बुधवार, फ़रवरी 16, 2011

वार्षिक संगीतमाला 2010 - पॉयदान संख्या 12 : कान्हा . बैरन हुयी बाँसुरी... दिन तो कटा, साँझ कटे, कैसे कटे रतियाँ ?

बारहवी पॉयदान पर पहली बार इस साल की संगीतमाला में प्रवेश कर रहे हैं संगीतकार साज़िद वाज़िद। पर फिल्म दबंग के लिए नहीं बल्कि साल के शुरु में आई फिल्म 'वीर' के लिए। गीत के बोल लिखे हैं गुलज़ार साहब ने और इसे अपनी आवाज़ दी है रेखा भारद्वाज ने। जब भी किसी गीत के क्रेडिट में रेखा जी का नाम आता है गीत की प्रकृति के बारे में बहुत कुछ अंदाज मिल जाता है। सूफ़ी संगीत से अपने कैरियर की शुरुआत और पहचान बनाने वाली रेखा जी ने जहाँ पिछले कुछ वर्षों में लोकगीत के रंग में समाए ठेठ गीत गाए हैं वहीं उप शास्त्रीय गीतों में भी उनकी आवाज़ और लयकारी कमाल की रही है।

अपने उसी अंदाज़ को रेखा जी ने वीर फिल्म की इस 'ठुमरी' में बरक़रार रखा है। वैसे शास्त्रीय संगीत से ज्यादा नहीं जुड़े लोगों के लिए उप शास्त्रीय संगीत की इस विधा के बारे मे् कुछ बातें जानना रोचक रहेगा। शास्त्रीय संगीत के जानकार उन्नीसवी शताब्दी को ठुमरी का उद्भव काल बताते हैं। ठुमरी से जुड़े गीत रूमानी भावों से ओतप्रोत होते हुए भी सात्विक प्रेम पर आधारित होते हैं और अक्सर इन गीतों में नायक के रूप में भगवान कृष्ण यानि हमारे कान्हा ही नज़र आते हैं। ठुमरी की लोकप्रियता लखनऊ में नवाब वाज़िद अली शाह के शासनकाल में बढ़ी।

ठुमरी में रागों के सम्मिश्रण और अदाकारी का बड़ा महत्त्व है। वैसे तो अक्सर ठुमरियाँ राग खमाज़,पीलू व काफ़ी पर आधारित होती हैं पर संगीतकार साज़िद वाज़िद ने इस ठुमरी के लिए एक अलग राग चुना। अपने इस गीत के बारे में वो कहते हैं
हमने इस ठुमरी में किसी एक थाट का प्रयोग नहीं किया जैसा कि प्रायः होता है। जिस तरह हमने इस गीत में मिश्रित राग से विशुद्ध राग नंद में प्रवेश किया वो रेखा जी ने खूब पसंद किया। गीत में तबला उसी तरह बजाया गया है जैसा आज से डेढ सौ वर्षों पहले बजाया जाता था। हमने ऐसा इसलिए किया ताकि जिस काल परिवेश में ये फिल्म रची गई वो उसके संगीत में झलके।

ठुमरी उत्तरप्रदेश मे पली बढ़ी इस लिए इस रूप में रचे गीत बृजभाषा में ही लिखे गए। गुलज़ार साहब ने ठुमरी का व्याकरण तो वही रखा पर गीत के बोलों से (खासकर अंतरों में) किसी को भी गुलज़ारिश भावनाओं की झलक मिल जाएगी। कान्हा की याद में विकल नायिका की विरह वेदना को जब दिन के उजियारे, साँझ की आभा और अँधियारी रात की कालिमा जैसे प्राकृतिक बिंबों का साथ मिलता है तो वो और प्रगाढ़ हो जाती है।


गीत एक कोरस से शुरु होता हैं जिसमें आवाज़े हैं शरीब तोशी और शबाब साबरी की। फिर रेखा जी की कान्हा को ढूँढती आवाज़ दिलो दिमाग को शांत और गीत में ध्यानमग्न सा कर देती है। मुखड़े और कोरस के बाद गीत का टेम्पो एकदम से बदल जाता है और मन गीत की लय के साथ झूम उठता है। वैसे भी गुलज़ार की लेखनी मे..साँझ समय जब साँझ लिपटावे, लज्जा करे बावरी. जैसे बोलों को रेखा जी का स्वर मिलता है तो फिर कहने को और रह भी क्या जाता है..


पवन उडावे बतियाँ हो बतियाँ, पवन उडावे बतियाँ
टीपो पे न लिखो चिठिया हो चिठिया, टीपो पे न लिखो चिठिया
चिट्ठियों के संदेसे विदेसे जावेंगे जलेंगी छतियाँ

रेत के टीले पर क्या लिखने बैठ गई? जानती नहीं कि पवन का एक झोंका इन इबारतों को ना जाने कहाँ उड़ा कर ले जाएगा और एक बार तुम्हारे दिल की बात उन तक पहुँच गई तो सोचो उनका हृदय भी तो प्रेम की इस अग्नि से धधक उठेगा ना..

कान्हा आ.. बैरन हुयी बाँसुरी

हो कान्हा आ आ.. तेरे अधर क्यूँ लगी
अंग से लगे तो बोल सुनावे, भाये न मुँहलगी कान्हा
दिन तो कटा, साँझ कटे, कैसे कटे रतियाँ

कान्हा अब ये बाँसुरी भी तो मुझे अपनी सौत सी लगने लगी है। जब जब सोचती हूँ कि इसने तेरे अधरों का रसपान किया है तो मेरा जी जल उठता है। और तो और इसे प्यार से स्पर्श करूँ तो उल्टे ये बोल उठती है। तुम्हीं बताओ मुझे ये कैसे भा सकती है? तुम्हारे बिना दिन और शाम तो कट जाती है पर ये रात काटने को दौड़ती है

पवन उडावे बतियाँ हो बतियाँ, पवन उडावे बतियाँ..
रोको कोई रोको दिन का डोला रोको, कोई डूबे, कोई तो बचावे रे
माथे लिखे म्हारे, कारे अंधियारे, कोई आवे, कोई तो मिटावे रे
सारे बंद है किवाड़े, कोई आरे है न पारे
मेरे पैरों में पड़ी रसियाँ

चाहती हूँ के इस दिन की डोली को कभी अपनी आँखो से ओझल ना होने दूँ। जानती हूँ इसके जाते ही मन डूबने लगेगा। मेरे भाग्य में तो रात के काले अँधियारे लिखे हैं।  समाज की बनाई इस चारदीवारी से बाहर निकल पाने की शक्ति मुझमें नहीं और कोई दूसरा भी तो नहीं जो मुझे इस कालिमा से तुम्हारी दुनिया तक पहुँचने में सहायता कर सके।

कान्हा आ.. तेरे ही रंग में रँगी
हो कान्हा आ आ... हाए साँझ की छब साँवरी
साँझ समय जब साँझ लिपटावे, लज्जा करे बावरी
कुछ ना कहे अपने आप से आपी करें बतियाँ

जानते हो जब ये सलोनी साँझ आती है तो मुझे अपने बाहुपाश में जकड़ लेती है। तेरे ख्यालों में डूबी अपने आप से बात करती हुई तुम्हारी ये बावरी उस मदहोशी से बाहर आते हुए कितना लजाती है ये क्या तुम्हें पता है?

दिन तेरा ले गया सूरज, छोड़ गया आकाश रे
कान्हा कान्हा कान्हा.....



अब 'एक शाम मेरे नाम' फेसबुक के पन्नों पर भी...
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10 टिप्पणियाँ:

वाणी गीत on फ़रवरी 16, 2011 ने कहा…

कान्हा ..बैरन हुई बांसुरी ..

बहुत ही मधुर गीत !

कंचन सिंह चौहान on फ़रवरी 16, 2011 ने कहा…

देर तक कान में हेडफोन डाल के, रिपीट मोड आन कर, सुना है ये गीत..!

और फिर सुन रही हूँ.....!!

रंजना on फ़रवरी 16, 2011 ने कहा…

नहीं सुना था आज तक यह...

नायाब है...नायाब...

प्लीज मुझे यह फ़ाइल भेज दीजिये न...

आपका कोटि कोटि आभार...

Archana Chaoji on फ़रवरी 16, 2011 ने कहा…

वाह.....बहुत खूब..आनन्द आ गया .....बहुत मधुर.....शुक्रिया...

Ravi Rajbhar on फ़रवरी 19, 2011 ने कहा…

kya baat hai ..
baht khoob....

Manish Kumar on फ़रवरी 20, 2011 ने कहा…

ठुमरी आप सब को पसंद आई जान कर खुशी हुई। रंजना जी फुर्सत मिलते ही आपकी इल्तिज़ा पूरी की जाएगी :)

नीरज गोस्वामी on अप्रैल 02, 2011 ने कहा…

अद्भुत ठुमरी है...मैंने तो आज ही सुनी और सच कहूँ एक बार नहीं बार बार सुनी...आनंद आ गया...शुक्रिया आपका...

नीरज

Sonal Singh on दिसंबर 06, 2014 ने कहा…

Even though I have heard the song ten times over...it is still the explanation written by you for each stanza that has my heart lurching. Beautiful. The song, and your expression.

अनुमेहा ने कहा…

वाह!!lyrics का मतलब इतने अच्छे से बताया है कि अब इस ठुमरी का मजा दुगुना हो गया है.बहुत शुक्रिया -:)

Manish Kumar on दिसंबर 09, 2014 ने कहा…

सोनल व अनुमेहा और क्या कहूँ..अच्छा लगा जानकर कि मेरी ये कोशिश आप दोनों को पसंद आयी

 

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