'तुम्हारे लिए', हिमांशु जोशी की लिखी ये किताब आज से चौदह साल पहले मेरे पास आई थी। मैंने खरीदी या उपहारस्वरूप मुझे मिली, अब ये याद नहीं रहा। किताब की प्रस्तावना में लिखा गया था...
यह दो निश्छल, निरीह उगते तरुणों की सुकोमल स्नेह-गाथा ही नहीं, उभरते जीवन का स्वप्निल कटु यथार्थ भी है कहीं। वह यथार्थ, जो समय के विपरीत चलता हुआ भी, समय के साथ-साथ समय का सच प्रस्तुत करता है। मेहा-विराग यानी विराग-मेहा का पारदर्शी, निर्मल स्नेह इस कथा की भावभूमि बनकर, अनायास यह यक्ष-प्रश्न करता है-प्रणय क्या है? जीवन क्यों है? जीवन की सार्थकता किसमें है? किसलिए? बहुआयामी इस जीवंत मर्मस्पर्शी कथा में अनेक कथाधाराएँ हैं। अनेक रुप हैं, अनेक रंग।
पर पता नहीं कुछ पृष्ठों को पढ़ कर किशोरवय की इस प्रेम कथा में मन रमा नहीं था। फिर साल दर साल बीतते रहे ये किताब हर दीवाली में झाड़ पोंछ कर वापस उसी जगह रख दी जाती रही। पिछले महिने कुमाऊँ की यात्रा पर था। नैनीताल गया तो वहाँ मल्लीताल, तल्लीताल का नाम सुनकर सोचने लगा कि इन नामों को पहले कहाँ पढ़ा सुना है और अनायास ही इस पुस्तक की याद आ गई। नैनीताल देख आने के बाद इस पुस्तक के प्रति उत्सुकता ऐसी बढ़ी कि जो किताब सालों साल आलमारी में धूल फाँकती रही वो दीपावली की छुट्टियों में महज
चार घंटों में १८० पन्नों की पुस्तक पढ़ ली गई।
चार घंटों में १८० पन्नों की पुस्तक पढ़ ली गई।
मुझे लगता है कि जब भी कोई लेखक अपनी निजी जिंदगी के अनुभवों से किसी कथा का ताना बाना बुनता है उसके कथन की ईमानदारी आपके हृदय को झकझोरने में समर्थ रहती है भले ही उसके गढ़े हुए चरित्रों का सामांजस्य आप आज के इस बदले हुए युग से ना बिठा सकें। आज जबकि ये उपन्यास अपने चौदहवें संस्करण को पार कर चुका है, लेखक हिमांशु जोशी से पाठक सबसे अधिक यही प्रश्न करते हैं कि क्या विराग का चरित्र उन्होंने अपने पर ही लिखा है? हिमांशु जी इस प्रश्न का सीधे सीध जवाब ना देकर अपनी पुरानी यादों में खो जाते हैं...
" लगता है, मेरे साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही घटित हुआ था। नैनीताल एक पराया अजनबी शहर, कब मेरे लिए अपना शहर बन गया, कब मेरे सपनों का शहर, याद नहीं। हाँ, याद आ रहा है- शायद वह वर्ष था 1948 ! महीना जुलाई ! तारीख पाँच, यानी अब से ठीक 54 साल पहले ! हल्द्वानी से रोडवेज की बस से, दोपहर ढले ‘लेक-ब्रिज’ पर उतरा तो सामने एक नया संसार दिखलाई दिया। धीमी-धीमी बारिश की फुहारें ! काले काले बादल, फटे रेशमी कंबल की तरह आसमान में बिखरे हुए, ‘चीना-पीक’ और ‘टिफिन टाप’ की चोटियों से हौले-हौले नीचे उतर रहे थे, झील की तरफ। उन धुँधलाए पैवंदों से अकस्मात् कभी छिपा हुआ पीला सूरज झाँकता तो सुनहरा ठंडा प्रकाश आँखों के आगे कौंधने सा लगता। धूप, बारिश और बादलों की यह आँखमिचौली-एक नए जादुई संसार की सृष्टि कर रही थी। दो दिन बाद आरंभिक परीक्षा के पश्चात् कॉलेज में दाखिला मिल गया तो लगा कि एक बहुत बड़ी मंजिल तय कर ली है...! साठ-सत्तर मील दूर, अपने नन्हे-से पर्वतीय गाँवनुमा कस्बे से आया था, बड़ी उम्मीदों से। इसी पर मेरे भविष्य का दारोमदार टिका था। मैं पढ़ना चाहता था, कुछ करना। अनेक सुनहरे सपने मैंने यों ही सँजो लिए थे, पर सामने चुनौतियों के पहाड़ थे, अंतहीन। अनगिनत। उन्हें लाँघ पाना आसान तो नहीं था ! इसी स्वप्न-संसार में बीते थे मेरे जीवन के पाँच साल। पाँच वसंत पतझड़ तब आता भी होगा तो कभी दिखा नहीं। ‘गुरखा लाइंस’ का छात्रावास, ‘क्रेगलैंड’ की चढ़ाई, चील-चक्कर, लड़ियाकाँटा, तल्लीताल, मल्लीताल, पाइंस, माल रोड, ठंडी सड़क, क्रास्थवेट हॉस्पिटल-ये सब कहीं उसी रंगीन-रंगहीन मानसिक मानचित्र के अभिन्न अंग बन गए थे। वर्षों बाद जब मैं ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में धारावाहिक प्रकाशन के लिए तुम्हारे लिए लिख रहा था, तो यह सारा का सारा शहर, इसमें दबी सारी सोई स्मृतियाँ जागकर फिर से सहसा साकार हो उठी थीं। "
उपन्यास का नायक विराग, लेखक से मिलता जुलता एक ऐसा ही चरित्र है जो पहाड़ के निम्न मध्यम वर्गीय घर की आशाओं का भार मन में लिए हुए नैनीताल पढ़ने के लिए आता है। पढ़ाई का आर्थिक बोझ अपने पिता पर कम करने के लिए ट्यूशन करना शुरु करता है और यहीं मिल जाती है उसे 'अनुमेहा..'। बचपन से रोपे गए संस्कार उसे प्रकट रूप में इस नए आकर्षण की ओर उन्मुख नहीं होने देते पर हृदय, अनुमेहा की अनुपस्थिति में एक चक्रवात सा पैदा कर देता जिससे जूझते हुए ना पढ़ाई में मन लगता और ना ही मेहा को अपने चित्त से हटाने में सफलता मिलती।
विराग के बारे में पढ़ते हुए कई बार 'गुनाहों का देवता' का नायक चंदर याद आने लगता है। चंदर और विराग दोनों ही एक सी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते हैं और 'चंदर' की तरह विराग भी मानसिक अंतरद्वंद का शिकार होकर बुरी तरह कुंठित हो जाता है। यहाँ तक कि अपने भाई को पढ़ाते पुरोहित पिता को ये कहते हुए भी वो जरा सी ग्लानि नहीं महसूस करता
विराग के बारे में पढ़ते हुए कई बार 'गुनाहों का देवता' का नायक चंदर याद आने लगता है। चंदर और विराग दोनों ही एक सी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते हैं और 'चंदर' की तरह विराग भी मानसिक अंतरद्वंद का शिकार होकर बुरी तरह कुंठित हो जाता है। यहाँ तक कि अपने भाई को पढ़ाते पुरोहित पिता को ये कहते हुए भी वो जरा सी ग्लानि नहीं महसूस करता
"इसे आप आखिर क्या बनाना चाहते है? इस ग्रंथ को रटाकर जिंदगी में बिचारे को क्या मिल पाएगा। जो संस्कार आदमी को ऊपर नहीं उठने देते उन्हें तिलांजलि दे देनी चाहिए। इतना कुछ रटाकर आपने मुझे क्या दिया। आपका ये अधूरा अध्यात्म अधूरा ज्ञान किसी को किसी भी मंजिल तक नहीं ले जाएगा। जीवन भर इस राह पर चलने पर भी आदमी अधूरा ही रहेगा। आत्म प्रवंचना से बड़ा भी कोई पाप होता है....!"
पर विराग की 'अनुमेहा' चंदर की सुधा सरीखी नहीं है। उसका भोला किशोर मन अपने शिक्षक के प्रति श्रृद्धा और आसक्ति से पूर्ण तो है पर जिंदगी की छोटी छोटी खुशियों को पाने के लिए वो सामाजिक बंधनों को तोड़ने का साहस रखती है। और जब विराग से उसे अपनी भावनाओं पर उचित प्रतिक्रिया नहीं मिलती तो उसका मन आत्मसंशय से उलझता चला जाता है। विराग के सहपाठी सुहास से उसकी मित्रता ,इसी उलझन से निकलने का प्रयास है जिसे विराग अन्यथा ले लेता है। सुहास जहाँ इस सानिध्य को पा कर व्यक्तित्व की नई ऊँचाइयों को छूता है वही विराग का जीवन मेधा से अलग होकर अंधकारमय हो जाता है। हिमांशु जी ने पूरा उपन्यास फ्लैशबैक में लिखा है और सारा कथानक विराग के सहारे वर्णित होता है। इस वज़ह से अनुमेहा के मन में चल रही उधेड़बुन से पाठक कभी कभी अछूता रह जाता है।
आज तो नैनीताल एक बेहद भीड़ भाड़ वाला शहर हो गया है पर जब हिमांशु जी इस प्रणय गाथा के पार्श्व में नैनीताल की उस समय की सुंदरता का खाका खींचते हैं तो अभी का नैनीताल भी आँखों के सामने एकदम से सजीव हो उठता है... अब चाँदनी रात में तरुण द्वय द्वारा नैनी झील में किए गए नौका विहार के वर्णन में उनकी लेखनी का कमाल देखिए
"पूर्णिमा की उजली उजली रात थी। सागर की तरह ही इस नन्ही झील में नन्हा ज्वार उतर आया था। हिम श्वेत लहरें ऊपर तक उठ रहीं थीं। हिचकोलों में डोलती नाव ऐसी लग रही थी, जैसे पारे के सागर में सूखा नन्हा पत्ता काँप रहा हो। पिघले चाँदी की झील ! चाँदी की लहरें ! आसमान से अमृत बरसाता भरा भरा चाँद ! पेड़ पहाड़ मकान सब चाँदनी में नहाकर कितने उजले हो गए थे ! झील में डूबी प्रशांत नगरी कितनी मोहक हो गई थी - स्वप्नमयी ।पानी पर जहाँ जहाँ चाँद का प्रतिबिंब पड़ता है वहाँ एक साथ कितने तारे झिलमिलाने लगते हैं ! तुमने छोटी बच्ची की तरह चहकते हुए कहा था - मुग्ध दृष्टि से देखते हुए।मैं केवल तुम्हारी तरफ़ देख रहा था...तुम्हारे सफ़ेद कपड़े इस समय कितने सफ़ेद लग रहे थे। सुनहरे बाल चाँदी के रेशों की तरह हवा में उड़ रहे थे। चाँद तुम्हारे चेहरे पर चमक रहा था, लगता था तुम्हारी आकृति से किरणें फूट रही हों।"
ये उपन्यास हमारी और हमसे पहले की पीढ़ी के पाठकों को किशोरावस्था के उन दिनों की ओर ले जाता है जब हम सभी प्रेम की वैतरणी में पहला पाँव डालने के लिए आतुर हो रहे थे। आज के शहरी किशोर शायद ही इस कथा से अपने आप को जोड़ पाएँ क्यूँकि आज का समाज पहले की अपेक्षा ज्यादा खुल चुका है। वैसे अगर आपने जिंदगी के आरंभिक साल नैनीताल में बिताए हों तो इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें। आपके मन में उमड़ती घुमड़ती यादों शायद उपन्यास के पन्नों में प्रतिबिंबित हो उठें।
हिमांशु जोशी का ये उपन्यास किताबघर से प्रकाशित हुआ है। पुस्तक का ISBN No.81-7016-030-8 है। नेट पर ये पुस्तक यहाँ पर उपलब्ध है।
इस चिट्ठे पर अन्य पुस्तकों पर की गई चर्चा आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
31 comments:
पुस्तक के बारे में एक उत्सुकता जगा दी।
Aapki is shrinkhala ki kadiyon ko kai bar padha hai manish ji , it's really impressive :)
नैनीताल मेरे दिल के काफी करीब है. इससे जुडी इतनी सुन्दर स्मृति साझा करने का आभार. मैं इसे फेसबुक आदि पर अपने संपर्कों से शेयर करने का मोह छोड़ नहीं पा रहा, आशा है आपकी सहमति मिलेगी. धन्यवाद.
@ माधवी :शु्क्रिया माधवी ! जानकर प्रसन्नता हुई।
@ अभिषेक मुझे नहीं पता था कि आप नैनीताल में भी रह चुके हैं। आप इसे फेसबुक आदि पर शेयर करें ये तो पुस्तक प्रेमियों के लिए और अच्छा ही होगा।
Jab padhee thee bahut achhee lagee thee yaden tajee karne ke liye aabhar
अच्छा लगा पुस्तक के बारे में जानकर
Gyan Darpan
Matrimonial Service
मनीष जी बहुत बहुत साधुवाद ...इतनी सुदर स्मृतियाँ हम सब के साथ साझा की आपने !
nainitaal se kuch 60 kms door mera ghar hai aur jis tarah se aapne bayan kiya mujhey adheerta ho gayi padhney ki .. aisa lkaga jaise mera hi kishor ka warnan ho ...
thanks manish ji !!!
Thanks a lot ...for Sharing Tumhaare Liye....I had been searching for this book...just ordered at Flipkart...Thanks a Ton...
what a wonderful book it is!!
I still remember how i felt when i first read this book 6-7 years back i was just full of tears and unable to think anything but its ending.
Somewhere it reminded me of my own story.
Beautiful book..expressed in a beautifull manner..!!
Thanks a lot to share this with me...aapka nainital ka trip kaisa raha...mai us samay yaha par nahi thi isliye aapse milna nahi ho paya...agali baar jub aap aye to pakka milna hoga...
Regards to all bloggers,I am a big fan of the book tumhare lite by himanshu joshi hi,can please someone tell me who played role of anumeha(meha)against lalit parimoo,in doordarshan serial tumhare lite,honestly I have been trying to find some info.on this as I was in my teens when this TV serial came in,an is very touchy,please please and please if anyone has any info on video of this TV serial please let me know where can I get that.regards..
Jatin parihar..
greatest writing on true , pure luv in most beautiful manner .
SERIAL BASEDON HIMNSHU JOSHI NOVEL.......TUMHARE LIYE ....I WS ABIG FAN OF THIS DD SERIAL YEARS AGO.......... its been long time i m searching for title track of this serial can any of u give me any information..... i wl be thankful .....really............ jatin parihaar ji ka commentpadh ke aisa lga ki unhone mann ki baat likh di ho.......
AGAR YE VAHI SERIAL HAI JO 1988 OR 1989 MAIN DOORDARSHAN PAR DO PAHAR KO AATA THA TO ISKI STARCAST THI LALIT PARIMOO DIMPLE SHAH AND RAM MAINI TITLE TRACK THA ..AAKASH SE JHARTE HAIN BADAL BIKHARTI HAI KHUSHBOO IN WADIYON MAIN...YAHAN SE WAHAN TAK TUMHARE LIYE TUMHARE LIYE....
manish ji shukriya .
ye meri manpasand kitaab hai aur maine ise kareeb 300 baar to padh chuka hoon. himaanshu joshi ji se bhi is par bahut baar charcha hui.. aapne phir is baat kee yaad dila di. shukriya dost.
aapka
vijay
यही कोई 16 -17 साल की उम्र रही होगी जब भैया के बूकसेल्फ़ से पहली बार ' तुम्हारे लिए' को पढ़ा था.. आज 47 तक आते आते, हो सकता कुछ को मेरा सनकीपन लगे कोई 500 बार इस पुस्तक को पढ़ा है, जब पढ़ने का मन हो और मन मुताबिक कुछ मिल नहीं रहा हो तब 'तुम्हारे लिए' के कंधे पर सिर रख कर सदा मन को हल्का किया है.. हिमांशुजी जोशी का मुझ पर किया गया व्यक्तिगत अहसान सा लगता है ... आपका कोटि धन्यवाद् इस उपन्यास की चर्चा करने का
anybody have the DVD of this serial
tumhare liye
if anyone having DVD of this serial please inform me................ i shall be ever thankful to you.................
I had read this book almost 30 years back when I was probably in 10th standard. 30 years have passed.... time just flies. I was not able to sleep wondering about decision of the girl to leave without really telling where she was going. This was kind of sad ending story. In today's world of facebook and Internet where it may not be so difficult to trace people, this story may not be so appealing but overall it was very nice and refreshing novel depicting unexpressed romance of young guy and probably the girl as well, which was a mystery.
Ashok
I also remember the title song of the television serial which was melancholic. Can anyone kindly guide me where I can get that song or at least the lyrics.
At least you are expected to give your name while commenting otherwise how someone will guide you Mr/Ms. Anonymous
Thank you so much Mr. Kumar, thanks to your post I discovered the name of the author and the book. However, the book is out of stock in Flipkart. I have been searching for a few lines I think someone recited in this serial - comparing how sadness is more deep and enduring than the superficial exuberance of happiness (if I remember correctly, I was only 12 years then I think). I will be so grateful if you by any chance can tell me if such lines exist in this book?
Prita Its difficult to search unless you remember the character who uttered these lines. Also script of the serial may not be same as narrative of the book.
But I will try. Drop an e mail to manish_kmr1111@yahoo.com
Hi. Can anyone send a link of the title track of the serial by the same name as the book which used to come in
Doordarshan in late eighties
payalpurandare@rediffmail.com
I'm looking for the title song ... tumhare liye... since a long time... please inform me too where I can get it from... bhavika.sooraj@gmail.com
Thanks a lot....
Really a nice story. True love. Unbelievable.
Hi all,nice to see discussion on my favourite book as well as serial Tumhare Liye...
I am searching for its Title track. Please let me know if anyone of you get title track of the serial Tumhare liye....
poojadvaidya@gmail.com
जब पहली बार इस उपन्यास को पढ़ा तब मेरी उम्र कोई 16-17 बर्ष होगी,पहली बार ऐसे बड़े भैया खरीद कर लाये थे, शुरू किया तो समाप्त करने से पहले उठ ही नही पाया। आज 35 साल बाद भी इसे पढ़ते कुछ नही बदला.. 300-400 बार पढ़ने के बाद भी इसका अहसास ज्यों का त्यों है। जोशीजी मेरे आराध्य से हो गए है, भगवान उनको लम्बी उम्र दे
I read this book first time in 1988 and till to date I myself don't remember how many times I have read it again and again. Had chance to talk to Himanshu Joshi ji also. One of my favorite book.
This book is very close to my heart.
Anumeha aur Virag ki kahani
Thankyou Manish ji for writing about this book😊
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