शनिवार, मई 14, 2011

'वरुण के बेटे' : मछुआरों की जिंदगी में झाँकता नागार्जुन का एक आंचलिक उपन्यास

'वरुण के बेटे' हिंदी और मैथिल के जाने माने कवि  व उपन्यासकार नागार्जुन का एक लघु उपन्यास है। नागार्जुन ने इस उपन्यास के माध्यम से मछुआरों की जीवन शैली, उनके रहन सहन और उनके उन सरोकारों की ओर झाँकने का प्रयास किया है जिनसे उनकी रोज़ी रोटी की बुनियाद जुड़ी है।


नागार्जुन की कथ्य शैली निश्चय ही इस उपन्यास को एक आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में ला खड़ा करती है। जिस विस्तार से मछुआरों के जीवन की हर छोटी बड़ी बात को लेखक उपन्यास में समाहित करते चलते हैं उससे ये तो स्पष्ट है कि वो मछुआरों के इस इलाके से चप्पे चप्पे से वाकिफ़ हैं। और हों भी क्यूँ ना ! आख़िर बाबा नागार्जुन का जन्म ही दरभंगा जिले के तरौनी में हुआ था। उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था। पिता पुरोहित थे और इसी पुरोहिती के सिलसिले में वे पिता के साथ गाँव गांव का चक्कर काटते रहते थे। ये लघु उपन्यास भी इसी इलाके में अवस्थित एक जलाशय गढ़-पोखर और उससे जुड़े लोगों की कहानी कहता है। लेखक पाठकों को गढ़-पोखर का परिचय कुछ यूँ कराते हैं.....
केले के मोटे-मोटे थंम, कटे हुए। सात-आठ रहे होंगे। छै-छै हाथ लंबे। वे एक-दूसरे से सटाकर बाँधे गए थे। अच्छी-खासी नाव का काम दे रहे थे। 
घुप्प अँधेरा। 
कड़ाके की सर्द। 
नीचे अथाह पानी। ऊपर नक्षत्र-खचित नील आकाश।
परछाई में तारे जँच नहीं पा रहे थे क्योंकि छोटी-बड़ी हिलकोरें पानी को चंचल किए हुए थीं। कदली-थंभों की यह नाव पोखर की छाती पर हचकोले खा रही थी। बदन की समूची ताकत बाँहों में बटोरकर जाल फेंकते वक्त इसका आधा हिस्सा पानी के अंदर धँस जाता था और तब उस अतिरिक्त दबाव से जलराशि की मोटी-मोटी तरंल-मालाएँ एक के बाद एक मिनटों तक उमड़ती रहतीं थी। कोई मामूली तलइया या बागान के अंदर का साधारण चभच्चा तो थी नहीं, वह तो अपने इलाके का प्रख्यात जलाशय ‘गढ़-पोखर’ था। अवाम की तीखी-खुरदरी जुबान पर घिसते-घिसते गढ़-पोखर अब ‘गरोखर’ हो गया था। चारों तरफ के भिड़ किनारों के बड़े-बड़े कछार, बीच का पानीवाला बड़ा हिस्सा-कुल मिलाकर पचास एकड़ ज़मीन छेके हुए था गरोखर।
'वरुण के बेटे' की पूरी कथा एक छोटे मछुआरे खुरखुन और उसके परिवार के इर्द गिर्द घूमती है। मछुओं में छोटे और बड़े मछुआरों में वही भेद है जो खेती करने वाले एक भूमिहीन और जमीन वाले किसान के बीच होता है। बाबा की लेखनी एक आम मछुआरे की छोटी सी भीत (मिट्टी का घर) का का वर्णन करते हुए कितनी सजीव हो उठती है उसकी बानगी देखिए..

पुआल बिछे थे कोने में, उन पर फटी पुरानी बोरी बिछी थी। एक जवान लड़की और नंग धड़ंग बच्चे बेतरतीब सोए पड़े थे औधना के नाम पर कथरी गुदड़ी के दो तीन छोटे बड़े टुकड़े उन शरीरों को जहाँ तहाँ से ढक रहे थे।दूसरे में चूल्हा चौका। तीसरे में अनाज रखने के कूँड़ और कुठले। चौथा कोना खाली। मछलियाँ पकड़ने और फँसाने के औज़ार भीत की खूँटियों से टँगे थे ‌गाँज,टापी, सहत, सरैला, किस्म किस्म कर डंडे। जालों की कढ़ाई बिनाई में काम आने वाले छोटे बड़े सूए, शलाखें। जालों के अधूरे टुकड़े। ....यानि खुरखुन का समूचा संसार ही तेरह फुट लंबे और नौ फुट चौड़े घर में अटा पड़ा था।

वैसे तो एक ज़माने मे गाँवों के बीच के ये गढ़ैया तलाब जमींदारों की निजी मिल्क़ियत का हिस्सा होते थे। पर आज़ादी के बाद नए कानूनों के आ जाने से जब इन पर भू स्वामियों का अधिकार खत्म होने को आया तो औने पौने में उन्होंने इन जलाशयों में मछली पकड़ने की बंदोबस्ती गैरकानूनी रूप से इलाके के दबंगों को सौंप दी। 'वरुण के बेटे' में बाबा ने इस बदलते परिवेश में उन मछुआरों की कहानी कहनी चाही है जिन्होंने सामूहिक रूप से एक जुट होकर अपने पर होते अन्याय के खिलाफ़ कमर कसी और अपने उद्देश्य में बहुत हद तक सफल भी हुए।

बाबा नागार्जुन के इस उपन्यास में खुरखुन की बिटिया मधुरी का प्रेम प्रसंग भी है। पर ये प्रेम उपन्यास की मुख्यधारा में नहीं है। मधुरी प्रेम तो करती है पर समाज के क़ायदे कानून के भीतर। इसलिए ना तो वो अपने प्रेमी के, ना ही ख़ुद के परिणय सूत्र में बँधने के पहले कोई ऐतराज जताती है।
च तो ये  है कि बाबा के किरदारों में व्यक्तिगत सुख की आकांक्षा से ज्यादा अपने समाज का कल्याण सर्वोपरि है। यही वज़ह है कि ससुराल से पिट पिटाकर मधुरी जब मछुआरों के संगठन में काम करने की इच्छा जताती है तो उसके पिता ना केवल उसे इसकी इज़ाज़त देता है बल्कि बेटी को इस रूप में देखकर वो फक़्र महसूस करता है।

आंचलिक उपन्यासों की एक खासियत होती है कि वो आपको उस अंचल के लोकगीतों से परिचय कराते चलते हैं। मछुआरों के जीवन में तो लोक संगीत वैसे भी पानी में उछलती मछलियों की तरह ही कुलाँचे मारता फिरता है। चाहे मंगल को याद करती मधुरी का ये प्रेम भरा उद्बोधन हो



जिनगी भेल पहाऽऽऽऽऽऽड़, उमिर भेल काऽऽऽऽऽल !
नइ फेक नइ फेक आहे मोर दिलचन
नेहिया पिरितिया के जाऽऽऽऽल
आव आव देखि जा हाऽऽऽऽळ
उमिर भेल काऽऽऽऽऽल !
( तुम्हारे बिना ये जिंदगी पहाड़ सी हो गई, ये जवानी ही परेशानी का सबब बन गई है। औ मेरे दिल के चाँद मुझ पर स्नेह और प्रीत के जाल मत डालो )

या फिर मछुआरों के महाजाल को निकालते समय मछुआरों का सामूहिक गीत



ऊपर टान, हुइ यो ! बाँए दबके, हुइ यो !
झाड़मझाड़, हुइ यो ! पीछे हटके, हुइ यो !
झट झटक, हुइ यो ! , पैर पटक, हुइ यो !
साबित ख्याल, हुइ यो ! , जाल सँभाल, हुइ यो !
रेहू ब्वारी, हुइ यो ! , मोदनी भुन्ना, हुइ यो !
नैनी भाकुर, हुइ यो ! , उजला सोना, हुइ यो !
लाल चाँदी, हुइ यो ! , गंगा मइया, हुइ यो !
कमला मइया, हुइ यो ! , कोसी मइया, हुइ यो !
भारत माता, हुइ यो ! , गान्ही बाबा, हुइ यो !
बाह गरोखर, हुइ यो ! , बाह बहादुर, हुइ यो !

जाल पर नियंत्रण और होशियार रहने की क़वायद के बाद किस तरह ये सामूहिक हुंकारा पारंपरिक मछलियों, मछलियों को पोखर में पहुंचाने वाली नदियों और फिर देश को नया रुख देने वाले गाँधी बाबा के उद्घोष तक जा पहुँचता है ये गौर करने वाली बात है।

बाबा ने अपने कथ्य में इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि मल्लाहों में लोकप्रिय लोकगीतों को उपन्यास में समुचित स्थान मिले। 103 पृष्ठों के इस लघु उपन्यास के खत्म होते होते पाठक अपनेआप को मछुआरों की जीवन शैली के करीब पाता है। एक और बात जो मैंने महसूस की वो ये कि पूरे उपन्यास में कोई भी किरदार विकट परिस्थितियों में जीते हुए भी हताश और लाचार नहीं दिखता। शायद बाबा अपनी इस पुस्तक से पाठकों में अन्याय के खिलाफ़ संघर्ष में आस्था बनाए रखना चाहते हों।


पुस्तक के बारे में
  • प्रकाशक  : राजकमल प्रकाशन
  • मूल्य       : चालिस रुपये मात्र
  • ISBN        : 978-81-267-0182-7
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11 टिप्पणियाँ:

Alok Kumar Tripathi on मई 14, 2011 ने कहा…

Is upnyas se parichay karane aur iski sundar samiksha ke liye dhanyawad Manishji..

राज भाटिय़ा on मई 15, 2011 ने कहा…

बहुत सुंदर समीक्षा की आप ने इस पुस्तक की, धन्यवाद

प्रवीण पाण्डेय on मई 16, 2011 ने कहा…

दृश्यों की गहनता और अवलोकन की सूक्ष्मता।

Vibha Rani on मई 16, 2011 ने कहा…

सुंदर समीक्षा. बाबा ने अपने मिथिला इलाके का जीवन चित्र खींचा है तो जाहिर है कि वहां की भाषा की गंध आएगी ही. मगर इसका यह मतलब नहीं कि उनके लेखन को आंचलिक लेखन के काते में डाल दिया जाए. एक समय था, जब तथाकथित मुख्य धारा के हिंदी लेखकों ने अपनी राजनीति और अपने वर्चस्व के लिए फणीश्वर नाथ रेणु जैसे साहित्यकर को आंचलिकता के खाते में डाल दिया था. जो जिस प्रदेश की पृष्ठभूमि पर लिखेगा, उसकी लेखनी में वह भाषा बोली, संस्कृति आयेगी ही, यही सच्चे लेखक की ईमानदारी भी है. बाबा या रेणु आंचलिक नहीं पूरे देश के कथाकार हैं.

Abhishek Ojha on मई 16, 2011 ने कहा…

लिस्ट में डाली जा रही है. ये तो बहुत जल्दी खत्म हो जायेगी. बस खरीदने में जितना समय लगे.

Manish Kumar on मई 16, 2011 ने कहा…

विभा जी इस पुस्तक चर्चा में मैंने इस उपन्यास को एक आंचलिक उपन्यास जरूर कहा है पर लेखक सिर्फ एक आंचलिक उपन्यासकार हैं ऐसा न ही मैंने इस लेख में लिखा है और ना ही मेरी ऐसी कोई मान्यता है।
बाब नागार्जुन का रचना संसार इससे कहीं विस्तृत और समृद्ध है। इसलिए उन्हें किसी के एक कोटि के कवि या उपन्यासकार के रूप में कैसे देखा जा सकता है?

yadunath on मई 17, 2011 ने कहा…

Upanyas "Varun ke bete"ki sameeksha bahut hi rochak lagi.Padh kar aisa laga mano aapne "Trailer" hi dikha diya.Sunder evam rochak prastuti ke liye koti-koti DHANYAVAD.Asha hai aapke Is Talent ka labh hamein bhavishya mein bhi isi prakar milta rahega.Meri shubh kaamanaon ke saath DHANYAVAD.

रंजना on मई 19, 2011 ने कहा…

लिस्ट में यह भी ऐड कर लिया....

बहुत बहुत आभार...

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` on मई 20, 2011 ने कहा…

Aanchlik katha - kahaniyan mujhe behad pasand hain ab ye kahanee padhna chatee hoon - thanx for letting us know about it ...good article Manish bhai - Jai Baba Nagarjun ...Haiyy yo ji Haiyyo ....

Manish Kumar on जुलाई 03, 2011 ने कहा…

रंजना जी, राज जी, अभिषेक, प्रवीण, लावण्या जी, विभा जी, आलोक जी, यदुनाथ जी इस पुस्तक चर्चा में आकर अपनी राय ज़ाहिर करने के लिए आभार !

Unknown on जनवरी 06, 2021 ने कहा…

Madhuri k charitra per ek note dijiy na plz

 

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