लोकगीतों की एक अलग ही मिठास होती है क्यूँकि उसके बोल जनमानस के बीच से निकलते हैं। उनमें अपने घर आँगन, रीति रिवाज़, आबो हवा की एक खुशबू होती है। उसके बोलों में आप उस इलाके के जीवन की झलक भी सहजता से महसूस कर पाते हैं। यही वज़ह है कि ऐसे गीत पीढ़ी दर पीढ़ी उत्सवों या बैठकी में गाए गुनगुनाते जाते रहे हैं। ऐसा ही एक लोकगीत जिसे आज आपके सामने पेश कर रहा हूँ वो करीब सौ साल पहले रचा गया और देखिए आज इतने साल बाद भी इंस्टाग्राम पर धूम मचा रहा है।
ऐसा कहते हैं कि इस गीत को मूलतः पाकिस्तान के ख़ैबर पख्तूनवा राज्य के डेरा इस्माइल खाँ कस्बे से किसी पोखरी बाई बात्रा ने लिखा था। डेरा इस्माइल खाँ में उस वक्त साराइकी भाषा बोली जाती थी जो पंजाबी से बहुत हद तक मिलती जुलती है। बाद में वहीं के प्रोफेसर दीनानाथ ने इसे पहली बार संगीतबद्ध किया। आज़ादी मिलने के बाद संगीतकार विनोद ने 1948 में फिल्म चमन में इसे पुष्पा हंस जी से गवाया। देश के बँटवारे के बाद तो दीनानाथ जी दिल्ली चले आए पर ये लोकगीत सरहद के दोनों ओर पंजाब के गाँव कस्बों में गूँजता रहा।। फिर तो सुरिंदर कौर, अताउल्लाह खान से होते हुए हाल फिलहाल में इसके बदले हुए रूपों को आयुष्मान खुराना और अली सेठी जैसे युवा गायकों ने आवाज़ दी है।
पर इन सारे गायकों में जिस तरह से अली सेठी ने अपनी गायिकी और गीत की धुन में से गीत के मूड को पकड़ा है वैसा असर औरों को सुन कर नहीं आ पाता। इस लोकगीत को सुनते हुए आप शब्दों का अर्थ ना समझते हुए भी गीत में अंतर्निहित विरह के स्वरों को दिल में गूँजता पाते हैं। चाँद के माध्यम से अपने प्रेमी को उलाहना देते हुए इस लंबे लोकगीत के सिर्फ दो अंतरे ही अली सेठी ने इस्तेमाल किए हैं पर वही काफी हैं आपका दिल जीतने के लिए
सराइकी में इस तरह के लोकगीत को दोहरा या दोडा कहा जाता है। इसकी दो पंक्तियों के अंतरों में जो पहली पंक्ति होती है वो सिर्फ रिदम बनाने का काम करती है और अर्थ के संदर्भ में उसका दूसरी से कोई संबंध नहीं होता। चलिए इस गीत के बोलों के साथ का अर्थ आपको बता दूँ ताकि सुनने वक्त भाव और स्पष्ट हो जाए।
इस गीत को पुष्पा हंस और उसके बाद सुरिंदर कौर ने एक अलग अंदाज़ में गाया था। सुरिंदर कौर को भी सुन लीजिए..
9 टिप्पणियाँ:
दिन बना दिया मनीष!
सुरिन्दर कौर की आवाज़ तो पता नहीं क्या ही जादू करती है। और सुनती हूँ अली सेठी को।
शुक्रिया अनुलता जी मैंने सुरिंदर कौर जी को इस लोकगीत की खोज़ खबर लेते हुए पहली बार सुना। गाया तो उन्होंने भी खूब है। पर अली सेठी वाले वर्सन में एक ठहराव है जो विरह की पीड़ा को थोड़ा और उभारता है।
अलग-2 गायकों-वादकों के वर्जन में किसी गीत-संगीत की रचना को सुनना सदैव भिन्न किस्म का आनंद प्रदान करता है. अच्छे संगीत का आनंद लेने के लिए अच्छे ऑ़़डियो गियर चाहिए. कभी उस पर भी लिखें.
हां हर गीत का अपना मिजाज़ होता है और हम जिस मूड में उस वक्त रहना चाहते हैं उसी के हिसाब से हमारी पसंद तय होती है।
मैंने तो संगीत रेडियो, टेप रिकॉर्डर, टू इन वन और फिर सामान्य से स्पीकरों में ही सुना और आत्मसात किया है। आजकल भांति भांति के उत्कृष्ट स्पीकर व हेडफोन बाजार में जरूर हैं पर मुझे उनके उपयोग का इतना अनुभव नहीं है कि बतौर विशेषज्ञ कोई सलाह दे सकूं।🙂
इस गीत को सुनकर एक गीत याद आया,साडी रात तेरा तकनिया राह तारेयां नु पुच्छ चन वे।
वाह !😊 आपने जिस गीत का जिक्र किया वो भी इस गीत की तरह फिल्म चमन (1948) में शामिल था। इन दोनों गीतों को संगीतकार विनोद ने संगीतबद्ध किया था और उसे गाया था पुष्पा चोपड़ा ने जो बाद में पुष्पा हंस के नाम से जानी गईं।
सही कहा आपने लोकगीतों की अलग मिठास होती है बस इनके अर्थ समझ में आने चाहिए 🙂
दोनों ही वर्जन एक दूसरे से बहुत अलग है और दोनों ही खूबसूरत हैं अली सेठी की आवाज में ठहराव और गहराई है इसलिए उनका गाया हर गाना बिल्कुल अलग लगता है मुझे उनका "गुलों में रंग भरे" और "चांदनी रात" भी बहुत पसंद है
Swati Gupta मैंने सबसे पहले उनका चांदनी रात ही सुना था। फिर उनके गाए बाकी गीतों को खोजते हुए इस गीत तक पहुंचा था।
हार्वर्ड और कैम्ब्रिज से नाता रखने वाले अली सेठी साउथ एशिया की कल्चर और मिजाज को समझने वाली नई पीढ़ी के प्रतिभाशाली गायक हैं। वे राजनीतिक सरहदों की बंदिशों को तोड़ते हुए हम सबका प्यार हासिल कर रहे हैं। बेचैनी, अविश्वास और कट्टरता के माहौल में उनकी आवाज एक तसल्लीबख्स सुकून की चाह पैदा करते हुए हमें साझे रास्ते पर धकेल देती है। सरहदों के पार भी हम सभी एक जैसे ही हैं।
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