सोमवार, दिसंबर 31, 2012

साल 2012 के दस सबसे ज्यादा झुमाने वाले गीत Top 10 dancing nos. 2012 !

'एक शाम मेरे नाम' की वार्षिक संगीतमाला 2012 अगले जनवरी के पहले हफ्ते से शुरु हो जाएगी। पर गुजरे साल को एक मुस्कान के साथ विदा करने के लिए साल के अंतिम दिन एक नज़र उन गीतों पर जिन पर हमारा देश साल भर थिरकता रहा।

 #10. राधा....

विशाल शेखर युवाओं की नज़्ब को पकड़ने वाले संगीतकर रहे हैं खासकर हिप हॉप वाले संगीत में। वैसे इस साल उन्होंने संगीतप्रेमियों को प्रेम के एक अद्भुत रूप से परिचय करवाया। जी हाँ मै उनके इश्क़ वाले love की बात कर रहा हूँ। धन्य हैं अन्विता दत्त की लेखनी अगर यही हाल रहा तो हमें उर्दू से अंग्रेजी की डिक्शनरी खरीदने के बजाय उनके लिखे गीतों की किताब भर खरीद के रखनी होगी। इसी फिल्म यानि Student of the Year में विशाल शेखर हमें 'आज की राधा' से मिलवा रहे हैं। गीत के बोल सुनने के बाद तो यही लगता है कि अगर भगवान कृष्ण इस युग में पैदा हुए होते तो राधा के नाज़ नखरों को उठाते उठाते वो सीधे ब्रह्मा की शरण में चले गए होते।



 #09. आंटी जी..आंटी जी Get up and dance

ऍसा नहीं कि सारे नचनिया इसी युग की पैदाइश हैं। नाचने वाले हर ज़माने में थे पर वो हर महफिल में चिन्हित हुआ करते थे। ज्यादा संख्या उन लोगों की हुआ करती थी जो पीछे से बैठकर ताली बजाया करते थे। पर आज के समय में आपको ये सुख नसीब नहीं होगा। आज चाहे आप कितने भी जतन से किसी पार्टी की पिछली कुर्सी पर पैरों में फेविकोल लगाए दुबके हों नचनिया पार्टी आपकी भद्द पिटाने में पीछे नहीं रहेगी और अब तो बकायदा अमित त्रिवेदी का संगीतबद्ध  ये गाना ही उनकी कमान में आ गया है। इसकी मार से अब कहाँ बच पाइएगा।  तो आज के युग के अंकल आँटियों थोड़ा हाथ पैर हिलाना सीख लीजिए..



#08. माशाअल्लाह !

लटके झटके हों और सल्लू भाई पीछे रहें ये कैसे हो सकता है? पिछले साल की मुन्नी को बदनाम करने वाले सलमान इस बार शीला के चक्कर में ऐसे फँसे कि उनके साथ एक फिल्म ही कर डाली। अब शीला के रूप में उनकी प्रेमिका ही पर्दे पर हों तो उनकी on screen chemistry तो माशाअल्लाह होनी ही थी।

chinta da chita

 #07.  चिंता ता चिता चिता..

इस गीत पर थिरकने की महारत हासिल करनी हो तो पैरों से नहीं हाथों से काम लेना होगा। नहीं समझे तो गीत का आरंभ देखिए। वैसे हम तो यही कहेंगे कि इन झटकों मटकों से भगवान बचाए..


 #6. किकली कलेर दी

लव शव ते चिकेन खुराना के इस गीत को शायद आपने पहले ना सुना हो। अगर हल्के फुल्के मूड में हों तो एक बार जरूर सुनिए।  प्रयोगधर्मिता अमित त्रिवेदी के संगीत की पहचान है और इस गीत का संगीत संयोजन भी उसकी एक मिसाल है। पर आप पूछेंगे कि संगीत तो ठीक है पर ये किकली कलेर दी क्या बला है ? वाज़िब सवाल है आपका। दरअसल ये पंजाब में बच्चियों द्वारा खेला जाने वाला खेल है जिसमें लड़कियाँ एक दूसरे का हाथ पकड़ गोल गोल घूमती हैं। बाकी इस खेल में गाई जाने वाली आगे की पंक्तियों को बदलकर हीर की मुश्किलें बयानात की गयी हैं कि कैसे उसका रांझा उसे चीट कर रहा है :)

किकली कलेर दी, हट गयी हीर दी
रांझा करे चीट जी, करे ना परवाह





#5.पापा तो बैंड बजाए

भाई बच्चों के लिए अक़्सर पापा ही बैंड बजाने का काम करते हैं इसलिए Houseful-2 ये गीत तो युवाओं की जुबाँ पे चढ़ना ही था। आख़िर ये सब हम सभी ने कभी ना कभी तो अपने जीवन में सुना ही हुआ है ना..

Idiot  हो तुम गधे हो अभी तुम्हें knowledge नहीं है
हमसे पंगा लेने वाली अभी तुम्हारी age नहीं है

वैसे एक बात और इस गीत में अभिनेताओं के कपड़ों का रंग संयोजन कमाल का है।





#4.तुम्हीं हो बंधु सखा तुम्हीं हो..

स्कूल के दिनों में सबसे ज्यादा जो प्रार्थना दोहरायी है वो थी त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव। अब क्या जानते थे कि इतने दशकों बाद इस प्रार्थना की दूसरी पंक्ति को एक डान्स नम्बर की तरह गुनगुनाएँगे। वैसे वेक अप सिड के इकतारा के बाद नीरज श्रीधर के साथ कविता सेठ की गायिकी इस रूप में भी सामने आएगी ये किसने सोचा था ?



#3.चिकनी चमेली..

Item Songs से अब तक श्रेया घोषाल दूर दूर ही रहती थीं। ये उनकी मीठी आवाज़ के दायरे में नहीं आते थे। पर इस साल उन्होंने दिखा दिया कि ऐसे गीतों में जिस शोखी और चंचलता की जरूरत होती है वो उनमें है। अग्निपथ के इस गीत में कैटरीना के ठुमके तो आपने अपने टीवी सेटों पर बारहा देखे होंगे पर अगर ये नृत्य हमारे ये नन्हे मुन्हे Chipmunk करें तो कैसा रहे..




 #2. प्यार की पुंगी..

लो आ गए एक बार फिर प्यार की पुंगी बजाने मीका सिंह ! क्या कहा पुंगी बजाना नहीं मालूम!अरे भई पुंगी मतलब सपेरे वाली बीन से है। अब सीधे सीधे कहते कि प्यार की बीन बजा दो तो क्या आप ध्यान देते।



#1. Dreamum Wakeupum..

Dreamum wakeupum critical conditionam
Earthum quakepum hil dool sab shake upam



दस गीतों की इस फेरहिस्त में सबसे आगे रखा है मेंने अइया फिल्म के इस गीत को। अमित त्रिवेदी का संगीत सुनकर सच में हिल डुल सब शेकअपम हो जाता है। गीत का वीडिओ तो मुझे नहीं रुचता पर दक्षिण की दूसरे दर्जे की फिल्मों पर किया गया ये व्यंग्य कई जगहों पर मुस्कुराने पर मजबूर करता है। 

वैसे गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य  का जवाब नहीं ! शायद ये मुंबई की मायावी दुनिया में आज के गीतकार की बाजार में बने रहने की मजबूरी ही है कि इक लौ ज़िंदगी की बुझी कैसे मौला जैसे संवेदनशील गीतों को भी बड़ी सलाहियत से लिखने वाले अमिताभ आज धड़ल्ले से डान्स नम्बर, आइटम नम्बर और यहाँ तक कि द्विअर्थी गीतों पर भी अपनी कलम चला रहे हैं। इस साल अमिताभ के गीतों की गूँज आपको वार्षिक संगीतमाला में भी सुनाई देगी। वैसे ऊपर के दस गीतों में आधे से ज्यादा में अमिताभ की लेखनी चली है। 

तो चलते चलते आप सबको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!उम्मीद करता हूँ कि झूमते झुमाते गीतों का ये सिलसिला आपको पसंद आया होगा। वैसे वार्षिक संगीतमाला 2012 अगले हफ्ते शुरु हो रही है जिसमें मैं बाते करूँगा साल के पच्चीस बेहतरीन गीतों के बारे में। आशा है आप उस सफ़र में मेरे साथ होंगे.. Bollywood Top 10 dancing nos. of  2012

सोमवार, दिसंबर 17, 2012

जसप्रीत शर्मा (Jazim Sharma)..जिनकी ग़ज़ल गायिकी से मिलता है रूह को सुकून !

सा रे गा मा पा 2012 से जुड़े प्रतिभागियों से जुड़ी बातचीत में पिछले हफ्ते आपने सुना था शास्त्रीय संगीत के महारथी मोहम्मद अमन को। आज उसी सिलसिले को आगे बढ़ाते है जसप्रीत यानि जाज़िम शर्मा (Jazim Sharma) की ग़जल गायिकी से।

आज की तारीख़ में सा रे गा मा पा ही एकमात्र ऐसा कार्यक्रम है जो फिल्म संगीत के इतर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और ग़ज़लों को देशव्यापी मंच प्रदान कर रहा है।  जगजीत जी ख़ुद चाहते थे कि ग़ज़ल गायकों को बढ़ावा देने के लिए खास ग़ज़लों से जुड़ा ऐसा कोई कार्यक्रम टीवी के पर्दे पर हो। पर अपनी इस ख़्वाहिश को वो जीते जी अंजाम नहीं दे सके। जगजीत जी ग़ज़लों के प्रति युवाओं की उदासीनता के पीछे इलेक्ट्रानिक मीडिया को दोषी मानते थे। पिछले साल उनकी मृत्यु के बाद लिखे अपने आलेख जगजीत सिंह :  क्या उनके जाने के बाद ग़जलों का दौर वापस आएगा ? में मैंने इस बारे में उनकी राय को आपके समझ रखा था। एक बार फिर उसे यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ..
"कैसा भी गायक हो निर्माता पैसे लगाकर एक आकर्षक वीडिओ लगा देते हैं और संगीत चैनल उसे मुफ्त में दिखा देते हैं। इससे गैर फिल्मी ग़ज़लों का टीवी के पर्दे तक पहुँचना मुश्किल हो गया है। रेडिओ की भी वही हालत है। प्राइवेट एफ एम चैनलों के मालिकों और उद्घोषकों को ग़जलों में ना कोई रुचि है ना उसको समझने का कोई तजुर्बा है। मैं तो कई बार ऐसे चैनल के साथ साक्षात्कार करने से साफ़ मना कर देता हूँ क्यूँकि वे ग़ज़लों को अपने कार्यक्रमों मे शामिल नही करते।"
आपको याद होगा कि ग़ज़लों को सा रे गा मा पा के मंच पर सुनने का सिलसिला दो साल पहले राजस्थान के गायक रंजीत रजवाड़ा से शुरु हुआ था। इस साल इस सिलसिले को ज़ारी रखा है पंजाब के भटिंडा से ताल्लुक रखने वाले जसप्रीत शर्मा ने। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि रंजीत रजवाड़ा और जसप्रीत शर्मा की गायिकी और व्यक्तित्व के कई पहलुओं में साम्यता है।

रंजीत दमे की बीमारी से लड़ते हुए सा रे गा मा पा के मंच तक पहुँचे थे वहीं जसप्रीत अपनी ज़ुबान की हकलाहट की वज़ह से रियालटी शो में भाग लेने की कई साल तक हिम्मत नहीं जुटा सके थे। रंजीत और जसप्रीत दोनों ही गुलाम अली खाँ साहब के शैदाई हैं और सा रे गा मा पा में दोनों को ही अपने प्रेरणास्रोत के सामने अपना हुनर दिखलाने का मौका मिला। इतना ही नहीं रंजीत की तरह ही जसप्रीत की उँगलियाँ जब हारमोनियम पर चलती हैं तो समझिए कमाल ही हो जाता है। पर एक जगह है जहाँ शायद उम्र के अंतर की वज़ह से जसप्रीत बाजी मार ले जाते हैं। रंजीत जब सा रे गा मा पा पर आए थे तो वे 18 साल के थे जबकि जाज़िम की उम्र 22 साल है। जाज़िम की गायिकी में एक ठहराव है जो कि एक ग़ज़ल गायक के लिए बेहद जरूरी है। तो आइए आज की इस महफिल का आग़ाज़ करते हैं उनकी गाई रंजिश ही सही से...


मुंबई में संगीत की विधिवत शिक्षा ले रहे जसप्रीत की आवाज़ ग़ज़ल के स्वरूप के हिसाब से मुनासिब है। वे उसमें बड़े सलीके से अपनी भिन्नताएँ डालते हैं। बड़े बड़े गायकों के समक्ष भी अपनी गायिकी पर उनका आत्मविश्वास मुझे अब तक डगमगाता नहीं दिखा।  अब तक जाज़िम ने गुलाम अली साहब व अन्य गायकों  की बेहद मशहूर ग़ज़लों चुपके चुपके रात दिन, हंगामा है क्यूँ बरपा, आवारगी, इतनी मुद्दत बाद मिले हो, कल चौदहवीं की रात थी, आज जाने की ज़िद ना करो, रंजिश ही सही  ...को अपनी आवाज़ दी है । ये लगभग वही ग़ज़लें हैं जिन्हें पिछले साल रंजीत ने भी गाया था। ये ग़ज़लें अपने आप में एक कहानी एक लीजेंड (legend) हैं जिन्हें सुनते ही उसके गाने वाले का चेहरा और अदाएगी सामने घूम जाती है।

पर मुझे लगता है कि सा रे गा मा पा के  मंच पर अगर जाज़िम को और आगे बढ़ना है तो उन्हें कुछ जोख़िम उठाने पड़ेंगे वर्ना वो रंजीत रजवाड़ा की तरह ही चौथे पाँचवे या उससे नीचे फिसल जाएँगे। जाज़िम शर्मा को चाहिए को वो आगे ऐसी ग़ज़लों का चुनाव करें जो ज्यादा सुनी ना गई हों या अगर मशहूर हों भी तो वो पूरी तरह अपने अंदाज़ से गाएँ ताकि अगली बार उस  ग़ज़ल को सुन कर लोग कह सकें कि ये जाज़िम की गाई ग़ज़ल है। मुझे याद आता है कि सा रे गा मा के पूर्व विजेता अभिजीत सावंत ने एक बार गुलाम अली की ग़ज़ल रुक गया आँख से बहता हुआ दरिया कैसे को इस खूबी से गुनगुनाया था कि आरिजनल वर्जन उसके सामने फीका पड़ गया था। मुझे पूरी आशा है कि जसप्रीत भी सा रे गा मा पा की अपनी इस यात्रा में ऐसा कुछ कर सकेंगे ताकि जसराज जोशी, शाहनाज, अमन, विश्वजीत जैसे कमाल के गायकों को कड़ी टक्कर दे सकें।

तो चलते चलते एक बार फिर देखते हैं जसप्रीत और हिमांशु द्वारा गुलाम अली साहब की ग़ज़ल आवारगी पर उन्हीं के  सामने की गई अनूठी जुगलबंदी, जिसे देख के गुलाम अली साहब भी गदगद हुए बिना नहीं रह सके..

सोमवार, दिसंबर 10, 2012

सा रे गा मा पा पर शास्त्रीय संगीत की अद्भुत बयार लाए हैं मोहम्मद अमन !

आज एक शाम मेरे नाम में महफिल सजी है राग बागेश्री की। काफी थाट से उत्पन्न ये राग यूँ तो रात्रि के अंतिम प्रहर में गाया जाता है पर राजस्थान के शास्त्रीय संगीत गायक मोहम्मद अमन की वजह से इस राग से जुड़ी कुछ बंदिशों को पिछले हफ्ते से क्या सुबह क्या शाम बस समझिए लगातार ही सुन रहा हूँ।

अगर आप टीवी पर सा रे गा मा पा 2012 देख रहे हों तो मोहम्मद अमन की बेमिसाल गायिकी से आप अब तक परिचित हो चुके होंगे। पिछले हफ्ते  विचित्र वीणा के जादूगर पंडित विश्व मोहन भट्ट के सम्मुख अमन ने बागेश्री की दो बंदिशों को जिस सुरीले अंदाज़ में तानों पर अपनी महारत दिखाते हुए प्रस्तुत किया कि मन बाग बाग हो गया और आँखों में इस बेजोड़ शास्त्रीय गायक की दिल लुभाने वाली गायिकी सुनकर खुशी के आँसू निकल आए।


शास्त्रीय संगीत के बारे में आम जनता यही समझती रही है कि ये बेहद उबाऊ होता है। वहीं अगर संगीत के सच्चे रसिया से पूछें तो वे बिल्कुल उलट ये कहेंगे कि संगीत सुनने का असली सुख यही है। पर शास्त्रीय संगीत की समझ रखने वालों और आम संगीत प्रेमी जनता के बीच शास्त्रीय संगीत की सोच से जुड़ी दूरी को पाटने में  सा रे गा मा पा जैसे रियालटी शो ने एक अद्भुत काम किया है।

वैसे तो घंटों चलने वाले शास्त्रीय संगीत की महफिलों में डूबने के लिए सब्र और संगीत की समझ दोनों होनी चाहिए। संगीत की समझ तो रुचि होने से धीरे धीरे आ ही जाती है। पर उसके लिए वक़्त चाहिए जो आजकल के युवाओं के पास होता ही कहाँ है? संगीत के इन कार्यक्रमों में समय सीमा की वज़ह से प्रतिभागी तीन से पाँच मिनट में रागों की कठिन से कठिन लयकारी को इस क़रीने से निभाते हैं कि क्या आम क्या खास सभी मंत्रमुग्ध से हो जाते हैं। आज युवाओं में शास्त्रीय संगीत और ग़ज़लों के प्रति उदासीनता इस विधा से जुड़े लोगों के लिए चिंता का विषय है। इन हालातों में ग़ज़लों की तरह शास्त्रीय संगीत को सा रे गा मा पा का मंच मिलना एक बेहद सार्थक कदम है जिसकी जितनी भी सराहना की जाए कम है।

मोहम्मद अमन ने भी अपनी हर प्रस्तुति में जो तानें ली है उन्हें सुनकर दाँतो तले अँगुली दबानी पड़ती है। मोहम्मद अमन का संगीतमय परिवार पटियाला घराने से ताल्लुक रखता है। उनके दादा आमिर मोहम्मद खाँ और पिता जफ़र मोहम्मद दोनों तबला वादक हैं और AIR जयपुर से जुड़े रह चुके हैं। इस कार्यक्रम के दौरान विश्व मोहन भट्ट ने  अमन के बारे में कहा कि 
"अभी भले ही वो बीस वर्ष के हैं पर दस साल की आयु में जब उन्होंने अमन को पहली बार सुना तो तब भी उनकी तैयार तानें उनकी आज की गायिकी से बीस नहीं तो उन्नीस ही रही होंगी।निश्चय ही इनकी प्रतिभा से भारतीय शास्त्रीय संगीत और समृद्ध होगा।"
तो आइए सुनते हैं मोहम्मद अमन द्वारा राग बागेश्री में गाई दो बंदिशें पहले अपने गरज पकड़ लीनी बैयाँ मोरी और फिर ए री ऐ मैं कैसे घर जाऊँ..


मोहम्मद अमन को अगर आपने अब तक नहीं सुना तो अवश्य सुनें और उनके पक्ष में वोट करें। जितनी देर तक वो इस कार्यक्रम में बने रहेंगे, संगीत की इस विधा को चुनने की इच्छा रखने वालों के लिए वे एक प्रेरणास्रोत साबित होंगे।

गुरुवार, नवंबर 29, 2012

रातों के साये घने जब बोझ दिल पर बने..चोपिन से प्रेरित सलिल दा की यादगार धुन

सलिल दा संगीत निर्देशित और योगेश द्वारा लिखे दार्शनिकता लिए (यानि फिलासफिकल) गीतों की श्रृंखला का तीसरा नग्मा है फिल्म अन्नदाता का। सलिल दा के संगीत निर्देशित गीतों में इसे जटिलतम गीतों में से एक माना जाता है। अगर सलिल दा की धुनों को जलेबी की तरह घुमावदार माना जाता था तो ये गीत उस परिभाषा में सहज ही शामिल हो जाता है। पर इस गीत की बात करने के पहले सलिल दा को इस गीत की प्रेरणा देने वाले शख़्स के बारे में बताना जरूरी है।

सलिल दा ने ये धुन पोलैंड के संगीतकार फ्रेडेरिक चोपिन (Frédéric Chopin) की धुन से प्रेरित होकर बनाई थी। चोपिन एक माहिर पियानो वादक थे। बीस साल तक पोलैंड में रहने के बाद वो फ्रांस चले गए। यूरोप के विभिन्न देशों में किए उनके कॉन्सर्ट लोकप्रिय हुए। उनकी ज्यादातर धुनें सोलो पियानों पर हैं। आज भी पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के रसिया उनकी रोमांटिक धुनों को चाव से सुनते हैं।



सलिल दा ने चोपिन की धुन पर जो गीत रचा उसे गाने के लिए एक क़ाबिल गायिका की जरूरत थी। अगर इस गीत को गुनगुनाएँ तो आप तुरंत समझ जाएँगे कि इसे ढंग से गाना कितना कठिन है। मुखड़े के आखिर तक आते आते सुरों का चढ़ाव एक तरफ़ और उसके ठीक बाद बदली हुई लय में अंतरे की शुरुआत की बारीकियाँ दूसरी तरफ़। पर लता जी जब इसे गाती हैं तो सुनने पर लगता ही नहीं कि उन्हें इसे निभाने में कोई दिक्कत हुई होगी। ये बात उनकी महानता की परिचायक है। सलिल दा उनकी इस महानता से भली भांति वाक़िफ़ थे। उनकी पुत्री अंतरा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था

"बाबा के लिए लता माँ सरस्वती का दूसरा रूप थीं। उनके लिए संगीत रचते समय वो इस चिंता से दूर रहते थे कि गीत किस सुर तक या कैसी ताल में चलेगा क्यूँकि उन्हें पूरा विश्वास था कि उसे लता बखूबी निभा लेंगी। मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि अन्नदाता के गीत रातों के साये.. में जो खूबसूरत संगीत संयोजन था उसके साथ लता जी ने पूरा न्याय किया है। बाबा ने लता जी की आवाज़ का अपने गीतों में जिस तरह इस्तेमाल किया वो क़ाबिलेतारीफ़ है।"

 योगेश का लिखा ये गीत हमें ज़िदगी में आने वाली मायूसियों से जूझने की प्रेरणा देता है। योगेश ने गीत के हर अंतरे में विकट परिस्थितियों में मन में आशा का दीपक जलाए रखने का जो संदेश दिया है वो किसी भी बुझे मन को जागृत करने का माद्दा रखता है। अंतरे की लय गीत की खूबसूरती में चार चाँद लगाती दिखती है। मिसाल के तौर पर एक अंतरे की लय के स्वरूप पर ज़रा गौर कीजिए
जब ज़िन्दगी.. किसी.. तरह.. बहलती नहीं..खामोशियों से भरी.. जब रात ढलती नहीं...तब मुस्कुराऊँ मैं..यह गीत गाऊँ मैं.. फिर भी ना डर..अगर.. बुझें.. दीये....सहर.. तो है.. तेरे.. लिये
है ना कमाल  ! तो चलिए सुनते हैं अन्नदाता फिल्म का ये गीत जिसे जया भादुड़ी पर फिल्माया गया था।

रातों के साये घने जब बोझ दिल पर बने
ना तो जले बाती, ना हो कोई साथी
फिर भी ना डर अगर बुझें दीये....सहर तो है तेरे लिये

जब भी मुझे कभी कोई जो ग़म घेरे
लगता है होंगे नहीं, सपने ये पूरे मेरे
कहता है दिल मुझको, माना हैं ग़म तुझको
फिर भी ना डर ... तेरे लिये

जब ना चमन खिले मेरा बहारों में
जब डूबने मैं लगूँ , रातों के मझधारों में
मायूस मन डोले, पर ये गगन बोले
फिर भी ना डर ... तेरे लिये

जब ज़िन्दगी किसी तरह बहलती नहीं
खामोशियों से भरी, जब रात ढलती नहीं
तब मुस्कुराऊँ मैं, यह गीत गाऊँ मैं
फिर भी ना डर ... तेरे लिये
रातों के साये घने ...



सलिल दा से जुड़ी इस श्रृंखला में यहीं विराम लेते हैं। वैसे सलिल योगेश की जोड़ी के दार्शनिकता लिए गीतों में उन गीतों की चर्चा रह ही गई जिसमें सलिल दा के पसंदीदा गायक मुकेश ने अपनी आवाज़ दी थी। पर वो सिलसिला फिर कभी ..पर चलते चलते क्या आप नहीं जानना चाहेंगे कि सलिल दा अपने संगीत को किस तरह आँकते थे? प्रसिद्ध फिल्म पत्रकार राजू भारतन से हुई बातचीत में एक बार उन्होंने कहा था

 "फुटबॉल के खेल को ही देखिए। सारे नियम हैं वहाँ! फ्री किक, थ्रो इन, आफ साइड, पेनाल्टी... पर फिर भी एक खिलाड़ी है पेले जो इन नियमों के भीतर रहते हुए कुछ ऐसा कर दिखाता है कि लगता है वो कुछ ऐसा कर गया जो इस खेल में होना एक अनूठी बात है। मैं भी संगीत का वही पेले हूँ।"

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

रविवार, नवंबर 25, 2012

जब स्वानंद, सुनिधि ने एक टीवी विज्ञापन के लिए छेड़ी सुरीली सरगम..

रविवार की शाम है। यूँ तो एक शाम मेरे नाम पर आजकल सलिल दा और योगेश से जुड़े गीतों की श्रृंखला चल रही है पर आज आपको कुछ नया ताज़ा सुनाने के लिए वो सिलसिला तोड़ना पड़ रहा है। बात ये है कि कल मुझे अपने Idiot Box पर एक सरगम का टुकड़ा दूर से सुनाई दिया। टीवी के पास जाकर देखा तो पता चला कि ये तो एक विज्ञापन है पर इतना सुरीला कि जिसे बार बार सुनने को दिल चाहे।

वैसे भी जिस सरगम में स्वानंद, सुनिधि और विजय प्रकाश जैसे धुरंधर गायक हों वो सरगम तो सुरीली होगी ही। साथ में हैं शान्तनु मोइत्रा और दो खूबसूरत बालाएँ। पहचान सकते हैं तो पहचानिए नहीं तो इस एक मिनट की विशुद्ध मेलोडी का आनंद उठाइए।


वैसे इस धुन को रचा है चक दे इंडिया के निर्देशक शिमित अमीन ने और ये विज्ञापन है निशान की नई कार का। अब आप सोचेंगे एक कार का संगीत की स्वर लहरी से क्या ताल्लुक? यही तो बात है ! दरअसल Nissan Evalia की पंचलाइन है Evalia Moves like Music


मुझे तो ये सरगम बेहद पसंद आई और आपको...

शुक्रवार, नवंबर 23, 2012

सलिल, योगेश व मन्ना डे : ज़िंदगी कैसी है पहेली, हाए...

सलिल दा और योगेश रचित फिलासफिकल गीतों की इस श्रृंखला में पिछली पोस्ट में बात हो रही थी गीत ना जाने क्यूँ होता है ये ज़िंदगी के साथ....... की। और हाँ इस गीत को गाते वक़्त इसके पहले अंतरे के बाद भटक कर मैं जा पहुँचा था एक दूसरे गीत की इस पंक्ति कभी देखो मन नहीं जागे पीछे पीछे सपनों के भागे पर। शायद दोनों गीतों की कुछ पंक्तियाँ एक जैसे मीटर में हों। ख़ैर आनंद का ये गीत ज़िदगी की इस पहेली के सच को चंद शब्दों में इस खूबसूरती से उभारता है कि मन इस गीत को सुनकर अंदर तक भींग जाता है। सलिल दा की मेलोडी, मन्ना डे की दिल तक पहुँचती आवाज़ और योगेश के सहज पर मन को चोट करते शब्द इस गीत का जादू हृदय से कभी उतरने नहीं देते। 

पिछली पोस्ट में आपको बताया था कि किस तरह सलिल दा पश्चिमी शास्त्रीय संगीत से प्रभावित थे। आनंद के इस गीत का आरंभ ऐसे ही संगीत संयोजन से होता है। साथ ही मन्ना डे की आवाज़ के पीछे वही कोरस पार्श्व में लहराता हुआ चलता है जो सलिल दा के गीतों का एक ट्रेडमार्क था। पर उस कोरस पर सलिल दा ने जिस तरह भारतीय मेलोडी की परत चढ़ाई है वो काबिले तारीफ़ है। सलिल दा अक्सर कहा करते थे..
"Music will always be dismantling and recreating itself, and assuming new forms in reaction to the times. To fail to do so would be to become fossilized. But in my push to go forward I must never forget that my heritage is also my inspiration.
"यानि संगीत हमेशा अपने आप को बँधे बँधाए ढांचे से तोड़ता और पुनर्जीवित करता चलेगा। इस प्रक्रिया में उसका स्वरूप समय की माँग के अनुरूप बदलेगा। अगर वक़्त की ये आहट कोई नहीं समझ सकेगा तो वो अतीत की गर्द में समा जाएगा। पर वक़्त के साथ आगे चलते वक़्त हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारी विरासत भी हमारी प्रेरणास्रोत है।"
सलिल दा के गीतों में मेहनतकशों का लोक संगीत है तो दूसरी ओर मोजार्ट की सिम्फोनी भी। सलिल मोजार्ट के संगीत से इस क़दर प्रभावित थे कि वो अपने आपको रिबार्न मोजार्ट (Reborn Mozart) कहा करते। पर उनकी सफलता का राज ये रहा कि इस सिम्फोनी को उन्होंने भारतीय रंग में ढाला।  हाल ही में सलिल दा की पुत्री अंतरा चौधरी ने विविधभारती में दिये अपने साक्षात्कार में कहा था
"बाबा प्रील्यूड और इंटरल्यूड को गीत के बोलों के साथ जोड़ कर अपने संगीत की रचना करते थे। जब भी कोई बाबा का गाना गाता है तो वो प्रील्यूड और इंटरल्यूड को गुनगुनाए बिना मुखड़े व अंतरे तक पहुँच ही नहीं पाएगा।"
कहने का मतलब ये कि सलिल दा के लिए प्रील्यूड और इंटरल्यूड गीत के अतरंग हिस्से हुआ करते थे। अंतरा की बात को मन्ना डे के गाए इस गीत को सुनकर बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। पर इस गीत में सपनों के पीछे भागते मन का चित्र अंकित करने वाले गीतकार योगेश के योगदान को भी हमें भूलना नहीं चाहिए। अच्छे कवि को अपनी बात कहने के लिए शब्दों का महाजाल रचने की आवश्यकता नहीं होती। योगेश कितनी खूबसूरती से जीवन के यथार्थ को एक पंक्ति में यूँ समेट लेते हैं ...एक दिन सपनों का राही चला जाए सपनों के आगे कहाँ. भई वाह।

वैसे आनंद के पहले योगेश बतौर गीतकार बहुत जानामाना नाम नहीं थे। उनकी माली हालत ऐसी थी कि अपने खुद के लिखे गीतों को सुनने के लिए उन्हें सविता चौधरी के पास जाना पड़ता था। योगेश सविता जी को तब से जानते थे जब उनकी शादी सलिल दा से नहीं हुई थी। सविता ने ही गीतकार के लिए योगेश का नाम सलिल दा को सुझाया था। सलिल दा तब तक अपना ज्यादातर काम शैलेंद्र के साथ किया करते थे। शैलेंद्र की मृत्यु के बाद उन्हें एक नए गीतकार की तलाश थी। जब पहली बार सलिल दा ने योगेश को आधे घंटे में एक गीत लिखने को दिया तो योगेश से कुछ लिखा ही नहीं गया। निराश मन से योगेश घर के बाहर निकल आए। मजे की बात ये रही कि बस स्टॉप तक पहुँचते ही उनके मन में एक गीत शक्ल लेने लगा। जब वापस आ कर उन्होंने सलिल दा का वो गीत सुनाया तो सलिल दा ने तुरंत अपनी पत्नी को बुलाकर कहा कि इसने तो बहुत अच्छा लिखा है।

गीत सुनते वक़्त आपने ध्यान दिया होगा कि किस तरह मन्ना डे ऊँचे सुरों में  एक दिन सपनों का राही तक पहुँचते हैं और उस के बाद  नीचे के सुरों में  चला जाए.... सपनों के.... आगे कहाँ गाते हुए हमारे दिल को वास्तविकता के बिल्कुल करीब ले आते हैं। ये प्रतिभा होती है एक अच्छे संगीतकार की जो शब्दों की लय को इस तरह रचता है कि सुनने वाले पर उसका अधिकतम असर हो। तो आइए सुनते हैं इस गीत को सलिल दा के अनूठे संगीत संयोजन के साथ


ज़िंदगी कैसी है पहेली, हाए
कभी तो हँसाए
कभी ये रुलाए
ज़िंदगी ...

कभी देखो मन नहीं जागे
पीछे पीछे सपनों के भागे
एक दिन सपनों का राही
चला जाए सपनों के आगे कहाँ
ज़िंदगी ...

जिन्होने सजाए यहाँ मेले
सुख-दुख संग-संग झेले
वही चुनकर ख़ामोशी
यूँ चले जाए अकेले कहाँ
ज़िंदगी ...

चलते चलते इस गीत से जुड़ा एक और किस्सा आपसे बाँटता चलूँ । आनंद के गीतों को लिखने के लिए लिए हृषिकेश दा ने गुलज़ार और सलिल दा ने योगेश को कह रखा था। पर दोनों ने ये बात एक दूसरे को नहीं बताई थी। लिहाजा एक ही परिस्थिति के लिए गुलज़ार ने ना जिया लागे ना लिखा और योगेश ने ना ना रो अखियाँ  लिखा। गीत तो गुलज़ार का ही रखा गया पर हृषिकेश दा ने योगेश की मेहनत को ध्यान में रखकर पारिश्रमिक के रूप में एक चेक दिया। योगेश ने कहा जब उनका गीत फिल्म में है ही नहीं तो फिर काहे के पैसे। इस समस्या के सुलझाव के लिए ज़िंदगी कैसी है पहेली को ..मूल स्क्रिप्ट में जोड़ा गया। वैसे आनंद के लिए योगेश ने मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने बुने भी लिखा।

सलिल दा से जुड़ी श्रृंखला का अगला गीत जीवन में आए दुखों से लड़ने की प्रेरणा देता है। इस बेहद कठिन गीत को एक बार फिर आवाज़ दी थी लता जी ने। बताइए तो कौन से गीत की बात मैं कर रहा हूँ?

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

सोमवार, नवंबर 19, 2012

सलिल चौधरी,योगेश व लता : न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...

आज सलिल चौधरी यानि सलिल दा का जन्मदिन है। पर यकीन मानिए ये इत्तिफ़ाक़ ही है कि उनके जन्मदिन पर उनसे जुड़ी ये श्रृंखला शुरु कर रहा हूँ। दरअसल हुआ यूँ कि बहुत दिनों से मैं सलिल दा द्वारा संगीत निर्देशित इस गीत के बारे में लिखना चाह रहा था। कल जब ये गीत गुनगुना रहा था तो अंतरे तक पहुँचने के बाद उसी लय में एक दूसरे गीत की पंक्तियाँ जुबाँ पर आ गयीं। मुझे लगा हो ना हो वो भी सलिल दा का गीत रहा होगा और वास्तव में वो उनका ही गीत निकला। इसी खोजबीन में ये भी नज़र में आ गया कि आज से करीब अस्सी साल पहले यह विलक्षण प्रतिभा वाला संगीत निर्देशक जो बहुमुखी प्रतिभा का धनी था, इस धरती पर आया था।

मेरी इस श्रृंखला का उद्देश्य सलिल दा के उन गीतों को आपके समक्ष रखना है जिसमें उन्होंने गीतकार योगेश गौड़ के साथ मिलकर जीवन की फिलॉसफी को इस तरह उतारा कि उनके बोल और धुनें समय के थपेड़ों के बीच रह रह कर ज़ेहन में आती रहीं और शायद जीवन पर्यन्त आती रहेंगी। यही तो खूबी है इन नग्मों कि ये वक़्त के साथ आपके दिल में अपना एक अलग वज़ूद बना लेते हैं। गीत का ख्याल आते वक़्त उस फिल्म से कहीं ज्यादा वो भावनाएँ आपके इर्द गिर्द घूम रही होती हैं जो गीत के बोलों में अंतरनिहित हैं।

अब फिल्म छोटी सी बात के इस गीत को ही देखिए। इस गीत के मुखड़े के सच को ना जाने कितने लोगों ने जीवन में महसूस किया होगा...

न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ
अचानक ये मन
किसी के जाने के बाद, करे फिर उसकी याद
छोटी छोटी सी बात, न जाने क्यूँ

कितनी सहजता से लिख गए ये सब योगेश ! पर मुंबई में आने से पहले तो योगेश को ये भी नहीं पता था कि उन्हें एक गीतकार बनना है पर जो काम उन्होंने सलिल दा के साथ किया वो उन्हें आज भी देश के अव्वल गीतकारों में स्थान दिलाने के लिए काफी है। पिता की मृत्यु के बाद योगेश नौकरी की तलाश में लखनऊ से मुंबई आए। पर वो ये सोचकर नहीं आए थे कि काम फिल्म जगत में करना है। उनके चचेरे भाई व्रजेंद्र गौड़ (जो एक पटकथा लेखक थे) ने उन्हें फिल्मों में काम करने की सलाह तो दी पर काम दिलवाने में कोई मदद नहीं की। नाराज़ योगेश ने अपने नाम के आगे से गौड़ टाइटल हटा लिया ताकि लोग ये ना समझें कि उन्हें फिल्म उद्योग में अपने भाई की वज़ह से काम मिला है। बचपन से ही उन्हें कोई भी पढ़ी गई कविता जल्द ही याद हो जाया करती थी इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यूँ ना अब कविता लिखने का भी प्रयास किया जाए और इस तरह वो गीतकार बन गए।

योगेश सलिल के सानिध्य में कैसे आए ये किस्सा तो आगे की कड़ियों में आप से बाँटूगा पर योगेश सलिल चौधरी के बारे में क्या राय रखते हैं ये यहाँ बताना आवश्यक है। कुछ वर्षों पहले दिए गए अपने साक्षात्कर में उन्होंने कहा था
"सलिल दा मेरे प्रिय संगीतकार थे। पहली मुलाकात में वे मुझे अंतरमुखी से लगे, पर धीरे धीरे जब वे खुलने लगे तब उनके साथ काम करने का आनंद बढ़ गया। वो शायद एकमात्र ऐसे बंगाली संगीतकार थे जिन्हें हिंदी के बोलों की अच्छी समझ थी। ऐसा संभवतः इसलिए था कि सलिल दा खुद एक लेखक और कवि थे। पढ़ने लिखने का उनका शौक़ इस क़दर था कि उन्हें लगभग हर विषय के बारे में अच्छी जानकारी थी। सब लोग कहते थे कि उनकी धुनें जलेबी की तरह घुमावदार और जटिल हुआ करती थीं पर मुझे उनके साथ गीत लिखने में कभी ऐसी दिक्कत नहीं हुई।"
वहीं स्वर साम्राज्ञी लता जी ने अपनी एक CD में सलिल दा के बारे में कहा था कि
" मैंने ऐसे तो करीब सौ संगीत निर्देशकों से ज्यादा के साथ काम किया है। पर उनमें से दस ही ऐसे रहें होंगे जिन्हें संगीत और सिनेमा दोनों की समझ थी और उन दसों में सलिल दा सबसे अग्रणी थे। उनकी मेलोडी कुछ अलग तरह की होती थी जिसे गाना कठिन होता था। कई बार वो अपनी धुन को सही ढंग से विकसित करने के लिए कई दिनों तक ना खाते थे और ना सोते थे। "
सलिल के संगीत निर्देशित गीतों की एक खास बात ये थी कि वो गीत के इंटरल्यूड्स में कोरस का इस्तेमाल काफी करते थे। इंटरल्यूड्स में संगीत संयोजन पश्चिमी शास्त्रीय संगीत का असर लिए होता था। इसकी भी एक वज़ह थी। सलिल दा का बचपन आसाम के चाय बागानों में बीता था। उनके पिता डॉक्टर थे और उन्हें अपने पूर्ववर्ती आयरिश मूल के डॉक्टर से पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के तमाम ग्रामोफोन रिकार्ड मिले थे। सलिल ने तभी से मोजार्ट, बीथोवन और चोपिन जैसे संगीतज्ञों को सुनना शुरु कर दिया था और उनसे बेहद प्रभावित हुए थे। बाद में अपनी धुनों में भी वे पश्चिमी सिम्फोनी का प्रयोग करते रहे।

इस गीत में भी ये बातें देखने को मिलती हैं। सलिल दा ने जिस अनूठे तरीके से इस गीत की लय को बुना था उसके साथ न्याय करने के लिए लता से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था। 

योगेश गीत के दोनों अंतरों में एक बार फिर किसी अज़ीज के साथ बिताए पलों को बेकली से याद करते हैं। वैसे भी पुरानी बातें, किसी के साथ बिताए वो हसीं लमहे किसी की यादों से दूर जा सकते हैं क्या..तो आइए आनंद उठाते हैं इस गीत का जिसे फिल्माया गया था विद्या सिन्हा व अमोल पालेकर पर 

 
वो अनजान पल
ढल गये कल, आज वो
रंग बदल बदल, मन को मचल मचल
रहें हैं छल न जाने क्यूँ, वो अनजान पल
तेरे बिना मेरे नैनों मे
टूटे रे हाय रे सपनों के महल
न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...

वही है डगर
वही है सफ़र, है नहीं
साथ मेरे मगर,अब मेरा हमसफ़र
ढूँढे नज़र न जाने क्यूँ, वही है डगर
कहाँ गईं शामें मदभरी
वो मेरे, मेरे वो दिन गये किधर
न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...

जैसा कि मैंने शुरुआत में कहा था कि इस गीत का अंतरा गुनगुनाते एक दूसरे गीत के अंतरे में भटक गया। जिंदगी की ऊँच नीच को परिभाषित करता वो गीत सलिल दा और योगेश की जोड़ी द्वारा बनाया एक बेहद संजीदा गीत है। तो आप भी सोचिए मैं किस गीत की बातें कर रहा हूँ। अगली पोस्ट में सलिल दा और योगेश से जुड़ी कुछ और दिलचस्प बातों के साथ चर्चा होगी उस गीत की..

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

बुधवार, नवंबर 07, 2012

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो : जगजीत, मजाज़ और कहकशाँ

पहले दक्षिणी महाराष्ट्र और फिर कानाताल की दस बारह दिनों की यात्रा की वज़ह से दूरदर्शन के पुराने धारावाहिक कहकशाँ में अलग अलग शायरों के साथ जगजीत की सुरीली आवाज़ के सफ़र में विराम लग गया था। आज कहकशाँ से जुड़ी इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी में बात करते हैं मजाज़ लखनवी की लिखी नज़्म एतराफ़ की। मजाज़ की इस नज़्म को आम जनों तक पहुँचाने में जगजीत की दर्द में डूबी आवाज़ का बहुत बड़ा हाथ रहा है। कहकशाँ में शामिल ग़ज़लों और नज़्मों में अरबी फ़ारसी शब्दों की बहुतायत होने की वज़ह से उन्हें पूरी तरह समझना हर ग़ज़ल प्रेमी के लिए चुनौतीपूर्ण रहा है। पर  इस नज़्म में तो मजाज़ ने ऐसे ऐसे रूपकों का इस्तेमाल किया है कि सामान्य उर्दू जानने वाले भी चकरा जाएँ।

जगजीत जी की इस बात के लिए तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने इतनी कठिन भाषा के बावज़ूद भी अपनी गायिकी से इस नज़्म के मर्म को श्रोताओं तक भली भांति पहुँचा दिया।  एक शाम मेरे नाम के पाठकों के लिए दीपावली की सौगात के रूप में पेश है मजाज़ की पूरी नज़्म उसके अनुवाद की एक कोशिश के साथ ताकि अगली बार जब भी आप ये नज़्म पढ़ें, सुनें या गुनगुनाएँ उसकी भावनाएँ आपके दिलो दिमाग पर और गहरी उतर सकें।

हिंदी में एतराफ़ का अर्थ होता है स्वीकारोक्ति। पर मजाज़ इस नज़्म के माध्यम से आख़िर क्या स्वीकार करना चाहते थे? मजाज़ किस तरह एक शादी शुदा रईसजादी के इश्क़ में गिरफ्तार हुए और किस तरह उनकी मोहब्बत उन्हें पागलपन की कगार पर ले गई, ये किस्सा मैं आपको उनकी मशहूर नज़्म आवारा के बारे में लिखते हुए सुना चुका हूँ।  बस इतना कहना चाहूँगा कि मजाज़ के इस दर्द में आप अगर पूर्णतः शरीक होना चाहते हैं तो आवारा से जुड़ी उन प्रविष्टियों को जरूर पढ़ें।

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?

मैने माना कि तुम इक पैकर-ए-रानाई हो
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन आराई हो
तिलअत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो
बिन्त-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो

मुझसे मिलने में अब अंदेशा-ए-रुसवाई है
मैने खुद अपने किये की ये सज़ा पाई है


एतराफ़ की शुरुआत मजाज़ अपनी नायिका की सुंदरता के बखान से करते हैं।  मजाज़ कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि तुम सौन्दर्य की एक प्रतिमा हो। अगर ये संसार एक खूबसूरत वाटिका है तो तुम उस फुलवारी की सुंदरता का केंद्रबिंदु हो। तुम्हारे यौवन में दहकते सूर्य की छवि है। तुम्हारा रूप स्वर्ग की अप्सरा का सा है। कभी कभी तो लगता है कि तुम उस हसीं चाँद की बेटी हो जो आकाश से उतर कर इस धरा पर आ गई है । पर आज तुम्हारे इस सौन्दर्य का मैं क्या करूँ? सच तो ये है कि आज के हालातों में बदनामी के डर से शायद ही तुम मुझसे मिलने की कोशिश करो। मैंने अपनी ज़िदगी को अब तक जिस तरह जिया है उसी की सज़ा मैं भोग रहा हूँ।


अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?

ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैने
शोलाज़ारों में जलाई है जवानी मैने
शहर-ए-ख़ूबां में गँवाई है जवानी मैने
ख़्वाबगाहों में गँवाई है जवानी मैने

हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र ड़ाली है
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर ड़ाली है


क्या कहूँ अब सोचता हूँ तो लगता है कि मैंने अपनी जवानी व्यर्थ ही बर्बाद कर ली। सुंदरियों के नगर में, ख़्वाबों को जन्म देने वाले उन शयनागारों में , हुस्न के उन शोलों के बीच आखिर मुझे क्या मिला ? जब जब किसी शोख़ नज़र ने अपनी चाहत का दामन मेरी तरफ़ फैलाया अपने पहले प्रेम के संकल्प की ढाल से मैंने उसे दूर ढकेल दिया।

उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूँ तारी था
सर पे सरशारि-ए-इशरत का जुनूँ तारी था
माहपारों से मोहब्बत का जुनूँ तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूँ तारी था

बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीन-ओ-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी

जन्नते शौक़ थी बेगान ए आफ़ाते समूम
दर्द जब दर्द ना हो काविशे दरमाँ मालूम
खाक़ थे दीद ए बेबाक में गरदूँ के नजूम
बज़्मे परवीन भी निगाहों में कनीज़ों का हुजूम

लैल ए नाज़ बरअफ़गंदा नक़ाब आती थी
अपनी आँखों में लिए दावत ए ख़्वाब आती थी


उन दिनों दिलो दिमाग पर मौज मस्ती का नशा छाया हुआ था। चाँद के उन हसीन टुकड़ों को मैं अपनी मोहब्बत का हासिल समझने लगा था। मेरे गुरूर की इंतहा इस हद तक थी कि हुस्न के मैदान में मैं बादशाहों से भी मुकाबला करने को तैयार था। मखमल के बिस्तर में सिमटा मेरा वो संसार एक हसीन सपने की तरह था। गर्म हवा की आफ़तों से अपरिचित वो दुनिया मेरे लिए प्रेम का स्वर्ग के समान दिखती थी। मेरा पास उस वक़्त हर दर्द की दवा थी। तब मुझे ऐसा लगता था कि मेरी बेबाक नज़रे आसमान के तारों तक को खाक़ में मिला सकती हैं। सुन्दरियों की महफिल मुझे दासियों का हुजूम लगती थी।

वैसे ये जुनूँ बेवज़ह तो नहीं था। वो भी क्या दिन थे ! नाज़ नखरों में पली बढ़ी सुंदरियाँ तक नक़ाब उठा कर मुझे आँखों ही आँखों में अपनी ख़्वाबगाह में आने का निमंत्रण दे डालती थी।

संग को गौहरे नायाबों गिराँ जाना था
दश्ते पुरख़ार को फ़िरदौसे जवाँ जाना था
रेग को सिलसिल ए आबे रवाँ जाना था
आह ये राज अभी मैंने कहाँ जाना था

मेरी हर फतह में है एक हज़ीमत पिनहाँ
हर मुसर्रत में है राज़े ग़मो हसरत पिनहाँ


क्या सुनोगी मेरी मजरूह जवानी की पुकार
मेरी फ़रियाद-ए-जिगरदोज़ मेरा नाला-ए-ज़ार
शिद्दत-ए-कर्ब में ड़ूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मै के खुद अपने मज़ाक़-ए-तरब आगीं का शिकार

वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहाँ से लाऊँ
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहाँ से लाऊँ
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?


पर शायद वो मेरा बचपना था। दुनिया के तौर तरीकों से मैं वाकिफ़ नहीं था।

मैं क्या जानता था कि एक पत्थर भी दुर्लभ मोती जवाहरात बनने की लालसा रखता है!
काँटेदार जंगल भी खिलती बगिया का रूप रखने की आस रखता है!
रेत के कण भी बहती धारा के साथ सागर को चूमने की ख्वाहिश रखते हैं!

वो भी अपने सुनहरे भविष्य की आस में मुझे छोड़ कर चली गई। गर्व और अहंकार में डूबी मेरी उस ज़िदगी की हर जीत अब शिकस्त में तब्दील हुई लगती है। ध्यान से देखो तो पाओगी कि मेरे हर खुशी के पीछे कई ग़म चेहरा छुपाए बैठे हैं। अपने इस घायल हृदय की हालत को तुम से अब क्या बयाँ करूँ?  कौन समझेगा मेरी हृदय को चीरनेवाली इस फ़रियाद को, आँसू भरे गीतों को व दर्द में डूबी मेरी बातों को। हालात ये हैं कि मैं  ख़ुद अपने तौर तरीकों की वज़ह से सबके बीच मजाक़ का पात्र बन गया हूँ। तुमने आने में अब बहुत देर कर दी है। तुम्हीं कहो अब इस मरे हुए दिल में वो कोमलता कहाँ से लाऊँ? अपनी भावनाओं में वो पहली वाली मासूमियत कहाँ से लाऊँ?

मेरे साये से डरो, तुम मेरी कुरबत से डरो
अपनी जुरअत की कसम , तुम मेरी जुरअत से डरो
तुम लताफ़त हो अगर, मेरी लताफ़त से डरो
मेरे वादों से डरो, मेरी मोहब्बत से डरो

अब में अल्ताफ़ो इनायत का सज़ावार नही
मैं वफ़ादार नहीं, हाँ मैं वफ़ादार नहीं
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?


नज़्म का ये आख़िरी हिस्सा मजाज़ के दिल मैं फैले नैराश्य को सामने लाता है। मजाज़ को अपनी ज़िदगी अपने साये तक से नफ़रत हो गई है। इसलिए वो नायिका को अपने से दूर रहने की सलाह देते हैं। जिस वफ़ा, कोमलता, रूमानियत समाज से लड़ने के जज़्बे को वो अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना कर चले थे उन पर उनका खुद का विश्वास डगमगा गया था। मजाज़ ने ये नज़्म 1945 में लिखी थी यानि अपनी मृत्यु के ग्यारह साल पहले। जीवन के अंतिम सालों में वे अपने मानसिक संतुलन खो बैठे थे। इलाज से उनकी हालत में सुधार जरूर हुआ पर एकाकी जीवन और शराब पीने की लत ने उन्हें इस दुनिया को छोड़ने पर मजबूर कर दिया। तो आइए एक बार फिर सुनें इस नज़्म में छुपी शायर की पीड़ा को जगजीत की आवाज़ में...

एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ 

सोमवार, अक्तूबर 22, 2012

जगजीत, हसरत और कहकशाँ : तोड़कर अहद-ए-करम ना आशना हो जाइए

हसरत मोहानी का जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे कस्बे मोहान में हुआ था। स्नातक की पढ़ाई करने के लिए हसरत अलीगढ़ गए और वहीं उनकी दिलचस्पी उर्दू शायरी में हुई। कॉलेज के बाद हसरत राजनीति में सक्रिय हो गए। उनकी विचारधारा कांग्रेस के गरम पंथियों से ज्यादा करीब रही। तिलक और अरविंदो घोष जैसे नेताओं से वे बेहद प्रभावित रहे। अपने रुख को वो अपने लेखों और कविताओं में व्यक्त करते रहे। नतीजन अंग्रेजों ने उनकी प्रिटिंग प्रेस बंद करा दी। हसरत ने फिर भी हार नहीं मानी और अपनी जीविका चलाने के लिए स्वदेशी वस्तुओं की दुकान खोल ली। अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा उन्हें जेल में बिताना पड़ा। पर इन कठोर परिस्थितियों में रहते हुए भी उनकी कविता में जीवन के प्रति नैराश्य नहीं उभरा। बल्कि इसके विपरीत उनकी लिखी रूमानी शायरी का एक बहुत बड़ा हिस्सा अंग्रेजों की क़ैद में ही सृजित हुआ।

के सी कांदा अपनी किताब Masterpieces of Urdu Ghazal में हसरत मोहानी की शायरी के बारे में एक रोचक टिप्पणी करते हैं। कांदा ने लिखा है..
हसरत के कथन में बेबाकी है चाहे वो राजनीति की बात करें या फिर प्रेम की। हसरत ने अपनी ग़ज़लों में एक ऐसी नायिका की तसवीर खड़ी की जिसके जज़्बात किसी आम लड़की के सपनों और भावनाओ को व्यक्त करते थे। उनकी कविताएँ आम परिस्थितियों से उभरती हुई बोलचाल की भाषा में अपना सफ़र तय करती हैं। इसलिए उनकी ग़ज़लों में फ़ारसी के शब्दों का हुजूम नहीं है।
कहकशाँ में यूँ तो हसरत मोहानी की लिखी पाँच ग़ज़लें हैं पर उनमें से तीन बेहद मशहूर हुयीं। चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है को सुना कर तो ग़ुलाम अली साहब ने कितनों को अपनी गायिकी का दीवाना बना लिया। वही रोशन जमाल ए यार से है अंजुमन तमाम की रूमानियत को जगजीत की आवाज़ में महसूस कर ग़ज़ल प्रेमियों का दिल बाग बाग होता रहा। पर हसरत मोहानी के जिस अंदाजे बयाँ का उल्लेख के सी कांदा ने अपनी किताब में किया है वो उनकी ग़ज़ल तोड़कर अहद-ए-करम नाआशना हो जाइये में सबसे ज्यादा उभरकर आया है। हसरत मोहानी ने इस ग़ज़ल में बातचीत के लहज़े में अशआरों को कहते हुए इतनी खूबसूरती से आख़िरी शेर कहा है कि बस मन खुश हो जाता है।

तो आइए समझने की कोशिश करते हैं कि क्या कहना चाह रहे हैं हसरत इस ग़ज़ल में..

तोड़कर अहद-ए-करम ना आशना हो जाइए
बंदापरवर जाइये अच्छा ख़फ़ा हो जाइए

राह में मिलिये कभी मुझ से तो अज़राह-ए-सितम
होंठ अपने काटकर फ़ौरन जुदा हो जाइए

हमारे दिल ने तो आपको अपना रखवाला माना है। पर क्या कहें अगर इतना सब कहने के बाद भी आपके दिल में मेरे लिए नाराजगी है तो फिर मोहब्बत में किए गए उस वादे को तोड़कर बंधन मुक्त हो जाइए। आपकी सुंदरता की क्या तारीफ़ करूँ, बस इतना ही कहूँगा कि आपके चलने से तो राहों पे बिजलियाँ गिरती हैं। अगर भूल से किसी रास्ते पर आमना सामना हो भी जाए तो बस गुस्से में अपने होठ काटने की अदा दिखलाती हुए बस आँखों से ओझल हो जाइएगा।

जी में आता है के उस शोख़-ए-तग़ाफ़ुल केश से
अब ना मिलिये फिर कभी और बेवफ़ा हो जाइए

क्या कहूँ उस दिलकश बाला की इस लगातार बेरुखी ने दिल इतना खट्टा कर दिया है कि सोचता हूँ मैं उससे ना मिलूँ। आख़िर जब उसने वफ़ा का दामन छोड़ ही रखा है तो अब अगर मैं भी बेवफ़ाई पर उतर जाऊँ तो उसमें हर्ज ही क्या है?

हाये रे बेइख़्तियारी ये तो सब कुछ हो मगर,
उस सरापा नाज़ से क्यूंकर ख़फ़ा हो जाइए


हसरत ग़ज़ल के आखिरी शेर में नायक का विचारक्रम तोड़ते हैं और मन ही मन उसे क्षोभ होता है कि हे भगवन अपनी प्रियतमा के बारे में मैं ये क्या ऊलजुलूल सोच रहा था? इस बेइख़्तियारी ने  मेरे दिमाग को ही अवश कर दिया है। आख़िर सर से पाँव तक खूबसूरत उस नाजुक परी से मैं  क्यूँ ख़फ़ा होने लगा?

बिना संगीत की इस ग़ज़ल में जगजीत जी की मधुर स्वर लहरी विशुद्ध रूप में आपके कानों तक पहुँचती है। तो देर किस बात की आइए सुनते हैं इस ग़ज़ल को..

एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ 

शनिवार, अक्तूबर 13, 2012

जगजीत,जोश और कहकशाँ : तुझसे रुख़सत की वो शाम-ए-अश्क़-अफ़शाँ हाए हाए

कहकशाँ पर आधारित इस श्रृंखला में आज जिक्र जोश मलीहाबादी का। इक ज़माना था जब कहकशाँ में शामिल इस ग़ज़ल की उदासी दिल में समाती हुई आँखों तक तैर जाती थी। सोचता था किसी नाजुक हृदय वाले शख़्स ने ही ये अशआर कहे होंगे। कितना गलत था मैं! जोश साहब के जमींदारी डील डौल को देख कर भला कौन कहता कि ये शायर ऐसी कविताएँ लिख सकता होगा। 

1894 में उत्तर प्रदेश के मलीहाबाद में जन्मे जोश मलीहाबादी ने कहने को तो इंकलाबी और रूमानी दोनों तरह की शायरी की पर अधिकांश समीक्षक उनकी रूमानी शायरी को ज्यादा तवज़्जह देते हैं। ख़ैर मैं बात कर रहा था जोश के व्यक्तित्व की। जोश का जन्म एक ऐसे रईस जमींदारों के खानदान में हुआ जहाँ एक ओर तो बाप दादाओं की शायरी की विरासत थी तो दूसरी ओर सामंती वातावरण में पनपता दमन का माहौल भी था। जोश ने नौ साल की उम्र से शेर कहने शुरु कर दिए पर साथ ही साथ उनमें बड़े घर का होने का अहम भी सवार हो गया। अपनी आत्मकथा यादों की बारात में जोश अपने बचपन का जिक्र करते हुए कहते हैं
"..मैं लड़कपन में बेहद बदमिज़ाज था। गुस्से की हालत ये थी कि मन के खिलाफ़ कोई बात हुई नहीं कि मेरे रोएँ रोएँ से चिंगारियाँ निकलने लगती थीं। मेरा सबसे प्यारा शगल ये था कि एक ऊँची सी मेज़ पर बैठकर अपने हमउम्र बच्चों को जो भी जी में आता अनाप शनाप पाठ दिया करता था। पाठ देते वक़्त मेरी मेज़ पर एक पतली सी छड़ी रखी रहती थी और जो बच्चा ध्यान से मेरा पाठ नहीं सुनता था उसे मैं छड़ी से इस बुरी तरह पीटता था कि वो बच्चा चीखें मार मार कर रोने लगता था। .."
पर इस उद्दंडता के साथ जोश के  स्वभाव में भावुकता भी घर करने लगी थी। शायद इसी भावुकता और हठी स्वभाव की वज़ह से युवावस्था में वे अपने पिता की छत्रछाया से निकलकर अपना एक अलग ही निशाँ ढूँढने लगे। जोश उर्दू व्याकरण के अच्छे जानकार थे। अपने बच्चों को इस भाषा से जुदा ना होना पड़े इसलिए आज़ादी के दस साल अपना वतन छोड़ कर वो सरहद पार चले गए। जोश अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि उनके पिता बशीर अहमद खाँ बशीर ज़बान के बारे में मशहूर शायर दाग़ की इस बात के क़ायल थे

उसको कहते हैं ज़बाने उर्दू
जिसमें ना पुट हो फ़ारसी का 


पर मज़े की बात ये है कि इतना सब होते हुए भी उनकी ख़ुद की शायरी में अरबी और फ़ारसी के शब्दों की भरमार है।  तो लौटते हैं आज की ग़ज़ल पर। जोश साहब का हर शेर क़माल का है और आख़िरी शेर का तो कहना ही क्या ! बस पढ़ कर वाह वाह ही निकलती है।तो आइए देखें अपने प्रियतम से जुदा होने की बेला को उन्होंने अपनी इस ग़ज़ल में कैसे ढाला है?

तुझसे रुख़सत की वो शाम-ए-अश्क़-अफ़शाँ हाए हाए,
वो उदासी वो फ़िज़ा-ए-गिरिया सामा हाए हाए,


मुझे याद है विदाई की वो शाम जब तुम्हारी आँखों से आँसू की बूँदे छलकी जा रही थीं। पूरे वातावरण में फैली उदासी और सबका रोना धोना सुन कर मेरा दिल ज़ार ज़ार हुआ जा रहा था।

याँ कफ़-ए-पा चूम लेने की भिंची सी आरज़ू,
वाँ बगलगीरी का शरमाया सा अरमान हाए हाए,


वो मैं ही जानता हूँ कि किस तरह हम दोनों ने अपने दिल जुदाई की उन मुश्किल घड़ियों में काबू किए थे। उफ्फ तुम्हारी उन नाज़ुक हथेलियों को चूमने की मेरी हसरत, और वो तुम्हारी मुझसे गले मिलने की चाहत ...शर्म और लिहाज़ के आवरण में बस एक ख़्वाहिश बन कर ही रह गयी।

वो मेरे होंठों पे कुछ कहने की हसरत वाए शौक़,
वो तेरी आँखों में कुछ सुनने का अरमान हाए हाए,


धिक्कार है ऐसे प्रेम को जो इतनी भी हिम्मत ना जुटा सका कि दिल की बातें होठों पे ले आता। तुम्हारी आँखें कुछ ना कहते हुए भी सब कह गयीं। तुम्हारी उस कातर दृष्टि में मेरे होठों से वो सब ना सुन पाने की जो शिकायत थी उसे मैं किस तरह भुला पाऊँगा।

सच कहूँ तो जब मैं इस ग़जल में प्रयुक्त अरबी फ़ारसी शब्दों का अर्थ नहीं जानता था तब भी ये ग़ज़ल मुझे उतना ही संजीदा करती थी जितना की आज करती है। ये जादू जगजीत की आवाज़ का था जो ग़ज़ल में समाए दर्द को बिना किसी मुश्किल के आँख की कोरों तक पहुँचा दिया करता था। ये विशेषता होती है इक काबिल फ़नकार की जो जगजीत की आवाज़ में कूट कूट कर भरी थी। तो आइए सुनते हैं जगजीत जी की आवाज़ में जोश मलीहाबादी की ये ग़ज़ल


एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ 

मंगलवार, अक्तूबर 09, 2012

जगजीत सिंह और कहकशाँ : देखना जज़्बे मोहब्बत का असर आज की रात..

जगजीत जी को गुजरे एक साल होने को आया है। दस अक्टूबर को उनकी पहली बरसी है। जगजीत ऐसे तो यूँ दिल में बसे हैं कि उनकी गायी ग़ज़लें या नज़्में कभी होठों से दूर नहीं गयीं और इसीलिए एक शाम मेरे नाम पर उनके एलबमों का जिक्र होता रहा है। पर जगजीत जी के कुछ एलबम बार बार चर्चा करने के योग्य रहे हैं और कहकशाँ उनमें से एक है।

यूँ तो दूरदर्शन के इस धारावाहिक में प्रस्तुत अपनी कई पसंदीदा ग़ज़लों और नज्मों मसलन मजाज़ की आवारा, हसरत मोहानी की रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम और फिराक़ गोरखपुरी की अब अक्सर चुप चुप से रहे हैं की चर्चा पहले ही इस ब्लॉग पर हो चुकी है। पर कहकशाँ ग़ज़लों और नज़्मों का वो गुलिस्तां है जिसकी झोली में ऐसे कितने ही फूल हैं जिसकी खुशबू को इस महफिल में फैलाना बेहद जरूरी है। जगजीत जी की पहली बरसी के अवसर पर इस चिट्ठे पर अगले कुछ हफ्तों में आप सुनेंगे इस महान ग़ज़ल गायक के धारावाहिक कहकशाँ से चुनी कुछ पसंदीदा ग़ज़लें और नज़्में

तो शुरुआत मजाज़ लखनवी की एक रूमानी ग़ज़ल से। मजाज़ व्यक्तिगत जीवन के एकाकीपन के बावज़ूद अपनी ग़ज़लों में रूमानियत का रंग भरते रहे। अब उनकी इस ग़ज़ल को ही देखें जो आज की रात नाम से उन्होंने 1933  में लिखी थी। मजाज़ ने अपनी ग़ज़ल में 17 शेर कहे थे। जगजीत ने उनमें से चार अशआर चुने। ये उनकी अदाएगी का असर है कि जब भी उनकी ये ग़ज़ल सुनता हूँ हर शेर के साथ उनका मुलायमियत से कहा गया आज की रा...त बेसाख्ता होठों से निकल पड़ता है। अब जब जगजीत जी की इस ग़ज़ल का जिक्र आया है तो क्यूँ ना मजाज़ की लिखी इस ग़ज़ल के 17 तो नहीं पर चंद खूबसूरत अशआर से आपकी मुलाकात कराता चलूँ।


ग़ज़ल का मतला सुन कर ही दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। आपके कंधे पर उनका सर हो तो इतना तो मान कर चलिए कि वो आपसे बेतक्कलुफ़ हो चुके हैं। कितना प्यारा अहसास जगाती  हैं ये पंक्तियाँ 

देखना जज़्बे मोहब्बत का असर आज की रात
मेरे शाने पे है उस शोख़ का सर आज की रात

अब इस घायल दिल को और क्या चाहिए देख तो लिया उन्होंने  आज एक अलग ही अंदाज़ में.. अब तो समझ ही नहीं आता देखूँ तो कहाँ देखूँ हर तरफ तो उनके हुस्न का जलवा है।

और क्या चाहिए अब ये दिले मजरूह तुझे
उसने देखा तो ब अंदाज़े दिगर आज की रात

नूर ही नूर है किस सिम्त उठाऊँ आँखें
हुस्न ही हुस्न है ता‍‌-हद्दे- नज़र आज की रात

अरे ये तो मेरी इन चंचल निगाहों का कमाल है जिसने उनके गालों को सुबह की लाली के समान सुर्ख कर दिया है।  गीत का माधुर्य और शराब का नशा मुझे मदहोश कर रहा है। मेरी मधुर रागिनी  का ही असर है जिसने उनकी आँखों में एक ख़ुमारी भर दी है।

आरिज़े गर्म पे वो रंग ए शफक़ की लहरें
वो मिरी शोख़‍‍-निगाही का असर आज की रात

नगमा-ओ-मै का ये तूफ़ान-ए-तरब क्या कहना
मेरा घर बन गया ख़ैयाम का घर आज की रात

नरगिस-ए-नाज़ में वो नींद का हलका सा ख़ुमार
वो मेरे नग़्म-ए-शीरीं का असर आज की रात

मेरी हर धड़कन पर उनकी नज़र है और मेरी हर बात पर उनका स्वीकारोक्ति में सर हिलाना इस रात को मेरे लिए ख़ास बना रहा है। ये उनकी मेहरबानी का ही जादू है कि आज मैं अपने दिल को पहले से ज्यादा प्रफुल्लित और हलका महसूस कर रहा हूँ

मेरी हर साँस पे वह उनकी तवज़्जह क्या खूब
मेरी हर बात पे वो जुंबिशे सर आज की रात

उनके अल्ताफ़ का इतना ही फ़ुसूँ काफी है
कम है पहले से बहुत दर्दे जिगर आज की रात

और चलते चलते इसी माहौल को कायम रखते हुए असग़र गोंडवी की ग़ज़ल के अशआर। गोंडा से ताल्लुक रखने वाले असग़र और मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी की पत्नियाँ आपस में बहनें थीं और कहते हैं कि जिगर असग़र को अपना उस्ताद मानते थे।  जगजीत जी ने इस ग़ज़ल को भी उसी संज़ीदगी से गाया है जिनकी वो हक़दार हैं


नज़र वो है कि कौन ओ मकाँ के पार हो जाए
मगर जब रूह ए ताबाँ पर पड़े बेकार हो जाए
(यानि आँखों का तेज़ ऐसा हो कि वो आसमाँ और जमीं की हदों को पार कर जाए पर जब किसी पवित्र आत्मा पर पड़े तो ख़ुद ब ख़ुद अपनी तीव्रता, अपनी चुभन खो दे।)

नज़र उस हुस्न पर ठहरे तो आखिर किस तरह ठहरे
कभी जो फूल बन जाए कभी रुखसार* हो जाए

चला जाता हूँ हँसता खेलता मौज़-ए-हवादिस** से
अगर आसानियाँ हों ज़िन्दगी दुशवार हो जाए

*चेहरा  ** खतरों की लहरों

कहकशाँ में गाई ग़ज़लों की ख़ासियत ये है कि वे चुने हुए शायरों की प्रतिनिधि रचनाएँ तो हैं ही साथ ही साथ ज्यादातर ग़ज़लों में जगजीत की आवाज़ ना के बराबर संगीत संयोजन के बीच कानों तक पहुँचती है। इसीलिए उन्हें बार बार सुनने को जी चाहता है। कहकशाँ में गाई जगजीत की ग़ज़लों का सिलसिला आगे भी चलता रहेगा...
एक शाम मेरे नाम पर जब जब गूँजी जगजीत की आवाज़
  1. धुन पहेली : पहचानिए जगजीत की गाई मशहूर ग़ज़लों के पहले की इन  धुनों को !
  2. क्या रहा जगजीत की गाई ग़ज़लों में 'ज़िंदगी' का फलसफ़ा ?
  3. जगजीत सिंह : वो याद आए जनाब बरसों में...
  4. Visions (विज़न्स) भाग I : एक कमी थी ताज महल में, हमने तेरी तस्वीर लगा दी !
  5. Visions (विज़न्स) भाग II :कौन आया रास्ते आईनेखाने हो गए?
  6. Forget Me Not (फॉरगेट मी नॉट) : जगजीत और जनाब कुँवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' की शायरी
  7. जगजीत का आरंभिक दौर, The Unforgettable (दि अनफॉरगेटेबल्स) और अमीर मीनाई की वो यादगार ग़ज़ल ...
  8. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 1
  9. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 2
  10. अस्सी के दशक के आरंभिक एलबम्स..बातें Ecstasies , A Sound Affair, A Milestone और The Latest की
  11. अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ...क़तील शिफ़ाई,
  12. आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है...सुदर्शन फ़ाकिर
  13. ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ? ... मज़ाज लखनवी
  14. क्या बतायें कि जां गई कैसे ? ...गुलज़ार
  15. ख़ुमार-ए-गम है महकती फिज़ा में जीते हैं...गुलज़ार
  16. 'चराग़-ओ-आफ़ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी...सुदर्शन फ़ाकिर,
  17. परेशाँ रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ...क़तील शिफ़ाई,
  18. फूलों की तरह लब खोल कभी..गुलज़ार 
  19. बहुत दिनों की बात है शबाब पर बहार थी..., सलाम 'मछलीशेहरी',
  20. रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम... हसरत मोहानी
  21. शायद मैं ज़िन्दगी की सहर ले के आ गया...सुदर्शन फ़ाकिर
  22. सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं...क़तील शिफ़ाई, 
  23. हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद...राही मासूम रज़ा 
  24. फूल खिला दे शाखों पर पेड़ों को फल दे मौला
  25. जाग के काटी सारी रैना, गुलज़ार
  26. समझते थे मगर फिर भी ना रखी दूरियाँ हमने...वाली असी

सोमवार, अक्तूबर 01, 2012

राही मासूम रज़ा और टोपी शुक्ला : क्या इस देश में हिंदुस्तानी होना गुनाह है?

राही मासूम रज़ा एक ऐसे उपन्यासकार थे जिनकी किताबों से गुज़रकर हिंदुस्तानियत को और करीब से पढ़ा, समझा और महसूस किया जा सकता है। असंतोष के दिन और आधा गाँव तो कुछ वर्षों पहले पढ़ चुका था। कुछ महिने पहले मैंने उनकी किताब टोपी शुक्ला पढ़कर खत्म की। दरअसल रज़ा साहब ने किताब का नाम ही कुछ ऐसा रखा था कि पिछले साल के पुस्तक मेले में इसे खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पाया था। मन में पहला सवाल यही आया था कि आख़िर क्या बला है ये टोपी शुक्ला?

किताब के पहले कुछ पन्ने उलटने के बाद ही लेखक से मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था। पुस्तक के नायक बलभद्र नारायण शु्क्ला के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में टोपी शुक्ला कहलाए जाने का किस्सा रज़ा साहब कुछ यूँ बयाँ करते हैं..

"यूनिवर्सिटी यूनियन में नंगे सर बोलने की परंपरा नहीं थी। टोपी की ज़िद कि मैं तो टोपी नहीं पहनूँगा। इसलिए होता यह कि यह जैसे ही बोलने खड़े होते सारा यूनियन हाल एक साथ  टोपी टोपी का नारा लगाने लगता। धीरे धीरे टोपी और बलभद्र नारायण का रिश्ता गहरा होने लगा। नतीजा यह हुआ कि बलभद्र को छोड़ दिया गया और इन्हें टोपी शुक्ला कहा जाने लगा।"

लेखक का टोपी की कथा कहने का तरीका मज़ेदार है। टोपी की कथा ना उसके शुरुआती जीवन से शुरु होती है और ना ही उसकी मृत्यु के फ्लैशबैक से। उपन्यास का आरंभ टोपी के जीवन के मध्यांतर से होता है यानि जब कॉलेज की पढ़ाई के लिए टोपी बनारस से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पहुँचता है। रज़ा 115 पृष्ठों के इस उपन्यास में टोपी के जीवन को अपनी मर्जी से फॉस्ट फारवर्ड और रिवर्स करते रहे हैं। पर कमाल इस बात का है कि कथन की रोचकता बनाए हुए भी अपने मूल प्रश्न से वो भटके नहीं है जो उनके दिल को हमेशा से कचोटता रहा है। इस सवाल से हम सभी वाकिफ़ हैं। आख़िर इस देश के लोगों की पहचान उनकी जाति या धर्म से होकर ही क्यूँ है? टोपी शुक्ला जैसे लोग जिन्होंने हिंदुस्तानियत का अक़्स लेकर अपने जीवन मूल्य निश्चित किए उनको ये देश कब उनकी वाज़िब पहचान देगा?

पर टोपी अपने जीवन में सदा से गंगा जमुनी तहज़ीब को मानते रहे ऐसा भी नहीं था। ये होता भी तो कैसे ? अपने बाल जीवन में अपने आस पास इतने विरोधाभासों को देखने वाला इन मामलों में कोई पुख्ता और तार्किक राय बना भी कैसे सकता था? घर वाले मियाँ का छूआ भले ना खाते हों पर पिता वा दादी उनकी बोली धड़ल्ले  से बोलते थे। टोपी के पिता के बारे में लेखक की ये टिप्पणी इस दोहरेपन को बड़ी बखूबी सामने लाती है
"डा पंडित भृगु नारायण नीले तेल वाले धुली हुई उर्दू बोलते थे और उर्दू के कट्टर विरोधी थे। इंशा अल्लाह, माशा अल्लाह और सुभान अल्लाह के नीचे बात नहीं करते थे। मुसलमानों से नफ़रत करते थे। पर इसलिए नहीं कि उन्होंने भारत की प्राचीन सभ्यता को नष्ट किया है और पाकिस्तान बना लिया है। बल्कि इसलिए कि उनका मुकाबला डा. शेख शरफ़ुद्दीन लाल तेल वाले से था। यह डा.शरफ़ुद्दीन उनके कम्पाउण्डर हुआ करते थे। शेख शरफ़ुद्दीन की हरक़त ये रही कि उन्होंने नीले तेल का रंग बदल दिया और डाक्टर बनकर पब्लिक को दोनों हाथों से लूटने लगे।"
टोपी कुरूप थे तो इसमें उनका क्या कसूर ? माता पिता, भाइयों और दादी से जिस स्नेह की उम्मीद की वो उन्हें मिली भी तो अपने मुस्लिम दोस्त इफ़्फन व उसकी दादी से। कलक्टर का बेटा होने के बावज़ूद इफ़्फन ने टोपी के साथ कभी भेद भाव नहीं किया। यहाँ तक की अपनी नई चमचमाती साइकिल भी खेलने को दी। साइकिल के सपनों को सँजोए जब टोपी घर पहुँचा तो वहाँ रामदुलारी के यहाँ तीसरा बच्चा हो रहा था।
"भाई होई की बहिन ? एक नौकरानी ने पूछा
साइकिल ना हो सकती का ! टोपी ने सवाल किया

बूढ़ी नौकरानी हँसते हँसते लोटपोट हो गई। माँ रामदुलारी मुस्कुरा दी। दादी सुभ्रदादेवी ने नफ़ीस उर्दू में टोपी की मूर्खता का रोना रो लिया। परंतु किसी ने नहीं सोचा कि टोपी को एक अदद साइकिल की जरूरत है।"
टोपी के दिल को कोई समझता था तो वो थी इफ़्फन और उसकी दादी। दादी अचानक परलोक सिधार गयीं और इफ़्फन के पिता का तबादला हो गया। टोपी फिर अकेला हो गया। कोई अचरज़ नहीं कि ऐसे हालातों में जब टोपी जनसंघियों के संपर्क में आया तो जनसंघी हो गया। अपने पिता की ही तरह उसका जनसंघ प्रेम विचारधारा से ना होकर उसके जीवन की तत्कालीन परिस्थितियों से था। लाल तेल वाले का बेटा कक्षा में अव्वल आए और नीले तेल वाले असली डाक्टर का बेटा फेल हो जाए तो टोपी की रही सही इज़्जत का दीवाला तो पिटना ही था। सो उसने इस घटना से ये निष्कर्ष निकाला कि जब तक इस देश में मुसलमान हैं तब तक हिंदू चैन की साँस नहीं ले सकता।

पर लेखक इस मानसिकता से मुसलमानों को भी अछूता नहीं पाते। अब इफ़्फन के दादा परदादाओं के बारे  में बात करते हुए कहते हैं
इफ़्फ़न के दादा और परदादा मौलवी थे। काफ़िरों के देश में पैदा हुए। काफ़िरों के देश में मरे। परंतु वसीयत करके मरे कि लाश करबला ले जाई जाए। उनकी आत्मा में इस देश में एक साँस तक ना ली।
राही मासूम रज़ा इस किताब में जिस बेबाकी से हमारी सोच और मान्यताओं पर व्यंग्यात्मक चोट करते हैं वो देखते ही बनता है। मिसाल के तौर पर कुछ बानगियाँ देखें..
"सेठ साहब की बेटी लाजवंती बड़ी अच्छी लड़की थी। बस एक आँख ज़रा खराब थी। बाएँ पैर को घसीटकर चलती थीं। रंग ज़रा ढँका हुआ था। और मुँह पर माता के निशान थे। परंतु इन बातों से क्या होता है? शरीफ़ लोगों में कहीं बहुओं की सूरत देखी जाती है। सूरत तो होती है रंडी की। बीवी की तो तबियत देखी जाती है।"

"रंग बदलने से आदमी का क्या क्या हो जाता है। टोपी एक ही है। सफ़ेद हो तो आदमी कांग्रेसी दिखाई देता है , लाल हो तो समाजवादी और केसरी हो तो जनसंघी।"

"इश्क का तअल्लुक दिलों से होता है और शादी का तनख़्वाहों से। जैसी तनख्वाह होगी वैसी ही बीवी मिलेगी। "

"अगर किसी टीचर की बीवी किसी स्टूडेंट से फँसी हुई होतो उसका पढ़ा लिखा या ज़हीन होना बेकार है। वह रीडर बन ही नहीं सकता।"
अलीगढ़ जाकर टोपी अपने पुराने दोस्त इफ़्फन और उसकी बीवी सकीना से मिल पाता है और उसकी जनसंघी विचारधारा कम्युनिस्टों की सोहबत में एक नए रंग में रँग जाती है। आगे की कहानी विश्वविद्यालय की राजनीति, सक़ीना से टोपी के संबंधों की अफ़वाहों और उससे टोपी के मन में उपजे मानसिक क्षोभ का चित्रण करती है। रज़ा इस पुस्तक में हिंदू और मुसलमानों क बीच के आपसी अविश्वास और उनके पीछे के कारणों को अपने मुख्य किरदार टोपी और उसके परम मित्र इफ़्फन और सकीना के माध्यम से बाहर लाते हैं। उपन्यास का अंत टोपी की आत्महत्या से होता है। टोपी को ये कदम क्यूँ उठाना पड़ा ये तो आप राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास में पढ़ ही लेंगे पर ख़ुद लेखक इस बारे में क्या कहते हैं चलते चलते ये बताना शायद मेरे या हम सब के लिए बेहद जरूरी होगा..
"मुझे यह उपन्यास लिख कर कोई ख़ास खुशी नहीं हुई। क्योंकि आत्महत्या सभ्यता की हार है। परन्तु टोपी के सामने कोई और रास्ता नहीं था। यह टोपी मैं भी हूं और मेरे ही जैसे और बहुत से लोग भी हैं। हम लोग कहीं न कहीं किसी न किसी अवसर पर "कम्प्रोमाइज़" कर लेते हैं। और इसीलिए हम लोग जी रहे हैं। टोपी कोई देवता या पैग़म्बर नहीं था। किंतु उसने "कम्प्रोमाइज़" नहीं किया और इसीलिए आत्महत्या कर ली।"

सोमवार, सितंबर 24, 2012

क्यूँ थामी फ़िराक़ गोरखपुरी ने कविता की डोर : अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं...

अली सरदार ज़ाफरी ने सन 1991-12 में उर्दू शायरी के कुछ दिग्गजों हसरत मोहानी, जिगर मोरादाबादी, जोश मलीहाबादी, मज़ाज लखनवी, मख़दूम मोहीउद्दीन व फ़िराक़ गोरखपुरी के बारे में कहकशाँ नाम से एक टीवी सीरियल बनाया था। दूरदर्शन पर उस वक़्त तो मैंने ये सीरियल नहीं देखा था पर इसमें इस्तेमाल हुई ग़ज़लों की वज़ह से मज़ाज जैसे शायरों से परिचय हुआ। जगजीत जी ने भी बहुत दिल लगा के इन सारी ग़ज़लों को हम तक पहुँचाया और शायद यही वज़ह है कि ग़ज़लों के जानकार कहकशाँ को जगजीत सिंह के सबसे बेहतरीन एलबमों में से एक मानते हैं। आज इस प्रविष्टि में मैं फ़िराक़ की ऐसी ही एक ग़ज़ल ले कर आपके सामने मुख़ातिब हूँ जो मेरे दिल के बेहद करीब है।

अली सरदार ज़ाफरी ने कहकशाँ में फिराक़ के अजीबो गरीब व्यक्तित्व का एक खाका खींचने की कोशिश की थी। अपनी पत्नी से सनक की हद तक नफ़रत, जोश से दोस्ती और कुछ दिनों की रंजिश, अपने भाई से प्रेम व अलगाव और ज़िंदगी के आखिर के दिनों में उनका अकेलापन ..ये सारे प्रसंग इस धारावाहिक में दिखाए गए थे। पर जाफ़री की नज़रों में अन्य शायरों की तुलना में फ़िराक़ का कद क्या था ? इस प्रश्न का उत्तर मुझे के सी कांदा के संपादित संग्रह Selected Poetry of Firaq Gorakhpuri में मिला। इस किताब में फ़िराक़ की शायरी पर पर अपनी राय ज़ाहिर करते हुए जाफ़री साहब लिखते हैं कि

"फ़िराक़ अपने ज़माने के महान शायरों में से एक थे पर ग़ालिब और मीर जैसे विश्व प्रसिद्ध शायरों की श्रेणी में उन्हें रखना सही नहीं है भले ही वो ख़ुद ऐसा कहते रहे हों । उनकी ग़ज़लों का विस्तार व्यापक था और उन्होंने अनेक विषयों को छुआ जिनमें रहस्यवाद, राजनीतिक और सामाजिक हालातों पर उनकी सोच शामिल है। पर ये सब होते हुए भी मैं मूलतः उनको अप्रतिम सौन्दर्य का कवि मानता हूँ जिसे एक प्रेमी की विभिन्न मानसिक अवस्थाओं को बखूबी चित्रित करने का कमाल हासिल था। उनकी अपनी एक शैली था। उनकी बातों मे एक प्रमाणिकता थी और वे भाषा को खूबसूरती से इस्तेमाल करने का फ़न जानते थे।"

पर ख़ुद फ़िराक़ अपनी शायरी के बारे में क्या सोचते थे ये जानना भी कम दिलचस्प नहीं है। पुस्तक नग्मानुमा में फ़िराक़ साहब ने अपने अंदर के कवि के बारे में कुछ बातें बाँटी हैं। अपने अंग्रेजी मे लिखे इस लेख में फ़िराक़ कहते हैं

"कवि के रूप में अपनी पहचान बनाने के पहले ही कविता मेरे अंदर जन्म ले चुकी थी। जब मैं बच्चा था तब किसी कुरूप पुरुष या स्त्री की गोद में नहीं जाता था। मुझे ना केवल शारीरिक कुरुपता से नफ़रत थी बल्कि लोगों के पहनावे, तहज़ीब, बोली में किसी भी तरह की कमी मुझे असहज कर देती थी। घर की आंतरिक साज सज्जा और बनावट व्यवस्थित व खूबसूरत हो तो मैं प्रसन्न हो जाया करता था। पेड़ पौधे, बागीचे और हरियाली या यूँ कहूँ कि ज़मीं और स्वर्ग के बीच प्रकृति का जो भी था वो मुझे अपनी ओर खींचता था। प्रकृति की छोटी सी हलचल और जीवन की मामूली सी घटना भी इस तरह मेरे हृदय में बैठ जाती थी कि मैं परेशान हो जाया करता था।  ये प्रभाव अवर्णनीय थे  पर इन्हें महसूस कर जो भावनाएँ मन में आती गयी वो मेरे दिलो दिमाग का हिस्सा बन गयीं। मैं संगीत और नृत्य की छोटी छोटी बारीकियों में इस तरह खो जाता कि वापस सामान्य स्थिति में पहुंचने में मुझे काफी वक़्त लगता।
बचपन और किशोरावस्था से गुजरते इस दौर में मेरी शादी हुई वो भी मेरे व मेरे परिवार के साथ धोखे व फ़रेब से। उस औरत की एक झलक मुझे गुस्से से आगबबूला कर देती थी। एक झटके में मेरा जीवन बर्बाद हो गया था। मुझे उस वक़्त ऐसा लगा कि मैंने कोई विषैला फल खा लिया हो। मेरा जीवन नफ़रतों से भर गया। पर मेरे भीतर कहीं कोई छुपी ताकत थी जिसने मुझे पूरी तरह समाप्त होने से बचा लिया। प्रकृति व अपने आस पास की घटनाओं के प्रति मेरी  संवेदनशीलता अभी भी मरी नहीं थी। मैं गहरी कल्पनाशीलता की ओर उन्मुख होने लगा था। भले ही कोई भाषा मुझे समझ आती या नहीं पर संगीत और शब्दों के आलाप को सुनकर मेरा दिल झंकृत हो जाया करता था। मेरे इस मिज़ाज ने साहित्य और कविता के प्रति मेरी रुचि जागृत की। जब मैं बीस साल का था तब  मैं उर्दू में कविता लिखने लगा। अपने निराशा भरे जीवन में शांति और चैन को पाना मेरी सबसे बड़ी चुनौती थी। अपनी कविता के माध्यम से मैं अपनी घुटन और पीड़ा से बाहर निकल सका।"
अपने जीवन के आखिरी सालों में फ़िराक़ शरीर से लाचार और नितांत अकेले हो गए थे। धारावाहिक कहकशाँ में ज़ाफरी साहब ने उनके जीवन के इन्ही सालों की व्यथा को दर्शकों तक पहुँचाने के लिए उनकी ग़जल के तीन अशआर का इस्तेमाल किया। जगजीत की आवाज़ से अच्छा दर्द बाँटने का माध्यम और क्या हो सकता था।


अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभो लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं

दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औक़ात
जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं

ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर्-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं

जगजीत की ये ग़ज़ल तो आपने बारहा सुनी होगी। पर उन्होंने पूरी ग़ज़ल नहीं गाई। फ़िराक़ की आदत थी लंबी ग़ज़लें लिखने की। उनकी कोई ग़जल चार पाँच अशआर में शायद ही खत्म होती थी। इस ग़ज़ल के बारह शेर तो मैंने  खुद ही पढ़े हैं। आप भी आनंद लीजिए इस ग़ज़ल के कुछ अन्य चुनिंदा अशआर का

फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं

बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा  के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं
(प्रातःकालीन हवा की लहर)

खुनक स्याह महके हुए साए फैल जाएँ हैं जल थल पर
किन जतनों से मेरी ग़ज़ले रात का जूड़ा खोले हैं

(ये मेरी ग़ज़लों का जादू ही तो है जिसने इस ठंडी स्याह रात को अपने जूड़े रूपी गिरहों को इस तरह खोलने पर विवश कर दिया है कि वो इस ज़मीन से सागर तक फैल गई हैं।)

साक़ी भला कहाँ किस्मत में अब वो छलकते पैमाने
हम यादों के जाम चूम कर सूखे होंठ भिगो ले हैं

कौन करे है बातें मुझसे तनहाई के पर्दे में
ऐसे में किस की आवाज़ें कानों में रस घोले हैं

हम लोग अब तो पराये-से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं

फ़िराक़ के बारे में जितना पढ़ता हूँ उनके व्यक्तित्व को समझना और भी मुश्किल होता जाता है।
एक ओर उनका नकचढ़ापन,ब्राह्य सुंदरता की पूजा,समलैंगिकता अपने समकालीनों से श्रेष्ठ होने का दंभ तो दूसरी ओर उनकी शायरी का दर्द जो हर बार उनकी ग़ज़लों में रह रह कर उभरता रहा...एक सच्चे इंसान के दिल की गवाही देता हुआ..

चलते चलते उनके इस पसंदीदा शेर के साथ आपसे इजाज़त चाहता हूँ

ये तो नहीं कि गम नहीं
हाँ मेरी आँख नम नहीं

तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं

एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ 

सोमवार, सितंबर 17, 2012

फ़िराक़ गोरखपुरी : हिज़ाबों में भी तू नुमायाँ नुमायाँ..

कुछ ही दिन पहले की बात है। एक मित्र ने फिराक़ गोरखपुरी साहब की एक ग़ज़ल भेजी और कहा कि क्या लिखा है यहाँ फिराक़ ने।  ग़ज़ल पढ़ने के बाद लगा कि इसके अनुवाद को आप सबसे साझा करना बेहतर होगा। पर अनुवाद करने का उस वक़्त समय नहीं था। पिछले हफ्ते कार्यालयी दौरों में उत्तर और मध्य भारत के दो शहरों का चक्कर लगा कर जब वापस घर पहुँचा तो फुर्सत मिलते ही फिराक़ साहब की इस ग़ज़ल की याद आ गई।

बीसवीं सदी के शायरों में फिराक़ को  ग़ज़लों में प्रेम के भावनात्मक, शारीरिक और आध्यात्मिक पहलुओं को बखूबी उभारने का श्रेय दिया जाता रहा है। जहाँ तक उनकी इस रचना का सवाल है, फिराक़ यहाँ अपनी काल्पनिक प्रेयसी की स्तुति ग़ज़लों की चिरपरिचित पारंपरिक शैली में करते नज़र आते हैं। पर ग़ज़ल में कही गई बातों से ज्यादा उनके कहने के तरीका मन को प्रभावित करता है। जिस खूबी से छोटे बहर की इस ग़ज़ल में फिराक़ ने शब्दों के दोहराव से अपने अशआर को सँवारा है वो काबिलेतारीफ़ है। ग़ज़ल के व्याकरण में इस तरह का प्रयोग पहले भी हुआ होगा पर दिमाग पर जोर डालने के बाद भी ऐसी कोई और ग़जल मुझे याद ना आ सकी। 

ये ग़ज़ल मुझे किसी किताब में अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं दिखी। नेट या ई मेल में अक्सर कई बार शायरी में प्रयुक्त शब्दों का हेर फेर हो जाता है जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है। ई मेल के ज़रिए जो मिला उस में आंशिक सुधार के बाद इसका अनुवाद करने की कोशिश की है। अगर कोई त्रुटि दिखे तो जरूर इंगित कीजिएगा।

हिज़ाबों में भी तू नुमायाँ नुमायाँ
फरोज़ाँ फरोज़ाँ दरख़शाँ दरख़शाँ

तेरे जुल्फ-ओ-रुख़ का बादल ढूँढता हूँ
शबिस्ताँ शबिस्ताँ चरागाँ चरागाँ

पर्दे के पीछे से तेरा चेहरा कुछ यूँ दिख रहा है जैसे नीले गुलाबी रंग की मिश्रित आभा लिए हुए कोई माणिक चमकता हो। तेरी जुल्फें तेरे मुखड़े को इस तरह छू रही है जैसे फ़िरोजी आसमाँ में बादलों का डेरा हो।  दीपों की रोशनी से नहाई हुई इस रात्रि बेला में शयनकक्ष की दीवारों के बीच मैं तेरी उसी छवि की तालाश में हूँ।

ख़त-ओ-ख़याल की तेरी परछाइयाँ हैं
खयाबाँ खयाबाँ गुलिस्ताँ गुलिस्ताँ

जुनूँ-ए-मुहब्बत उन आँखों की वहशत
बयाबाँ बयाबाँ ग़ज़ालाँ ग़ज़ालाँ

तेरे ख़त और उनमें लिखी तेरी बातें मेरी परछाई की तरह साथ रहती हैं। कोई डगर हो या कोई उपवन जहाँ भी जाऊँ तुम्हारे खयालों में ही डूबा रहता हूँ। तुम्हारी मोहब्बत ने मेरे दिल की दशा उस एकाकी हिरण की तरह कर दी है  जो दीवानों की तरह निर्जन वन में दर बदर भटक रहा है।

फिराक़ ने इस ग़ज़ल के अगले शेर में मध्य एशिया के दो इलाकों की विशिष्ट पहचान को एक बिंब के तौर पर इस्तेमाल किया है। पहले बात करें तातारी लोगों की जो रूसी व तुर्की भाषाएँ बोलने वाली एक जाति है और अधिकतर मध्य एशिया में बसती है।  कहते हैं कि प्राचीन काल में मध्य एशिया की तातार नामक नदी के संबंध से ये लोग तातार कहे जाने लगे। तातार के इस इलाके में कस्तूरी मृग का वास होता था। पर सिर्फ तातारी लोगों के बारे में जान लेने से फिराक़ की महबूबा के हुस्न की गहराई आप नहीं समझ पाएँगे। फिराक़ साहब के इस शेर में जिस दूसरे इलाके का जिक्र हुआ है वो है बदख़्शाँ आज के उत्तर पूर्वी अफ़गानिस्तान और दक्षिण पूर्वी ताज़कस्तान के बीच के इस क्षेत्र मे पाया जाने वाला लाल माणिक रूबी बेहद खूबसूरत होता है। तो लौटें इस शेर पर

लपट मुश्क-ए-गेसू की तातार तातार
दमक ला’ल-ए-लब की बदख़्शाँ बदख़्शाँ

वही एक तबस्सुम चमन दर चमन है
वही पंखुरी है गुलिस्ताँ गुलिस्ताँ
 
यही ज़ज्बात-ए-पिन्हाँ की है दाद काफी
चले आओ मुझ तक गुरेजाँ गुरेजाँ

तेरी जुल्फों से आती खुशबू ऐसी है जैसे तातारी मृग से आती कस्तूरी की महक। तेरे सुर्ख होठों का लाल रंग याद दिला देता है मुझे बदख़्शाँ के उस दमकते लाल माणिक की। तेरी मुस्कुराहट से इस फ़ज़ा की हर कली खिल उठती है। अब तो तुम्हें मेरे दिल के इन छिपे अहसासों का भान हो चला होगा। मेरी इल्तिजा है कि मेरे करीब आओ और  जल्द दिलों की  इस दूरी को खत्म कर दो। 

“फिराक” खाज़ीं से तो वाकिफ थे तुम भी
वो कुछ खोया खोया परीशाँ परीशाँ
मक़ते में खाज़ीं लफ़्ज़ सही है इसमें मुझे अभी भी संदेह है।

फिराक़ ने प्रेम पर खूब लिखा। वो भी तब जब पत्नी के साथ एक छत के नीचे रहते हुए भी उनकी व्यक्तिगत ज़िंदगी एकाकी ही बीती। युवावस्था में हुआ उनका विवाह उनके लिए जीवन की सबसे कष्टप्रद घटना थी। फिराक़ को बदसूरत लोगों से बचपन से ही घृणा थी। अपनी पत्नी से वो इसी वज़ह से नफ़रत करते थे। उन्होंने अपने एक लेख में लिखा भी है कि उनका विवाह छल से किया गया।पर इसके बावज़ूद उनकी कविता में प्रेम का तत्त्व पुरज़ोर तरीके से उभरा। शायद जीवन में प्रेम की अनुपस्थिति ने उन्हें इसके बारे में और कल्पनाशील होने में मदद की। अपने एक शेर में उन्होंने कहा था..

सुनते हैं इश्क़ नाम के गुजरे हैं इक बुजुर्ग
हम लोग भी मुरीद इसी सिलसिले के हैं
अगली प्रविष्टि में बात करेंगे फिराक़ साहब की लिखी उनकी एक और पसंदीदा ग़ज़ल के बारे में...
 

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