गुरुवार, अगस्त 05, 2010

जगजीत सिंह की ग़ज़ल गायिकी का सफ़र भाग 6 : आज है मेरी पसंदीदा नज़्मों की बारी ...

जगजीत सिंह पर अपनी श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए आइए बात करें उनकी नज़्मों की। पर इसका मतलब ये नहीं कि उनकी गाई ग़ज़लों की बात खत्म हो गई। दरअसल उनकी गाई हुई पसंदीदा ग़ज़लों की फेरहिस्त इतनी लंबी है कि कभी कभी समझ नहीं आता कि इस अथाह सागर में से क्या चुनूँ और क्या छोड़ूँ। पर ग़ज़लों की अपेक्षा उनकी गाई नज़्में कम हैं और उनमें से अधिकांश बस कमाल हैं। इसीलिए जगजीत साहब के संग्रह से अपनी दस पसंदीदा नज़्मों को चुनने में मुझे कोई तकलीफ़ नहीं हुई। तो आज की पोस्ट में बात करते हैं इनमें से पाँच नज़्मों की..

पिछली बार जब आपसे जगजीत जी के एलबम 'दि अनफॉरगेटेबल्स' (The Unforgettable) की बात हो रही थी तो मैंने आपसे उस एलबम की एक बेहतरीन नज़्म की चर्चा अगली पोस्ट तक के लिए मुल्तवी कर दी थी। आज की बात उसी नज़्म से शुरु करते हैं।

अगर आपको इस बात का उदाहरण देना हो कि सिर्फ एक नज़्म के चलते किसी शायर का नाम वर्षों लिया जाता रहे तो इस नज़्म की मिसाल दी जा सकती है। यूँ तो कफ़ील आज़र बहुत सालों तक फिल्मों के लिए भी लिखते रहे, कई बेहतरीन ग़ज़लें भी कहीं पर बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी...... ने उनकी कही बात को पिछले तीन दशकों से लाखों ग़ज़ल प्रेमियों ने अपने दिल से निकलती आवाज़ माना है। दुख इसी बात का है दिल्ली में सुपुर्द-ए-खाक़ किए गए इस शायर को वो शोहरत उनकी ज़िंदगी में ना मिल सकी जो इसे गाकर हम तक पहुँचाने वाले जगजीत जी को मिली। पिछले हफ्ते जब 'यूनिवर्सल' द्वारा निकाले गए रफ़ी साहब के गाए कुछ अंतिम गीतों की चर्चा हो रही थी तो ये भी बात अनायास ही पता चली कि संगीतकार चित्रगुप्त ने ये सारे गीत कफ़ील आज़र से लिखवाए थे। बहरहाल क़फील की कुछ ग़ज़लें भी लाजवाब सा कर देती हैं। अब उनके लिखे इन चंद अशआरों की बानगी लें..

देख लो ख्व़ाब मगर ख्व़ाब का चर्चा न करो
लोग जल जायेंगे सूरज की तमन्ना न करो

वक़्त का क्या है किसी पर भी बदल सकता है
हो सके तुम से तो तुम मुझ पे भरोसा न करो

किर्चियां टूटे हुए अक़्स की चुभ जाएँगी
और कुछ रोज़ अभी आईना देखा न करो

बेख्याली में कभी उँगलियाँ जल जायेंगी
राख गुज़रे हुए लम्हों की कुरेदा न करो

जगजीत अपनी महफिलों में इस नज़्म की कहानी सुनाते हुए कहते हैं कि उन्होंने इसे पहली बार शमा पत्रिका में पढ़ा था और तभी उतार लिया था। आपको जान कर अचरज होगा कि आज हम और आप जिस नज़्म को जगजीत जी की सबसे बेहतरीन गाई हुई नज़्मों में गिनते हैं उसे जगजीत जी ने बतौर संगीत निर्देशक भूपेंद्र से गवाया था। वो एलबम नहीं आया , फिर एक फिल्म बनी उसमें भी ये नज़्म रिकार्ड हुई पर वो फिल्म बीच में ही रुक गई। पर जगजीत को इस नज़्म में बहती भावनाओं की गहराई का अंदाज़ था इसलिए जैसे ही एच. एम. वी वालों ने एक नए एलबम को निकालने के लिए उनको स्वीकृति दी जगजीत ने इसे सबसे पहले रिकार्ड किया।

क्या बताएँ कि कितनी मोहब्बत थी मुझे इस नज़्म से हाईस्कूल के ज़माने से। इसे सुनते , गुनगुनाते और ना जाने मन कैसा कैसा हो जाता। शायर के मन में चाहे जिसका भी दर्द रहा हो वो, इस नज़्म के लफ़्ज़ों को सुनकर पहले तो मन में सहानुभुति का भाव उमड़ता घुमड़ता और फिर वो कब ना जाने अपने दर्द में एकाकार हो जाता इसका पता ही नहीं लगता था जगजीत जी की बेमिसाल गायिकी के दीवाने भी शायद हम सब तभी हुए थे।



बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी
लोग बेवजह उदासी का सबब पूछेंगे
ये भी पूछेंगे कि तुम इतनी परेशां क्यूँ हो
उँगलियाँ उठेंगी सूखे हुए बालों की तरफ
इक नज़र देखेंगे गुजरे हुए सालों की तरफ
चूड़ियों पर भी कई तन्ज़ किये जाएँगे
काँपते हाथों पे भी फ़िक़रे कसे जाएँगे
लोग ज़ालिम हैं हर इक बात का ताना देंगे
बातों बातों मे मेरा ज़िक्र भी ले आएँगे
उनकी बातों का ज़रा सा भी असर मत लेना
वर्ना चेहरे के तासुर से समझ जाएँगे
चाहे कुछ भी हो सवालात न करना उनसे
मेरे बारे में कोई बात न करना उनसे

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी

कफ़ील साहब की नज़्म का जो मूड था जो कैफ़ियत थी उससे मिलते जुलते अहसासों से ही जुड़ी एक नज़्म उत्तर प्रदेश के मछलीशहर से ताल्लुक रखने वाले शायर सलाम मछलीशेहरी की भी थी जिसे जगजीत साहब ने अपने एलबम Ecstasies (1984) का हिस्सा बनाया था। ये नज़्म क्या थी सादे ज़बान में पहले मिले प्यार और फिर दुत्कार की कहानी थी। पर जगजीत की अदाएगी का अंदाज़ ऐसा था कि नज़्म के अंत की इन पंक्तियों तक आते आते आवाज़ रुंधने सी लगती थी।

वही हसीन शाम है
बहार जिसका नाम है
चला हूँ घर को छोड़कर
न जाने जाऊँगा किधर
कोई नहीं जो रोककर
कोई नहीं जो टोककर
कहे के लौट आइये
मेरी कसम न जाइये...
पूरी नज़्म को आप यहाँ पढ़  सुन सकते हैं।


पर Ecstasies के बाज़ार में आने के पहले अनका एक और एलबम Milestone आया जिसकी एक नज़्म 1982 में आई फिल्म 'अर्थ' का हिस्सा बनी थी। भला राजेंद्रनाथ रहबर की लिखी वो नज़्म कोई भूल सकता है। वैसे तो रहबर साहब की ग़ज़लों को आज भी जगजीत सिंह अपने एलबमों में शामिल करते हैं पर रहबर साहब को जो शोहरत बतौर शायर के रुप में मिली है उसमें इस नज़्म का खासा हाथ रहा है। आज भले ही हाथ से लिखी चिट्ठियाँ इतिहास का हिस्सा बनती जा रही हों पर हाथ से लिखे शब्द सिर्फ उनके अर्थ तक सिमट नहीं जाते थे बल्कि उसे लिखने वाले शख्स की उस वक़्त की मनःस्थिति का आईना होते थे। आज के इस ई मेल के युग में अगर आपको मेरी बात नागवार गुजरे तो बस जगजीत की आवाज़ में इस नज़्म को सुन के देख लीजिए। 



जिनको दुनिया की निगाहों से छुपाए रखा,
जिनको इक उम्र कलेजे से लगाए रखा,
दीन जिनको जिन्हें ईमान बनाए रखा

जिनका हर लफ्ज़ मुझे याद था पानी की तरह,
याद थे मुझको जो पैगाम-ऐ-जुबानी की तरह,
मुझ को प्यारे थे जो अनमोल निशानी की तरह,

तूने दुनिया की निगाहों से जो बचकर लिखे,
सालाहा-साल मेरे नाम बराबर लिखे,
कभी दिन में तो कभी रात को उठकर लिखे,

तेरे खुशबू मे बसे ख़त मैं जलाता कैसे,
प्यार मे डूबे हुए ख़त मैं जलाता कैसे,
तेरे हाथों के लिखे ख़त मैं जलाता कैसे,

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूँ,
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ

और जब फिल्म अर्थ का जिक्र हुआ हो तो फिर कैफ़ी आज़मी की ये नज़्म जो तनहाई की कितनी शामों की साथी रही, कैसे भुलाई जा सकती है।



कोई ये कैसे बताए, कि वो तनहा क्यों है
वो जो अपना था, वही और किसीका क्यों है
यही दुनिया है तो फ़िर, ऐसी ये दुनिया क्यों है
यही होता है तो, आखिर यही होता क्यों है

इक जरा हाथ बढा दे तो, पकड ले दामन
उसके सीने मे समा जाए, हमारी धडकन
इतनी कुरबत है तो फ़िर, फ़ासला इतना क्यों है?

दिल-ए-बरबाद से निकला नही अबतक कोई
इक लुटे घर पे दिया करता है दस्तक कोई
आस जो टूट गयी हैं, फ़िर से बँधाता क्यों है?

तुम मसर्रत का कहो या इसे गम का रिश्ता
कहते है प्यार का रिश्ता है जनम का रिश्ता
है जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यों है?

आपको याद होगा कि नब्बे के दशक के प्रारंभ में टीवी सीरियल कहकशाँ में मज़ाज लखनवी की लिखी नज़्म थी अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो? उर्दू फ़ारसी के तमाम जटिल शब्दों से भरी ये ग़ज़ल अपने आप में एक अलग आलेख माँगती है। पर यहाँ मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि बिना लफ़्ज़ों के सही मायने समझे हुए भी जब जगजीत की आवाज़ में ये पंक्तियाँ कानों में गूँजती थीं....



वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहां से लाऊँ
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहां से लाऊँ
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?

.....तो दिल ज़ार ज़ार हो जाया करता था।

आपने इक बात गौर की होगी कि इस आलेख में मेंने जो पाँच नज़्में चुनी वो सब प्रेम में टूटे हुए दिल की व्यथा को चित्रित करती हैं। हमारी पीढ़ी पर इनका जादू अगर सर चढ़कर बोला तो उसकी एक वज़ह ये थी कि हमने इसे किशोरावस्था से युवावस्था की सीढ़ियों को चढ़ते हुए सुना। कम से कम मेरे लिए और मेरे जैसे बहुतों के लिए ये वो दिन थे जब एकाकीपन के लमहे हमें काटने को दौड़ते थे। आज भी ये नज़्में उन दिनों की स्मृतियाँ वापस ले आती हैं। आपका क्या ख्याल है इनके बारे में ..जरूर बताइएगा।

अगर आपका इन नज़्मों को सुनकर मन ना भरा हो तो इस कड़ी की अगली पाँच नज़्में यहाँ रहीं।
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14 टिप्पणियाँ:

रंजना on अगस्त 03, 2010 ने कहा…

ये सारे के सारे दिल के इतने करीब हैं कि क्या कहूँ मनीष जी...
बहुत बहुत बहुत सारा आभार आपका इस नायाब पोस्ट के लिए...
हाँ एक बात...ये सारे नज्म जगजीत सिंह की गाई करके हम जानते थे,इसके पीछे के इतिहास का हमें कुछ पता न था...आज जाना ,बड़ा अच्छा लगा..

सुशील छौक्कर on अगस्त 03, 2010 ने कहा…

मनीष जी दिल खुश कर दिया। अगर अनुराग जी के शब्दों में कहूँ कि हम भी जगजीत सिंह जी के बडे वाले फैन है।

राज भाटिय़ा on अगस्त 03, 2010 ने कहा…

मुझे भी जगजीत सिंह की गाई गजले बहुत अच्छी लगती है, धन्यवाद इस सुंदर लेख के लिये

Archana Tiwari on अगस्त 03, 2010 ने कहा…

bahut sunder nazmen...shukriya

कंचन सिंह चौहान on अगस्त 04, 2010 ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
कंचन सिंह चौहान on अगस्त 04, 2010 ने कहा…

बहुत दिनो की बात है मैने आपके ही माध्यम से पढ़ी थी।

बाकि ये तीनो नज़्म

बात निकलेगी, तेरे खुशबू से भरे खत और कोई ये कैसे बताये में ये बताना मुश्किल है कि किसने ज्यादा परेशान किया।

बस इतना पता है कि इसका रंग आज भी नही उतरा, किसी भारी दिन में अब भी मन से सुन लूँ तो आँसू निकल आयें...

रंजना on अगस्त 04, 2010 ने कहा…

आपने ऐसा नायब खजाना दे दिया है कि बार बार आना पड़ रहा है उसमे से मोतियाँ बीनने...

Manisha Dubey ने कहा…

aapne toh jagjit ji ke uper itni saari jankari deker samaa bandh diya, such maniye hame bahut si ghazals ke baare me pata chala jo kabhi suni hi nahi thi.

aisi hi chand panktiyan zahan me aa rahi hain" kahte hain tarikh hamesha apne ko dohraati hai, achcha mera khawbe-jawani thoda sa dohraye toh".

ye mene jagjitji ke aawaz me hi suni thi,ager aap shayer saheb ka naam bata sake to badi aabhari rahungi.

Manish Kumar on अगस्त 06, 2010 ने कहा…

झूठ है सब तारीख हमेशा अपने को दोहराती है
अच्छा मेरा ख्वाब-ए-जवानी थोड़ा सा दोहराए तो

मनीषा जी ये पंक्तियाँ जगजीत की ग़ज़ल देर लगी आने में मुझको.. से हैं और इसके शायर अन्दलीब शादानी साहब हैं।

"अर्श" on अगस्त 08, 2010 ने कहा…

पुरे दिन आपके ब्लॉग पे रहा ... अभी फिर से हूँ .. मैगी खा रहा हूँ और फिर से सुन रहा हूँ ... स्वाद कितना गुना बढ़ गया उफ्फफ्फ्फ़.

अर्श

Himanshu Pandey on अगस्त 24, 2010 ने कहा…

पहले तो तस्वीर के लिए बधाई ! इस जगजीत को देखना बेहतर अनुभव है ! अपने भीतर भी संभावनाएं दिखती हैं !

नज़्मों को गाने का अनोखा अंदाज है जगजीत जी का ! बेहद संजीदगी से गाई हुई नज़्में ये है ! मन का सारा कुछ जैसे इनमें बह आया है..जगजीत के स्वर-प्रवाह के साथ !

’बात निकलेगी...’ को गाकर १०१ रूपए पाए थे मैंने नौवीं कक्षा में क्लासटीचर से । तब से इसे अनगिन बार गाया-सुना-समझा-महसूसा है !

आभार !

Unknown on सितंबर 28, 2010 ने कहा…

Janab Aap Ka Bahut Shukriya Ke Aap ne Mere Walid (Father) Janab Kafeel Aazar Marhoom Sahab Ke Tareef Mai Itna Kuch Likha.
Aap Ke Or Janab Kafeel Aazar Sahab Key Tamam Chahnewaloo Ko Bata Du Ke Janab Kafeel Aazar Sahab Apne Abai Watan (Janam Sthan) Amroha Me Dafan Hain.

Unknown on सितंबर 28, 2010 ने कहा…

Janab Kafeel Aazar Sahib Ke Kuch Behtreen Ghazal's Or Geeto ke Ek Album Last Year Luanch Huai Hai.

Jise Aawaz De hai Sateeh Babbar or Unki Beti Vani Babbar Ne. Album ka Nam Hai
"Mera Dil Dharak Raha Hai"

Mera email : yawarkafeel76@gmail.com

shyamc on फ़रवरी 08, 2019 ने कहा…

मनमोहक

 

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