शुक्रवार, अप्रैल 29, 2011

समझते थे, मगर फिर भी न रखी दूरियाँ हमने, चरागों को जलाने में जला ली उंगलियाँ हमने..

नब्बे से सन दो हजार के दशक में जगजीत सिंह के कई एलबम आए। इनमें से कुछ की बातें तो मैं पहले भी इस श्रृंखला में कर चुका हूँ। अगर सज़दा, कहकशाँ, विज़न्स, इनसाइट, मरासिम और सिलसिले जैसे शानदार एलबमों को छोड़ दें तो जगजीत जी के नब्बे के दशकों के बाकी एलबम शुरु से अंत तक एक सा प्रभाव छोड़ने में असफल रहे थे। पर फिर भी मुझे याद है कि इस दशक में मैंने शायद ही उनका कोई एलबम ना खरीदा हो। दरअसल उस वक़्त जगजीत की आवाज़ में कुछ भी सुनना अमृत पान करने जैसा था। नब्बे के दशक के अच्छे एलबमों की बात तो आगे भी होती रहेगी। आज रुख करते हैं एक ऍसे एलबमों का जो उतने लोकप्रिय नहीं हुए। फिर भी उनकी कुछ ग़ज़लें या कुछ अशआर हमेशा दिल की ज़मीं के करीब रहे।


Love is Blind नाम का एलबम वेनस  ने 1998 में बाजार में उतारा था। एलबम की साइड A में एक ग़ज़ल थी शाहिद कबीर की। ग़जल का मतला तो जानलेवा था ही बाद के शेर भी कम खूबसूरत नहीं थे..

आज हम बिछड़े हैं तो कितने रंगीले हो गए
मेरी आँखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गए

कब की पत्थर हो चुकी थी मुन्तज़िर आँखें मगर
छू के जब देखा तो मेरे हाथ गीले हो गए

एक और ग़जल थी जिसे लिखा था जनाब नज़ीर बनारसी साहब ने। ग़जल के बोल सहज थे और उनमें कहीं बातें किसी भी प्रेमी के दिल को भला बिना छुए कैसे निकल सकती थीं।

कभी खामोश बैठोगे कभी कुछ गुनगुनाओगे,
मैं उतना याद आऊँगा मुझे जितना भुलाओगे।

कभी दुनिया मुक्क़मल बन के आएगी निगाहों में,
कभी मेरे कमी दुनिया की हर इक शय में पाओगे

साइड B की शुरुआत निदा फाज़ली की ग़ज़ल की इन पंक्तियाँ से होती थी...कोई आँखों के पर्दों से दूर जा सकता है पर मन के पर्दों से,,,
तुम ये कैसे जुदा हो गए
हर तरफ हर जगह हो गए

अपना चेहरा ना देखा गया
आईने से ख़फ़ा हो गए

पर अगर कोई पूछे कि Love is Blind की सबसे उम्दा ग़ज़ल कौन थी तो मुझे जनाब वाली असी की ये ग़ज़ल ही दिमाग में आती है। वली असी का ताल्लुक तो मेरठ से था पर बतौर शायर उनकी पहचान लखनऊ आने पर ही हुई। कानों पे झूलते सफेद बालों से पहचाने जाने वाले वाली बेहद धार्मिक प्रवृति के थे। लखनऊ में कहने को उनकी एक दुकान थी मकतब- ए- दीन-ओ- अदब पर वास्तव में वो दुकान से ज्यादा साहित्यकारों, उर्दू सीखने वाले छात्रों के लिए एक क्लब का काम करती थी। हृदय गति रुकने की वज़ह से जब वली इस दुनिया को छोड़ गए तो भी वो एक मुशाएरे में शिरक़त कर रहे थे।

जगजीत की आवाज़ का दर्द और वाली साहब के अशआर मुझे इतने सालों बाद भी इस ग़ज़ल को सुनने को मज़बूर कर देते हैं। आशा है आपको भी करेंगे...



समझते थे, मगर फिर भी न रखी दूरियाँ हमने
चरागों को जलाने में जला ली उंगलियाँ हमने

कोई तितली हमारे पास आती भी तो क्या आती
सजाये उम्र भर कागज़ के फूल और पत्तियाँ हमने

यूं ही घुट घुट के मर जाना हमें मंज़ूर था लेकिन
किसी कमज़र्फ पर ज़ाहिर ना की मजबूरियाँ हमने

हम उस महफिल में बस इक बार सच बोले थे ए वाली
ज़ुबान पर उम्र भर महसूस की चिंगारियाँ हमने


इस श्रृंखला में अब तक
  1. जगजीत सिंह : वो याद आए जनाब बरसों में...
  2. Visions (विज़न्स) भाग I : एक कमी थी ताज महल में, हमने तेरी तस्वीर लगा दी !
  3. Visions (विज़न्स) भाग II :कौन आया रास्ते आईनेखाने हो गए?
  4. Forget Me Not (फॉरगेट मी नॉट) : जगजीत और जनाब कुँवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' की शायरी
  5. जगजीत का आरंभिक दौर, The Unforgettables (दि अनफॉरगेटेबल्स) और अमीर मीनाई की वो यादगार ग़ज़ल ...
  6. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 1
  7. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 2
  8. अस्सी के दशक के आरंभिक एलबम्स..बातें Ecstasies , A Sound Affair, A Milestone और The Latest की

मंगलवार, अप्रैल 19, 2011

पंचम और उनकी 'मादल' तरंग जिससे बना एक कर्णप्रिय नग्मा : तेरे बिना जिया जाए ना...

पंचम दा एक ऐसे संगीतकार थे जो संगीत संयोजन में नित नए प्रयोग किया करते थे। वैसे तो पंचम, किशोर और गुलज़ार की तिकड़ी के जाने कितने ही गीत सत्तर के दशक के मेरे सर्वप्रिय गीतों में रहे हैं पर उनके कुछ गीत ऐसे हैं जो उनमें प्रयुक्त धुनों और तालों की वज़ह से यादों से कभी दूर नहीं होते। आज 1978 में बनी फिल्म 'घर' का ऐसा ही गीत याद आ रहा है जिसका मुखड़ा और साथ में बजते 'मादल' की अनूठी ताल और उसके साथ स्पैनिश गिटार का अद्भुत संयोजन गीत को एक अलग ही पहचान देता था। ये गीत था स्वर कोकिला लता मंगेशकर का गाया नग्मा तेरे बिना जिया जाए ना...। तो इससे पहले कि मैं आप को ये बताऊँ कि पंचम दा ने इस गीत में नया क्या किया था, ये जान लेना जरूरी होगा कि आखिर मादल वाद्य यंत्र है क्या?

मादल भारत के अन्य पारंपरिक ताल वाद्यों की तरह ही दिखता है पर है ये नेपाल की भूमि में पनपा वाद्य यंत्र, जिसका वहाँ के पहाड़ी लोग लोक गीतों में प्रयोग करते थे। भारत के उत्तर पूर्वी इलाकों और उत्तर बंगाल में भी इसका प्रयोग होता रहा। ढोलक और पखावज की तरह ही मादल को दोनों तरफ से बजाया जाता है पर इनकी तुलना में मादल छोटा और हल्का होता है। इसके बड़े वाले छोर से नीचे के सुर निकलते हैं जबकि छोटे वाले छोर से ऊपर के।

पंचम को इस नेपाली वाद्य यंत्र से परिचित कराने का श्रेय नेपाल के मादल वादक रंजीत गाजमेर को जाता है जिन्हें पंचम 'कांचाभाई' भी कहते थे। पंचम दा को इस वाद्य यंत्र से कितना लगाव था ये इसी बात से स्पष्ट है कि उन्होंने कांचाभाई को अपनी आर्केस्ट्रा का स्थायी सदस्य बना दिया था।

विविध भारती पर पंचम की संगीत यात्रा वाले कार्यक्रम में आशा व गुलज़ार जी से इस गीत में किए गए अपने प्रयोग के बारे में बात करते हुए पंचम ने कहा था..

ये बड़ी मजेदार चीज़ है। जिस सुर में गाने की पंक्ति खत्म होती हो, उसी सुर में... उसी सुर का तबला बजे। जैसे हमारे यहाँ तबला तरंग है तो हम लोगों ने कोशिश की कि उसे मादल तरंग में बजाया जाए...
यानि जिस तरह तबला तरंग में एक साथ कई तबलों को अलग अलग सुरों में लगा कर एक साथ बजाया जाता है वैसा ही यहाँ मादल के साथ किया गया। मादल तरंग को देखना चाहते हों तो यहाँ देख सकते हैं।



पंचम ने इस गीत के आरंभिक तीस सेकेंड में जो गिटार की धुन पेश की है उसे जब भी मैं सुनता हूँ इसे बार बार सुनने का दिल करता है और फिर गीत के पचासवें सेकेंड के बाद से पंचम की मादल पर की गई कलाकारी (जिसका ऊपर जिक्र किया गया) सुनने को मिलती है और मन पंचम को उनकी बेमिसाल प्रतिभा के लिए दाद दिये बिना नहीं मानता। गीत सुनने के बाद भी गीत का मुखड़ा और पंचम की धुन घंटों दिलो दिमाग पर अपना असर बनाए रखती है। ऊपर की रिकार्डिंग में आपने लता के साथ किशोर को भी एक अलग तरीके से गाते सुना। आइए अब सुनते हैं लता जी द्वारा गाया ये नग्मा।



तेरे बिना जिया जाए ना
बिन तेरे तेरे बिन साजना
साँस में साँस आए ना
तेरे बिना ...

जब भी ख़यालों में तू आए
मेरे बदन से खुशबू आए
महके बदन में रहा न जाए
रहा जाए ना, तेरे बिना ...

रेशमी रातें रोज़

न होंगी
ये सौगातें रोज़ न होंगी
ज़िंदगी तुझ बिन रास न आए
रास आए ना, तेरे बिना ...


चलते चलते पंचम और उनके मादल प्रेम से जुड़ा एक और किस्सा बताता चलूँ। 1974 में एक फिल्म आई थी 'अजनबी'। पंचम को उसके गीत रिकार्ड करने थे। पर हुआ यूँ कि ठीक उसी वक़्त फिल्म जगत में साज़कारों की हड़ताल हो गई। इंटरल्यूड्स में संगीत संयोजन में आर्केस्ट्रा का होना तब एक आम बात थी। अब गाना तो रिकार्ड होना था तो किया क्या जाए। पर पंचम तो आखिर पंचम थे। उन्होंने एक रास्ता ढूँढ निकाला। पंचम ने गीत के अंतरे में बजते मादल के रिदम यानि ताल को इंटरल्यूड्स में भी बरकरार रखा और साथ में जोड़ दी ट्रेन की आवाज़ और गाना हो गया सुपर हिट। आप समझ रहे हैं ना किस गीत की बात हो रही है? जी हाँ ये गीत था लता व किशोर की युगल आवाज़ में गाया नग्मा हम दोनों दो प्रेमी दुनिया छोड़ चले...

शुक्रवार, अप्रैल 15, 2011

जो लहरों से आगे नज़र देख पाती तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ :फिल्म उड़ान की कविताएँ

क्या आपको विगत वर्षों में कोई हिंदी फिल्म याद आती है जिसमें हिंदी कविताओं का व्यापक प्रयोग हुआ हो। नहीं ना ! हाँ ये जरूर है कि हिंदी फिल्म संगीत में रुचि रखने वालों को गुलज़ार, जावेद अख्तर, प्रसून जोशी, स्वानंद किरकिरे, इरशाद क़ामिल और अमिताभ भट्टाचार्य सरीखे गीतकारों की वज़ह से काव्यात्मक गीत आज भी बीच बीच में सुनने को मिल जाते हैं। अक्सर ऐसा ना होने का ठीकरा फिल्मवाले आज की पीढ़ी पर मढ़ देते हैं जो उनके ख़्याल से हिप हॉप के आलावा कुछ सुनना ही नहीं चाहती। दरअसल ये तर्क देते हुए वे अपनी इस कमज़ोरी को छुपा जाते हैं कि आज की तमाम फिल्मों की पटकथा व किरदारों का चरित्र चित्रण इतना ढीला होता है कि मानव मन की सूक्ष्म भावनाओ को उभारने वाले गीतों की गुंजाइश ही नहीं रह जाती।

मैं तो यही कहूँगा कि जब जब किसी निर्देशक ने ऐसी चुनौती हमारे गीतकारों के समक्ष रखी है वो इस चुनौती को पूरा करने में सफल रहे हैं। पिछले साल जुलाई में प्रदर्शित उड़ान एक ऐसी ही फिल्म थी जहाँ ये अवसर लेखक व गीतकारों को मिला। फिल्म का किशोर किरदार 'रोहन' एक लेखक बनना चाहता है पर उसके पिता पूरी कोशिश करते हैं कि पुत्र ऐसे वाहियात ख्याल को अपने दिमाग से निकाल कर इंजीनियरिंग जैसे प्रतिष्ठित कैरियर में अपना दम खम लगाए। युवा निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने ने 'रोहन' के मन की हालत को व्यक्त करने के लिए जिन कविताओं को पसंद किया वो फिल्म के साथ साथ उसी युवा वर्ग द्वारा खूब सराही गयीं जिन्हें आज कविताओं से दूर बताया जाता रहा है।

अगर आपने ये फिल्म देखी है तो इन कविताओं को भी सुना होगा। पर क्या आप जानते हैं कि फिल्म में प्रयुक्त कविताओं को लिखने वाला कवि कौन था? ये कविताएँ लिखी थीं सत्यांशु सिंहकुमार देवांशु ने। सत्यांशु सिंह एक लेखक और कवि तो हैं ही, विश्व व भारतीय सिनेमा पर उनकी पैनी नज़र रहती है। फिल्मों से अपने प्रेम को वो अपने ब्लॉग सिनेमा हमेशा के लिए है (Cinema is forever)! पर व्यक्त करते रहते हैं। सत्यांशु के बारे में एक दिलचस्प बात ये भी है कि इन्होंने 2003 मेंAFMC पुणे में दाखिला लिया। पर 2008 में MBBS की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें लगा कि डॉक्टरी के बजाए लेखन ही ज्यादा संतोष दे सकता है और वो इस में अपना कैरियर बनाने मुंबई आ गए।


वैसे सत्यांशु जब निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाणे के पास गए तो उन्होंने उड़ान शीर्षक से अपनी एक कविता सुनाई। कविता तो खूबसूरत थी पर पटकथा में उसका जुड़ाव संभव ना हो पाने के कारण वो फिल्म का हिस्सा नहीं बन पाई। पूरी कविता तो आप उनकी इस ब्लॉग पोस्ट पर पढ़ सकते हैं पर इस कविता का एक छंद जो मुझे बेहद प्रिय है यहाँ आपके साथ साझा करना चाहता हूँ।


ओस छिड़कती हुई भोर को पलकों से ढँक कर देखा है,
दिन के सौंधे सूरज को इन हाथों में रख कर देखा है,
शाम हुयी तो लाल-लाल किस्से जो वहाँ बिखर जाते हैं,
गयी शाम अपनी ‘उड़ान’ में मैंने वो चख कर देखा है.

है ना लाजवाब पंक्तियाँ!

अक्सर माँ बाप किशोरों पर अपनी पसंद नापसंद थोप देते हैं। उन्हें लगता है कि दुनिया ज़हान का सारा अनुभव उन्हें अपनी ज़िंदगी से मिल चुका है। इसलिए अपनी सोच से इतर वो कुछ सुनना समझना नहीं चाहते, खासकर तब, जब ऍसा कोई विचार उन्हें अपने बच्चों द्वारा सुनने को मिलता है। ऐसे हालात किशोरों की मनःस्थिति पर क्या असर डालते हैं ये सत्यांशु ने रोहन के किरदार के माध्यम से बखूबी कहलाया है।



जो लहरों से आगे नज़र देख पाती तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ
वो आवाज़ तुमको भी जो भेद जाती तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ
जिद का तुम्हारे जो पर्दा सरकता तो खिड़कियों से आगे भी तुम देख पाते
आँखों से आदतों की जो पलकें हटाते तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ

मेरी तरह खुद पर होता ज़रा भरोसा तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते
रंग मेरी आँखों का बांटते ज़रा सा तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते
नशा आसमान का जो चूमता तुम्हें भी, हसरतें तुम्हारी नया जन्म पातीं
खुद दूसरे जनम में मेरी उड़ान छूने कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते

सत्यांशु की कविता युवाओं में इतनी लोकप्रिय हुई क्यूँकि उसकी भावनाएँ कहीं ना कहीं उनके दिल के तारों को छू कर निकलती थीं। इस कविता का एक और हिस्सा भी है जो फिल्म में नहीं था

मीठी-सी धुन वो तुम्हें क्यूँ बुलाती नहीं पास अपने, पड़ा सोचता हूँ;
थाम हाथ लहरें कहाँ ले चलेंगी - रेत पर तुम्हारे खड़ा सोचता हूँ;
खोल खिड़कियाँ जब धूप गुदगुदाए, क्यूँ नींद में पड़े हो, क्या ख्वाब की कमी है?
अखबार और बेड-टी के पार भी है दुनिया - मैं रोज़ इन सवेरों में गड़ा सोचता हूँ.

तो चलिए सुनते हैं 'रोहन' की आवाज़ में उड़ान फिल्म की ये कविताएँ...

आज की हिंदी कविता की प्रासंगिकता पर समय समय पर वाज़िब प्रश्न उठते रहे हैं। इस युग की कविता का शिल्प विस्तृत हुआ है, कविताओं में व्यक्त विचारों की गहनता बढ़ी है। पर साथ ही साथ उसकी क्लिष्टता और रसहीनता ने उसे आम जनों से बहुत दूर सिर्फ साहित्यकार मंडली की शोभा मात्र बना दिया है। उडान की इन कविताओं की लोकप्रियता ने फिर ये स्पष्ट कर दिया है कि अगर कविताएँ पाठकों के सरोकारों से जुड़ी हों और सहज भाषा में कही गई हों तो उन्हें पढ़ने वालों की कमी नहीं रहेगी।

चलते चलते पेश हैं उड़ान फिल्म की ये कविता जो मन में एक नई आशा का संचार करती चलती है...


छोटी-छोटी छितराई यादें बिछी हुई हैं लम्हों की लॉन पर
नंगे पैर उनपर चलते-चलते इतनी दूर आ गए
कि अब भूल गए हैं...जूते कहाँ उतारे थे

एड़ी कोमल थी, जब आए थे थोड़ी सी नाज़ुक है अभी भी
और नाज़ुक ही रहेगी इन खट्टी‍-मीठी यादों की शरारत
जब तक इन्हें गुदगुदाती रहे

सच, भूल गए हैं  जूते कहाँ उतारे थे

रविवार, अप्रैल 10, 2011

फ़ैज़ जन्मशती वर्ष विशेष : जब मशहूर अभिनेत्री शबाना आज़मी मिलने गयीं फैज़ अहमद 'फ़ैज़' से...

बचपन से बड़े होते होते ऐसी कई शख़्सियत हमारे जीवन में आती हैं, जिनसे हम खासा प्रभावित रहते हैं। उनसे मिलने की, देखने की और दो बाते करने की हसरत मन में पाले रहते हैं। पर जब किसी सुखद संयोग से हमारी ये मनोकामना पूरी हो जाती है तो अपने उस प्रेरणा स्रोत के सामने अपने आप को निःशब्द पाते हैं। पर ऐसा सिर्फ मेरे आपके जैसे आम लोगों के साथ  ही होता है ऐसा भी नहीं है। बड़े बड़े सेलीब्रिटी भी जब अपने पसंदीदा व्यक्तित्व के पास अपने आप को पाते हैं तो उनकी हालत भी कुछ वैसी ही हो जाती है।

एक ऐसा ही किस्सा याद आता है जो जानी मानी अभिनेत्री शबाना आज़मी ने एक बार अपने साक्षात्कार में अपने प्रिय शायर फ़ैज़ अहमद 'फैज़' की याद में सुनाया था। जैसा कि आपको मालूम होगा कि ये साल फ़ैज़ की जन्मशती वर्ष भी है तो मैंने सोचा क्यूँ ना उस रोचक किस्से को आप सब से साझा किया जाए। शबाना जी के लिए फ़ैज़, शेक्सपियर, कीट्स और ग़ालिब जैसे उस्ताद कवियों शायरों से भी ज्यादा पसंदीदा शायर रहे हैं। अब उन्हीं की जुबानी सुनिए कि जब फ़ैज से उनकी प्रत्यक्ष मुलाकात हुई तो उसका उनके दिल ओ दिमाग पर क्या असर पड़ा...



"एक बार ऐसा हुआ था कि मास्को फिल्म फेस्टिवल के दौरान मुझे पता चला कि फ़ैज़ साहब भी वहीं हैं तो मैं बहुत खुशी से गई उनसे मिलने के लिए। तो फिर उन्होंने कहा कि बेटा तुम शाम को आओ मुझसे मिलने तो मैं फिर गई उनके कमरे में। तो उन्होंने कहा कि कुछ शेर हो गए हैं लो पढ़ो बिल्कुल नए हैं। मेंने ज़रा सा खिसियाते हुए, सर खुजाते हुए कहा ...

फ़ैज़ चाचा मैं उर्दू नहीं पढ़ सकती। वो एकदम से आगबबूला हो गए और कहने लगे...

क्या मतलब है तुम्हारा ? नामाकूल हैं तुम्हारे माँ बाप ...
(सनद रहे कि शबाना आज़मी मकबूल और अज़ीम शायर कैफ़ी आजमी की बेटी हैं और फ़ैज़ उनके माता पिता के अच्छे मित्रों में से थे। ऐसी उलाहना आत्मीय मित्रों को ही दी जा सकती है )


मैंने सफाई देते हुए कहा कि ऐसा नहीं है। मगर मैं शायरी खूब अच्छी तरह समझ सकती हूँ। आप की बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ और मैं उर्दू समझती हूँ। सिर्फ लिख पढ़ नहीं सकती। आप की पूरी शायरी मुझे मुँहज़ुबानी याद है। जैसे कि.. जैसे कि.. और उस वक़्त मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा था। मैंने कहा जैसे कि
"देख कि दिल की जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है...."

तो उन्होंने एक क़श लेते हुए कहा. कि भई ....वो तो मीर का क़लाम है...

मैंने कहा कि नहीं नहीं मेरा मतलब वो थोड़ी था मतलब...

"बात करनी कभी मुझे मुश्किल कभी ऍसी तो ना थी.."
तो फिर उन्होंने अपनी सिगरेट रखी और कान खुजाते हुए कहा कि देखिए भई मीर की हद तक तो ठीक था पर बहादुर शाह ज़फर को मैं शायर नहीं मानता...

इतना सुनना था कि मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया और किसी तरह मुँह छुपाते हुए  मैं कमरे से निकल गई। मैंने सोचा ये सचमुच समझेंगे कि मुझे कुछ नहीं आता और मैं बाहर गई और उनकी तमाम शायरी मुझे पट पट पट पट पट याद आ गई। पर उस वक़्त मैं इतना घबड़ा गई थी कि मुझे कुछ याद नहीं आया। फ़ैज चाचा से मुलाकात का ये एक ऍसा वाक़या है जो मैं जिंदगी भर नहीं भूलूँगी।"

वैसे क्या आपको पता है कि शबाना एक कुशल अभिनेत्री के साथ साथ एक अच्छी गायिका हैं? सुनिए उनकी आवाज़ फ़ैज़ की ये मशहूर नज़्म जो हमेशा से लोगों की आवाज़ को हुक्मरानों तक पहुंचाने के लिए प्रेरित करती रही है। कुछ वर्षों पहले मैंने इस नज़्म को टीना सानी की आवाज़ में आप तक पहुँचाया था



बोल कि लब आजाद हैं तेरे
बोल, जबां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां* जिस्म हे तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
* तना हुआ

देख कि आहनगर* की दुकां में
तुन्द** हैं शोले, सुर्ख है आहन^
खुलने लगे कुफलों के दहाने^^
फैला हर जंजीर का दामन
*लोहार, ** तेज, ^लोहा, ^^तालों के मुंह

बोल, ये थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्मों जबां की मौत से पहले
बोल कि सच जिंदा है अब तक
बोल कि जो कहना है कह ले

शुक्रवार, अप्रैल 01, 2011

ठहरिए होश में आ लूँ तो चले जाइएगा..मन को गुदगुदाता रफ़ी साहब का नग्मा..

1965 में एक फिल्म आई थी जिसका नाम था 'मोहब्बत इसको कहते हैं'। अख़्तर मिर्जा द्वारा लिखी और निर्देशित इस छोटे बजट की फिल्म के कुछ गीत बेहद लोकप्रिय हुए थे। वैसे ये बता दूँ की ये वही अख़्तर मिर्जा हैं जिनके सुपुत्र सईद मिर्जा की बनाई फिल्में 'सलीम लँगड़े मत रो', 'अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यूँ आता है?', 'नसीम' और अस्सी के दशक में सोमवार रात को दूरदर्शन पर आने वाला धारावाहिक 'नुक्कड़' बेहद चर्चित रहे थे।

अख्तर मिर्जा की इस प्रेम कथा पर संगीत रचने का काम सौंपा गया था 'ख़य्याम' साहब को। ख़्य्याम साहब की खासियत रही है कि वो अपने गीत चुने हुए कवियों और शायरों से ही लिखवाते थे। लिहाज़ा इस फिल्म के लिए उन्होंने उस वक़्त के मशहूर शायर मजरूह सुल्तानपुरी को चुना।

प्रेमियों की आपसी चुहल और तकरार पर यूँ तो कितने ही गीत बने हैं पर रफ़ी और सुमन कल्याणपुर द्वारा गाए इस युगल गीत में इतनी मधुरता और सादगी है कि सुनने वाला बस सुनता ही रह जाता है। मोहम्मद रफ़ी ने इस गीत के हर अंतरे को इतना दिल से गाया है कि गीत की पंक्तियों सजीव हो उठती हैं। मुझे नहीं लगता कि कोई भी संगीत प्रेमी इस गीत को सुनते वक़्त गुनगुनाने से अपने आप को रोक सके..



आइए सुनते हैं रफी और सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में ये नग्मा...



ठहरिए होश में आ लूँ तो चले जाइएगा
उह हुँह...
आप को दिल में बिठा लूँ तो चले जाइयेगा
उह हुँह..आप को दिल में बिठा लूँ .........

कब तलक रहिएगा यूँ दूर की चाहत बन के
कब तलक रहिएगा यूँ दूर की चाहत बन के
दिल में आ जाइए इकरार-ए-मोहब्बत बन के
अपनी तकदीर बना लूँ तो चले जाइएगा
उह हुँह..आप को दिल में बिठा लूँ तो चले जाइएगा
आप को दिल में बिठा लूँ....

मुझको इकरार-ए-मोहब्बत से हया आती है
मुझको इकरार-ए-मोहब्बत से हया आती है
बात कहते हुए गर्दन मेरी झुक जाती है
देखिये सर को झुका लूँ तो चले जाइएगा
उह हुँह..देखिये सर को झुका लूँ तो चले जाइएगा
हाय... आप को दिल में बिठा लूँ.......

ऐसी क्या शर्म ज़रा पास तो आने दीजे
ऐसी क्या शर्म ज़रा पास तो आने दीजे
रुख से बिखरी हुई जुल्फें तो हटाने दीजे
प्यास आँखों की बुझा लूँ तो चले जाइएगा
ठहरिये होश में आ लूँ तो चले जाइएगा
हम हम हम... ला ला ला...
आप को दिल में बिठा लूँ तो चले जाइएगा
आप को दिल में बिठा लूँ

इस गीत को फिल्माया गया था शशि कपूर और नंदा पर...

 

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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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