करीब दस साल पहले याने अप्रैल 2005 में पहली बार जाना था कि ब्लॉगिंग किस चिड़िया का नाम है। हिंदी में टाइपिंग तब नहीं आती थी सीखने में एक साल का वक़्त लग गया। तब तक रोमन हिंदी और अंग्रेजी में ही कुछ कारगुजारी चलती रही । मार्च 2006 के आख़िर से हिंदी में लिखने का जो सिलसिला शुरु हुआ उसके पिछले हफ्ते नौ साल पूरे हो गए। इससे पहले कि ये ब्लॉग अपने दसवें साल में प्रवेश करे पिछले एक साल के आलेखों को आप सबने किस नज़रिए से देखा उसकी एक झलक आप को दिखाना चाहूँगा।
पिछले साल पुराने गीतों की बात करते हुए खास तौर पर संगीतकार मदनमोहन की चर्चा हुई। तुम्हारी जुल्फ के साये ....के बहाने कैफ़ी आज़मी के आरंभिक दिनों के बारे में बताने का मौका मिला। फिर लता जी के साथ उनके जुड़ाव की चर्चा हुई जब मैंने सपनों में अगर मेरे आ जाओ तो अच्छा है ...पर लिखा। संदीप द्विवेदी का कहना था
"मदन जी ऐसे जौहरी थे जो संगीत के पत्थरों को भी तराश कर कोहेनूर बना देते थे। लता जी आज जो भी हैं उसमें मदन जी का महती योगदान है।"
अगर कैफ़ी की यादों को मदनमोहन के जिक्र के साथ बाँटा गया तो वही सचिन दा के काम करने के तरीके को मज़रूह की यादों के सामने आपके सामने प्रस्तुत किया। गीत ऐसे तो ना देखो पर डा. महेंद्र नाग का कहना था
"मजरूह साहब ने हर मूड के आले दर्जे के गाने लिखे यह उनकी खासियत है और इसीलिए हिंदी उर्दू शायरी के दीपक माने जाते हैं "
वहीं यूँ ही बेख्याल हो के पर साथी चिट्ठाकार नम्रता का ख्याल था
"सच कहा है आपने कि इन साधारण और आम सी लगने वाली बातों को जिसकी अनुभूति हम सब ने शायद की होगी.उन्हें क्या खूबसूरत रूप दिया गया है। वाह ! "
सत्तर से ले के नब्बे के दशक तक के गीतों से जुड़ी पोस्ट में आप सब ने बीती ना बिताई रैना...., समझो ना नैनों की भाषा पिया.... और इक लड़की को देखा... को खूब सराहा। बीती ना बिताई रैना के बारे में इंजीनियर व गायक दिलीप कवठेकर का कहना था
"अमूमन अभी भी मैं कई पुराने गीतों को मात्र उनके धुनों के चमत्कार के कारण पहचानता हूं. यह गीत भी ऐसा ही है, जिसकी इतनी अच्छी लिखाई और उसके पीछे के भावार्थ अभी अभी पूरी तरह से पढे और समझ के दाद दिये बगैर नहीं रह सका....."
ग़ज़लों से मुझे शुरु से बेपनाह मोहब्बत रही है और जब भी कोई मधुर ग़ज़ल कानों में पड़ती है तो उसे उसकी भावनाओं के साथ आप तक पहुँचाने का प्रयास करता हूँ। रात खामोश है, गुलों में रंग भरे, इक खलिश को हासिल.., यूँ ना मिल मुझ से ख़फ़ा ..की बातें इसी सिलसिले के तहत आपके साथ हुई। इब्न ए इंशा की नज़्म ये सराय है यहाँ किसका ठिकाना लोगों.. पर शायरा लोरी अली का कहना था
"अदब की दुनिया में जीने वालों के लिए जन्नत है आपका ब्लॉग इन्शाँ जी की याद दिला कर शाम खुशनुमा डाली आपने"
अनूप जलोटा की ग़ज़ल हमसफ़र गम में मोहब्बत की जब बात हुई तो आकाशवाणी से जुड़ी अन्नपूर्णा जी ने उनसे जुड़ी ये रोचक जानकारी सामने रखी।
"मुझे अवसर मिला था अनूप जी से हैदराबाद दूरदर्शन के लिए बातचीत का, उस समय भी वो हैदराबाद मन्दिर के एक महोत्सव के कार्यक्रम के लिए आए थे, अपनी बातचीत में उन्होने बताया था कि शास्त्रीय संगीत और सुगम संगीत गाना चाहते थे और शुरूवात ग़ज़ल, गैर फिल्मी गीत और भजनों से की थी। चूँकि उस समय भजन गायक बहुत ही कम थे, इसीसे जब भी किसी महोत्सव या मन्दिर निर्माण, आदि अवसरो के कार्यक्रम होते तो अनूप जी को आमन्त्रित किया जाता था, इन कार्यक्रमों में टिकट भी नहीं होता है जिससे भीङ बढ़ने लगी और कार्यक्रम लोकप्रिय होने लगे, साथ ही भजनों के रिकार्ड भी इसी लोकप्रियता के चलते निकाले जाने लगे जिससे अनायास ही भजन के क्षेत्र में उनकी लोकप्रियता बढ़ गई।"
कुछ मँजे हुए लेखकों राजेंद्र यादव, कृष्ण बलदेव वैद्य, ख़ालिद हौसैनी के साथ नए उभरते लेखकों की किताबों पर भी चर्चा हुई। सबसे ज्यादा सराहना एक नौकरानी की डॉयरी की पर लिखी समीक्षा को मिली। पल्लवी त्रिवेदी का कहना था
"सच बात .. हम व्यक्ति के श्रम को मान नहीं देते ! कम पैसे वाला आदमी हमारे समाज की द्रष्टि मे छोटा आदमी होता है! व्यक्ति को आंकने का नजरिया बहुत अमानवीय है हमारे समाज में !"
साल का अंत हुआ और वार्षिक संगीतमाला का दसवाँ संस्करण आपके सामने था। अलग अलग गीतों पर कभी सहमति तो कभी असहमति में आपकी राय पढ़ने को मिली। आपके कुछ बयान यहाँ दर्ज कर रहा हूँ
ग़ज़लकार अंकित जोशी गुलों में रंग भरे पर...जब पहली दफ़ा हैदर में अरिजित द्वारा गाई ये ग़ज़ल सुनी तो अरिजित की आवाज़ बहुत कच्ची लगी, वो लगती भी क्यों न, आखिरकार जिस ग़ज़ल को मेहंदी हसन साहब की आवाज़ में कई मर्तबा सुना हो उसे दूसरी किसी आवाज़ में सुनना शुरुआत में थोड़ा अटपटा तो लगेगा ही। लेकिन जब रिवाइंड कर कुछ एक बार सुना तो ठीक लगने लगी। हालाँकि मुझे ऐसा लगता है कि अगर स्वयं विशाल अपनी आवाज़ इस ग़ज़ल को देते तो शायद असर कुछ और बढ़ता। बहरहाल जो भी हो, फैज़ की मक़बूल ग़ज़ल को फिर से सुनना अच्छा ही लगा। गुज़रा साल अरिजित का था और उसमें उन्हें वाकई अलग अलग रंग के गीत मिले।
राजेश गोयल मैं तैनूँ समझावाँ पर...इस गीत के बारे में सिर्फ एक ही बात कही जा सकती है और वो है "जादुई"। ये गीत सबसे पहले मेरे कानों में आज से लगभग दो तीन साल पहले पड़ा था और उसके बाद जब तक मैंने यू ट्यूब में सर्च करके पूरा गीत सुन नहीं लिया मुझे चैन नहीं आया था । उसके बाद पिछले साल इस गीत के नए संस्करण सुनने को मिले और वो सब भी बहुत ही अच्छे लगे क्योंकि इस गीत की जो मूल धुन है उसके साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की गयी ।
अमेरिका में रह रहे कवि व हिंदी प्रेमी अनूप भार्गव सरताज गीत पापा पर ..देश से दूर रहने के कारण संगीत में रूचि रखते हुए भी अक्सर बड़ी, लोकप्रिय फ़िल्मों के गीत ही सुनने को मिलते हैं और इस कारण कुछ अच्छे गीत हाथ से निकल जाते हैं । Manish आप इस दिशा में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं , हर वर्ष बड़ी मेहनत से 25 गीतों का चयन करते हैं जिस में कुछ ऐसे अनूठे गीत भी होते हैं जो अक्सर फिल्म के लोकप्रिय न होने के कारण सामने नहीं आ पाते
तो आपने देखा कि किस तरह आपकी कही गई बातें इन प्रविष्टियों को एक नया नज़रिया दे गयीं। आपलोगों के इसी प्यार का परिणाम रहा कि हिंदी दिवस के अवसर पर मुझे राष्ट्रीय चैनल स्टार न्यूज़ पर साक्षात्कार देने का मौका मिला। नौ साल के इस सफ़र में मैं कभी थका नहीं क्यूँकि मुझे मालूम है कि आपका स्नेह मेरे साथ है और वो रह रह कर मुझसे किसी ना किसी रूप में प्रकट होता रहा है जैसा आस्ट्रेलिया में रह रहे मेरे अग्रज प्रभात गुप्ता ने अपनी पाती में लिखा..
"प्यारे मनीष भाई - आपकी साइट पे जाके मानो मैं अपनी ज़िन्दगी के कई गुमशुदा पल जो थे उनको पा गया।आँखों में आनंद अश्रु थे और छाती में हल्का सा दर्द और शायद पूरे बदन में एक अजीब सी कंप कंपी । "
लेख ज्यादा वृहत ना हो जाए इस लिए मैं आप सब के विचार जो उतने ही उल्लेखनीय थे यहाँ समेट नहीं पाया इसका मुझे ख़ेद है। आपकी मोहब्बत इस ब्लॉग के लिए इसी तरह बरक़रार रहेगी ऐसी उम्मीद रखता हूँ।