मंगलवार, नवंबर 22, 2011

सैफुद्दिन सैफ़ : जाने क्या क्या ख्याल करता हूँ, जब तेरे शहर से गुज़रता हूँ..सुने ये नज़्म मेरी आवाज़ में

पिछली पोस्ट में आपसे वादा किया था सैफुद्दिन सैफ़ की एक प्यारी सी नज़्म लेकर हाज़िर होने के लिए। ये तो आपको बता ही चुका हूँ कि सैफ़ साहब की शायरी में बारहा उस शहर का जिक्र आता है जहाँ उनकी प्रेमिका उन्हे छोड़ कर चली गई। सैफ़ मोहब्बत में मिली इस नाकामी से किस हद तक हिल गए थे ये उनके उस वक़्त की शायरी से साफ पता चलता है। 

उनके इस प्रेम प्रसंग के बारे में ये किस्सा मशहूर है कि उन्होंने एक ग़ज़ल लिखी जिसका मतला था क़रार लूटने वाले तू प्यार को तरसे। तब सैफ़ अमृतसर के मेयो कॉलेज में पढ़ते थे। अपनी इस ग़ज़ल को दिखाने के लिए जब वे अपने शिक्षक फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के पास गए तो फ़ैज़ ने उनसे मुस्कुराते हुए कहा कि बरख़ुरदार महबूबा को कभी बददुआ नहीं देते। बाद में पाकिस्तानी फिल्म 'सात लाख' में मुनीर हुसैन ने इस ग़ज़ल को जब अपनी आवाज़ दी तो ये काफी लोकप्रिय हुई।

पर हम बात कर रहे थे सैफ़ साहब की प्रेमिका के उस शहर की जिस पर उनकी लेखनी बार बार चली। इस सिलसिले में उन्होंने एक बेहद लंबी नज़्म लिखी। नज़्म का नाम था जब तेरे शहर से गुजरता हूँ...। सैफ़ साहब अमृतसर के मुशायरों में इस नज़्म को हमेशा पढ़ते और श्रोताओं से वाहवाही लूटा करते थे। दरअसल ये नज़्म सैफ़ साहब के विरह में जलते दिल की कशमकश और पीड़ा को पाठकों के सामने ले आती है। फिल्म वादा में इस नज़्म के कुछ टुकड़े प्रयुक्त हुए। बाद में सलमान अल्वी,शाज़िया मंज़ूर और चंदन दास और तमाम अन्य गायकों ने अलग अलग अंदाज़ों में इसे अपनी आवाज़ दी। पर टुकड़ों में इस नज़्म को सुनने से बेहतर है इसे पूरा ख़ुद से पढ़ना। अंतरजाल पर भी ये नज़्म पूरी एक जगह लिखी हुई नहीं मिलती। फिर भी मैंने काफी खोज बीन के बाद इसके सारे हिस्से एक साथ किए हैं। हो सकता है फिर भी कुछ पंक्तियाँ छूटी हों। ऍसा होने पर जरूर इंगित कीजिएगा।

सैफुद्दीन सैफ़ की इस नज़्म को अपनी आवाज़ में पढ़ने और उनमें छिपे भावों में डूबने की कोशिश की है...




किस तरह रोकता हूँ अश्क़ों को
किस तरह दिल पे जब्र* करता हूँ
आज भी कारज़ार- ए -हस्ती ** में
जब तेरे शहर से गुजरता हूँ
*  काबू     ** दुनिया की इस जद्दोजहद


दिल भी करता है याद छुप के तुझे
नाम लेती नहीं ज़ुबाँ तेरा
इस क़दर भी नहीं मालूम मुझे
किस मोहल्ले में है मकाँ तेरा
कौन सी शाख- ए -गुल पे रक़्शां है
रक़्स- ए -फिरदौस* आशयाँ तेरा
जाने किन वादियों में ठहरा है
ग़ैरत- ए -हुस्न कारवाँ तेरा
किस से पूछूँगा मैं ख़बर तेरी
कौन बतलाएगा निशान तेरा
तेरी रुसवाइयों से डरता हूँ
जब तेरे शहर से गुजरता हूँ
*नृत्य करती वाटिका

हाल- ए -दिल भी ना कह सका गर्चे
तू रही मुद्दतों करीब मेरे
कुछ तेरी अज़मतों* का डर भी था
कुछ ख़यालात भी थे अजीब मेरे
आख़िरकार वो घड़ी आ ही गई
यारवर हो गए रक़ीब मेरे
तू मुझे छोड़ कर चली भी गई
ख़ैर किस्मत मेरी, नसीब मेरे
अब मैं क्यूँ तुझ को याद करता हूँ
जब तेरे शहर से गुज़रता हूँ
* बड़प्पन

वो ज़माना तेरी मोहब्बत का
इक भूली हुई कहानी है
तेरे कूचे में उम्र भर ना गए
सारी दुनिया की ख़ाक छानी है
लज़्जत- ए -वस्ल* हो कि ग़म- ए -फ़िराक़**
जो भी है तेरी मेहरबानी है
किस तमन्ना से तुझको चाहा था
किस मोहब्बत से हार मानी है
अपनी किस्मत पे नाज़ करता हूँ
जब तेरे शहर से गुज़रता हूँ
* मिलन की खुशी,  ** वियोग का ग़म

कोई पुरसा*- ए -हाल हो तो कहूँ
कैसी आँधी चली है तेरे बाद
दिन गुजारा है किस तरह मैंने
रात कैसे ढली है तेरे बाद
शमा- ए -उम्मीद सरसर- ए -ग़म** में
किस बहाने जली है तेरे बाद
 जिस में कोई मकीं ना रहता हो
दिल वो सूनी गली है तेरे बाद
रोज़ जीता हूँ , रोज़ मरता हूँ
जब तेरे शहर से गुजरता हूँ
* शोकाकुल,  ** ग़म की आँधी

तुझ से कोई गिला नहीं मुझको
मैं तुझे बेवफ़ा नहीं कहता
तेरा मिलना ख़्वाब- ओ -खयाल हुआ
फिर भी ना आशना नहीं कहता
वो जो कहता था मुझको दीवाना
मैं उस को भी बुरा नहीं कहता
वर्ना इक बे- नवा मोहब्बत में
दिल के लुटने पे क्या नहीं करता
मैं तो मुश्किल से आह भरता हूँ
जब तेरे शहर से गुजरता हूँ
* दरिद्र

अश्क़ पलकों पे आ नहीं सकते
दिल में तेरी आबरू है अब भी
तुझ से है रौशन क़ायनात* मेरी
तेरे जलवे हैं चार सू अब भी
अपने ग़म- ए- खाना तख़य्युल** में
तुझ से होती है गुफ़्तगू अब भी
तुझ को वीराना- ए -तस्सवुर*** में
देख लेता हूँ रूबरू अब भी
अब भी मैं तुझसे प्यार करता हूँ
जब तेरे शहर से गुज़रता हूँ
* संसार,  ** विचार करना, ***याद करना

आज भी उस मुक़ाम पर हूँ जहाँ
रसनो दार* की बुलंदी है
मेरे अशआर की लताफ़त** में
तेरे क़िरदार की बुलंदी है
तेरी मजबूरियों की अज़मत है
मेरे इसरार ***की बुलंदी है
सब तेरे दर्द की इनायत हैं
सब तेरे प्यार की बुलंदी है
तेरे ग़म से निबाह करता हूँ
जब तेरे शहर से गुज़रता हूँ..
* सूली का फंदा,  ** उत्तमता, ***हठ,आग्रह
आज भी कारज़ार- ए -हस्ती में
तू अगर इक बार मिल जाए
किसी महफिल में सामना हो जाए
या सर- ए -रहगुज़र मिल जाए
इक नज़र देख ले मोहब्बत से
इक लमहे का प्यार मिल जाए
आरजुओं को चैन आ जाए
हसरतों को क़रार मिल जाए
जाने क्या क्या ख्याल करता हूँ
जब तेरे शहर से गुज़रता हूँ..

लेकिन..
ऐ साक़िन- ए -खुर्रम ख्याल
याद है वो दौर कैफ़- ओ -कम कि नहीं
क्या तेरे दिल पे भी गुजरा है
मेरी महरूमियों का ग़म कि नहीं
और इस कारज़ार ए हस्ती में
फिर कभी मिल सकेंगे कि नहीं
डरते डरते सवाल करता हूँ
जब तेरे शहर से गुजरता हूँ

पता नहीं मेरी आवाज़ में ये नज़्म आपके दिल के जज़्बों को झकझोर पायी या नहीं पर आप इस नज़्म को विभिन्न कलाकारों द्वारा गाए वीडिओ की लिंक आप इस ब्लॉग के फेसबुक पेज पर सुन सकते हैं। और हाँ ये बताना तो भूल ही गया था कि पोस्ट में इस्तेमाल हुए चित्र के चित्रकार हैं लिओनिद अफ्रेमोव...

शुक्रवार, नवंबर 18, 2011

सैफुद्दीन सैफ़, रूना लैला : गरचे सौ बार ग़म ए हिज्र से जां गुज़री है...

रूना लैला की आवाज़ और ग़ज़ल गायिकी का मैं शुरु से मुरीद रहा हूँ। बहुत दिनों से रूना लैला की आवाज़ ज़ेहन की वादियों में कौंध रही थी। उनकी आवाज़ में कुछ ऐसा सुनने का जी चाह रहा था जो बहुत दिनों से ना सुना हो। कुछ दिन पहले एक मित्र की बदौलत जब उनकी ये पुरानी ग़ज़ल सुनने को मिली तब जाकर दिल की ये इच्छा पूर्ण हुई। ग़जल का मतला था

गरचे सौ बार ग़म- ए -हिज्र से जां गुज़री है
फिर भी जो दिल पे गुज़रनी थी, कहाँ गुज़री है


और दूसरा शेर तो मन को लाजवाब कर गया था

आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम ए आलम
आप गुज़रे हैं तो इक मौज- ए -रवां गुज़री है


आगे की ग़ज़ल कुछ यूँ थी
होश में आए तो बतलाए तेरा दीवाना
दिन गुज़ारा है कहाँ रात कहाँ गुज़री है

हश्र के बाद भी दीवाने तेरे पूछते हैं
वह क़यामत जो गुज़रनी थी, कहाँ गुज़री है





पर रूना जी की गाई ग़ज़ल में मकता ना होने से शायर का नाम नहीं मिल रहा था। बहरहाल खोजबीन के बाद पता चला कि ये सैफुद्दीन सैफ़ साहब की रचना है। सोचा आज इस ग़ज़ल के बहाने सैफ़ साहब और उनकी शायरी से मुलाकात कराता चलूँ।

सन 1922 में अमृतसर में जन्मे सैफ़ पंजाब के लोकप्रिय शायर थे और विभाजन के बाद सरहद पार चले गए।  पचास और साठ के दशक में वे पाकिस्तानी फिल्म उद्योग से बतौर गीतकार और पटकथा लेखक जुड़े रहे। इस दौर में उनके लिखे गीतों को इतने दशकों बाद भी लोग बड़े चाव से गाते हैं। सैफ़ साहब की शायरी मूलतः इश्क़िया शायरी ही रही। मिसाल के तौर पर उनकी एक चर्चित ग़ज़ल राह आसान हो गई होगी के इन अशआरों को देखें..

फिर पलट निगाह नहीं आई
तुझ पे कुरबान हो गई होगी


तेरी जुल्फ़ों को छेड़ती है सबा
खुद परेशान हो गई होगी


सैफ़ साहब की इस ग़ज़ल के चंद शेरों को पढ़कर आप उनके रूमानियत भरे हृदय को समझ सकते हैं
अभी ना जाओ कि तारों का दिल धड़कता है
तमाम रात पड़ी है ज़रा ठहर जाओ

फिर इसके बाद ना हम तुमको रोकेंगे
लबों पे साँस अड़ी है जरा ठहर जाओ


सैफ़ की शायरी जहाँ मोहब्बत से ओतप्रोत थी वहीं उसमें विरह वेदना के स्वर भी थे। जब वे अपनी दर्द में डूबी इन ग़ज़लों को पूरी तरन्नुम के साथ पढ़ते थे तो लोग झूम उठते थे। कॉलेज के दिनों से ही युवाओं में उनकी लोकप्रियता चरम पर थी। शायर शौकत रिज़वी का कहना है कि सैफ़ की ग़ज़लों का ये दर्द उनकी नाकाम मोहब्बत के चलते पैदा हुआ। अपने दिल की तड़प को शब्दों में वे अक्सर बाँधते रहे.. वे अपने पहले प्रेम को कभी भुला ना सके और इसीलिए उन्होंने लिखा

तुम्हारे बाद ख़ुदा जाने क्या हुआ दिल को
किसी से रब्त बढ़ाने का हौसला ना हुआ

फिल्म जगत से जुड़े रहने के साथ साथ वो अपनी कविताएँ लिखते रहे। पचास के दशक के आरंभ में उनकी ग़ज़लें और नज़्में उनके संग्रह ख़ाम - ए- काकुल में प्रकाशित हुईं। वैसे ये बता दूँ कि  ख़ाम ए काकुल का अर्थ होता है प्रियतमा की जुल्फों के खूबसूरत घेरे या लटें। किताब अपने समय में खूब बिकी। इसी संग्रह में उनकी एक नज़्म है जिसे महदी हसन साहब ने अपनी आवाज़ दी है। नज़्म की चंद पंक्तियाँ शायर के दिल के हालात को कुछ यूँ बयां कर देती हैं..

रात की बेसकूँ खामोशी में
रो रहा हूँ कि सो नहीं सकता
राहतों के महल बनाता है
दिल जो आबाद हो नहीं सकता..


सैफ़ साहब की महबूबा उनसे अलग हुई पर उसकी यादें उन्हें उसके नए शहर के बारे में सोचने और लिखने को मज़बूर करती रहीं। काव्य समीक्षक डा. अफ़जल मिर्ज़ा का मानना है कि जिस तरह सैफुद्दीन सैफ़ ने अपनी प्रेमिका के शहर को आधार बनाकर अपने हृदय की पीड़ा इज़हार किया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। सैफ़ अपनी एक नज़्म मैं तेरा शहर छोड़ जाऊँगा में लिखते हैं

इस से पहले कि तेरी चश्म - ए - करम मज़ारत की निगाह बन जाए
प्यार ढल जाए मेरे अश्क़ों में, आरज़ू इक आह बन जाए
मुझ पर आ जाए इश्क़ का इलज़ाम  और तू बेगुनाह बन जाए
मैं तेरा शहर छोड़ जाऊँगा......

इस से पहले कि सादगी तेरी लब - ए - खामोश को गिला कह दे
तेरी मजबूरियाँ ना देख सके और दिल तुझको बेवफ़ा कह दे
जाने मैं बेरुखी में क्या पूछूँ, जाने तू बेरुखी से क्या कह दे
मैं तेरा शहर छोड़ जाऊँगा..


वैसे इस नज़्म को पढ़कर साफ लगता है आनंद बख्शी का फिल्म नज़राना का लिखा गीत इसी नज़्म से प्रेरित था। वैसे सैफ़ साहब की एक और नज़्म है प्यारी सी जिसमें    शहर का जिक्र है। पर वो नज़्म सुनाऊँगा आपको अगली पोस्ट में !

मंगलवार, नवंबर 08, 2011

शान्तनु, स्वानंद, जेब , हानीया के इस गीत पर बताएँ तो क्या ख़्याल है ?

विगत कुछ दिनों से टीवी पर निजी चैनलों ने बॉलीवुड गीतों से परे भारतीय संगीत में झाँकने की कोशिश की है। ऐसे कलाकारों को बढ़ावा दिया है जो लीक से हटकर कुछ करना चाहते हैं। जो संगीत को अपने जीवन की साधना मानते हैं और अपनी कला को बाजार के अनुरूप ढालने की बजाए अपने मूल्यों पर संगीत की रचना करते हैं। संगीत चैनल के नाम पर संगीत के आलावा सब कुछ परोसने वाला MTV पिछले कुछ महिनों में MTV Unplugged, MTV Roots और Coke Studio at MTV जैसे अलहदा कार्यक्रम ले के आया है। कुछ दिनों पहले इसी सिलसिले में मैंने आपको MTV Roots पर शंकर टकर और निराली कार्तिक की प्रस्तुतियों से रूबरू कराया था। इधर कुछ दिनों से Star World पर हर रविवार एक नए कार्यक्रम की शुरुआत हुई है। कार्यक्रम का नाम है The Dewarists । ये ऐसे संगीतज्ञों का साझा प्रयास है जिनके लिए संगीत एक जुनून है जो संगीत के माध्यम से नए ध्वन्यात्मक प्रयोगों से घबराते नहीं, जिन्हें एक नए गीत की खोज में  सरहदों की दीवार तोड़ कर एक नई जगह में साथ साथ विचरने से भी परहेज़ नहीं।

अमूमन मैं Star World नहीं देखता। पर जब मुझे पता चला कि इस कार्यक्रम में स्वानंद शान्तनु की जोड़ी के साथ पाकिस्तान की जेब हानिया (जएब, हानीया ) का गठजोड़ हो रहा है तो मन में खुशी का ठिकाना नहीं रहा। स्वानंद को बतौर गीतकार और गायक मैं बहुत पसंद करता हूँ। शान्तनु मोइत्रा के साथ गाए उनके गीत मेरी वार्षिक संगीतमालाओं की ऊपरी पॉयदानोँ पर हमेशा बजते रहे हैं। वहीं जएब का अफ़गानी गीत पैमोना.. सुनने के बाद मैं उनकी आवाज़ का कायल हो चुका हूँ. पर ऐसा मेरे साथ हुआ हो ऐसा भी नहीं है। शान्तनु  बताते हैं कि पैमोना सुनते ही मुझे लगा कि काश हम जएब हानिया के साथ कोई गीत बनाते, इसीलिए जब The Dewarists ने हमें ऐसा करने का मौका दिया तो हमने दोनों हाथ से लपक लिया। पर एक दूसरे के संगीत के प्रति ये सम्मान एकतरफा नहीं है। जएबहानीया भी बावरा मन देखने चला एक सपना की उतनी बड़ी प्रशंसक हैं जितना की मैं और आप।
 


स्वानंद और शान्तनु के सांगीतिक सफ़र के बारे में तो पहले भी बता चुका हूँ। जएब व हानिया पेशावर के संगीत से जुड़े परिवार से ताल्लुक रखती हैं। जएब बताती हैं कि उनके बचपन के समय पाकिस्तान में जिया उल हक़ की सरकार थी। जिया ने सार्वजनिक संगीत समारोह पर रोक लगा दी थी इसलिए तब महफ़िलें एक दूसरे के घरों या पारिवारिक जलसों में जमती थीं। इसलिए इन दोनों बहनों को महदी हसन, आबिदा परवीन, इकबाल बानो जैसे कलाकारों को घर में ही सुनना नसीब हो गया था। जएब फक्र से कहती हैं कि सात साल की उम्र में ही उन्हें साबरी ब्रदर्स के साथ गाने का मौका मिला। आगे की शिक्षा के लिए अमेरिका गईं तो अपना हारमोनियम और गिटार लेकर। वहाँ पढ़ाई के साथ संगीत भी चलता रहा। फिर इंटरनेट पर अपलोड एक गीत पहले अमेरिका में लोकप्रिय हुआ और फिर पूरे पाकिस्तान में। आगे की कहानी तो यहाँ है ही



The Dewarists की एक ख़ासियत ये भी है कि ये कार्यक्रम दर्शकों को एक गीत बनने से पहले जो मिल जुल कर मेहनत होती है उसकी एक झलक भी दिखलाता है। अब इस गीत की बात करें तो शान्तनु अपने दिमाग में बैठी एक धुन बार बार गुनगुनाते हैं। जएब उस धुन को पकड़ कर सत्तर के दशक में महदी हसन के गाए एक दर्री गीत की कुछ पंक्तियाँ सुनाती हैं।

दी शब के तू अज़ मेह्र बाबाम
मेह्र बाबाम आमदाबूदी..आमदाबूदी
मतलब आप आज चाँद की तरह आसमान पर आए हैं इस बात की हमें बहुत खुशी हैं।

शान्तनु सुनकर उत्साहित हो उठते हैं। कहते हैं इसे शुरुआत में रखकर हम गाने का मूड बनाएँगे। स्वानंद को भी ये गीत के मूल भाव के लिए लाजवाब लगता है। आख़िर सरहद पार से आए मेहमानों के आने से सभी का मन हर्षित है ही। आगे की पंक्तियों के लिए सब स्वानंद की ओर आस लगाए हैं। स्वानंद हँसते हुए कहते हैं घबराएँ नहीं आगे के बोल मिल जाएँगे..आख़िर इसी की तो दुकान है अपनी। ये कहते हुए वो बाथरूम की ओर चल पड़ते हैं। अब चौंकने की बारी जएब व हानिया की है कि माज़रा क्या है। शान्तनु हँसते हुए कहते हैं कि ये स्वानंद की पुरानी आदत है। गीत के बोल उन्हें टॉयलेट में ही सूझते हैं। कुछ देर बाद स्वानंद इन पंक्तियों के साथ हाज़िर हो जाते हैं

धड़कनों की ताल बाजे साँसों का इकतारा

आँगन में सजाए बैठे सूरज चंदा तारा
चलो बाँट ले हम ज़िंदगी
जरा आज यूँ कर लें
कहो क्या ख़्याल है

सबके मुँह से एक साथ वाह वाही निकलती है। उधर हानिया भी रात भर बैठ कर एक धुन बनाती रही हैं और आज उसके लिए उन्हें शब्द भी मिल गए हैं जो गीत के मुखड़े से खूब जम रहे हैं..


आप से दो बातें करने

यादों को जेबों में भरने
आए हैं हम कुछ दिनों के बाद
यारों की सोहबत में आ के
धीरे से कुछ गुनगुना के
यूँ ही कट जाते हैं दिन और रात

शान्तनु के गीतों में कभी शोर नहीं होता। गीत के अंतरों के बीच की ताली और सितार जैसा बजता गिटार मन को थपकियाँ सा देता प्रतीत होता है और उसपर जएब और स्वानंद की दमदार आवाज़ें। शान्तनु कहते हैं..मेरी लिए जएब और स्वानंद की आवाज़ें ही सबसे बड़े वाद्ययंत्र हैं।

शान्तनु ने अगले दो अंतरों की भी रचना कर ली है जिसकी काव्यात्मकता देखते ही बनती हैं। आख़िर यूँ ही स्वानंद हमारे प्रिय गीतकार नहीं ! पूरा गीत बनकर तैयार हो गया है। संगीत से एक दूसरे के करीब रहे ये कलाकार अब मन से भी एक दूसरे के करीब आ गए हैं। संगीत भला क्या सरहदों में बँटा रह सकता है?

दीशब के तू अज़ मेह्र बा बाम
मेह्र बा बाम आमदाबूदी..आमदाबूदी

धड़कनों की ताल बाजे साँसों का इकतारा
आँगन में सजाए बैठे सूरज चंदा तारा
चलो बाँट ले हम ज़िंदगी
जरा आज यूँ कर लें
कहो क्या ख़्याल है

इक ज़हाँ छोटा सा अपना
इक ज़हाँ तुम्हारा
मुस्कान चाहें मीठी हो
या आँसू एक खारा
चलो बाँट लें ग़म और खुशी
थोड़ी गुफ़्तगू कर लें
कहो क्या ख्याल है
आप से दो बातें करने
यादों को जेबों में भरने
आए हैं हम कुछ दिनों के बाद
यारों की सोहबत में आ के
धीरे से कुछ गुनगुना के
यूँ ही कट जाते हैं दिन और रात

मुट्ठी में तुम भींच लाना सावन हरा
इक धनक तुम भी तोड़ लाना फ़लक़ से ज़रा
खट्टी बट्टी बाँट लेंगे किरणों का कतरा
इक सिक्का धूप हम से लेना गर कम लगा
बेतुक ही बेमलब हँस लें हम
क्यूँ ना ही इस लमहे में हाँ जी लें हम

चलो बाँट ले हम ज़िंदगी
जरा आज यूँ कर लें
कहो क्या ख़्याल है

आप से दो बातें करने...
दीशब के तू अज़ मेह्र बा बाम
मेह्र बा बाम आमदाबूदी..आमदाबूदी



इस पोस्ट से संबंधित कड़ियाँ

मंगलवार, नवंबर 01, 2011

तुम्हारे लिए : नैनीताल की ज़मीं पर पनपी तरुणों की सुकोमल स्नेह-गाथा !

'तुम्हारे लिए', हिमांशु जोशी की लिखी ये किताब आज से चौदह साल पहले मेरे पास आई थी। मैंने खरीदी या उपहारस्वरूप मुझे मिली, अब ये याद नहीं रहा। किताब की प्रस्तावना में लिखा गया था...
यह दो निश्छल, निरीह उगते तरुणों की सुकोमल स्नेह-गाथा ही नहीं, उभरते जीवन का स्वप्निल कटु यथार्थ भी है कहीं। वह यथार्थ, जो समय के विपरीत चलता हुआ भी, समय के साथ-साथ समय का सच प्रस्तुत करता है। मेहा-विराग यानी विराग-मेहा का पारदर्शी, निर्मल स्नेह इस कथा की भावभूमि बनकर, अनायास यह यक्ष-प्रश्न करता है-प्रणय क्या है? जीवन क्यों है? जीवन की सार्थकता किसमें है? किसलिए? बहुआयामी इस जीवंत मर्मस्पर्शी कथा में अनेक कथाधाराएँ हैं। अनेक रुप हैं, अनेक रंग।

पर पता नहीं कुछ पृष्ठों को पढ़ कर किशोरवय की इस प्रेम कथा में मन रमा नहीं था। फिर साल दर साल बीतते रहे ये किताब हर दीवाली में झाड़ पोंछ कर वापस उसी जगह रख दी जाती रही। पिछले महिने कुमाऊँ की यात्रा पर था। नैनीताल गया तो वहाँ मल्लीताल, तल्लीताल का नाम सुनकर सोचने लगा कि इन नामों को पहले कहाँ पढ़ा सुना है और अनायास ही इस पुस्तक की याद आ गई। नैनीताल देख आने के बाद इस पुस्तक के प्रति उत्सुकता ऐसी बढ़ी कि जो किताब सालों साल आलमारी में धूल फाँकती रही वो दीपावली की छुट्टियों में महज
चार घंटों में १८० पन्नों की पुस्तक पढ़ ली गई। 

मुझे लगता है कि जब भी कोई लेखक अपनी निजी जिंदगी के अनुभवों से किसी कथा का ताना बाना बुनता है उसके कथन की ईमानदारी आपके हृदय को झकझोरने में समर्थ रहती है भले ही उसके गढ़े हुए चरित्रों का सामांजस्य आप आज के इस बदले हुए युग से ना बिठा सकें। आज जबकि ये उपन्यास अपने चौदहवें संस्करण को पार कर चुका है, लेखक हिमांशु जोशी से पाठक सबसे अधिक यही प्रश्न करते हैं कि क्या विराग का चरित्र उन्होंने अपने पर ही लिखा है? हिमांशु जी इस प्रश्न का सीधे सीध जवाब ना देकर अपनी पुरानी यादों में खो जाते हैं...
" लगता है, मेरे साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही घटित हुआ था। नैनीताल एक पराया अजनबी शहर, कब मेरे लिए अपना शहर बन गया, कब मेरे सपनों का शहर, याद नहीं। हाँ, याद आ रहा है- शायद वह वर्ष था 1948 ! महीना जुलाई ! तारीख पाँच, यानी अब से ठीक 54 साल पहले ! हल्द्वानी से रोडवेज की बस से, दोपहर ढले ‘लेक-ब्रिज’ पर उतरा तो सामने एक नया संसार दिखलाई दिया। धीमी-धीमी बारिश की फुहारें ! काले काले बादल, फटे रेशमी कंबल की तरह आसमान में बिखरे हुए, ‘चीना-पीक’ और ‘टिफिन टाप’ की चोटियों से हौले-हौले नीचे उतर रहे थे, झील की तरफ। उन धुँधलाए पैवंदों से अकस्मात् कभी छिपा हुआ पीला सूरज झाँकता तो सुनहरा ठंडा प्रकाश आँखों के आगे कौंधने सा लगता। धूप, बारिश और बादलों की यह आँखमिचौली-एक नए जादुई संसार की सृष्टि कर रही थी। दो दिन बाद आरंभिक परीक्षा के पश्चात् कॉलेज में दाखिला मिल गया तो लगा कि एक बहुत बड़ी मंजिल तय कर ली है...! साठ-सत्तर मील दूर, अपने नन्हे-से पर्वतीय गाँवनुमा कस्बे से आया था, बड़ी उम्मीदों से। इसी पर मेरे भविष्य का दारोमदार टिका था। मैं पढ़ना चाहता था, कुछ करना। अनेक सुनहरे सपने मैंने यों ही सँजो लिए थे, पर सामने चुनौतियों के पहाड़ थे, अंतहीन। अनगिनत। उन्हें लाँघ पाना आसान तो नहीं था ! इसी स्वप्न-संसार में बीते थे मेरे जीवन के पाँच साल। पाँच वसंत पतझड़ तब आता भी होगा तो कभी दिखा नहीं। ‘गुरखा लाइंस’ का छात्रावास, ‘क्रेगलैंड’ की चढ़ाई, चील-चक्कर, लड़ियाकाँटा, तल्लीताल, मल्लीताल, पाइंस, माल रोड, ठंडी सड़क, क्रास्थवेट हॉस्पिटल-ये सब कहीं उसी रंगीन-रंगहीन मानसिक मानचित्र के अभिन्न अंग बन गए थे। वर्षों बाद जब मैं ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में धारावाहिक प्रकाशन के लिए तुम्हारे लिए लिख रहा था, तो यह सारा का सारा शहर, इसमें दबी सारी सोई स्मृतियाँ जागकर फिर से सहसा साकार हो उठी थीं। "

उपन्यास का नायक विराग, लेखक से मिलता जुलता एक ऐसा ही चरित्र है जो पहाड़ के निम्न मध्यम वर्गीय घर की आशाओं का भार मन में लिए हुए नैनीताल पढ़ने के लिए आता है। पढ़ाई का आर्थिक बोझ अपने पिता पर कम करने के लिए ट्यूशन करना शुरु करता है और यहीं मिल जाती है उसे 'अनुमेहा..'। बचपन से रोपे गए संस्कार उसे प्रकट रूप में इस नए आकर्षण की ओर उन्मुख नहीं होने देते पर हृदय, अनुमेहा की अनुपस्थिति में  एक चक्रवात सा पैदा कर देता जिससे जूझते हुए ना पढ़ाई में मन लगता और ना ही मेहा को अपने चित्त से हटाने में सफलता मिलती।

विराग के बारे में पढ़ते हुए कई बार 'गुनाहों का देवता' का नायक चंदर याद आने लगता है। चंदर और विराग दोनों ही एक सी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते हैं और 'चंदर' की तरह विराग भी मानसिक अंतरद्वंद का शिकार होकर बुरी तरह कुंठित हो जाता है। यहाँ तक कि अपने भाई को पढ़ाते पुरोहित पिता को ये कहते हुए भी वो जरा सी ग्लानि नहीं महसूस करता
"इसे आप आखिर क्या बनाना चाहते है? इस ग्रंथ को रटाकर जिंदगी में बिचारे को क्या मिल पाएगा। जो संस्कार आदमी को ऊपर नहीं उठने देते उन्हें तिलांजलि दे देनी चाहिए। इतना कुछ रटाकर आपने मुझे क्या दिया। आपका ये अधूरा अध्यात्म अधूरा ज्ञान किसी को किसी भी मंजिल तक नहीं ले जाएगा। जीवन भर इस राह पर चलने पर भी आदमी अधूरा ही रहेगा। आत्म प्रवंचना से बड़ा भी कोई पाप होता है....!"
पर विराग की 'अनुमेहा' चंदर की सुधा सरीखी नहीं है। उसका भोला किशोर मन अपने शिक्षक के प्रति श्रृद्धा और आसक्ति से पूर्ण तो है पर जिंदगी की छोटी छोटी खुशियों को पाने के लिए वो सामाजिक बंधनों को तोड़ने का साहस रखती है। और जब विराग से उसे अपनी भावनाओं पर उचित प्रतिक्रिया नहीं मिलती तो उसका मन आत्मसंशय से उलझता चला जाता है। विराग के सहपाठी सुहास से उसकी मित्रता ,इसी उलझन से निकलने का प्रयास है जिसे विराग अन्यथा ले लेता है। सुहास जहाँ इस सानिध्य को पा कर व्यक्तित्व की नई ऊँचाइयों को छूता है वही विराग का जीवन मेधा से अलग होकर अंधकारमय हो जाता है। हिमांशु जी ने पूरा उपन्यास फ्लैशबैक में लिखा है और सारा कथानक विराग के सहारे वर्णित होता है। इस वज़ह से अनुमेहा के मन में चल रही उधेड़बुन से पाठक कभी कभी अछूता रह जाता है।

आज तो नैनीताल एक बेहद भीड़ भाड़ वाला शहर हो गया है पर जब हिमांशु जी इस प्रणय गाथा के पार्श्व में नैनीताल की उस समय की सुंदरता का खाका खींचते हैं तो अभी का नैनीताल भी आँखों के सामने एकदम से सजीव हो उठता है... अब चाँदनी रात में तरुण द्वय द्वारा नैनी झील में किए गए नौका विहार के वर्णन में उनकी लेखनी का कमाल देखिए
"पूर्णिमा की उजली उजली रात थी। सागर की तरह ही इस नन्ही झील में नन्हा ज्वार उतर आया था। हिम श्वेत लहरें ऊपर तक उठ रहीं थीं। हिचकोलों में डोलती नाव ऐसी लग रही थी, जैसे पारे के सागर में सूखा नन्हा पत्ता काँप रहा हो। पिघले चाँदी की झील ! चाँदी की लहरें ! आसमान से अमृत बरसाता भरा भरा चाँद ! पेड़ पहाड़ मकान सब चाँदनी में नहाकर कितने उजले हो गए थे ! झील में डूबी प्रशांत नगरी कितनी मोहक हो गई थी ‌- स्वप्नमयी ।
पानी पर जहाँ जहाँ चाँद का प्रतिबिंब पड़ता है वहाँ एक साथ कितने तारे झिलमिलाने लगते हैं ! तुमने छोटी बच्ची की तरह चहकते हुए कहा था - मुग्ध दृष्टि से देखते हुए।
मैं केवल तुम्हारी तरफ़ देख रहा था...
तुम्हारे सफ़ेद कपड़े इस समय कितने सफ़ेद लग रहे थे। सुनहरे बाल चाँदी के रेशों की तरह हवा में उड़ रहे थे। चाँद तुम्हारे चेहरे पर चमक रहा था, लगता था तुम्हारी आकृति से किरणें फूट रही हों।"
ये उपन्यास हमारी और हमसे पहले की पीढ़ी के पाठकों को किशोरावस्था के उन दिनों की ओर ले जाता है जब हम सभी प्रेम की वैतरणी में पहला पाँव डालने के लिए आतुर हो रहे थे। आज के शहरी किशोर शायद ही इस कथा से अपने आप को जोड़ पाएँ क्यूँकि आज का समाज पहले की अपेक्षा ज्यादा खुल चुका है। वैसे अगर आपने जिंदगी के आरंभिक साल नैनीताल में बिताए हों तो इस पुस्तक  को अवश्य पढ़ें। आपके मन में उमड़ती घुमड़ती यादों शायद उपन्यास के पन्नों में प्रतिबिंबित हो उठें।

हिमांशु जोशी का ये उपन्यास किताबघर से प्रकाशित हुआ है। पुस्तक का ISBN No.81-7016-030-8 है। नेट पर ये पुस्तक यहाँ पर उपलब्ध है।

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