मंगलवार, मार्च 26, 2013

एक शाम मेरे नाम ने पूरे किए अपने सात साल !

वक़्त का पहिया बिना रुके घूमता ही रहता है। आपके इस चिट्ठे ने भी आज समय के साथ चलते हुए अपनी ज़िंदगी के सात साल पूरे कर लिए हैं। सात सालों के इस सफ़र में करीब पौने छः लाख पेजलोड्स, हजार से ज्यादा ई मेल सब्सक्राइबर और उतने ही फेसबुक पृष्ठ प्रशंसक,  मुझे इस बात के प्रति आश्वस्त करते हैं कि इस ब्लॉग के माध्यम से मैं आपकी गुज़री शामों में सुकून के कुछ पल मुहैया करा सका हूँ। पिछले साल मैंने इस अवसर पर पाठकों की उन चुनिंदा टिप्पणियों को शामिल किया था जिसे मेरी लिखी प्रविष्टियों को नए आयाम मिल गए थे।

इस साल सालगिरह के अवसर पर पेश है उन  दस प्रविष्टियों का झरोखा जिन्हें पिछले साल एक शाम मेरे नाम के पाठकों ने  ब्लॉगर द्वारा दी गई गणना के हिसाब से सबसे ज्यादा पढ़ा...

#10.  फिर कहीं कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको : क्या आप निराशावादी हैं?



फिर कहीं...
फिर कहीं  कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको
फिर कहीं  कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको
फिर कहीं कोई दीप जला, मंदिर ना कहो उसको
फिर कहीं ..

यानि जीवन में घट रही तमाम धनात्मक घटनाओं को उतना ही आँकें जिनके लायक वो हैं। नहीं तो अपने सपनों के टूटने की ठेस को शायद आप बर्दाश्त ना कर पाएँ।

ये गीत है फिल्म अनुभव का  जिसे लिखा था कपिल कुमार ने और धुन बनाई थी कनु रॉय ने। कपिल कुमार फिल्म उद्योग में एक अनजाना सा नाम हैं। कनु रॉय के साथ उन्होंने दो फिल्मों में काम किया है अनुभव और आविष्कार। पर इन कुछ गीतों में ही वो अपनी छाप छोड़ गए। यही हाल संगीतकार कनु रॉय का भी रहा। गिनी चुनी दस से भी कम फिल्मों में काम किया और जो किया भी वो सारे निर्देशक बासु भट्टाचार्य के बैनर तले। बाहर उनको काम ही नहीं मिल पाया। पर इन थोड़ी बहुत फिल्मों से भी अपनी जो पहचान उन्होंने बनाई वो आज भी संगीतप्रेमियों के दिल में क़ायम है।
पर तेज़ हवाओं से मेरा ये प्रेम अकेले का थोड़े ही है। आपमें से भी कई लोगों को बहती पवन वैसे ही आनंदित करती होगी जैसा मुझे। इस मनचली हवा के प्रेमियों की बात आती है तो मन लगभग दो दशक पूर्व की स्मृतियों में खो जाता है।  बात 1994 की है तब हमारे यहाँ दिल्ली से प्रकाशित टाइम्स आफ इंडिया आया करता था। उसके संपादकीय पृष्ठ पर लेख छपा था सुरेश चोपड़ा (Suresh Chopda) का। शीर्षक था  The Wind and I। उस लेख में लिखी चोपड़ा साहब की आरंभिक पंक्तियाँ मुझे इतनी प्यारी और दिल को छूती लगी थीं कि मैंने उसे अपनी डॉयरी के पन्नों में हू बहू उतार लिया था। चोपड़ा साहब ने लिखा था

"There is something so alive and moving in a strong wind, that one of my concept of perfect bliss is to find myself standing alone on a high cliff by the sea with a strong wind hurtling past me with full ferocity. Nothing depresses me more than a windless day, with everything still and the leaves of the trees hanging still and lifeless. Yes give me the wind any day the stronger, wilder and more ferocious the better."
चित्र साभार

#8.  विभाजन की विरह गाथा कहता जावेद का ख़त हुस्ना के नाम  : पीयूष मिश्रा

पीयूष जी ने कभी हुस्ना को नहीं देखा। ना वो लाहौर के गली कूचों से वाकिफ़ हैं। पर उनका पाकिस्तान उनके दिमाग में बसता है और उसी को उन्होंने शब्दों का ये जामा पहनाया है। गीत की शुरुआत में  पीयूष द्वारा 'पहुँचे' शब्द का इस्तेमाल तुरंत उस ज़माने की याद दिला देता है जब चिट्ठियाँ इसी तरह आरंभ की जाती थीं। पुरानी यादों को पीयूष, दर्द में डूबी अपनी गहरी आवाज़ में जिस तरह हमारे साझे रिवाज़ों, त्योहारों, नग्मों के माध्यम से व्यक्त करते हैं मन अंदर से भींगता चला जाता है। जावेद की पीड़ा सिर्फ उसकी नहीं रह जाती हम सबकी हो जाती है।

#7.  जब भी ये दिल उदास होता है : जब गीत का मुखड़ा बना एक ग़ज़ल का मतला !

जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है

होठ चुपचाप बोलते हों जब
साँस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आँखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में साँस जलती हो, 
ठंडी आहों में साँस जलती हो
जब भी ये दिल ...
कुछ गीतों का कैनवास फिल्मों की परिधियों से कहीं दूर फैला होता है। वे कहीं भी सुने जाएँ, कभी भी गुने जाएँ वे अपने इर्द गिर्द ख़ुद वही माहौल बना देते हैं। इसीलिए परिस्थितिजन्य गीतों की तुलना में ये गीत कभी बूढ़े नहीं होते। गुलज़ार का फिल्म सीमा के लिए लिखा ये नग्मा एक ऐसा ही गीत है। ना जाने कितने करोड़ एकाकी हृदयों को इस गीत की भावनाएँ उन उदास लमहों में सुकून पहुँचा चुकी होंगी। कम से कम अगर अपनी बात करूँ तो सिर्फ और सिर्फ इस गीत का मुखड़ा लगातार गुनगुनाते हुए कितने दिन कितनी शामें यूँ ही बीती हैं उसका हिसाब नहीं।

#6.  ख़ुद अपने लिए बैठ के सोचेंगे किसी दिन : अमज़द इस्लाम अमज़द

 
ख़ुद अपने लिए बैठ के सोचेंगे किसी दिन
यूँ है के तुझे भूल के देखेंगे किसी दिन

भटके हुए फिरते हैं कई लफ्ज़ जो दिल मैं
दुनिया ने दिया वक्त तो लिखेंगे किसी दिन

आपस की किसी बात का मिलता ही नहीं वक़्त
हर बार ये कहते हैं कि बैठेंगे किसी दिन

ऐ जान तेरी याद के बेनाम परिंदे
शाखों पे मेरे दर्द की उतरेंगे किसी दिन

मैं नहीं समझता कि कोई क्यूँ कविता लिखता है ये समझ पाना किसी के लिए मुमकिन है। मुझे ये भी नहीं पता कि ये आधे अधूरे वाक्यांश दिमाग में कैसे आते हैं ? क्यूँ हम शब्दों का इस तरह हेरफेर करते हैं कि वो ख़ुद बख़ुद मीटर में आ जाते हैं? पर इतना जानता हूँ कि जब लिखने का मूड मुझे पूरी तरह नियंत्रित कर लेता है और जब वो बातें मन से निकल कर क़ाग़ज के पन्नों पर तैरने लगती हैं तो मन एक अजीब से संतोष से भर उठता है। मन में जितनी ज्यादा उद्विग्नता होती है विचार उतनी ही तेजी से प्रस्फुटित होते हैं।

#5. ज़िदगी के मेले में, ख़्वाहिशों के रेले में.. तुम से क्या कहें जानाँ, इस क़दर झमेले में

 ज़िदगी के मेले में, ख़्वाहिशों के रेले में
तुम से क्या कहें जानाँ ,इस क़दर झमेले में

वक़्त की रवानी1 है, बखत की गिरानी2  है
सख़्त बेज़मीनी है, सख़्त लामकानी3 है
हिज्र4 के समंदर में, तख्त और तख्ते की
एक ही कहानी है...तुम को जो सुनानी है

1. तेजी, प्रवाह,  2. भाग्य का अस्ताचल, 3. बिना मकान के, 4. विरह
 अमज़द आज भी कविता को अपनी आत्मा से मिलने का ज़रिया मानते हैं। उनके हिसाब से कविता उनके अंदर एक ऐसे हिमखंड की तरह बसी हुई है जिसकी वो कुछ ऊपरी परतें खुरच पाएँ हैं। अमज़द साहब अपनी इस साधना में अंदर तक पहुँचने के तरीके के लिए माइकल ऐंजलो से जुड़ा एक संस्मरण सुनाते हैं। माइकल से पूछा गया कि पत्थर की बेडौल आकृतियों से वो शिल्प कैसे गढ़ लेते हैं? माइकल का जवाब था पत्थरों में आकृति तो छिपी हुई ही रहती है। मैंने तो सिर्फ उसके गैर जरूरी अंशों को हटा देता हूँ

 #4. मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ : क्या था गीता दत्त की उदासी का सबब ?

इससे पहले कि मैं इस गीत की बात करूँ, उन परिस्थितियों का जिक्र करना जरूरी है जिनसे गुजरते हुए गीता दत्त ने इन गीतों को अपनी आवाज़ दी थी। महान कलाकार अक़्सर अपनी निजी ज़िंदगी में उतने संवेदनशील और सुलझे हुए नहीं होते जितने कि वो पर्दे की दुनिया में दिखते हैं।  गीता रॉय और गुरुदत्त भी ऐसे ही पेचीदे व्यक्तित्व के मालिक थे। एक जानी मानी गायिका से इस नए नवेले निर्देशक के प्रेम और फिर 1953 में विवाह की कथा तो आप सबको मालूम होगी। गुरुदत्त ने अपनी फिल्मों में जिस खूबसूरती से गीता दत्त की आवाज़ का इस्तेमाल किया उससे भी हम सभी वाकिफ़ हैं।


पर वो भी यही गुरुदत्त थे जिन्होंने शादी के बाद गीता पर अपनी बैनर की फिल्मों को छोड़ कर अन्य किसी फिल्म में गाने पर पाबंदी लगा दी। वो भी सिर्फ इस आरोप से बचने के लिए कि वो अपनी कमाई पर जीते हैं। 

#3. पीली छतरी वाली लड़की : हिंदी, ब्राह्मणवाद और उदयप्रकाश ...

 उदयप्रकाश जी ने अपनी इस किताब में भाषायी शिक्षा से जुड़े कुछ बेहद महत्त्वपूर्ण मसले उठाए है। किस तरह के छात्र इन विषयों में दाखिला लेते हैं? कैसे आध्यापकों से इनका पाला पड़ता है? अपनी पुस्तक में लेखक इस बारे में टिप्पणी करते हुए कहते हैं...
हिंदी, उर्दू और संस्कृत ये तीन विभाग विश्वविद्यालय में ऐसे थे, जिनके होने के कारणों के बारे में किसी को ठीक ठीक पता नहीं था। यहाँ पढ़ने वाले छात्र.......उज्जड़, पिछड़े, मिसफिट, समय की सूचनाओं से कटे, दयनीय लड़के थे और वैसे ही कैरिकेचर लगते उनके आध्यापक। कोई पान खाता हुआ लगातार थूकता रहता, कोई बेशर्मी से अपनी जांघ के जोड़े खुजलाता हुआ, कोई चुटिया धारी धोती छाप रघुपतिया किसी लड़की को चिंपैजी की तरह घूरता। कैंपस के लड़के मजाक में उस विभाग को कटपीस सेंटर कहते थे।

 #2. कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, कि मेरी नज़र को ख़बर न हो :हुसैन बंधु

पर  कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, कि मेरी नज़र को ख़बर न हो मैंने सबसे पहले जगजीत जी की आवाज़ में ही सुनी थी। पर जब हुसैन बंधुओं की जुगलबंदी में इसे सुना तो उसका एक अलग ही लुत्फ़ आया। डा. बशीर बद्र की ये ग़ज़ल वाकई कमाल की ग़जल है। क्या मतला लिखा है उन्होंने

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, कि मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो

सहर : सुबह

कितना प्यारा ख़्याल है ना  किसी को चुपके से  हमेशा हमेशा के लिए अपनी आँखों में बसाने का। पर बद्र साहब का अगला शेर भी उतना ही असरदार है

वो बड़ा रहीमो-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हो

सिफ़त :  विशेषता, गुण,    अता करे :  प्रदान करे

अब भगवन ने ना भूलने का ही वर दे दिया तब तो उनसे ज़ुदा होने का तो मौका ही नहीं आएगा।

#1.  मेहदी हसन के दो नायाब फिल्मी गीत : मुझे तुम नज़र से.. और इक सितम

 इस साल मेहदी हसन से जुड़े इस लेख को सबसे ज्यादा हिट्स मिले।
मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो
मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे
ना जाने मुझे क्यूँ यक़ीं हो चला है
मेरे प्यार को तुम मिटा ना सकोगे
मुझे तुम नज़र से....

मेरी याद होगी, जिधर जाओगे तुम,
कभी नग़मा बन के, कभी बन के आँसू
तड़पता मुझे हर तरफ़ पाओगे तुम
शमा जो जलायी मेरी वफ़ा ने
बुझाना भी चाहो, बुझा ना सकोगे
मुझे तुम नज़र से....
आशा है उनके इस गीत की तरह ही आप इस चिट्ठे के प्रति आप सब का प्रेम यूँ ही बरक़रार रहेगा।

बुधवार, मार्च 20, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 सरताज गीत : क्यूँ.., न हम-तुम चले टेढ़े-मेढ़े से रस्तों पे नंगे पाँव रे...

लगभग ढाई महिनों के इस सफ़र को तय कर आज बारी है वार्षिक संगीतमाला 2012 के शिखर पर बैठे गीत से आपको रूबरू कराने। वार्षिक संगीतमाला 2012 के सरताज गीत के गायक पहली बार किसी संगीतमाला का हिस्सा बने हैं और वो भी सीधे पहली पॉयदान पर। इस गीत के गीतकार वार्षिक सगीतमालाओं में दो बार प्रथम दस में अपनी जगह बना चुके हैं पर इस साल की संगीतमाला में वो पहली बार प्रवेश कर रहे हैं और इनके साथ हैं संगीतकार  प्रीतम जो पहली बार एक शाम मेरे नाम की शीर्ष पॉयदान पर अपना कब्जा जमा रहे हैं। जी हाँ आपने ठीक पहचाना ये गीत है फिल्म बर्फी का। इसे गाया है असम के जाने माने फ़नकार अंगराग  महंता वल्द पापोन ने सुनिधि चौहान के साथ और इस गीत के बोल लिखे हैं बहुमुखी प्रतिभा के धनी नीलेश मिश्रा ने।

यूँ तो इस संगीतमाला की प्रथम तीन पॉयदान पर विराजमान गीतों का मेरे दिल में विशेष स्थान रहा  है पर जब भी ये गीत बजता है मेरे को अपने साथ बहा ले जाता है एक ऐसी दुनिया में जो शायद वास्तविकता से परे है, जहाँ बस अनिश्चितता है,एक तरह का भटकाव है। पर ये तो आप भी मानेंगे कि अगर हमसफ़र का साथ मिल जाए और फुर्सत के लमहे आपकी गिरफ़्त में हों तो निरुद्देश्य अनजानी राहों पर भटकना भी भला लगता है।  नीलेश मिश्रा सरसराती हवाओं, गुनगुनाती फ़िज़ाओं, टिमटिमाती निगाहों व चमचमाती अदाओं के बीच प्रेम के निश्चल रंगों को भरते नज़र आते हैं।

  प्रीतम और नीलेश मिश्रा

नीलेश  के इन  शब्दों पर गौर करें ना हर्फ़ खर्च करना तुम,ना हर्फ़ खर्च हम करेंगे..नज़र की सियाही से लिखेंगे तुझे हज़ार चिट्ठियाँ ..ख़ामोशी झिडकियाँ तेरे पते पे भेज देंगे। कितने खूबसूरती से इन बावरे प्रेमियों के बीच का अनुराग शब्दों में उभारा है उन्होंने।

पर ये गीत अगर वार्षिक संगीतमाला की चोटी पर पहुँचा है तो उसकी वज़ह है पापोन की दिल को छूने वाली आवाज़ और प्रीतम की अद्भुत रिदम जो गीत सुनते ही मुझे उसे गुनगुनाने पर मजबूर कर देती है। मुखड़े के पहले की आरंभिक धुन हो या इंटरल्यूड्स प्रीतम का संगीत संयोजन मन में एक खुशनुमा अहसास पैदा करता है। प्रीतम असम के गायकों को पहले भी मौका देते रहे हैं। कुछ साल पहले ज़ुबीन गर्ग का गाया नग्मा जाने क्या चाहे मन बावरा सबका मन जीत गया था। अंगराग महंता यानि पापोन को भी मुंबई फिल्म जगत में पहला मौका प्रीतम ने  फिल्म दम मारो दम के गीत जीये क्यूँ में दिया था।

पापोन को संगीत की विरासत अपने माता पिता से मिली है। उनके पिता असम के प्रसिद्ध लोक गायक हैं। यूँ तो पापोन दिल्ली में एक आर्किटेक्ट बनने के लिए गए थे। पर वहीं उन्हें महसूस हुआ कि वो अच्छा संगीत रच और गा भी सकते हैं। युवा वर्ग में असम का लोक संगीत लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होंने रॉक को लोक संगीत से जोड़ने की कोशिश की।

पापोन की आवाज़ का जादू सिर्फ मुझ पर सवार है ऐसा नहीं है। संगीतकार शान्तनु मोएत्रा का कहना है कि पापोन की आवाज़ का नयापन दिल में तरंगे पैदा करता है वही संगीतकार समीर टंडन नीचे के सुरों पर उनकी पकड़ का लोहा मानते हैं। क्यूँ ना हम तुम को जिस अंदाज़ में पापोन ने निभाया है वो माहौल में एक ऐसी अल्हड़ता और मस्ती भर देता है जिसे गीत को गुनगुनाकर ही समझा जा सकता है।

क्यूँ.., न हम-तुम
चले टेढ़े-मेढ़े से रस्तों पे नंगे पाँव रे
चल., भटक ले ना बावरे
क्यूँ., न हम तुम
फिरे जा के अलमस्त पहचानी राहों के परे
चल, भटक ले ना बावरे
इन टिमटिमाती निगाहों में
इन चमचमाती अदाओं में
लुके हुए, छुपे हुए
है क्या ख़याल बावरे

क्यूँ, न हम तुम
चले ज़िन्दगी के नशे में ही धुत सरफिरे
चल, भटक ले ना बावरे

क्यूँ, न हम तुम
तलाशें बगीचों में फुरसत भरी छाँव रे
चल भटक ले ना बावरे
इन गुनगुनाती फिजाओं में
इन सरसराती हवाओं में
टुकुर-टुकुर यूँ देखे क्या
क्या तेरा हाल बावरे

ना लफ्ज़ खर्च करना तुम
ना लफ्ज़ खर्च हम करेंगे
नज़र के कंकड़ों से
खामोशियों की खिड़कियाँ
यूँ तोड़ेंगे मिल के मस्त बात फिर करेंगे
ना हर्फ़ खर्च करना तुम
ना हर्फ़ खर्च हम करेंगे
नज़र की सियाही से लिखेंगे
तुझे हज़ार चिट्ठियाँ
ख़ामोशी झिडकियाँ तेरे पते पे भेज देंगे

सुन, खनखनाती है ज़िन्दगी
ले, हमें बुलाती है ज़िन्दगी
जो करना है वो आज कर
ना इसको टाल बावरे
क्यूँ, न हम तुम...




इसी के साथ वार्षिक संगीतमाला 2012 का ये सफ़र यहीं समाप्त होता है। इस सफ़र में साथ निभाने के लिए आप सब पाठकों का बहुत बहुत शुक्रिया !

बुधवार, मार्च 13, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 : पुनरावलोकन (Recap)

इससे पहले कि वार्षिक संगीतमाला 2012 के सरताज़ गीत के नाम का आपसे खुलासा करूँ एक नज़र पिछले साल के फिल्म संगीत की तरफ़। गत वर्ष करीब सौ फिल्में रिलीज़ हुई यानि हर तीसरे या चौथे दिन एक नई फिल्म! पर अगर आप मेरी वार्षिक संगीतमाला 2012 पर गौर करेंगे तो पाएँगे कि इनमें से सिर्फ सोलह फिल्मों के ही गाने गीतमाला में दाखिल हो पाए। इसका मतलब ये है कि आज हालात ये हैं कि पाँच छः फिल्मो के गीत सुनने के बाद ही कोई ढंग का नग्मा सुधी श्रोता के कानों से गुजर पाता है। इतने हुनरमंद कलाकारों के रहते हुए फिल्म संगीत जगत से आम संगीतप्रेमी जनता को और बेहतर परिणाम  की उम्मीद है। 



करीब पाँच सौ गीतों को सुनने के बाद सर्वोच्च पच्चीस की सूची तैयार करते समय अक्सर ऐसा होता है कुछ गीतों को ना चाहते हुए भी छोड़ना पड़ता है। इस साल भी तीन ऐसे गीत थे जो संगीतमाला में शामिल गीतों में आ सकते थे पर संख्या सीमा की वज़ह से दाखिल नहीं हो सके। ये गीत थे फिल्म टुटिया दिल का ले चलो, GOW-II में शारदा सिन्हा का गाया तार बिजली से पतले हमारे पिया और अग्निपथ में रूप कुमार राठौड़ का गाया औ सैयाँ। इनके आलावा GOW-II का काला रे, जन्नत२ का तेरा दीदार हुआ, चटगाँव का बोलो ना, इश्क़ज़ादे का इक डोर बँधने लगे हैं और इंग्लिश विंग्लिश का पिया बिन धाक धूक भी थोड़े अंतर से गीतमाला में प्रवेश करने से चूके।

संगीतकारों की बात करूँ तो ये साल प्रीतम के नाम रहा। बर्फी के संगीत ने ये साबित कर दिया कि प्रीतम हमेशा 'inspired' नहीं होते और कभी कभी उनके संगीत से भी 'inspired' हुआ जा सकता है। ऐजेंट विनोद फिल्म चाहे जैसी रही हो वहाँ भी प्रीतम का दिया संगीत श्रोताओं को खूब रुचा। Cocktail के गीतों ने भी झूमने पर मजबूर किया। अमित त्रिवेदी ने भी इस साल इश्क़ज़ादे, इंग्लिश विंग्लिश और अइया के लिए कुछ खूबसूरत और कुछ झूमने वाले नग्मे दिए। अजय अतुल का अग्निपथ के लिए किया गया काम शानदार था। नवोदित संगीतकार स्नेहा खानवलकर ने GOW-I और GOW-II में जिस तरह एक बँधे बँधाए दर्रे से हटकर एक नए किस्म के संगीत और बोलों पर काम किया वो निश्चय ही प्रशंसनीय है। शंकर अहसान लॉय, सलीम सुलेमान, विशाल शेखर के लिए ये साल फीका फीका सा ही रहा।

गायक और गायिकाओं में कुछ नई आवाज़ें कानों में सुकूनदेह तरंगे पैदा करने में कामयाब रहीं। जहाँ नंदिनी सिरकार ने जो भेजी थी दुआ और दिल मेरा मुफ्त का की अदाएगी से लोगों का दिल जीत लिया वहीं अरिजित सिंह और पापोन ने बर्फी के गीतों द्वारा अपने प्रतिभाशाली होने का सुबूत पेश कर दिया। शाल्मली  की आवाज़ परेशाँ में सराही गई तो आयुष्मान खुराना ने विकी डोनर में अपने रंग दिखा दिए। नीति मोहन भी जिया रे की वज़ह से सुर्खियों बटोरीं। पुराने धुरंधरों में सोनू निगम ने अभी मुझ में कहीं, श्रेया घोषाल ने महक भी कहानी सुनाती है और आशियाँ जैसे गीतों में अपनी मधुर गायिकी से सम्मोहित सा कर दिया। युगल गीतों में सोना महापात्रा और रवींद्र उपाध्याय की जोड़ी द्वारा फिल्म तलाश के लिए गाया नग्मा मन तेरा जो रोग है दिल को छू गया।

इस साल के सबसे सफल गीतकारों की सूची में अमिताभ भट्टाचार्य अव्वल रहे। अग्निपथ,हीरोइन,एजेंट विनोद और अय्या के लिए उन्होंने कुछ बेहद संवेदनशील गीत लिखे वहीं दूसरी ओर साल के सबसे ज्यादा मशहूर डान्स नंबर में भी अपनी लेखनी का कमाल दिखलाकर उन्होंने अपने हरफनमौला होने का प्रमाण दिया। स्वानंद किरकिरे ने भी बर्फी और इंग्लिश विंग्लिश के लिए कुछ कमाल के गीत लिखे। बर्फी के लिए उनका लिखा हुआ साँवली सी रात हो मुझे इस साल का सबसे रूमानी गीत लगता है। गीतकार कुमार ने शंघाई और Oh My God के लिए कुछ ऐसे संवेदनशील नग्मे लिखे जिसने आँखों को नम कर दिया। इस साल उभरने वाले नए गीतकारों में वरुण ग्रोवर का नाम लिया जाना आवश्यक है। GOW की स्क्रिप्ट से जुड़कर जिस तरह उन्होंने काला रे और छीछालेदर की रचना की वो वाकई क़ाबिलेतारीफ़ है। काला रे में उनकी व्यंग्यात्मक लहजे में की गई छींटाकशी काली मिट्टी कुत्ता काला काला बिल्कुल सुरमेवाला, काला झंडा, डंडा काला, काला बटुआ पैसा काला....गीतकारों के लिए शब्द रचना के नए आयाम खोलती प्रतीत होती है। शब्दों के जादूगर गुलज़ार ने इस साल अपने प्रशंसकों को निराश ही किया वहीं जावेद साहब को तलाश के आलावा इस साल की उपलब्धियों में दिखाने के लिए शायद ही कुछ रहा।

तो ये था पिछले साल के संगीत का लेखा जोखा.. अगली प्रविष्टि में होगा वार्षिक संगीतमाला 2012 का समापन सरताज गीत के बिगुल के साथ..

 वार्षिक संगीतमाला 2012 

सोमवार, मार्च 11, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 रनर्स अप : अभी मुझ में कहीं,बाकी थोड़ी सी है ज़िन्दगी...

वार्षिक संगीतमाला 2012 की दूसरी पॉयदान पर खड़ा है वो गीत जिसे गाया सोनू निगम ने,धुन बनाई अजय अतुल ने और बोल लिखे अमिताभ भट्टाचार्य ने। जी हाँ सही पहचाना आपने वार्षिक संगीतमाला 2012 के रनर्स अप खिताब जीता है फिल्म अग्निपथ के गीत अभी मुझ में कहीं,बाकी थोड़ी सी है ज़िन्दगी ने।

 
अमिताभ भट्टाचार्य के बोलों में छुपी पीड़ा को इस तरह से सोनू निगम ने अपनी आवाज़ से सँवारा है कि ये गीत आम जनता और समीक्षकों दोनों का चहेता बन गया। अपनी कहूँ तो अमिताभ के दिल को छूते शब्द, सोनू की शानदार गायिकी और अजय अतुल के मन मोहने वाले इंटरल्यूड्स इस गीत को इस साल के मेरे प्रियतम गीतों की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं।

अजय अतुल का संगीत हिंदुस्तानी और पश्चिमी वाद्य यंत्रों का बेहतरीन मिश्रण है। मुखड़े के पहले का पियानो हो या इंटरल्यूड्स में वॉयलिन की सिम्फनी, बोलों के साथ बहती जलतरंग की ध्वनि हो या सोनू की आवाज़ से खेलते ढोल और तबले जैसे ताल वाद्य, सब कुछ गीत के साथ यूँ आते हैं मानो उनकी वही जगह मुकर्रर हो। 

अजय गोगावले, सोनू निगम और अतुल गोगावले

अजय अतुल ने इस गीत के लिए सोनू निगम को ही क्यूँ चुना उसका सीधा जवाब देते हुए कहते हैं कि धुनें तैयार करते वक़्त ही हमें समझ आ जाता है कि इस पर किस की आवाज़ सही बैठेगी। सोनू जब गीत की लय को यह लमहा कहाँ था मेरा की ऊँचाई तक ले जाते हैं तो गीत में समाहित दर्द की अनुभूति आपको एकदम से द्रवित कर देती है।

कुछ साल पहले तक सोनू निगम की आवाज़ हर दूसरे गीत में सुनाई देती थी। पर नए संगीतकार, नई आवाज़ों और रिकार्डिंग के मशीनीकरण की वज़ह से पिछले कुछ सालों से उन्हें अपने मन मुताबिक मौके कम मिल रहे हैं। वे खुद इस बात से कितने आहत हैं वो पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' को दिए गए उनके हाल के वक़्तव्य से पता चलता है जिसमें वो कहते हैं

"तकनीक का असर अब संगीत पर भी दिखने लगा है। नई नई मशीनें और सॉफ्टवेयर आ गए हैं। ऐसे सॉफ्टवेयर हैं जो सुर में ना गाने वालों को भी सुरीला बना देते हैं। इसका कुप्रभाव उन गायकों पर होता है, जो रियाज करते हैं और संगीत को गहनता से लेते हैं। इससे मनोबल भी टूटता है, क्योंकि कोई कुछ भी गा रहा है। सकारात्मक दृष्टि से देखें तो इस तकनीक की वज़ह से अब बहुत से लोग गा पा रहे हैं, लेकिन नकारात्मक पहलू ये है कि जो सही मायने में गायक है उन्हें उनका पूरा हक़ नहीं मिलता।"

पर आख़िर ये गीत हमसे क्या कहता है? यही कि ज़िंदगी में अगर कोई रिश्ते ना हो, तो फिर उस जीवन को जीने का भला क्या मक़सद? व्यक्ति ऐसे जीवन को काटता भी है तो बस एक मशीनी ढंग से। सुख दुख उसे नहीं व्यापते। पीड़ा वो महसूस नहीं कर पाता। खुशी की परिभाषा वो भूल चुका होता है। इस भावशून्यता की स्थिति में अचानक ही अगर रिश्तों की डोर फिर से जुड़ती दिखाई दे तो फिर समझ आता है कि मैंने अब तक क्या खोया ? अमिताभ इस गीत में बरसों से दरके एक रिश्ते के फिर से जुड़ने से नायक की मनोदशा को अपने शब्दों द्वारा बेहद सहज पर प्रभावी ढंग से श्रोताओं के सम्मुख लाते हैं। तो आइए सुनते हैं इस गीत को..

अभी मुझ में कहीं,बाकी थोड़ी सी है ज़िन्दगी
जगी धड़कन नयी, जाना जिंदा हूँ मैं तो अभी
कुछ ऐसी लगन इस लमहे में है
यह लमहा कहाँ था मेरा

अब है सामने, इसे छू लूँ ज़रा
मर जाऊँ या जी लूँ ज़रा
खुशियाँ चूम लूँ
या रो लूँ ज़रा
मर जाऊँ या जी लूँ ज़रा
अभी मुझ में कहीं,बाकी थोड़ी सी है ज़िन्दगी....

धूप में जलते हुए तन को छाया पेड़ की मिल गयी
रूठे बच्चे की हँसी जैसे, फुसलाने से फिर खिल गयी
कुछ ऐसा ही अब महसूस दिल को हो रहा है
बरसों के पुराने ज़ख्मों पे मरहम लगा सा है
कुछ ऐसा रहम, इस लमहे में है
ये लमहा कहाँ था मेरा

अब है सामने, इसे छू लूँ ज़रा..

डोर से टूटी पतंग जैसी थी ये ज़िं
दगानी मेरी
आज हूँ कल हो मेरा ना हो
हर दिन थी कहानी मेरी
इक बंधन नया पीछे से अब मुझको बुलाये
आने वाले कल की क्यूँ फिकर मुझको सता जाए
इक ऐसी चुभन, इस लमहे में है
ये लमहा कहाँ था मेरा...



तो अब घड़ी पास आ गई है सरताज बिगुल के बजने की पर उससे पहले करेंगे पिछले साल के संगीत का एक पुनरावलोकन !

मंगलवार, मार्च 05, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 पॉयदान # 3 : मेरे निशाँ, हैं कहाँ...

वार्षिक संगीतमाला 2012 का सरताज बिगुल बजने में अब ज्यादा देर नहीं है। बस बची है आख़िर की तीन सीढ़ियाँ। शिखर पर बैठे इन तीनों गीतों का मेरे हृदय में विशेष स्थान है और तीसरी पॉयदान पर विराजमान इस गीत को सुनने के बाद तो मन ही अनमना हो जाता है।

वैसे भी अगर साक्षात भगवन ही हमारी करतूतों का बही खाता पढ़ते पढ़ते ये सोचने को मजबूर हो जाएँ कि क्या यही दिन देखने के लिए उन्होंने इंसानों की दुनिया बनाई थी तो उनके कष्ट को महसूस कर दिल तो दुखेगा ना?

भगवान की इस आवाज़ को हम इंसानों तक पहुँचा रहे हैं कैलाश खेर और फिल्म का नाम तो आप समझ ही गए होंगे यानि Oh My God ! कैलाश ख़ेर एक ऐसे गायक है जो लगभग हर वार्षिक संगीतमाला में अपनी रुहानी आवाज़ के बल पर मेरा दिल जीतते आए हैं। उनकी आवाज़ में गीत का मुखड़ा सुनते ही गीत की भावनाएँ आपके दिल में घर करने लगती हैं। सुरों के उतार चढ़ाव पर कैलाश की जो पकड़ है उसके बारे में जितना भी कहा जाए कम ही होगा।

गीत का शब्दांकन कुमार ने किया है। हिंदी के आलावा पंजाबी फिल्मों में गीत लिखने वाले जालंधर का ये गीतकार अपने  गीत 'दुआ' के बाद वार्षिक संगीतमाला के प्रथम दस में दूसरी बार स्थान बनाने में कामयाब रहा है। कुमार द्वारा रचे इस गीत के हर अंतरे में एक ऐसी सच्चाई है जो मन को हिला डालती है। अंतिम अंतरे में कुमार धरती के मौज़ूदा हालातों में भगवान की विवशता इन शब्दों में व्यक्त करते हैं तू भी है मुझसे बना.... बाँटे मुझे क्यूँ यहाँ...मेरी बनाई तकदीरें है...साँसों भरी ये तसवीरें है...फिर भी है क्यूँ... बेजुबाँ...और हृदय बस एकदम से खामोश हो जाता है।



ख़ैर गीतकार और गायक की बात तो मैंने कर ली पर क्या आप जानते हैं कि इस गीत की संगीत रचना किस ने की? इस गीत के संगीतकार है मीत बंधु व अंजन जो कि पहली बार एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला में प्रवेश कर रहे हैं। फिल्म उद्योग में ये संगीतकार तिकड़ी Meet Bros Anjjan के नाम से जानी जाती है। वैसे इस तिकड़ी का असली नाम मनमीत सिंह,हरमीत सिंह और अंजन भट्टाचार्य है। फिल्म में संगीत देने के आलावा ये तिकड़ी  बैंड के रूप में पंजाब में अपना कार्यक्रम करती रही है। ग्वालियर कॉलेज से स्नातक की डिग्री लेने वाली इस संगीतकार त्रयी का हिंदी फिल्म संगीत का सफ़र फिल्म 'दो दूनी चार' से हुआ। क्या सुपर कूल हैं हम, पान सिंह तोमर और स्पीडी सिंह के कुछ गीतों को संगीतबद्ध करने के भी मौके इन्हें मिले।

अक्षय कुमार से नजदीकियों के चलते जब Oh My God का ये गीत उनकी झोली में आया तो इस अवसर का उन्होंने पूरा फ़ायदा उठाया। मीत बंधु बताते हैं कि जब उन्होंने पहली बार अक्षय कुमार को ये गीत सुनाया तो उनकी आँखें नम हो उठीं। वाकई  बेहद सुकूनदेह संगीत रचा है मीत बंधुओं ने इस गीत के लिए।  एक और बाँसुरी की स्वर लहरी के साथ तबले की थाप है तो साथ ही वॉयलिन और गिटार की संगत भी।

तो आइए सुनते हैं इस गीत को...

मै तो नहीं
हूँ इंसानों में
बिकता हूँ मै तो इन दुकानों में

दुनिया बनाई मैने हाथों से
मिट्टी से नहीं जज़्बातों से
फिर रहा हूँ ढूँढता,
मेरे निशाँ, हैं कहाँ, मेरे निशाँ, हैं कहाँ..मेरे निशाँ, हैं कहाँ
हो....... ओ..... मेरे निशाँ.....

तेरा ही साया बन के तेरे साथ चला मैं
जब धूप आई तेरे सर पे तो छाँव बना मैं.

राहो मे तेरी रहा..... मैं हमसफर की तरह....
उलझा है फिर भी तू उजालों में
ढूँढे सवालों को जवाबों में
खोया हुआ है.... तू कहाँ

मेरे निशाँ... हैं कहाँ ..

मुझ से बने हैं ये पंक्षी ये बहता पानी
ले के ज़मी़ से आसमाँ तक मेरी ही कहानी ...
तू भी है मुझसे बना.... बाँटे मुझे क्यूँ यहाँ...
साँसों भरी ये तसवीरें है...
फिर भी है क्यूँ... बेजुबाँ..मेरे निशाँ... हैं कहाँ



शुक्रवार, मार्च 01, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 पॉयदान # 4 : मन तेरा जो रोग है, मोहे समझ ना आये...

इंसान की इस फितरत से भला कौन वाक़िफ़ नहीं ? अक्सर उन चीजों के पीछे भागा करता है जो पहुँच से बाहर होती है। पर दुर्लभ को प्राप्य बनाने की जुगत में बने बनाये रिश्तों को भी खो देता है। गीतकार जावेद अख्तर मनुष्य की इसी मनोदशा को वार्षिक संगीतमाला 2012 की चौथी पॉयदान पर के गीत के मुखड़े में बखूबी चित्रित करते हुए कहते हैं..मन तेरा जो रोग हैं, मोहे समझ ना आये..पास हैं जो सब छोड़ के , दूर को पास बुलाये । फिल्म तलाश के इस गीत की धुन बनाई है राम संपत ने और इस युगल गीत को गाया है सोना महापात्र और रवींद्र उपाध्याय की जोड़ी ने।

सोना महापात्र और राम संपत

इंजीनियरिंग और एमबीए कर चुकीं सोना महापात्र के संगीत के सफ़र के शुरुआती दौर की चर्चा तो एक शाम मेरे नाम पर मैं पहले भी कर चुका हूँ। पिछले साल सत्यमेव जयते कार्यक्रम में उनके गाए गीतों ने उन्हें फिर चर्चा में ला दिया था। सोना महापात्र की आवाज़ का मैं हमेशा से शैदाई रहा हूँ खासकर वैसे गीतों में जिनमें एक तरह का ठहराव है, जिनके बोल आपसे कुछ कहना चाहते हैं। कुछ तो है उनकी आवाज़ में जिसकी क़शिश श्रोताओं को अपनी ओर खींचती है। फिल्म तलाश के इस गीत को जब मैंने पहली बार सुना तो इस गीत के प्रभाव से उबरने में मुझे हफ्तों लग गए थे। खुद सोना के लिए ये गीत उनके दिल के बेहद करीब रहा है। इस गीत के बारे में वो कहती हैं

"मुझे इस गीत की रिकार्डिंग में सिर्फ दस मिनट लगे थे। ये गीत पुराने और नए संगीत को एक दूसरे से जोड़ता है । इस गीत में पुरानी शास्त्रीय ठुमरी और आज के पश्चिमी संगीत (ड्रम व बॉस इलेक्ट्रानिका) का अद्भुत संगम है । आज की हिंदी फिल्मों में शास्त्रीय रागों से जुड़ी बंदिशें कम ही सुनने को मिलती हैं। दरअसल इस गीत की पैदाइश तब हुई थी जब राम ने अपने एलबम Let's Talk के लिए वर्ष 2001 में सारे देश में घूम घूमकर शिप्रा बोस और ज़रीना बेगम जैसी नामी ठुमरी गायकिओं की आवाज़ रिकार्ड की थी। राम से मेरी पहली मुलाकात इसी एलबम के एक गीत को गाने के लिए हुई थी पर एलबम की अन्य रिकार्डिंग्स को सुनने के बाद मुझे लगा कि उनकी तुलना में मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है और उस एलबम में शामिल होने लायक मेरी काबिलियत नहीं है। "

पर ग्यारह सालों बाद उसी प्रकृति के गीत को इतनी खूबसूरती से निभाना उनके लिए गर्वित होने का अवसर था। ये बताना जरूरी होगा कि सोना की राम संपत से ये मुलाकात आगे जाकर पति पत्नी के रिश्ते में बदल गई। आज ये युगल अपने बैंड Omgrown Music के साझा निर्माता हैं। फिल्म तलाश के इस गीत के लिए राम संपत सोना को तो बहुत पहले ही चुन चुके थे पर उन्हें इस गीत में उनका साथ देने के लिए उपयुक्त युगल पुरुष स्वर नहीं मिल पा रहा था। बहुत सारे गायकों से इस गीत को गवाने के बाद उन्होंने रवींद्र उपाध्याय को चुना। जयपुर से वकालत की डिग्री लेने वाले रवींद्र उपाध्याय वैसे तो TV पर एक रियालटी शो जीत चुके थे पर फिल्मों में उन्होंने गिनती के नग्मे ही गाए थे। पर राम को लगा कि इस गीत के बोलों के साथ रवी्द्र की आवाज़ पूरा न्याय कर सकती है।भले ही सोना की गायिकी इस गीत की जान हो पर रवींद्र ने भी अपने अंतरों में श्रोताओं को निराश नहीं किया।

तो आइए सुनते हैं इस गीत को

मन तेरा जो रोग है, मोहे समझ ना आये
पास हैं जो सब छोड़ के , दूर को पास बुलाये
जिया लागे ना तुम बिन मोरा

क्या जाने क्यों हैं, क्या जाने कैसी, अनदेखी सी डोर
जो खेंचती हैं, जो ले चली हैं, अब यूँ मुझे तेरी ओर

मैं अनजानी हूँ वो कहानी, होगी ना जो पूरी
पास आओगे तो पाओगे, फिर भी हैं इक दूरी
जिया लागे ना तुम बिन मोरा

मन अब तक जो बूझ ना पाया, तुम वो पहेली हो
कोई ना जाने क्या वो रहस हैं, जिसकी सहेली हो

मैं मुस्काऊँ, सबसे छुपाऊँ, व्याकुल हूँ दिन रैन
कब से ना आयी नैनों में निंदिया, मन में ना आया चैन

जिया लागे ना तुम बिन मोरा

 

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