बुधवार, मई 01, 2013

जड़ की मुस्कान : हरिवंश राय बच्चन

ज़िंदगी की दौड़ में आगे भागने की ज़द्दोज़हद मे हमें कई सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती हैं। हर सीढ़ी पर चढ़ने में नामालूम कितने जाने अनजाने चेहरों की मदद लेनी पड़ती है। पर जब हम शिखर पर पहुँचते हैं तो कई बार उन मजबूत हाथों और अवलंबों को भूल जाते हैं जिनके सहारे हमने सफलता की पॉयदानें चढ़ी थीं।

जाने माने कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपने काव्य संग्रह 'कटती प्रतिमाओं की आवाज़' में एक बेहद सहज पर दिल को छू लेने वाली कविता लिखी थी। देखिए इंसानों की इस प्रवृति को एक पेड़ के बिंब द्वारा कितनी खूबसूरती से उभारा है बच्चन साहब ने..
 

एक दिन तूने भी कहा था,
जड़?
जड़ तो जड़ ही है,
जीवन से सदा डरी रही है,
और यही है उसका सारा इतिहास
कि ज़मीन में मुँह गड़ाए पड़ी रही है,

लेकिल मैं ज़मीन से ऊपर उठा,
बाहर निकला, बढ़ा हूँ,
मज़बूत बना हूँ,
इसी से तो तना हूँ।


एक दिन डालों ने भी कहा था,
तना?
किस बात पर है तना?
जहाँ बिठाल दिया गया था वहीं पर है बना;
प्रगतिशील जगती में तील भर नहीं डोला है,
खाया है, मोटाया है, सहलाया चोला है;
लेकिन हम तने में फूटीं,
दिशा-दिशा में गयीं
ऊपर उठीं,
नीचे आयीं
हर हवा के लिए दोल बनी, लहरायीं,
इसी से तो डाल कहलायीं।


एक दिन पत्तियों ने भी कहा था,
डाल?
डाल में क्‍या है कमाल?
माना वह झूमी, झुकी, डोली है
ध्‍वनि-प्रधान दुनिया में
एक शब्‍द भी वह कभी बोली है?
लेकिन हम हर-हर स्‍वर करतीं हैं,
मर्मर स्‍वर मर्म भरा भरती हैं
नूतन हर वर्ष हुईं,
पतझर में झर
बाहर-फूट फिर छहरती हैं,
विथकित चित पंथी का
शाप-ताप हरती हैं।


एक दिन फूलों ने भी कहा था,
पत्तियाँ?
पत्तियों ने क्‍या किया?
संख्‍या के बल पर बस डालों को छाप लिया,
डालों के बल पर ही चल चपल रही हैं;
हवाओं के बल पर ही मचल रही हैं;
लेकिन हम अपने से खुले, खिले, फूले हैं-
रंग लिए, रस लिए, पराग लिए-
हमारी यश-गंध दूर-दूर  दूर फैली है,
भ्रमरों ने आकर हमारे गुन गाए हैं,
हम पर बौराए हैं।

सबकी सुन पाई है,
जड़ मुस्करायी है!


जड़ की इस मुस्कुराहट से जनाब राहत इंदौरी का ये शेर याद आता है।

ये अलग बात कि ख़ामोश खड़े रहते हैं
फिर भी जो लोग बड़े हैं वो बड़े रहते है

इस चिट्ठे पर हरिवंश राय 'बच्चन' से जुड़ी कुछ अन्य प्रविष्टियाँ


  •  जड़ की मुस्कान
  • मधुशाला के लेखक क्या खुद भी मदिराप्रेमी थे ?
  • रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने...
  • मैं हूँ उनके साथ खड़ी, जो सीधी रखते अपनी रीढ़ 
  • मधुशाला की चंद रुबाईयाँ हरिवंश राय बच्चन , अमिताभ और मन्ना डे के स्वर में...
  • एक कविता जिसने हरिवंश राय 'बच्चन' और तेजी बच्चन की जिंदगी का रास्ता ही बदल दिया !
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    8 टिप्पणियाँ:

    Sushamasaxena on मई 02, 2013 ने कहा…

    i prefer to read hariwansh rai bachhan i like his poetry

    प्रवीण पाण्डेय on मई 02, 2013 ने कहा…

    प्रभावित करती पंक्तियाँ, यह आत्मालाप हमारी क्रूरता का विलाप है।

    दीपिका रानी on मई 02, 2013 ने कहा…

    बहुत दिनों बाद कविताओं पर लौटे आप। वाकई सरल शब्दों में गूढ़ बात..

    Prashant Suhano on मई 03, 2013 ने कहा…

    सार्थक कविता.. बहुत कुछ सीख सकते हैं हम इस कविता से.....

    Sumit on मई 04, 2013 ने कहा…

    Bahut khoob Manish Ji.

    Manish Kumar on मई 09, 2013 ने कहा…

    सुषमा जी मुझे भी हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ पसंद हैं। उनकी पसंदीदा कविताओं से जुड़ी लिंक मैंने इस पोस्ट में भी शामिल कर दी है।

    दीपिका अभी हरिवंश राय बच्चन की किताब पढ़ी जा रही है इसीलिए। उनकी कुछ कविताओं को आगे भी सस्वर पढ़ने की इच्छा है।

    प्रवीण पते की बात कही आपने।

    सुमित, प्रशांत कविता पसंद करने के लिए शुक्रिया..

    Himanshu Pandey on मई 25, 2013 ने कहा…

    एक बार यह कविता कहीं पढ़ी थी। यह जाना कि यह उनके संग्रह ’कटती प्रतिमाओं की आवाज’में संग्रहित है। बच्चन जी की कविताओं में संप्रेषणीयता बहुत है। इस चिट्ठे पर ऐसा ही कुछ गहरे जोड़ता है।
    इंदौरी साहब का शेर तो मारक ही है। बहुत आभार।

    बेनामी ने कहा…

    यह कविता बचपन में पढा था स्कूल पाठ्यक्रम में आज बचपन याद आ रहा है

     

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