रविवार, जून 24, 2012

ज़िदगी के मेले में, ख़्वाहिशों के रेले में.. तुम से क्या कहें जानाँ ,इस क़दर झमेले में


पिछली पोस्ट में अमज़द इस्लाम अमज़द के बारे में बाते करते वक़्त आपसे वादा किया था कि उनसे जुड़ी कुछ और बातें होंगी उनकी एक नज़्म के साथ। पर कुछ हफ्तों में व्यस्तताएँ कुछ ऐसी बढ़ीं कि ये अंतराल कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया। 


अमज़द इस्लाम अमज़द अपनी रूमानियत भरी शायरी के लिए ज़रा ज्यादा जाने जाते हैं। पर क्या आप ये जानना नहीं चाहेंगे कि अपनी इश्क़िया शायरी से लोगों का दिल जीतने वाले अमज़द साहब क्या ख़ुद कभी किसी की मोहब्बत में गिरफ़्तार हुए थे। उनसे जब ये प्रश्न किया गया तो उनका जवाब कुछ यूँ रहा..

मैं किसी एक लड़की से कभी गंभीरता से जुड़ नहीं पाया। मुझे लगता है कि प्यार जैसी भावना को हमने बेहद सिमटे जुमलों और दीवारों में क़ैद कर रखा है। ये अहसास उन सब से कहीं ज्यादा फैलाव लिए है। हमने प्यार को कविता को आहें, शिकवे, शिकायतें के इर्द गिर्द ही समेट रखा है। इसमें वास्तविकता का अंश कम है। मुझे लगता है कि किसी के लिए प्यार उस शख़्स के प्रति भावनात्मक लगाव से पैदा होता है। जैसे जैसे वक़्त बीतता जाता है दो व्यक्तित्व एक दूसरे के अहसासों को अपने से जोड़ कर देखने लगते हैं। प्यार समय के साथ और प्रगाढ़ होता जाता है। पर मेरे मन में उस वक़्त तक किसी के प्रति ऐसा लगाव नहीं पैदा हुआ जो मेरे जीवन की धारा को बदल पाता।

ताज़्जुब की बात है कि अमज़द साहब ने अपनी शायरी के इस दौर में ऐसी ग़ज़लें लिखी जिनमें प्रेम की सरिता बहती रही। मिसाल के तौर पर उनके कुछ अशआरों को देखें जो बेहद मशहूर हुए..

भीड़ में इक अजनबी का सामना अच्छा लगा
सब से छुप कर वो किसी का देखना अच्छा लगा

सुरमई आँखों के नीचे फूल से खिलने लगे
कहते कहते कुछ किसी का सोचना अच्छा लगा

और उनके चाँद से जुड़े इस शेर को तो आपने कभी ना कभी पढ़ा ही होगा

चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले
कितने ग़म थे जो तेरे ग़म के बहाने निकले

और जब आप उनकी ये ग़ज़ल पढ़ेंगे तो यक़ीनन आपका दिल मेरी तरह बाग बाग हो जाएगा। पूरी ग़ज़ल तो नहीं पर इस ग़ज़ल के चंद अशआर आप तक जरूर हुँचाना चाहूँगा जिन्हें सिर्फ पढ़कर दिल खुश खुश सा महसूस करने लगता है

ये अजीब खेल है इश्क़ का मैंने आप देखा ये मोज़जा
वो जो लफ्ज़ मेरे गुमाँ में थे वो तेरी जुबाँ पे आ गए

वो जो गीत तुमने सुना नहीं मेरी उम्र भर का रियाज़ था
मेरे दर्द की थी दास्तां जो तुम हँसी में उड़ा गए

वो था चाँद शाम ए विसाल का था रूप तेरे ज़माल का
मेरी रुह से मेरी आँख तक किसी रोशनी में नहा गए

तेरी बेरुखी के दयार में मैं हवा हे साथ 'हवा' हुआ
तेरे आइने की तलाश में मेरे ख़्वाब चेहरा गँवा गए

मेरी उम्र से ना सिमट सके मेरे दिल में इतने सवाल थे
तेरे पास जितने जवाब थे तेरी इक निगाह में आ गए

सच तो ये है कि अमज़द भी कीट्स की तरह इस बात में विश्वास रखते हैं कि

“Heard Melodies Are Sweet, but Those Unheard Are Sweeter”
यानि प्यार के बारे में हमारा मन जो अपने में ताना बाना बुनता है वो वास्तविक प्यार से कहीं ज़्यादा सुंदर और
मासूम होता है। अगर अमज़द साहब के व्यक्तिगत जीवन की बात करें तो उन्होंने भी देर सबेर अपने बचपन के मित्र को अपना हमसफ़र बना दिया जो रिश्ते में उनकी चचेरी बहन थीं। 

अमज़द आज भी कविता को अपनी आत्मा से मिलने का ज़रिया मानते हैं। उनके हिसाब से कविता उनके अंदर एक ऐसे हिमखंड की तरह बसी हुई है जिसकी वो कुछ ऊपरी परतें खुरच पाएँ हैं। अमज़द साहब अपनी इस साधना में अंदर तक पहुँचने के तरीके के लिए माइकल ऐंजलो से जुड़ा एक संस्मरण सुनाते हैं। माइकल से पूछा गया कि पत्थर की बेडौल आकृतियों से वो शिल्प कैसे गढ़ लेते हैं? माइकल का जवाब था पत्थरों में आकृति तो छिपी हुई ही रहती है। मैंने तो सिर्फ उसके गैर जरूरी अंशों को हटा देता हूँ
अमज़द कविता की तहों तक ऐसे ही पहुँचते रहें यही हमारे जैसे पाठकों की शुभकामनाएँ हैं। चलते चलते उनसे जुड़े इस सिलसिले का समापन करते हैं उनकी एक नज़्म से..



ज़िदगी के मेले में, ख़्वाहिशों के रेले में
तुम से क्या कहें जानाँ ,इस क़दर झमेले में

वक़्त की रवानी1 है, बखत की गिरानी2  है
सख़्त बेज़मीनी है, सख़्त लामकानी3 है
हिज्र4 के समंदर में, तख्त और तख्ते की
एक ही कहानी है...तुम को जो सुनानी है

1. तेजी, प्रवाह,  2. भाग्य का अस्ताचल, 3. बिना मकान के, 4. विरह

बात गो ज़रा सी है, बात उम्र भर की है
उम्र भर की बातें कब, दो घड़ी में होती हैं
दर्द के समंदर में
अनगिनत ज़जीरें5  हैं, बेशुमार मोती हैं
आँख के दरीचे6  में तुमने जो सजाया था
बात उस दीये की है, बात उस गिले की है
जो लहू की ख़िलवत में, चोर बन के आता है
लफ़्ज के फसीलों पर टूट टूट जाता है 7

5. टापू  6. खिड़कियाँ 7. वो गिले शिकवे चुपचाप हमारे खून में समा तो गए हैं  पर जो होठों की चारदीवारी से निकल नहीं पाते और अंदर ही अंदर टूट के रह जाता हैं।

ज़िंदगी से लंबी है, बात रतजगे की है
रास्ते में कैसे हो, बात तख़लिये की है
तख़लिये की बातों में, गुफ़्तगू इज़ाफी है 8
प्यार करने वालों को, इक निगाह काफी है
हो सके तो सुन जाओ, एक दिन अकेले में
तुम से क्या कहें जानाँ, इस क़दर झमेले में

8.  एकांत में कही जाने वाली बात के लिए ज्यादा संवाद गैरजरूरी है


अगर सब कुछ ठीक रहा तो इस ब्लॉग की अगली पोस्ट आपके सामने होगी एक विदेशी ज़मीन से.. तब तक के लिए आप सब को सायोनारा...
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8 टिप्पणियाँ:

ANULATA RAJ NAIR on जून 24, 2012 ने कहा…

बेहतरीन पोस्ट मनीष जी..............
अब अगली पोस्ट का इन्तेज़ार...क्यूंकि हमें यकीं है कि सब कुछ ठीक रहेगा..
:-)

बहुत बहुत शुक्रिया.

अनु

देवेन्द्र पाण्डेय on जून 24, 2012 ने कहा…

लाज़वाब अशआरों से भरी बेहतरीन पोस्ट। सबसे प्यारे तो प्यार के बारे में अमज़द साबह के ख़याल हैं।

प्रवीण पाण्डेय on जून 24, 2012 ने कहा…

अहा, जो कविता को अपनी अभिव्यक्ति का एकमेव साधन मान ले, उसका जीवन तो छंदमय हो जायेगा। आभार गहन परिचय का।

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" on जून 26, 2012 ने कहा…

bahut accha laga aapke blog par aakar...aapke athak prayas se hame utkrist sahitya padhne ko mil jaayega...sadar badhaye ke sath

Pihu ने कहा…

utam lekh dwara jankari dene or unke nagmo se parichit karane ka shukriya.......

दीपिका रानी on जून 29, 2012 ने कहा…

बहुत ही बढ़िया...

Manish Kumar on अगस्त 13, 2012 ने कहा…

अनु, दीपिका, पीहू पोस्ट पसंद करने के लिए आप सबका शुक्रिया !

देवेंद्र सही फ़रमाया आपने अमज़द साहब के ख़यालों के बारे में।

प्रवीण "जो कविता को अपनी अभिव्यक्ति का एकमेव साधन मान ले, उसका जीवन तो छंदमय हो जायेगा।" बड़े पते की बात कही है आपने

Manish Kumar on अगस्त 13, 2012 ने कहा…

डा. मिश्रा 'एक शाम मेरे नाम' पर पधारने का शुक्रिया। मेरा प्रयास रहेगा कि आपकी आशाओं पर ये ब्लॉग खरा उतरे।

 

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