बुधवार, दिसंबर 09, 2015

जब दाग़ देहलवी ने याद दिलाई चचा ग़ालिब की : दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यूँ Dil hi to hai... Daagh and Ghalib

मिर्जा ग़ालिब मेरी ज़िंदगी में पहली बार उन पर बने टीवी सीरियल की वज़ह से आए थे। अस्सी का दशक ख़त्म हो रहा था। जगजीत सिंह की आवाज़ के साथ उनकी गाई ग़ज़लों का चस्का लग चुका था। ग़ालिब सीरियल देखने की वज़ह भी जगजीत ही थे। पर गुलज़ार के निर्देशन और नसीरुद्दीन शाह की कमाल की अदाकारी की वज़ह से चचा गालिब भी प्रिय लगने लगे थे। उर्दू जुबान के लफ्जों को समझने का दौर जारी था पर चचाजान की भाषा में इस्तेमाल अरबी फ़ारसी के शब्द सर के ऊपर से गुजरते थे। वो तो गुलज़ार ने उस सीरियल में उनके अपेक्षाकृत सरल शेर इस्तेमाल किए जिसकी वज़ह से ग़ालिब की कही बातों का थोड़ा बहुत हमारे पल्ले भी पड़ा और जितना पड़ा उसी में दिल बाग बाग हो गया। 

तब मैं इंटर में था। पढ़ाई लिखाई तो एक ओर थी पर किशोरावस्था में जैसा होता है एक अदद दोस्त की कमी से बेवज़ह दिल में उदासी के बादल मंडराते रहते थे। ऐसे में जब जगजीत की आवाज़ में हजारों ख़्वाहिशें ऐसी की हर ख़्वाहिश में दम निकले, आह को चाहिए बस उम्र बसर होने तक, दिल ही तो है ना संगो खिश्त सुनते तो मायूस दिल को उस आवाज़ में एक मित्र मिल जाता। सो जैसे ही वो दो कैसटों का एलबम बाजार में आया उसी दिन अपने घर ले आए।

आज उसी में से एक ग़ज़ल का जिक्र कर रहे हैं जिसे पहले पहल ग़ालिब ने लिखा और बाद में दाग़ देहलवी साहब  ने उसी ज़मीन पर एक और ग़ज़ल कही जो गालिब की कृति जैसी कालजयी तो नहीं पर काबिले तारीफ़ जरूर है। 

तो पहले आते हैं चचा की इस ग़ज़ल पर। चचा का जब भी जिक्र होता है तो एक अज़ीम शायर के साथ साथ एक आम से आदमी का चेहरा उभरता है। सारी ज़िदगी उन्होंने मुफ़लिसी में गुजारी। घर का खर्च चलाने के लिए जब तब कर्जे लेते रहे। सात औलादें हुई पर सब की सब ख़ुदा को प्यारी हो गयीं। लेकिन अपनी जिंदगी पर कभी उन्होंने इन तकलीफ़ों को हावी नहीं होने दिया। हँसते मुस्कुराते रहे और जीवन की छोटी छोटी खुशियों को जी भर कर जिया। फिर चाहे वो आम के प्रति उनका लगाव हो या फिर उनकी चुहल से भरी हाज़िर जवाबी। पर उनके भीतर की गहरी उदासी रह रह कर उनकी ग़ज़लों में उभरी और ये ग़ज़ल उसका ही एक उदाहरण है।

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त1 दर्द से भर न आये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों
1. ईंट और पत्थर

दैर2 नहीं, हरम3 नहीं, दर नहीं, आस्तां4 नहीं
बैठे हैं रहगुज़र5 पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों
2. मंदिर  3. काबा  4. चौखट 5.रास्ता

क़ैद- ए -हयात- ओ -बंद- ए -ग़म6 अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों
6. जीवन की क़ैद और गम का बंधन

हाँ वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीन-ओं-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यों

"ग़ालिब"-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन-से काम बन्द हैं
रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों




आज भी जब गुमसुम होता हूँ तो इस ग़ज़ल को सुनना अच्छा लगता है। अपना ग़म हर मिसरे से छन के आते दर्द के विशाल सागर में मानो विलीन सा हो जाता है। तो सुनिए ये ग़ज़ल जगजीत सिंह और फिर चित्रा जी की आवाज़ों में...



पर आज ये ग़ज़ल याद आई जब मैंने इसी ज़मीन पर कही दाग़ देहलवी की ग़ज़ल पढ़ी। दाग रूमानी शायर थे सो उन्होंने शब्दों का धरातल तो वही रखा पर ग़ज़ल का मिजाज़ बदल दिया। जहाँ गालिब की ग़जल सुन जी भर उठता है वहीं दाग़ की चुहल मन को गुदगुदाती है। अब मतले को ही देखिए। दाग़ कहते हैं

दिल ही तो है ना आए क्यूँ, दम ही तो है ना जाए क्यूँ
हम को ख़ुदा जो सब्र दे तुझ सा हसीं बनाए क्यूँ


यानि ईश्वर ने हमें दिल दिया है तो वो धड़केगा ही और ये जाँ दी है तो जाएगी ही। अगर ख़ुदा ने तुम्हें ये बेपनाह हुस्न बख़्शा है तो मुझे भी ढेर सारा सब्र दिया तुम्हारे इस खूबसूरत दिल तक देर सबेर पहुँचने के लिए। 

गो नहीं बंदगी कुबूल पर तेरा आस्तां तो है
काबा ओ दैर में है क्या, खाक़ कोई उड़ाए क्यूँ


आख़िर तेरी आसमानी चौखट तो हमेशा मेरे सिर पर रहेगी फिर मंदिर और मस्जिद क्यूँ जाए तुझे पूजने? इसी वज़ह से कोई मेरी बेइज़्ज़ती करे क्या ये सही है?

लोग हो या लगाव हो कुछ भी ना हो तो कुछ नहीं
बन के फरिश्ता आदमी बज़्म ए जहान में आए क्यूँ
लोगों से भरी इस दुनिया में अगर इंसान आया है तो वो प्यार के फूल खिलायेगा ही। अगर तुम सोचते हो ऐसा ना हो तो फिर उसे इस संसार में भेजने की जरूरत ही क्या है?

जुर्रत ए शौक़ फिर कहाँ वक़्त ही जब निकल गया
अब तो है ये नदामतें सब्र किया था हाए क्यूँ


शायर को अफ़सोस है कि अपने दिल पर सब्र रखकर उसने वक़्त रहते इश्क़ नहीं किया। अब तो वो ऐसा सोचने से भी कतराते हैं ।

रोने पे वो मेरे हँसे रंज़ में मेरे शाद हो
छेड़ में है कुछ तो मज़ा वर्ना कोई सताए क्यूँ


उन्हें मुझे रोता देख हँसी आती है और तो और मेरी शिकायत से वो खुश हो जाते हैं। पर क्या सच में ऐसा है। उनके छेड़ने से मेरा हृदय भी तो पुलक उठता है नहीं तो वे सताते क्यूँ।

ग़ालिब की ग़ज़ल तो आपने जगजीत व चित्रा जी की आवाज़ में सुन ली दाग़ की ग़ज़ल को मेरी आवाज़ में सुन लीजिए..

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9 टिप्पणियाँ:

मन्टू कुमार on दिसंबर 09, 2015 ने कहा…

बीते शुक्रवार,बीबीसी हिंदी के साप्ताहिक प्रोग्राम 'विवेचना' में रेहान फज़ल साहब ने जगजीत सिंह जी को याद किया।उसमें मिर्जा ग़ालिब सीरियल का भी जिक्र हुआ जिसमें बताया गया कि गुलज़ार साहब चाहते थे कि ऐसा कोई भी साज़ इस्तेमाल न हो जो ग़ालिब के दौर में नहीं थी।जगजीत जी ने चुनौती स्वीकार की और फिर इतिहास रच दिया।
सीरियल की ग़ज़लें मैंने ज्यादा नहीं सुनी पर आपके अनुभव पढ़कर महसूस किया जा सकता है।

बात रही ग़ालिब और देहलवी साहब की ग़ज़ल की तो अभी शब्दों को समझने का दौर चल रहा है और...और...
फीलिंग्स भी समझेंगे वरना कोई लिखें क्यूँ...

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' on दिसंबर 09, 2015 ने कहा…

बहुत सुन्दर.....

कंचन सिंह चौहान on दिसंबर 09, 2015 ने कहा…

ग़ालिब की ग़ज़ल तो पसन्दीदा ग़ज़ल है। जब भी खुद को मजबूत करते-करते मन एक दिन सब्र छोड़ दे और रोने पर उतर ही आएं, तब यही आता है दिल में

दिल ही तो है ना संग-ओ-खिश्त...!

दाग़ की ग़ज़ल पढ़वाने का शुक्रिया

Amresh Kumar on दिसंबर 11, 2015 ने कहा…

बढ़िया सर जी

Manish Kumar on दिसंबर 16, 2015 ने कहा…

शुक्रिया मन इस रोचक जानकारी को यहाँ साझा करने के लिए

Manish Kumar on दिसंबर 16, 2015 ने कहा…

प्रसन्न वदन जी व अमरेश आलेख पसंद करने क लिए आभार !

Manish Kumar on दिसंबर 16, 2015 ने कहा…

जब भी खुद को मजबूत करते-करते मन एक दिन सब्र छोड़ दे और रोने पर उतर ही आएं, तब यही आता है दिल में.. सही कहा आपने कंचन !

Guide Pawan Bhawsar on दिसंबर 17, 2015 ने कहा…

लाज़वाब पोस्ट

बेनामी ने कहा…

बेहद बढ़िया पोस्ट, सरल, स्वाभाविक, प्यार भरी, संपूर्ण💐

 

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