पिछले हफ्ते गुजरे सालों के सुपरस्टार देवानंद पर फिल्माए गानों को देख रहा था। साठ के दशक में किशोर को देव आनंद की आवाज़ का पर्याय माना जाने लगा था , पर अगर गौर किया जाए तो इसी दौरान मोहम्मद रफ़ी को भी पर्दे पर देव आनंद की आवाज बनने के मौके मिले जिन्हें उन्होंने खूबसूरती से निभाया भी। ऐसी ही एक फिल्म थी 1965 में प्रदर्शित हुई 'तीन देवियाँ' जिसके संगीतकार थे सचिन देव बर्मन और गीतकार मजरूह सुलतानपुरी। फिल्म तो निहायत औसत दर्जे की थी पर इसका संगीत इतना मशहूर हुआ कि फिल्म को हिट करा गया।
मज़रूह साहब कमाल के गीतकार थे। अब आप ही बताइए कि जिस शख़्स ने 1946 में 'शाहजहाँ' के गीतों को लिख कर शोहरत पाई हो और जो उसके पाँच दशकों के बाद भी 'क़यामत से क़यामत तक' और 'जो जीता वही सिंकदर' जैसी फिल्मों के गीतों को लिखकर युवा दिलों पर राज करता रहा ऐसी उपलब्धि उनसे पहले किस गीतकार के हाथ लगी थी? यही वज़ह थी कि किसी गीतकार को अगर फिल्म जगत का सबसे बड़ा 'दादा साहब फालके पुरस्कार' सबसे पहले मिला तो वो मज़रूह साहब ही थे।
पर वास्तव में मज़रूह साहब को अंत तक इस बात का मुगालता रहा कि पुरस्कार मिला भी तो गीतकार की हैसियत से जबकि उनका सपना हमेशा अपने समकालीन फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की तरह एक प्रतिष्ठित ग़ज़लकार बनने का ही था। चालीस के दशक में वो मुंबई एक मुशायरे में शिरक़त करने ही आए थे और उनकी ग़ज़लों से प्रभावित हो कर एक निर्माता नेजब उन्हें गीतकार बनने का मौका दिया तो उन्होंने उसे ये कहते हुए ठुकरा दिया था कि ये इज़्ज़त की नौकरी नहीं है। पर जिगर मुरादाबादी के ये समझाने पर कि बतौर जीविका चलाने के लिए तुम ये काम करो, बाकी ग़ज़लें लिखते रहो....वो मान गए। पचास के दशक के बाद से ये धारदार कम्युनिस्ट अपनी विचारधारा को कार्यान्वित ना होते देख उसमें सक्रिय भागीदारी से तो विमुख हो ही गया था, साथ ही वक़्त के साथ ग़ज़लों से भी दूर होता चला गया।
गीतकार के रूप में इतनी सफलता हाथ लगी कि उन्हें अपने हुनर पर और समय देने का अवसर ही नहीं मिला। पर जब जब फिल्मों में ग़ज़ल लिखने का उन्हें मौका मिला उन्होंने अपना कौशल दिखाने में कोताही नहीं की। अब तीन देवियाँ फिल्म के इस गीत को लें क्या मतला (प्रारंभिक शेर) लिखा था मज़रूह ने
कहीं बेख़याल होकर, यूँ ही छू लिया किसी ने
कई ख्वाब देख डाले, यहाँ मेरी बेखुदी ने
कई ख्वाब देख डाले, यहाँ मेरी बेखुदी ने
मैं तो कहता हूँ बस इसी शेर को गुनगुनाते हुए घंटों निकालें जा सकते हैं। कितनी आम सी बात को इस करीने से पकड़ा मज़रूह साहब ने कि तन मन गुदगुदा उठे। वैसे बाकी के मिसरे भी अच्छे भले हैं और रफ़ी की आवाज़ का साथ पाकर और फड़क उठे हैं।
वैसे मज़रूह अगर सामने होते तो एक बात जरूर पूछता उनसे जब गाना देव आनंद गा
रहे थे तो फिर चौथे मिसरे में 'किया बेक़रार हँसकर, मुझे एक आदमी ने' कैसे
कह गए? कोई स्त्रीसूचक शब्द जैसे महज़बीं/दिलनशीं और मुनासिब होता। शायद शेर के बहर
यानि मीटर की बंदिशों को तोड़ना उन्हें गवारा ना लगा हो।
कहीं बेख़याल होकर, यूँ ही छू लिया किसी ने
कई ख्वाब देख डाले, यहाँ मेरी बेखुदी ने , कहीं बेख़याल होकर
मेरे दिल मैं कौन है तू, कि हुआ जहाँ अँधेरा
वहीं सौ दिये जलाये, तेरे रुख़1 की चाँदनी ने
कई ख्वाब देख डाले, यहाँ मेरी बेखुदी ने , कहीं बेख़याल होकर
मेरे दिल मैं कौन है तू, कि हुआ जहाँ अँधेरा
वहीं सौ दिये जलाये, तेरे रुख़1 की चाँदनी ने
कभी उस परी का कूचा, कभी इस हसीं की महफ़िल
मुझे दरबदर फिराया, मेरे दिल की सादगी ने
है भला सा नाम उसका, मैं अभी से क्या बताऊं
किया बेक़रार हँसकर, मुझे एक आदमी ने
अरे मुझपे नाज़ वालों, ये नयाज़मन्दियाँ2 क्यों
है यही करम तुम्हारा, तो मुझे ना दोगे जीने
मुझे दरबदर फिराया, मेरे दिल की सादगी ने
है भला सा नाम उसका, मैं अभी से क्या बताऊं
किया बेक़रार हँसकर, मुझे एक आदमी ने
अरे मुझपे नाज़ वालों, ये नयाज़मन्दियाँ2 क्यों
है यही करम तुम्हारा, तो मुझे ना दोगे जीने
कई ख्वाब.....कहीं बेख़याल होकर
1. चेहरा, 2.अहसान
सचिन देव बर्मन के साथ इसी फिल्म में मजरूह ने एक और प्यारा गीत लिखा था जो मुझे इससे भी प्यारा लगता है। पर अभी मैं आपको इस गीत की ख़ुमारी से जगाना नहीं चाहता तो उस गीत की बातें अगली प्रविष्टि में।
12 टिप्पणियाँ:
सादर वन्दे मनीष जी
एस डी बर्मन दादा ने बहुत मर्मस्पर्शी धुन का प्रयोग किया इस गीत में देव साहब का नाजुक प्रेम गीत कुछ गजल का पुट भी हे इसमें
कुछ क्या पूरी पूरी ग़ज़ल ही लिख दी थी मज़रूह साहब ने !
इस फिल्म का एक गीत और बहुत उम्दा हे
ऐसे तो ना देखो के हम पे नशा हो जाय....
मोहम्मद रफ़ी साहब गजब ढा रहे हे इन गीतों में
अलग ही आवाज दी हे देव साहब के लिए
आज इसके बारे में लिखा है और साथ ही अगली पोस्ट में जिक्र होगा जिसकी ओर आपका इशारा है।
वैसे पोस्ट की अंत में इस बात का जिक्र भी है। :)
hame to yah geet dev saahab ki vajah se pasand hai
फिल्म में तो देव आनंद इसे बतौर शायर गाते हैं। पर ग़ज़ल के कुछ ही अशआर फिल्माए गए हैं।
लगता है इस पोस्ट को लिखते समय आपका ध्यान सिर्फ मजरूह साहब पर ही केंद्रित रहा. वैसे तीन देवियाँ फिल्म से मेरा ध्यान भी देव साहब पर ही केंद्रित हो जाता है पर यह पोस्ट पढ़ कर मैं चौंक गई. देव साहब सिर्फ गुज़रे समय के सुपरस्टार ही नही है बल्कि सदाबहार हीरो है. पचास से अस्सी के दशक तक गीतों में भी छाए रहने वाले अकेले हीरों हैं देव साहब . मैंने देव साहब पर केंद्रित मेरी एक पिछली श्रृंखला में एक बात कही थी आज फिर दोहरा रही हूँ. हेमंत कुमार और तलत महमूद के बाद साठ के दशक में रफ़ी साहब की आवाज़ ने देव साहब की रोमांटिक छवि को परवान चढ़ाया। उस समय किशोर दा भी गाते थे लेकिन ख़ास अंदाज़ विकसित नही कर पाए थे. तीन देवियाँ में पहली बार किशोर दा ने अनोखे अंदाज़ में देव साहब के लिए गाया - गाता रहे मेरा दिल … यही अंदाज़ आगे किशोर दा का लोकप्रिय अंदाज़ बन कर उभरा लेकिन रफ़ी साहब का साथ देव साहब ने नही छोड़ा और उस समय छोड़ भी नही सकते थे. तीन देवियाँ फिल्म देव साहब की ख़ास फिल्म रही इसकी कहानी में एक नयापन था जो उस दौर की फिल्मो से बहुत अलग है तभी तो इसे बेहद लोकप्रियता मिली, यह किसी भी लिहाज़ से औसत दर्जे की फिल्म नही है. वैसे इस फिल्म के लोकप्रिय गीतों में इस ग़ज़ल का नाम कुछ नीचे ही है. फिल्म में भी उतनी नही उभर पाई.
अन्नपूर्णा जी ये प्रविष्टि तो क्या मेरी सारी पोस्ट के केंद्र में गीत के बोल और उसका संगीत रहता है। मुझे गाने सुनना उन्हें पर्दे पर देखने से ज्यादा अच्छा लगता है इसीलिए इस गीत को सुनते वक़्त देव साहब से पहले मज़रूह और सचिन दा याद आते हैं।
फिल्मों और गीतों की पसंदगी और नापसंदगी के बारे में हर व्यक्ति की राय भिन्न हो सकती है। मुझे ये फिल्म साधारण ही लगी थी । फिर इस गीत पर रिसर्च के दौरान सचिन दा पर लिखी खागेश देव बर्मन की किताब पढ़ रहा था तो उसमें भी यही राय दिखी। अगर खागेश की बात को उद्धृत करूँ
"As a film, Teen Deviyan is strictly average fare. But it is a glaring example of a most ordinary film becoming box office hit only by virtue of its music.(The world of his music, page 151)"
ग़ज़लों से मुझे विशेष लगाव है और मुझे इस गीत का मतला बेहद पसंद है। वैसे व्यक्तिगत रूप से मुझे इसी फिल्म का 'ऐसे तो ना देखो..' और 'गाता रहे मेरा दिल..' इस गीत से ज़्यादा पसंद है। और अगर खागेश दा की राय माने तो इस फिल्म में रफ़ी के दोनों गीत फिल्म के सबसे बेहतरीन गीत हैं।
Behad Khoobsurat Matla.
How do you manage time to keep writing. I have been reading your posts but could not get time to leave any comment for such a long time.
Aaj rok nahi paya.
Keep it up. Salute.
sunder geet, isse judi kai jaankariyan ko mujhe pehle malumaat nahin thi
Sach kaha hai aapne ki inn sadharan aur aam si lagne wali baaton ko, jinki anubhuti hum sab ne shayad ki hogi... Unhe kya khubsurat roop diya gaya hai!! Wah!!
पढ़ लिया है अब सुनेंगे :)
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