सोमवार, मई 28, 2012

मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ : क्या था गीता दत्त की उदासी का सबब ?

कनु दा से जुड़ी इस श्रृंखला की आख़िरी कड़ी में पेश है वो गीत जिसने उनके संगीत से मेरी पहली पहचान करवाई। अनुभव में यूँ तो गीता दत्त जी के तीनों नग्मे लाजवाब थे पर मुझे जाँ ना कहो मेरी जान.... की बात ही कुछ और है। रेडिओ से भी पहले मैंने ये गीत अपनी बड़ी दी से सुना था। गीता दत्त के दो नग्मे वो हमें हमेशा सुनाया करती थीं एक तो बाबूजी धीरे चलना... और दूसरा अनुभव फिल्म का ये गीत। तब गुलज़ार के बोलों को समझ सकने की उम्र नहीं थी पर कुछ तो था गीता जी की आवाज़ में जो मन को उदास कर जाता था।

आज जब इस गीत को सुनता हूँ तो विश्वास नहीं होता की गीता जी इस गीत को गाने के एक साल बाद ही चल बसी थीं। सच तो ये है कि जिस दर्द को वो अपनी आवाज़ में उड़ेल पायी थीं उसे सारा जीवन उन्होंने ख़ुद जिया था। इससे पहले कि मैं इस गीत की बात करूँ, उन परिस्थितियों का जिक्र करना जरूरी है जिनसे गुजरते हुए गीता दत्त ने इन गीतों को अपनी आवाज़ दी थी। महान कलाकार अक़्सर अपनी निजी ज़िंदगी में उतने संवेदनशील और सुलझे हुए नहीं होते जितने कि वो पर्दे की दुनिया में दिखते हैं।  गीता रॉय और गुरुदत्त भी ऐसे ही पेचीदे व्यक्तित्व के मालिक थे। एक जानी मानी गायिका से इस नए नवेले निर्देशक के प्रेम और फिर 1953 में विवाह की कथा तो आप सबको मालूम होगी। गुरुदत्त ने अपनी फिल्मों में जिस खूबसूरती से गीता दत्त की आवाज़ का इस्तेमाल किया उससे भी हम सभी वाकिफ़ हैं।


पर वो भी यही गुरुदत्त थे जिन्होंने शादी के बाद गीता पर अपनी बैनर की फिल्मों को छोड़ कर अन्य किसी फिल्म में गाने पर पाबंदी लगा दी। वो भी सिर्फ इस आरोप से बचने के लिए कि वो अपनी कमाई पर जीते हैं। हालात ये थे कि चोरी छुपे गीता अपने गीतों की रिकार्डिंग के लिए जाती और भागते दौड़ते शाम से पहले घर पर मौज़ूद होतीं ताकि गुरुदत्त को पता ना चल सके। गुरुदत्त को एकांतप्रियता पसंद थी। वो अपनी फिल्मों के निर्माण  में इतने डूब जाते कि उन्हें अपने परिवार को समय देने में भी दिक्कत होती। वहीं गीता को सबके साथ मिलने जुलने में ज्यादा आनंद आता। एक दूसरे से विपरीत स्वाभाव वाले कलाकारों का साथ रहना तब और मुश्किल हो गया जब गुरुदत्त की ज़िंदगी में वहीदा जी का आगमन हुआ। नतीजन पाँच सालों में ही उनका विवाह अंदर से बिखर गया। आगे के साल दोनों के लिए तकलीफ़देह रहे। काग़ज के फूल की असफलता ने जहाँ गुरुदत्त को अंदर से हिला दिया वहीं घरेलू तनाव से उत्पन्न मानसिक परेशानी का असर गीता दत्त की गायिकी पर पड़ने लगा। 1964 में गुरुदत्त ने आत्महत्या की तो गीता दत्त कुछ समय के लिए अपना मानसिक संतुलन खो बैठीं। जब सेहत सुधरी तो तीन बच्चों की परवरिश और कर्ज का पहाड़ उनके लिए गंभीर चुनौती बन गया। शराब में अपनी परेशानियों का हल ढूँढती गीता की गायिकी का सफ़र लड़खड़ाता सा साठ के दशक को पार कर गया।

इन्ही हालातों में कनु राय, गीता जी के पास फिल्म अनुभव के गीतों को गाने का प्रस्ताव ले के आए। बहुत से संगीतप्रेमियों को ये गलतफ़हमी है कि कनु दा गीता दत्त के भाई थे। (गीता जी के भाई का नाम मुकुल रॉय था)  दरअसल कनु दा और गीता जी में कोई रिश्तेदारी नहीं थी पर कनु उनकी शोख आवाज़ के मुरीद जरूर थे क्यूँकि अपने छोटे से फिल्मी कैरियर में उन्होंने लता जी की जगह गीता जी के साथ काम करना ज्यादा पसंद किया। गीता जी के जाने के बाद भी लता जी की जगह उन्होंने आशा जी से गाने गवाए। कनु दा के इस गीत में भी उनके अन्य गीतों की तरह न्यूनतम संगीत संयोजन है। जाइलोफोन (Xylophone) की तरंगों के साथ गुलज़ार के अर्थपूर्ण शब्दों को आत्मसात करती गीता जी की आवाज़ श्रोताओं को गीत के मूड से बाँध सा देती हैं।

 

गुलज़ार शब्दों के खिलाड़ी है। कोई भी पहली बार इस गीत के मुखड़े को सुन कर बोलेगा ये जाँ जाँ क्या लगा रखी है। पर ये तो गुलज़ार साहब हैं ना ! वो बिना आपके दिमाग पर बोझ डाले सीधे सीधे थोड़ी ही कुछ कह देंगे। कितनी खूबसूरती से जाँ (प्रियतम)और जाँ यानि (जान,जीवन) को एक साथ मुखड़े में पिरोया हैं उन्होंने। यानि गुलज़ार साहब यहाँ कहना ये चाह रहे हैं कि ऐसे संबोधन से क्या फ़ायदा जो शाश्वत नहीं है। जो लोग ऐसा कहते हैं वो तो अनजान हैं ..इस सत्य से। वैसे भी कौन स्वेच्छा से  इस शरीर को छोड़ कर जाना चाहता है। तो आइए सुनते हैं इस गीत को


मेरी जाँ, मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ
मेरी जाँ, मेरी जाँ
मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ
मेरी जाँ, मेरी जाँ

जाँ न कहो अनजान मुझे
जान कहाँ रहती है सदा
अनजाने, क्या जाने
जान के जाए कौन भला
मेरी जाँ
मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ ...

अगले अंतरों में गुलज़ार एकाकी दिल की व्यथा और उसके प्रेम की पाराकाष्ठा को व्यक्त करते नज़र आते हैं। साथ ही अंत में सुनाई देती है गीता जी की खनकती हँसी जो उनके वास्तविक जीवन से कितनी विलग थी।

सूखे सावन बरस गए
कितनी बार इन आँखों से
दो बूँदें ना बरसे
इन भीगी पलकों से
मेरी जाँ
मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ   ...

होंठ झुके जब होंठों पर
साँस उलझी हो साँसों में
दो जुड़वाँ होंठों की
बात कहो आँखों से
मेरी जाँ
मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ   ...


गीता दत्त और कनु रॉय ने जो प्रशंसा अनुभव के गीतों से बटोरी उसका ज्यादा फ़ायदा वे दोनों ही नहीं उठा सके। अनुभव के बाद भी गीता जी ने फिल्म रात की उलझन ,ज्वाला व मिडनाइट जैसी फिल्मों में कुछ एकल व युगल गीत गाए पर 1972 में गीता जी के लीवर ने जवाब दे दिया और उनकी आवाज़ हमेशा हमेशा के लिए फिल्मी पर्दे से खो गई।

वहीं कनु रॉय भी बासु दा की छत्रछाया से आगे ना बढ़ सके। दुबली पतली काठी और साँवली छवि वाला ये संगीतकार जीवन भर अंतरमुखी रहा। उनके साथ काम करने वाले भी उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कम ही जानते थे। इतना जरूर है कि वे अविवाहित ही रहे। आभाव की ज़िंदगी ने उनका कभी साथ ना छोड़ा। उसकी कहानी (1966) से अनुभव, आविष्कार, गृहप्रवेश, श्यामला से चलता उनका फिल्मी सफ़र  स्पर्श (1984) के संगीत से खत्म हुआ। पर जो मेलोडी उन्होंने मन्ना डे और गीता दत्त की आवाज़ों के सहारे रची उसे शायद ही संगीतप्रेमी कभी भूल पाएँ। 

 कनु दा से जुड़ी इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ 

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22 टिप्पणियाँ:

प्रवीण पाण्डेय on मई 28, 2012 ने कहा…

पर्दे पर दिखते सुलझे व्यक्तित्वों की पेचीदा कहानी।

दीपिका रानी on मई 28, 2012 ने कहा…

बहुत उम्दा और जानकारी प्रद आलेख्‍ा.. कनु राय से जुड़ी सभी कड़ियां अच्छी लगीं

ANULATA RAJ NAIR on मई 28, 2012 ने कहा…

कहाँ संजो के रखूं आपकी हर पोस्ट......
दिल फ़िल्मी हो जाता है पढ़ कर..
:-)

अनु

rashmi ravija on मई 28, 2012 ने कहा…

इन दोनों के विषय में पढ़कर हमेशा ही उदास हो जाता है,मन
पर इतने कम समय में ही ऐसा कुछ दे गए हैं...कि सदियों तक जमाना इनका मुरीद रहेगा

पोस्ट के साथ तस्वीरें भी खूब सुन्दर चुनी हैं..

Shaily Sharma on मई 28, 2012 ने कहा…

गीता जी के बारे में जानकारी देने के लिए शुक्रिया..... सही कहा अपने..उनकी आवाज़ में एक कशिश थी....दर्द था...जादू था... गीता दत्त जी ने अपनी professional life और married life को अलग रखा। गुरुदत्त जी से अलगाव होने के बावजूद उनकी फिल्मो के लिए गाने गाये.... मनीष जी आपका लेख हमेशा की तरह सुन्दर और दिलचस्प है।

Sonroopa Vishal on मई 28, 2012 ने कहा…

मनीष जी ..लेख तो निसंदेह ही दिलचस्प है ....कनु दा के बारे में आज और जाना ......कुछ जिन्दगियाँ इतनी मुक्कमल होकर भी कितनी अधूरी होती हैं ...गुरुदत्त गीता दत्त भी कुछ ऐसी जिन्दगियाँ जीते थे !

Pallavi saxena on मई 28, 2012 ने कहा…

बहुत ही बढ़िया गीत के साथ बढ़िया प्रस्तुति आभार....

सागर नाहर on मई 28, 2012 ने कहा…

आपको याद होगा श्रोता बिरादरी ग्रुप में एक बार दुर्लभ संगीतकारों पर चर्चा हुई थी तब "कनु रॉय" का भी जिक्र हुआ था। तब उसमें पता चला था कि बासु दा ने कनु रॉय का आर्थिक रूप से बहुत शोषण किया। उन्हें कभी पूरे पैसे दिए ही नहीं। और इतने बड़े संगीतकार के पास खुद का एक हार्मोनियम खरिदने तक के पैसे भी एक समय में नहीं रहे थे।
उसी थ्रेड में मुकुल रॉय के बारे में "पवन झा जी" ने लिखा था वे गीतारॉय के भाई थे।
उम्दा लेख और मनपसन्द गीत। बहुत बहुत धन्यवाद।

Anurag Arya on मई 28, 2012 ने कहा…

एक क्षेत्र विशेष में ज़हीन आदमी क्यों कर जिंदगी के कुछ कोनो में" मामूली " दिखता है . मन निराश होता है

Manoj Kumar Sharma on मई 29, 2012 ने कहा…

@अनुराग आर्य आदमी से भगवान जैसी उम्मीद करते हो... आदमी तो ऐसा ही है.... गलतियों का पुतला....

Annapurna Gayhee on मई 29, 2012 ने कहा…

गीता दत्त के गायन का अंदाज़ भी अनूठा था. अगर उन्होंने गाना जारी रखा होता तो उनके और आशा भोंसले के बीच अच्छी प्रतिस्पर्धा होती.... उनके जारी न रखने से एक विशिष्ट शैली में आशा का एकछत्र राज हो गया...

नीरज गोस्वामी on मई 29, 2012 ने कहा…

यकीनन ये गीता जी का बेजोड़ गीत है...अनुभव के सभी गीत अद्भुत हैं...मेरा दिल जो मेरा होता भी कम नहीं है जनाब...

नीरज

Ankit on मई 30, 2012 ने कहा…

आपके द्वारा कनु राय जी को जानने का मौका मिला, अगर इस दुर्लभ संगीतकार के पास उसके मुताबिक वाद्य यंत्रों की सुविधाएं मौजूद होती या मुहैय्या करवाई जाती तो निसंदेह ही आज हम सब कुछ और बेहतरीन नगमों को गुनगुना रहे होते.

ये गीत अद्भुत है, गीता दत्त जी की आवाज़, गुलज़ार साब के बोल, कनु दा का संगीत, सब का सब बेजोड़ है.

गुरुदत्त के सन्दर्भ में - हर कलाकार, कलाकार होने से पहले और बाद में भी एक आम इंसान ही होता है, उसमे भी वही कमियां होती हैं जो बाकियों में हैं. फर्क बस इतना होता है कि उसके पास कला का वरदान होता है, जो उसे आगे ले जाता है मगर उसकी इंसानी कमजोरियां उसे पीछे धकेलती हैं. इन्ही के बीच एक सामंजस्य भी रहता है.

Manish Kumar on जून 02, 2012 ने कहा…

प्रवीण हम्म्म..
दीपिका, अनु शुक्रिया पसंदगी का !
रश्मि जी जी हाँ ये चित्र अंतरजाल पर उपलब्ध सैकड़ों चित्रों में मुझे भी सबसे ज्यादा पसंद आए थे।
सोनरूपा जी यही तो इनकी बदकिस्मती रही।
पल्लवी शुक्रिया...
नीरज जी बिल्कुल पिछली पोस्ट में मेरा दिल जो मेरा होता का जिक्र था पर मुझे मुझे जाँ ना कहो मेरी जाँ गुनगुनाना बेहद पसंद है।

Manish Kumar on जून 02, 2012 ने कहा…

अनुराग हाँ निराशा तो होती है पर जैसा मनोज व अंकित ने कहा कि अपने हुनर के बाद भी हर व्यक्तित्व में कोई ना कोई कमजोरी तो रह ही जाती है।

अंकित अक्षरशः सहमत हूँ तुम्हारी टिप्पणी से।

Manish Kumar on जून 02, 2012 ने कहा…

शैली शुक्रिया लेख पसंद करने के लिए।
"गुरुदत्त जी से अलगाव होने के बावजूद उनकी फिल्मो के लिए गाने गाये।"
ये भी एक दुखद प्रकरण रहा। गुरुदत्त ने गीता दत्त से अलगाव के बाद अपनी फिल्म से उनके गीतों को हटवाने की कोशिश की। गीता ने अदालत की गुहार लगाई और नतीजा अंततः उनके पक्ष में रहा।

Manish Kumar on जून 02, 2012 ने कहा…

सागर बिल्कुल सही कह रहे हैं आप। गुलज़ार ने इस बारे में विस्तार से लिखा है पर साथ ही ये भी कहा कि चूंकि वे मित्र थे इसलिए फिल्मी खर्च में मितव्ययता को चुपचाप स्वीकार लिया। बासु द्वारा वाद्य यंत्रों में कंजूसी करने का जिक्र मैंने इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी में किया था।

Manish Kumar on जून 02, 2012 ने कहा…

अन्नपूर्णा जी सही कहा आपने। उस ज़माने की शोख़ चंचल आवाज़ का सेहरा गीता जी से आशा जी को चला गया। गीता रहतीं तो प्रतिस्पर्धा रहती। पर आशा जी को जब मौके मिले तो उन्होंने अन्य genre को गीतों को भी बड़ी काबिलियत से निभाया। वहीं अनुभव में गीता दत्त ने भी लीक से हटकर गायिकी का करिश्मा दिखाया था। अपने कैरियर के अंतिम दस वर्षों में अपने हुनर के साथ वो न्याय नहीं कर पायीं।

कंचन सिंह चौहान on जून 03, 2012 ने कहा…

किसी भी संवेदनशील रिश्ते में कब, कौन, कहाँ ग़लत होता है, ये हम और आप किनारे पर बैठ कर समझ ही नही सकते और असल पूछे तो शायद कोई ग़लत होता ही नही, बस संपूर्णता का ग्रहण होता है। गुरुदत्त जैसे प्रतिभावान और संवेदनशील व्यक्ति ने जब आत्महत्या की होगी तो बहुत सारा दर्द रहा होगा और उस सदमे से विक्षिप्त गीता दत्त का प्रेम भी कहीं कम नही रहा होगा..मगर क्या था ऐसा जो बस ज़रा सा था शायद और वो ज़रा सा कुछ देखिये ना कैसे जाँ ले बैठा एक दूसरे को जाँ कहे जाने वालो की....!!

ये गीत सबसे पहले इसी पन्ने पर सुना था और तब से ही बहुत सुरीला सा लगने लगा था। इसे गाने में अजब सुक़ून मिलता है। ओवरकोट में ये गीत ऐश्वर्या ने गाया है या किसी और ने शांत सी मूवी में अलग ही एफेक्ट आता है इस गीत का....

Himanshu Pandey on जून 07, 2012 ने कहा…

श्रृंखला की सारी कड़ियाँ पढ़ने बैठा हूँ आज!
सब कुछ विलक्षण व खूबसूरत! आभार आपका।

Manish Kumar on जून 12, 2012 ने कहा…

कंचन रेनकोट का वो दृश्य याद तो नहीं आ रहा पर सहमत हूँ इस बात से कि रिश्तों की पेचीदेपन को उन्हें निभाने वाला ही समझ सकता है पर जैसा अंकित ने कहा उसे पुनः दोहराना चाहूँगा..
"हर कलाकार, कलाकार होने से पहले और बाद में भी एक आम इंसान ही होता है, उसमे भी वही कमियां होती हैं जो बाकियों में हैं. फर्क बस इतना होता है कि उसके पास कला का वरदान होता है, जो उसे आगे ले जाता है मगर उसकी इंसानी कमजोरियां उसे पीछे धकेलती हैं."

हिमांशु पसंद करने के लिए शुक्रिया!

Bharat Gandhi ने कहा…

IT HAS TOUCHED MY HEART GOOD COLLECTION

 

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