गुरुवार, जुलाई 14, 2011

सुनो आतंकवादी,मुझे गुस्सा भी आता है, तरस भी आता है तुम पर : जावेद अख़्तर

31 महिनों का अंतराल और फिर वही बम धमाका। इस पर मुंबईवासियों को गृह मंत्री की पीठ ठोकनी चाहिए या फिर ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करना चाहिए। इतना तो सही है कि शिवराज पाटिल के ज़माने में आम जनता में जो लाचारी और नैराश्य का भाव चरम पर था उसमें पिछले कुछ सालों में काफी कमी आई थी। आज चिंदाबरम के हिसाब से देश का कोई कोना सुरक्षित नहीं है। पर इसमें नया क्या है। राहुल बाबा कहते हैं कि हम ऐसे हादसों को रोक नहीं सकते। मुझे इनसे असहमत होने का कोई कारण नहीं दिखता। ये सब तो हम भारतवासी अच्छी तरह जानते ही हैं। पर इन हुक्मरानों के मुंह से ऐसा सुनना अच्छा नहीं लगता।

अगर राहुल इतनी ही साफगोई बरतना चाहते थे तो उन्हें  ये भी जोड़ना चाहिए था कि खासकर तब जब यहीं के लोग बाहरी शक्तियों से मिल जाएँ । ऐसा पुलिस व खुफ़िया तंत्र मजबूत कर देने भर से ही नहीं होगा। उसके लिए स्पष्ट नीतियों की आवश्यकता होती है और उससे भी अधिक उन्हें तेज़ी से कार्यान्वित करने की इच्छा शक्ति। पिछले कई सालों से तो यही देखता आया हूँ कि ये सरकार दो कदम आगे बढ़ाती है फिर चार कदम पीछे भी हटती नज़र आती है।

आज जब सरकार की ओर से मायूसी और निराशा के स्वर उभर रहे हैं तो मुझे जावेद अख़्तर साहब की दो साल पहले मुंबई हमले की बरसी पर लिखी ये नज़्म याद आ रही है जो निराशा के इस माहौल में भी हमारी उम्मीद और हौसले को जगाए रखती है। जावेद साहब ने इस नज़्म में वही भावनाएँ, वही आक्रोश व्यक्त किया हैं है जो ऐसे हादसों के बाद हमारे जैसे आम जन अपने दिल में महसूस करते हैं..

मुझे पूरा यक़ी हैं कि जावेद साहब की आवाज़ में जब आप ये नज़्म सुनेंगे तो बहुत देर तक उनके कहे शब्द आपके दिलो दिमाग को झिंझोड़ कर रख देंगे..

महावीर और बुद्ध की,
नानक और चिश्ती की,और गाँधी की धरती पर,
मैं जब आतंक के ऐसे नज़ारे देखता हूँ तो,
मैं जब अपनी ज़मीं पर अपने लोगों के लहू के बहते धारे देखता हूँ तो,
मेरे कानों में जब आती हैं उन मज़बूर ग़म से लरज़ती माओं की चीखें,
कि जिनके बेटे यह कहकर गए थे, शाम से पहले ही घर लौट आएँगे हम तो,
मैं जब भी देखता हूँ सूनी और उजड़ी हुई मांगें,
ये सब हैरान से चेहरे, ये सब भींगी हुई आँखें,
तो मेरी आँखें हरसू ढूँढती हैं उन दरिन्दों को,
जिन्होंने ट्रेन में, बस में, जिन्होंने सडको में, बाजारों में बम आके हैं फोड़े,
जिन्होंने अस्पतालों पर भी अपनी गोलियाँ बरसाई, मंदिर और मस्जिद तक नहीं छोड़े,
जिन्होंने मेरे ही लोगों के खूँ से मेरे शहरों को रँगा है,
वो जिनका होना ही हैवानियत की इंतहा है,
मेरे लोगों जो तुम सबकी तमन्ना है, वही मेरी तमन्ना है,
कि इन जैसे दरिंदों की हर एक साज़िश को मैं नाकाम देखूँ,
जो होना चाहिए इनका मैं वो अंज़ाम देखूँ ,
मगर कानून और इंसाफ़ जब अंजाम की जानिब इन्हें ले जा रहे हों तो,
मैं इनमें से किसी भी एक से इक बार मिलना चाहता हूँ.

मुझे यह पूछना है,
दूर से देखूँ तो तुम भी जैसे एक इंसान लगते हो,
तुम्हारे तन में फिर क्यूँ भेड़ियों का खून बहता है ?
तुम्हारी साँस में साँपों की ये फुंकार कबसे है ?
तुम्हारी सोच में यह ज़हर है कैसा ?
तुम्हें दुनिया की हर नेकी हर इक अच्छाई से इंकार कबसे है?
तुम्हारी ज़िन्दगी इतनी भयानक और तुम्हारी आत्मा आतंक से बीमार कबसे है?


सुनो आतंकवादी,
मुझे गुस्सा भी आता है, तरस भी आता है तुम पर,
कि तुम तो बस प्यादे हो,
जिन्होंने है तुम्हें आगे बढ़ाया वो खिलाडी दूर बैठे हैं,
बहुत चालाक बनते हैं, बहुत मगरूर बैठे हैं,
ज़रा समझो, ज़रा समझो, तुम्हारी दुश्मनी हम से नहीं हैं,
जहाँ से आए हो मुड़कर ज़रा देखो, तुम्हारा असली दुश्मन तो वहीं हैं,
वो जिनके हाथ में कठपुतलियों की तरह तुम खेले,
वो जिनके कहने पर तुमने बहाए खून के रेले,
तुम्हारे तो है वो दुश्मन, जिन्होंने नफ़रतों का यह सबक तुमको रटाया है,
तुम्हारे तो है वो दुश्मन जिन्होंने तुमको ऐसे रास्ते में ला के छोड़ा है,
जो रास्ता आज तुमको मौत के दरवाज़े लाया है,
यह एक धोखा है, एक अँधेर है, एक लूट है समझो,
जो समझाया गया है तुमको वो सब झूठ है समझो,


कोई पल भर न ये समझे की मैं ज़ज़्बात में बस यूँ ही बहता हूँ,
मुझे मालूम है वो सुन रहे हैं जिनसे कहता हूँ,
अभी तक वक़्त है जो पट्टियाँ आँखों की खुल जाएँ,
अभी तक वक़्त है जो नफ़रतों के दाग धुल जाएँ,
अभी तक वक़्त है हमने कोई भी हद नहीं तोड़ी,
अभी तक वक़्त है हमने उम्मीद अब तक नहीं छोड़ी,
अभी तक वक़्त है चाहो तो ये मौसम बदल जाएँ,
अभी तक वक़्त है जो दोस्ती की रस्म चल जाए,
कोई दिलदार बनके आए तो दिलदार हम भी हैं,
मगर जो दुश्मनी ठहरी तो फिर तैयार हम भी हैं.


 ताकि सनद रहे
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10 टिप्पणियाँ:

रवि शंकर on जुलाई 15, 2011 ने कहा…

जावेद साहब ने बहुत अच्छा लिखा है पर आज उनसे सहमत होने का मन नहीं, अब केवल गुस्सा है कोई तरस नहीं, और गुस्सा उन टुच्चों पर नहीं अपने नपुंसक नेताओं पर है ज्यादा .. जिसने आम जनता को कभी कीड़े मकोड़े समझा और कभी राजनीति की बिसात का प्यादा..

प्रवीण पाण्डेय on जुलाई 15, 2011 ने कहा…

आँसू तो हम सबकी आँखों में है, नीचता की पराकाष्ठा है।

Rachana on जुलाई 15, 2011 ने कहा…

Thanks for putting up it here... do you remember my poem London blasts ? * asking just for sake of friendly curiosity.. not that u have to remember that too if u remembered this one!! :) :)

रंजना on जुलाई 15, 2011 ने कहा…

भींगी आँखों में आक्रोश की लहर उन बाहर वालों के लिए नहीं, अपने ही रहनुमाओं के लिए है इसबार...

Anita kumar on जुलाई 15, 2011 ने कहा…

जावेद साहब की ये नज्म मैं ने पहली बार सुनी, बहुत सही कहा उन्हों ने…।दुख तो इस बात का है कि अपने ही अपनों के खून के प्यासे हो गये हैं। इस नज्म को सुनाने का शक्रिया

Kuwait on जुलाई 16, 2011 ने कहा…

Gussaa Aataa hain !!
Fir kuchh der baad chalaa kyon jaataa hain ??
Gusse ko aane do, use anjaam tak jaane do !!

Kumar Gaurav on जुलाई 17, 2011 ने कहा…

Ab zarurat hai sabhi ko jagrook hone ki, "mai or mera" ki bhawana se kuch doori banane ki aur "Wasudhev Kutumbkam" ki bhawana ko jagrat karne ki.

Guide Pawan ने कहा…

bilkul shi kaha desh ke bashindo ki mot ko lekar bahut rajniti ho chuki he ...par koi kya kar sakta he...hamara saubhagya he ya durbhagya ki hum hindustan me paida hue

कंचन सिंह चौहान on जुलाई 18, 2011 ने कहा…

टिप्पणी में सिर्फ अच्छा है कह कर, इतने सारे आक्रोश को न्याय कैसे दिया जा सकता है.....

Hitesh Joshi on जुलाई 18, 2011 ने कहा…

har insan me do tarah ke jazbat hote hai kuch achhe to kuch galat bus hame un achhe jazbato or khayalo ko jinda rakhne ki koshish karni chahiya baaki sab us khuda ke bharose chod dena chahiye kyu ki wo jo karta hai ache ke liye karta hai

 

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