सोमवार, जनवरी 26, 2015

वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 13 : गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले.. Gulon Mein Rang Bhare

पिछले साल के बेहतरीन गीतों को ढूँढते हुए हम आ चुके हैं संगीतमाला के बीचो बीच यानि इसके बाद शुरु होगा शीर्ष की बारह पायदानों का सफ़र। संगीतमाला की तेरहवीं पॉयदान पर जो ग़ज़ल है उसके बारे में पिछले साल नवंबर में विस्तार से चर्चा कर चुका हूँ। विशाल भारद्वाज ने मेहदी हसन साहब की गाई और फै़ज़ की लिखी इस ग़ज़ल को हैदर में इतनी खूबसूरती से समाहित किया कि ये ग़ज़ल फिल्म का एक जरूरी हिस्सा बन गई।


फ़ैज़ की लिखी ग़ज़ल के भावार्थ को आज दोबारा नहीं लिखूँगा। अगर आप ने मेरी पिछली पोस्ट ना भी पढ़ी हो तो मेरी इस पॉडकॉस्ट को सुन लें जो मेरे उसी आलेख पर आधारित थी।


पर विशाल ने फिल्म की कहानी के साथ इस ग़ज़ल के अलग अलग मिसरों को वादी-ए-कश्मीर के हालातों से जोड़ कर उसे एक अलग माएने ही दे दिए हैं। फिल्म में पहली बार ये ग़ज़ल तब आती है जब डा. साहब (फिल्म में हैदर के पिता का किरदार) मेहदी हसन साहब की ग़ज़ल सुनते हुए गुनगुना रहे हैं और हैदर जेब खर्च माँगने के लिए वो ग़ज़ल बंद कर देता है। उसे पैसे मिलते हैं पर तभी जब वो ग़ज़ल का जुमला याद कर सुना देता है..

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले...

लेखिका मनरीत सोढ़ी सोमेश्वर ने इस ग़ज़ल के मतले को फिल्म की कहानी से जोड़ते हुए अपने एक अंग्रेजी आलेख में लिखा था
"कश्मीर के बाग बागीचों का कारोबार तो नब्बे के दशक के मध्य में ही बंद हो गया था। हैदर की कहानी भी इसी समय की है। चिनार के पेड़ ही इस वादी को उसकी रंगत बख्शते थे। वही  दरख्त जिनके सुर्ख लाल रंग को देख कर फारसी आक्रमणकारियों आश्चर्य से बोल उठे थे चिनार जिसका शाब्दिक अर्थ था क्या आग है ! और उस वक़्त वादी प्रतीतात्मक रूप में ही सही भारतीय सेना और आतंकियों की गोलीबारी के बीच जल ही तो रही थी।"
ग़ज़ल का अगला मिसरा भी तब उभरता है जब क़ैदखाने में डा. साहब यातनाएँ झेल रहे होते हैं। फिल्म में एक संवाद है  कैदखानों की उन  कोठरियों में सारी चीखें, सारी आहें जब  दफ़्न हो जाती थीं तब एक आवाज़ बिलखते हुए सन्नाटे से सुर मिला के रात के जख्मों पर मलहम लगाया करती थी।

कफ़स उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बह्र-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

सच तो ये है कि विशाल भारद्वाज ने फिल्म में अरिजित की ग़ज़ल इस्तेमाल ही नहीं की। पर उसे पहले प्रमोट कर देखने वाले के ज़ेहन में उसे बैठा दिया ताकि कहानी में जब उसके मिसरे गुनगुनाए जाएँ  तो लोग उसे कहानी से जोड़ सकें। मेहदी हसन की इस कालजयी ग़ज़ल को गाने की कोशिश कर पाना ही अपने आप में अरिजित के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। नाममात्र के संगीत (पूरे गीत में आपको गिटार की हल्की सी झनझनाहट के साथ मात्र ड्रम्स संगत में बजती हुई सुनाई देती है) के साथ अपनी आवाज़ के बलबूते पर उन्होंने इस ग़ज़ल को बखूबी निभाया है।

तो आइए सुनते हैं इस फिल्म के लिए रिकार्ड की गई ये ग़ज़ल


वार्षिक संगीतमाला 2014
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9 टिप्पणियाँ:

lori on जनवरी 27, 2015 ने कहा…

बहुत ख़ूबसूरती से " हैदर " के साथ आप "
"गुलों में रंग भरे ………… " की भी समीक्षा कर गए।
आपके नज़रिये का जवाब नहीं ………
मुझे बड़ा सुकून मिलता है इस ब्लॉग पर।

बेनामी ने कहा…

"गुलों में रंग भरे बाद ए नौबहार चले" ये ग़ज़ल मुझे उस समय से बेहद पसंद है जब इसके मायने भी मुझे पता नहीं थे । मगर आज आपकी बदौलत इस ग़ज़ल को अरिजित की आवाज़ में एक अलग ही अंदाज़ में सुनने का अवसर मिला और यकीन मानिये अरिजित का अंदाज ए बयां भी बेहद पसंद आया । खासतौर पर कहीं कहीं अरिजीत की आवाज़ की बेहद हल्की सी भर्राहट ग़ज़ल को एक अलग ही मक़ाम अता कर जाती है । एक बेहद उम्दा ग़ज़ल को एक अलग ही अंदाज़ में सुनवाने के लिए आपका अत्यंत आभार

राजेश गोयल
ग़ाज़ियाबाद

Manish Kumar on जनवरी 31, 2015 ने कहा…

लोरी व राजेश गोयल जी आप दोनों को अरिजित की गाई ये ग़ज़ल और उससे जुड़ा मेरा आलेख पसंद आया जान के प्रसन्नता हुई।

अरिजित के बारे में आपके कथन से सहमत हूँ राजेश जी

Sumit on जनवरी 31, 2015 ने कहा…

Wah! Arigit Singh.

Aaj ja ke suna aapka podcast. Speechless.

Ankit on फ़रवरी 04, 2015 ने कहा…

जब पहली दफ़ा हैदर में अरिजित द्वारा गाई ये ग़ज़ल सुनी तो अरिजित की आवाज़ बहुत कच्ची लगी, वो लगती भी क्यों न, आखिरकार जिस ग़ज़ल को मेहंदी हसन साहब की आवाज़ में कई मर्तबा सुना हो उसे दूसरी किसी आवाज़ में सुनना शुरुआत में थोड़ा अटपटा तो लगेगा ही। लेकिन जब रिवाइंड कर कुछ एक बार सुना तो ठीक लगने लगी।
हालाँकि मुझे ऐसा लगता है कि अगर स्वयं विशाल अपनी आवाज़ इस ग़ज़ल को देते तो शायद असर कुछ और बढ़ता। बहरहाल जो भी हो, फैज़ की मक़बूल ग़ज़ल को फिर से सुनना अच्छा ही लगा। गुज़रा साल अरिजित का था और उसमें उन्हें वाकई अलग अलग रंग के गीत मिले।

कंचन सिंह चौहान on फ़रवरी 08, 2015 ने कहा…

मूवी देखते समय पता नहीं कैसे ध्यान नहीं दिया... बहुत सुंदर..

Manish Kumar on फ़रवरी 09, 2015 ने कहा…

अंकित : विशाल की आवाज़ में ये ग़ज़ल कैसी लगती ये तो मुझे पता नहीं पर अरिजित ने ठीक ठाक कोशिश की है। बाकी अरिजित ने इस साल अपनी गायिकी में जिस विविधता का परिचय दिया है वो तो काबिलेतारीफ़ है ही।

Manish Kumar on फ़रवरी 09, 2015 ने कहा…

कंचन शायद आपने पोस्ट नहीं पढ़ी जब ग़ज़ल फिल्म में थी ही नहीं तो आप देखती कैसे !:)

सुमित पॉडकास्ट पसंद करने के लिए हार्दिक आभार!

Archana Chaoji on मार्च 02, 2015 ने कहा…

सुनते हुए भी पुरानी ही याद आ रही है , मगर नयापन भी है ...

 

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