ज़रा सोचिए एक ऐसे संगीतकार के बारे में जिसने हिंदी फिल्मों में बीस से भी कम गाने गाए हों पर उसके हर दूसरे गाए गीत में से एक कालजयी साबित हुआ हो। जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ पंचम के पिता और त्रिपुरा के राजसी ख़ानदान से ताल्लुक रखने वाले सचिन देव बर्मन की। सचिन दा के संगीतबद्ध गीतों से कहीं पहले उनकी आवाज़ का मैं कायल हुआ था। जब जब रेडियो पर उनकी आवाज़ सुनी उनके गाए शब्दों की दार्शनिकता और दर्द में अपने आपको डूबता पाया। बहुत दिनों से सोच रहा था कि सचिन दा के गाए गीतों के बारे में एक सिलसिला चलाया जाए जिसमें बातों का के्द्रबिंदु में उनके संगीत के साथ साथ उनकी बेमिसाल गायिकी भी हो।
इस श्रंखला में मैंने उनके उन पाँच गीतों का चयन किया है जो मेरे सर्वाधिक प्रिय रहे हैं। तो आज इस श्रंखला की शुरुआत बंदिनी के गीत 'ओ रे माँझी, ओ रे माँझी, ओ मेरे माँझी...मेरे साजन हैं उस पार' से जो कहानी के निर्णायक मोड़ पर फिल्म समाप्त होने की ठीक पूर्व आता है। बंदिनी छुटपन में तब देखी थी जब दूरदर्शन श्वेत श्याम हुआ करता था। सच कहूँ तो आज फिल्म की कहानी भी ठीक से याद नहीं पर इस गीत और इसका हर एक शब्द दिमाग के कोने कोने में नक़्श है। कोरी भावुकता कह लीजिए या कुछ और, जब भी स्कूल और कॉलेज के ज़माने में इस गीत को सुनता था तो दिल इस क़दर बोझिल हो जाता कि मन अकेले कमरे में आँसू बहाने को करता। क्या बोल लिखे थे शैलेंद्र ने
मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना..
गुण तो न था कोई भी.. अवगुण मेरे भुला देना।
नदी के जल से धुले सीधे सच्चे शब्द जो सचिन दा की आवाज़ के जादू से दिल में भावनाओं का सैलाब ले आते।
इस गीत को सुनते हुए क्या आपके मन में ये प्रश्न नहीं उठता कि एक नाविक द्वारा गाए जाने वाले गीतों को त्रिपुरा का ये राजकुमार अपनी गायिकी में इतनी अच्छी तरह कैसे समाहित कर पाया?
दरअसल असम, पश्चिम बंगाल, बाँग्लादेश से बहती ब्रह्मपुत्र नदी अपने चौड़े पाटों के बीच लोकसंगीत की एक अद्भुत धारा को पोषित पल्लवित करती है जिसे लोग भाटियाली लोक संगीत के नाम से जानते हैं। अविभाजित भारत में त्रिपुरा और आज का बाँग्लादेश का इलाका एक ही रियासत का हिस्सा रहे थे। 1922 में इंटर पास करने के बाद सचिन दा बीए करने के लिए कलकत्ता जाना चाहते थे पर उनके पिता ने उन्हें कोमिला बुला लिया। सत्तर के दशक में लोकप्रिय हिंदी पत्रिका धर्मयुग में दिए साक्षात्कार में सचिन देव बर्मन ने अपने उन दिनों के संस्मरण को बाँटते हुए लिखा था...
सो किशोरावस्था में अपने आस पास के संगीत से जुड़ने की वज़ह से सचिन दा के गले में जो सरस्वती विराजमान हुईं उसका रसपान कर आज कई दशकों बाद भी संगीतप्रेमी उसी तरह आनंदित हो रहे हैं जैसा पचास साठ साल पहले उन फिल्मों के प्रदर्शित होने पर हुए थे। तो आइए सचिन दा की करिश्माई आवाज़ के जादू में एक बार और डूबते हैं बंदिनी के इस अमर गीत के साथ...
इस श्रंखला में मैंने उनके उन पाँच गीतों का चयन किया है जो मेरे सर्वाधिक प्रिय रहे हैं। तो आज इस श्रंखला की शुरुआत बंदिनी के गीत 'ओ रे माँझी, ओ रे माँझी, ओ मेरे माँझी...मेरे साजन हैं उस पार' से जो कहानी के निर्णायक मोड़ पर फिल्म समाप्त होने की ठीक पूर्व आता है। बंदिनी छुटपन में तब देखी थी जब दूरदर्शन श्वेत श्याम हुआ करता था। सच कहूँ तो आज फिल्म की कहानी भी ठीक से याद नहीं पर इस गीत और इसका हर एक शब्द दिमाग के कोने कोने में नक़्श है। कोरी भावुकता कह लीजिए या कुछ और, जब भी स्कूल और कॉलेज के ज़माने में इस गीत को सुनता था तो दिल इस क़दर बोझिल हो जाता कि मन अकेले कमरे में आँसू बहाने को करता। क्या बोल लिखे थे शैलेंद्र ने
मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना..
गुण तो न था कोई भी.. अवगुण मेरे भुला देना।
नदी के जल से धुले सीधे सच्चे शब्द जो सचिन दा की आवाज़ के जादू से दिल में भावनाओं का सैलाब ले आते।
इस गीत को सुनते हुए क्या आपके मन में ये प्रश्न नहीं उठता कि एक नाविक द्वारा गाए जाने वाले गीतों को त्रिपुरा का ये राजकुमार अपनी गायिकी में इतनी अच्छी तरह कैसे समाहित कर पाया?
दरअसल असम, पश्चिम बंगाल, बाँग्लादेश से बहती ब्रह्मपुत्र नदी अपने चौड़े पाटों के बीच लोकसंगीत की एक अद्भुत धारा को पोषित पल्लवित करती है जिसे लोग भाटियाली लोक संगीत के नाम से जानते हैं। अविभाजित भारत में त्रिपुरा और आज का बाँग्लादेश का इलाका एक ही रियासत का हिस्सा रहे थे। 1922 में इंटर पास करने के बाद सचिन दा बीए करने के लिए कलकत्ता जाना चाहते थे पर उनके पिता ने उन्हें कोमिला बुला लिया। सत्तर के दशक में लोकप्रिय हिंदी पत्रिका धर्मयुग में दिए साक्षात्कार में सचिन देव बर्मन ने अपने उन दिनों के संस्मरण को बाँटते हुए लिखा था...
"जब एक वर्ष तक मैं पिताजी के पास रहा तब मैंने आसपास का सारा क्षेत्र घूम डाला। मैं मल्लाहों और कोलियों के बीच घूमता और उनसे लोकगीतों के बारे में जानकारी एकत्र करता जाता। मैं वैष्णव और फकीरों के बीच बैठता, उनसे गाने सुनता, उनके साथ हुक्का पीता। उन्हें पता भी नहीं चल पाया कि मैं एक राजकुमार हूँ। सारे नदी नाले जंगल तालाब मेरी पहचान के हो गए। उन दिनों मैंने इतने सारे गीत इकठ्ठा कर डाले कि मैं आज तक उनका उपयोग करता आ रहा हूँ पर भंडार कम ही नहीं होता। चालीस पचास वर्ष पूर्व के गीत आज भी मेरे गले से उसी सहजता से निकलते हैं।"
सो किशोरावस्था में अपने आस पास के संगीत से जुड़ने की वज़ह से सचिन दा के गले में जो सरस्वती विराजमान हुईं उसका रसपान कर आज कई दशकों बाद भी संगीतप्रेमी उसी तरह आनंदित हो रहे हैं जैसा पचास साठ साल पहले उन फिल्मों के प्रदर्शित होने पर हुए थे। तो आइए सचिन दा की करिश्माई आवाज़ के जादू में एक बार और डूबते हैं बंदिनी के इस अमर गीत के साथ...
ओ रे माँझी, ओ रे माँझी, ओ मेरे माँझी,
मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार हूँ इस पार
ओ मेरे माँझी अब की बार, ले चल पार, ले चल पार
मेरे साजन हैं उस पार..
मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना
गुण तो न था कोई भी अवगुण मेरे भुला देना
मुझे आज की विदा का, मर के भी रहता इंतज़ार
मेरे साजन हैं उस पार..
मत खेल जल जाएगी, कहती है आग मेरे मन की
मैं बंदिनी पिया की, मैं संगिनी हूँ साजन की
मेरा खींचती है आँचल, मनमीत तेरी, हर पुकार
मेरे साजन..ओ रे माँझी...
विमल राय ने इस गीत को जिस खूबसूरती से पर्दे पर उतारा था वो भी देखने के क़ाबिल है। अगर सचिन दा के गाए इस गीत के संगीत पक्ष की ओर ध्यान दें तो पाएँगे कि पूरे गीत में बाँसुरी की मधुर तान तबले की संगत के साथ चलती रहती है। गीत की परिस्थिति के अनुसार स्टीमर के हार्न और ट्रेन की सीटी को गीत में इतने सटीक ढंग से डाला गया है कि अपने साजन से बिछुड़ रही नायिका के मन में उठ रहा झंझावात जीवंत हो उठता है।
सचिन दा की गायिकी से जुड़ी इस श्रंखला की अगली कड़ी में चर्चा होगी उनके गाए एक और बेमिसाल गीत की...
सचिन दा की गायिकी से जुड़ी इस श्रंखला की सारी कड़ियाँ...
