जगजीत सिंह के संगीत निर्देशन में कई गीत ऐसे बने जिसमें गायक के तौर पर जगजीत सिंह ने अपनी और चित्रा जी की आवाज़ का इस्तेमाल नहीं किया। सुरेश वाडकर, भूपेन हजारिका, विनोद सहगल, घनशाम वासवानी से लेकर शोभा गुर्टू और आशा भोसले जैसे पार्श्व गायक उनके गीतों की आवाज़ बने। इनमें कुछ गीत ऐसे हैं जो फिल्मों के ना चलने की वज़ह से अनमोल मोती की तरह सागर की गहराइयों में डूबे रहे।
ऐसा ही एक गीत आपके लिए लाया हूँ फिल्म सितम का जो 1984 में रिलीज़ हुई थी। इस गीत को लिखने वाले कोई और नहीं बल्कि हम सब के प्रिय गीतकार गुलज़ार थे। जगजीत और गुलज़ार ने जब भी साथ काम किया नतीजा शानदार ही रहा है। आप उनके साझा एलबम "मरासिम" या "कोई बात चले" को सुनें या फिर मिर्जा गालिब धारावाहिक जिसे गुलज़ार ने निर्देशित किया था, उसमें जगजीत का काम देखें। ग़ज़ब की केमिस्ट्री थी इनके बीच। सच तो ये है कि नब्बे के दशक में जगजीत फिल्म संगीत के पटल से गायब हुए पर 2002 में लीला में गुलज़ार के लिखे गीतों में अपने संगीत से फिर जान फूँकने में सफल हुए।
आपको जानकर ताज्जुब होगा कि जब मुंबई में जगजीत फिल्मों में पार्श्व गायक बनने के लिए संघर्ष कर रहे थे तो संगीत के मर्मज्ञ समझे जाने वाले ओम सेगान ने जगजीत की मुलाकात गुलज़ार से कराई थी और उनकी गुलज़ार से अपेक्षा थी कि शायद वे जगजीत को फिल्मों में काम दिलवा सकते हैं। तब गुलज़ार ख़ुद बतौर गीतकार अपनी जड़े ज़माने में लगे थे। वे जगजीत की आवाज़ से प्रभावित तो थे पर उनके मन में जरूर कहीं ना कहीं ये बात थी कि उनकी आवाज़ फिल्मों के लिए नहीं बनी और इसलिए उन्होंने जगजीत के लिए तब किसी से सिफारिश भी नहीं की़। बाद में इन दोनों महारथियों ने साथ काम किया और क्या खूब किया।
फिल्म सितम का ये गीत जितना जगजीत का है उतना ही आशा जी और गुलज़ार का भी। मैंने सितम नहीं देखी थी पर इस गीत पर लिखने के पहले उसे देखना जरूरी समझा। अपने समय से आगे की कहानी थी सितम की, फुटबाल के खिलाड़ियों से जुड़ी हुई। एक मैच के दौरान गोल किक बचाते हुए सिर पर चोट लगने से गोलकीपर की मौत हो जाती है और उसकी पत्नी गहन शोक में गोल किक लगाने वाले को इतना भला बुरा कहती है कि वो अपने आप को पूरी तरह अपराधी मान कर गहरे अवसाद में चला जाता है। स्थिति तब जटिल हो जाती है जब डाक्टर मृतक खिलाड़ी की पत्नी से ही अनुरोध करते हैं कि वो उसे समझाये कि गलती उसकी नहीं थी। उनका मानना है कि नायिका की कोशिश से ही वो ग्लानि मुक्त होकर सामान्य ज़िंदगी में लौट सकता है।
पति की मौत से आहत एक स्त्री के लिए उसकी मौत का कारण बने मरीज को मानसिक रूप से उबारने का कार्य सोचकर ही कितना कष्टकर लगता है। नायिका फिर भी वो करती है जो डाक्टर कहते हैं क्यूँकि उसे भी अहसास है कि मरीज की इस हालत के लिए वो भी कुछ हद तक जिम्मेदार है।
गुलज़ार ने मरीज को सुलाती नायिका के जीवन के नैराश्य को गीत के बोलों में व्यक्त करने की कोशिश की है। गीत में आँखों के बुझ जाने से उनका तात्पर्य किसी के जीवन से अनायास निकल जाने से है। उसके बाद भी तो ज़िंदगी जीनी पड़ती ही है वो कहाँ बुझती है? उसका तो कोई ठिकाना भी नहीं कब किस करवट बैठे? कब कैसी कठिन परीक्षा ले ले? अब देखिए ना जिस शख़्स के कारण पति दूसरी दुनिया का वासी हो गया उसी की तीमारदारी का दायित्व वहन करना है नायिका को अपने ख़्वाबों की चिता पर।
इसीलिए गुलज़ार लिखते हैं..आँखे बुझ जाती हैं ये देखा है, ज़िंदगी रुकती नहीं बुझती नहीं.. ख्वाब चुभते हैं बहुत आँखों में,नींद जागो तो कभी चुभती नहीं।।।डर सा रहता है ज़िंदगी का सदा, क्या पता कब कहाँ से वार करे,आँसू ठहरे हैं आ के आँखों में नींद से कह दो इंतज़ार करे।
इसीलिए गुलज़ार लिखते हैं..आँखे बुझ जाती हैं ये देखा है, ज़िंदगी रुकती नहीं बुझती नहीं.. ख्वाब चुभते हैं बहुत आँखों में,नींद जागो तो कभी चुभती नहीं।।।डर सा रहता है ज़िंदगी का सदा, क्या पता कब कहाँ से वार करे,आँसू ठहरे हैं आ के आँखों में नींद से कह दो इंतज़ार करे।
मुखड़े और अंतरे में गुलज़ार के गहरे बोलों के पीछे जगजीत जी का शांत संगीत बहता है और इंटरल्यूड्स में फिर उभर कर आता है। आशा जी की आवाज़ गीत के दर्द को आत्मसात किए सी चलती है। तो आइए सुनते हैं इस गीत को जो कि फिल्म में स्मिता पाटिल और विक्रम पर फिल्माया गया है
सारा दिन जागे तो बेजान सी हो जाती हैं
साँस लेती हुई आँखों को ज़रा सोने दो
साँस लेती हुई आँखें अक्सर
बोलती रहती है गूँगी बातें
सारा दिन चुनती हूँ सूखे पत्ते
रात भर काटी है सूखी रातें
आँखे बुझ जाती हैं ये देखा है
ज़िंदगी रुकती नहीं बुझती नहीं
ख्वाब चुभते हैं बहुत आँखों में
नींद जागो तो कभी चुभती नहीं
डर सा रहता है ज़िंदगी का सदा
क्या पता कब कहाँ से वार करे
आँसू ठहरे हैं आ के आँखों में
नींद से कह दो इंतज़ार करे