
आँखें खोलों नहीं तो ये ढ़ल जाएगी
आँखें मूँदे हैं ये छू लो इसको ज़रा
नब्ज़ फिर जिंदगी की ये चल जाएगी

दिल से अब काम लो
दौड़ कर थाम लो
जिंदगी जो बची है फिसल जाएगी


क्या आपको नहीं लगता कि ये वक्त अपनी अपनी जिंदगियों में झाँकने का है ? साथ ही कहीं कोई फिसलन दिखे तो विचारने का है कि इसे हम किस तरह बदल सकते हैं।

वैसे ये बता दूँ कि ये गीत पिछले साल मुंबई पर हुए हमलों के मद्देनज़र लिखा गया था। इसे यू ट्यूब पर आप यहाँ देख सकते हैं।




चलते चलते 'एक शाम मेरे नाम' के सभी पाठकों को क्रिसमिस की हार्दिक शुभकामनाएँ। अब इस चिट्ठे के सालाना आयोजन वार्षिक संगीतमाला २००९ के आगाज़ के साथ आप से फिर मुलाकात होगी। तो तब तक के लिए आज्ञा..

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16 टिप्पणियाँ:

निर्मला कपिला on दिसंबर 24, 2009 ने कहा…

सार्थक सन्देश देती सुन्दर पोस्ट बहुत बहुत बधाई और क्रिसमस की आपको भी शुभकामनायें गीत सुना नहीं जा सका दोबारा देखती हूँ धन्यवाद्

डॉ .अनुराग on दिसंबर 24, 2009 ने कहा…

दरअसल एक आम आदमी की नैतिक सीडिया थोड़ी नीची हो गयी है ....उससे पूरे समाज का नेतिक जुगराफिया बिगड़ गया है ...समाज तो लोगो से बनता ही है जी .शिल्पा राव को गुलाल में सुनकर भी अच्छा लगा था ....

राज भाटिय़ा on दिसंबर 24, 2009 ने कहा…

बहुत सुंदर बात कही आप ने,लेकिन यह सब बाते हमारे खुन मै रच बस गई है, जो हमे अच्छी लगती है.

Himanshu Pandey on दिसंबर 24, 2009 ने कहा…

गीत पढ़ना और सुनना दोनों विशिष्ट अनुभव हैं । बेहद खूबसूरत प्रस्तुति । आभार ।

मथुरा कलौनी on दिसंबर 24, 2009 ने कहा…

बहुत सार्थक पोस्‍ट है। इस संबंध में जितना कहा जाय थोड़ा है। विचारों को प्रस्‍तुत करने के लिये बधाई।
आपको भी शुभकामनाऍं

गौतम राजऋषि on दिसंबर 24, 2009 ने कहा…

इस खूबसूरत गीत को लिखा किसने है मगर?

अफ़लातून on दिसंबर 24, 2009 ने कहा…

शुतुर्मुर्गी वृत्ति पर तगड़ा प्रहार करती पोस्ट । गजब।

ghughutibasuti on दिसंबर 24, 2009 ने कहा…

बहुत सुन्दर गीत है।
घुघूती बासूती

Priyank Jain on दिसंबर 25, 2009 ने कहा…

samajik uthan ki batain khair karte to sabhi hain par utni shiddat se us par amal nahi karte.
sundar awar me ek asundar sach,
aaj ki post ke liye to aapko dhanyawaad deta hi hoon sath hi aapne pichle dino ek pustak ka zikr kiya tha, 'daurane tafteesh', wah mujhe mil gayi hai,so uske liye punah dhanyawaad

Manish Kumar on दिसंबर 25, 2009 ने कहा…

अनुराग आप शायद ऐसी सज़ा की बात कर रहे हैं । पिछले साल आमिर में गाया हुआ इक लौ जिंदगी की.. और ख़ुदा जाने उनके गाए हुए चर्चित गीतों में रहे थे।

गौतम मुझे भी पता नहीं है अन्यथा पोस्ट में इस बारे में जानकारी अवश्य देता।

प्रियंक हम्म सही कहा तुमने !
किताब तुमने ढूँढ ली जानकर खुशी हुई। कैसी लगी ये बताना।

Pavan on दिसंबर 25, 2009 ने कहा…

मनीष,

गीत नीलेश मिश्रा का लिखा हुआ है। वही नीलेश जिन्होने कुछ वर्ष पहले ’जिस्म’ और ’रोग’ में कुछ सुने जा सकने लायक गीत लिखे थे..

रंजना on दिसंबर 25, 2009 ने कहा…

5 baar dekha suna aur padha....bas itna hi kah sakti hun....kotishah aabhaar...

बेनामी ने कहा…

bhut achha lika hai.

Manish Singh "गमेदिल" on दिसंबर 26, 2009 ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना को अपने विचारों के धागे मैं पिरोकर एक अनमोल माला प्रदान करने के लिए, जो हमें अपने जीवन शैली मैं झाकने के लिए प्रेरित करती है..........
आपका धयन्वाद..........

Manish Kumar on दिसंबर 26, 2009 ने कहा…

पवन, इस जानकारी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया।

रंजना जी , गुमनाम और गमेदिल आपको ये गीत पसंद आया जान कर खुशी हुई।

MANOJ SINGH ने कहा…

bilkul tek bat khe hai app ne ...

 

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