मंगलवार, मई 17, 2016

इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत : कौन थी शिव कुमार बटालवी की वो गुमनाम कुड़ी ? Ikk Kudi Udta Punjab Part I

शिव कुमार बटालवी का व्यक्तित्व मेरे लिए अबूझ पहेली रहा है। पंजाब के इस बेहद लोकप्रिय कवि की लेखनी में आख़िर ऐसी क्या बात थी जिसने आम लोगों को बड़े कम समय में इनकी लिखी कविताओं का दीवाना बना दिया। 37 साल की छोटी उम्र में ऊपर कूच करने वाला इस इंसान क्यूँ ज़िदगी को एक धीमी गति से घटने  वाली आत्महत्या मानता था?

जब मैंने इन बातों को जानने समझने के लिए शिव बटालवी के बारे में पढ़ना शुरु किया तो आँखों में कई चेहरे घूम गए उनमें एक मजाज़ का तो एक गोपाल दास नीरज का भी था। 1936  में पंजाब के गुरुदासपुर जिले के एक गाँव में जन्मे बटालवी  मिजाज़  में रूमानियत शुरु से थी। स्कूल से निकलते तो पास की नदी के पास घंटों अकेले  ख्यालों  में डूबे रहते । लड़कों की अपेक्षा गाँव की बालाओं से ही उनकी दोस्ती ज्यादा होती। प्राथमिक शिक्षा पूरी कर जब वो बटाला गए तो कविता के साथ उसे तरन्नुम में गा के सुनने की अदा उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा हो गई। शुरुआत के उनके रचित  गीत रूमानी कलेवर ही ओढ़े मिलेंगे पर बटालवी से प्रेम के बारे में सवाल होता तो वो यही कहते की जीवन में लड़कियाँ तो हजारों आयीं पर कोई मुकम्मल तसवीर नहीं बन पाई। पर क्या ये बात पूरी तरह सही थी?


दरअसल जब जब बटालवी ने कोई चेहरा अपने दिल में गढ़ना शुरु किया उसके पहले ही वो तक़दीर के हाथों मिटा डाला गया। बटालवी खुली तबियत के इंसान  थे। किसी चीज़ से बँधना उन्हें मंजूर ना था। उनके तहसीलदार पिता ने उन्हें लायक बनाने की बहुत कोशिश की। पर बटालवी का दिल कभी एक तरह की पढ़ाई में नहीं रमा। किसी कॉलेज में वे विज्ञान के छात्र रहे तो कहीं कला के। यहाँ तक कि बीच में कुछ दिनों के लिए वो बैजनाथ में सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने भी चले गए। पर इनमें से कोई भी कोर्स वो पूरा नहीं कर पाए। 

बैजनाथ के एक मेले में उनकी मुलाकात मीना से हुई। चंद मुलाकातें ही इस मीना को उनके दिल की मैना बनाने के लिए काफी थीं । मीना पर भी प्रेम का ज्वर चढ़ चुका था पर इससे पहले कि वो अपनी स्वाभाविक नियति पर जाता वो टायफाइड की वजह  से इस संसार को ही छोड़ कर चली गई। बटालवी के लिए ये गहरा धक्का था और उनकी कविताओं में मीना को खो देने की पीड़ा झलकती रही।

पिता वैसे ही बटालवी से कोई आशा छोड़ चुके थे। उनके लिए बटालवी की छवि एक बिना काम के छुटभैये कवि से ज्यादा नहीं थी। पिता के दबाव में आकर बटालवी ने पटवारी की परीक्षा पास कर ली। पर वो जिस कॉलेज में भी गए अपनी कविता में भीतर का दुख उड़ेलते रहे और लोकप्रियता की पायदानों पर चढ़ते रहे। गाँव और कस्बों में उनके रचे गीत लोकगीतों की तरह गाए जाने लगे। इसी दौरान वो दूसरी बार मोहब्बत में पड़े। बटालवी पर इस बार एक साहित्यकार की पुत्री अपना दिल दे बैठी थीं। पर पिता को जब ये पता चला  तो गुस्से में उन्होंने उसे लंदन भेज दिया। बटालवी को खबर भी न हुई। उसकी याद में उन्होंने बहुत कुछ लिखा पर उस पर लिखी ये पंक्तियाँ खासी मशहूर हुई..

माये नी माये
मैं इक शिकरा यार बनाया.
चूरी कुट्टां तां ओ खांदा नाही
ओन्हुं दिल दा मांस खवाया
इक उडारी ऐसी मारी
ओ मुड़ वतनी ना आया.

हे माँ देख ना मैंने इक बाज को अपना दोस्त बनाया। चूरी (घी व रोटी से बनाया जाने वाला मिश्रण) तो वो खाता नहीं सो मैंने तो उसे अपना कलेजा ही खिला दिया और देखो मुझे छोड़कर ऐसी उड़ान भर कर चला गया जहाँ से वो वापस अपने घर कभी नहीं लौटेगा।

दर्द से शिव कुमार बटालवी का रिश्ता यहीं खत्म नहीं हुआ। पर उस दास्तान तक पहुँचने के पहले आपको ये बताना चाहता हूँ कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी से गायब इस लड़की पर एक लंबी सी कविता लिखी जिसे महेंद्र कपूर से लेकर हंस राज हंस जैसे गायकों ने अपनी आवाज़ से सँवारा। तो आइए आज कोशिश करते हैं बटालबी की इस सहज सी कविता को हिंदी में समझने की.

सूरत उसदी परियाँ  वरगीसीरत दी ओ.. मरियम लगदी
हसदी है ताँ फुल्ल झड़दे ने
तुरदी है ताँ ग़ज़ल है लगदी
लम्म सलम्मी सरू दे  क़द दी
उम्र अजे है मर के अग्ग दी
पर नैणा दी गल्ल समझ दी
इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत
गुम है गुम है गुम है...

इक लड़की जिसका नाम मोहब्बत था, वो गुम है, गुम है , गुम है। सादी सी, प्यारी सी वो लड़की गुम है। उसका चेहरा परियों जैसा था और हृदय मरियम सा पवित्र। वो हँसती तो लगता जैसे फूल झड़ रहे हों और चलती तो लगता जैसे एक ग़ज़ल ही मुकम्मल  हो गई हो। लंबाई ऐसी की सरू के पेड़ को भी मात दे दे। जवानी तो जैसे उसके अभी उतरी थी पर आंखों की भाषा वो खूब समझती थी। पर वो आज नहीं है। कहीं नहीं है।

गुमियां जन्म जन्म हन ओए, पर लगदै ज्यों कल दी गल्ल है
इयों लगदै ज्यों अज्ज दी गल्ल है, इयों लगदै ज्यों हुण दी गल्ल है
हुणे ता मेरे कोल खड़ी सी, हुणे ता मेरे कोल नहीं है
इह की छल है इह केही भटकण, सोच मेरी हैरान बड़ी है

नज़र मेरी हर ओंदे जांदे,
चेहरे दा रंग फोल रही है, ओस कुड़ी नूं टोल रही है
इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत, गुम है गुम है गुम है

सालों साल बीत गए उसे देखे हुए पर लगता है जैसे कल की ही बात हो।  कभी कभी तो  लगता  है जैसे शायद आज की ही या अभी की बात हो । वो तो मेरे बगल में ही खड़ी थी। अरे, पर अभी तो वो नहीं है। ये कैसा छल है ये कैसी चाल है? मैं हैरान हूँ, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। मेरी आँखें हर गुजरने वालों को टोहती हैं। मैं हर चेहरे की रंगत पढ़ने की कोशिश करता हूँ, शायद उन्हीं में वो हसीं भी दिख जाए पर वो तो नामालूम कहाँ गुम है।

सांझ ढले बाज़ारां दे जद, मोड़ां ते ख़ुशबू उगदी है
वेहल थकावट बेचैनी जद, चौराहियां ते आ जुड़दी है
रौले लिप्पी तनहाई विच
ओस कुड़ी दी थुड़ खांदी है, ओस कुड़ी दी थुड़ दिसदी है
इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत, गुम है गुम है गुम है


जब बाजार पर सांझ की लाली पसरती है। जब इत्र की खुशबू से बाजार का कोना कोना मदहोश हो जाता है। जब बेचैनी और थकान फुर्सत के उन पलों से मिलते हैं उसकी यादें मुझे काटने को दौड़ती हैं। हर दिन हर पल मुझे ऐसा लगता है कि इस भीड़ के बीच से, इन खुशबुओं के बीच से वो मुझे आवाज़ देगी। वो मुझे दिखती है और फिर गुम हो जाती है... ..
 
ना ये लंबी कविता खत्म हुई है ना बटालवी की कहानी। पर आज यहीं विराम लेना होगा। तो चलने के पहले आपको सुनवाते हैं फिल्म उड़ता पंजाब का ये नग्मा जिसमें बटालवी के इस गीत के शुरुआती हिस्से का बड़ी ख़ूबसूरती  से प्रयोग किया है संगीतकार अमित त्रिवेदी ने। आवाज़ है दिलजीत दोसांझ   की



उस गुम हुई लड़की के पीछे बँधी उनके जीवन की डोर कैसे पतली होती हुई टूट गई जानने के लिए पढ़ें इस आलेख की अगली कड़ी...
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15 टिप्पणियाँ:

निशांत मिश्र - Nishant Mishra on मई 17, 2016 ने कहा…

मुझे पंजाबी गीत/गाने पसंद नहीं आते थे लेकिन रब्बी शेरगील का गाया "एक कुड़ी" मैंने लगभग 10 साल पहले सुना और इसने मुझे पंजाबी का मुरीद बना दिया.

Manish Kumar on मई 17, 2016 ने कहा…

हर भाषा की अपनी एक अलग मिठास होती है। और फिर धुन और गायिकी का साथ मिल जाए तो सोने पे सुहागा। बटालवी साहब की आवाज़ में भी है ये नग्मा। अगली बार उसे भी शेयर करूँगा।

Pallavi Trivedi on मई 17, 2016 ने कहा…

अच्छी पोस्ट

Anil Kumar Saharan on मई 17, 2016 ने कहा…

thanks a lot manish ji once again excellent post

Sonroopa Vishal on मई 17, 2016 ने कहा…

बहुत अच्छी पोस्ट !

Manish Kumar on मई 17, 2016 ने कहा…

पल्लवी, सोनरूपा व अनिल ये आलेख आप सब को पसंद आया जानकर प्रसन्नता हुई।

प्रकाश सिंह अर्श on मई 17, 2016 ने कहा…

Post Jaari rakhen

Manish Kumar on मई 17, 2016 ने कहा…

हाँ, अभी तो बटालवी की जीवन गाथाऔर गीत दोनों ही पूरे होनें बाकी हैं।

AlokTheLight on मई 17, 2016 ने कहा…

Too good article Manish ji. This version of 'Ek Kudi' is also good but no match to the amazing recitation by Batalavi ji in his own voice. Still I can't forget "Ek Kudi' as well as 'Ki poochde ho haal faqeeraan da' in his original heart piercing voice.

Manish Kumar on मई 19, 2016 ने कहा…

बटालवी साहब की आवाज़ में मैंने इसे सुना है और उसे इस आलेख करने की अगली कड़ी में शेयर करने का इरादा था।

SeemaSingh on मई 25, 2016 ने कहा…

आहा ! बहुत सुंदर , पंजाबी बहुत कम सुना है पर जो भी सुना सब लाजवाब ! ये भी उसी श्रेणी में है अगली कड़ी का इंतजार रहेगा मनीष जी

देवयशो on अप्रैल 02, 2017 ने कहा…

एक बेहतरीन लेख।

Manish Kumar on मई 06, 2018 ने कहा…

सीमा जी और यशोदेव राय जी देर से ही सही पसंद करने के लिए आभार !

Disha on जुलाई 24, 2019 ने कहा…

उफ़...वाह सर।
प्रणाम आपको🙏

Manish Kumar on जुलाई 24, 2019 ने कहा…

पसंद करने के लिए शुक्रिया दिशा !

 

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